26-12-2012, 09:15 PM | #11 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !! दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !! |
26-12-2012, 09:32 PM | #12 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
“चलो, पढ़ो।”
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल... आ से आम...” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?” “यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !” “पापा, हम भी अनाल खायेंगे...” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।” सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिए, सेब। सेब ! और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए। “बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...” “पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...” बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था। बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”[size="4"][/size]
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26-12-2012, 09:43 PM | #13 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
मेलबर्न में ऑस्ट्रेलिया के साथ खेलते हुए श्रीलंका के कुमार संगकारा ने टेस्ट में 10 हजार रन पूरे किए।
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26-12-2012, 09:47 PM | #14 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
कोहरे की चपेट में उत्तर भारत
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27-12-2012, 04:42 AM | #15 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो, तो हर बात सुनी जाती है
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27-12-2012, 07:53 AM | #16 | |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
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achchha hai |
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27-12-2012, 07:59 AM | #17 | |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
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27-12-2012, 09:08 AM | #18 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
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27-12-2012, 09:42 AM | #19 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
चीन में दुनिया का सबसे लंबा हाईस्पीड रेल नेटवर्क
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27-12-2012, 05:21 PM | #20 |
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Re: कुछ अपनी कुछ जग की
मुँह पर तमाचा
प्रायः कई लोग (मैं भी) शिक्षकों को कहते रहते हैं कि उन्हें ऐसा होना चाहिए, उन्हें वैसा होना चाहिए....इत्यादि। एक दिन एकलव्य स्कूल की एक टीचर से मैंने कहा कि मैं स्वयं कुछ कक्षायें लूंगा और बताऊंगा कि कैसे पढ़ाया जाता है। कक्षा 7 (या शायद कक्षा 8 की, मुझे ठीक से याद नहीं) की अंग्रेजी पुस्तक में डी.एच.लॉरेंस की कविता “द मॉसक्वीटो “ है। लॉरेंस मेरे पसंदीदा कवि हैं इसलिए मैंने सोचा कि पहले मैं ओवरहैड प्रोजैक्टर पर लॉरेंस का विस्तृत परिचय दूंगा। मैंने सोचा कि मैं उनके प्रारंभिक जीवन के बारे में बताऊंगा कि वे कितने गरीब थे और किस तरह गर्मी से भरे किचन में ही सोया करते थे (मैंने नाटिंघम, इंग्लैड स्थित डी.एच.एल. का वह घर देखा है जहां वे बड़े हुए थे।) मैंने सोचा कि मैं विद्यार्थियों को यह बताऊंगा कि किस तरह डी.एच.एल. अपने प्रोफेसर की पत्नी के प्रेम में पड़कर इटली या जर्मनी भाग गए थे, जहाँ उनके द्वारा सर्वश्रेष्ठ साहित्य की रचना की गयी। (मेरा यह सोचना था कि लोगों को यह विचार बेहद पसंद आएगा।) स्कूल टीचर ने जून में (जब शैक्षणिक सत्र प्रारंभ हुआ।) मुझे बताया कि पाठ्यक्रम के अनुसार वह कविता मध्य सितंबर में पढ़ायी जानी है। मेरे पास काफी क्त था इसलिए मैंने अच्छी तरह से तैयारी की और आकर्षक प्रस्तुतियां तैयार कीं। मैंने सितंबर आने का इंतजार किया। टीचर ने मुझे बताया कि उन्होंने इस कक्षा के दो पीरियड लिए जाने की योजना बनायी है। मैंने उनसे कहा कि दो अलग-अलग पीरियड की जगह एक सम्मिलित पीरियड आयोजित किया जाए। टीचर ने मेरी बात मानकर सम्मिलित पीरियड आयोजित किया (लेकिन इसके कारण कक्षाओं की समय-सारणी में व्यापक परिवर्तन करने पड़े। इसके बाद मैंने निर्णय लिया कि यह सभी के लिए कष्टदायी होता है और भविष्य में ऐसे सम्मिलित पीरियड आयोजित करने की आवश्यकता नहीं है।) मैंने अपनी कक्षा प्रारंभ की। यह कक्षा 8ए और 8बी की सम्मिलित कक्षा थी अतः मुझे एक ही विषय दो बार पढ़ाने की आवश्यकता नहीं थी। छात्र उत्तेजित थे कि सुनील सर स्वयं पढ़ाने आ रहे हैं। मेरे लिए भी यह अनूठा अनुभव था जिससे मेरे बचपन की वे यादें ताजा हो गयीं जब मैंने अपने अंग्रेजी टीचर एस.डब्ल्यु. चंद्रशेखर से यह कविता पढ़ी थी (1971 में हैदराबाद पब्लिक स्कूल में)। मैंने छात्रों में डी.एच.एल. को लेकर उत्सुकता जागृत कर दी (उन दिनों डी.एच.एल. नामक कोरियर कंपनी अपने जंबो बॉक्स का खूब विज्ञापन कर रही थी, जिससे जब भी मैं डी.एच.एल. का नाम लेता, छात्रों को उनका नाम सुनकर हंसी-ठिठोली करने का अवसर प्राप्त होता।) इन सभी प्रस्तावनाओं के बाद मैंने सोचा कि अब सभी छात्र कविता पढ़ाये जाने के लिए पूरी तरह तैयार हैं अतः मैंने कक्षा में मौजूद छात्रों से कविता की पहली दो पंक्तियां पढ़ने के लिए कहा। कविता पढ़ने के लिए उठे हाथों में से मैंने एक छात्र का चयन किया जिसने पूरी गंभीरता से उस कविता की पहली दो पंक्तियां पढ़कर सुनायीं और बैठ गया। अब उस बेहतरीन और अविस्मरणीय कविता का सार समझाने की मेरी बारी थी! तभी घंटी बज गयी! मैंने समय तो खर्च किया परंतु अपना कार्य पूरा नहीं कर पाया (सच कहें तो मैंने अभी शुरू ही किया था)। यह मेरे मुंह पर करारा तमाचा था। ऐसे सभी लोग जो हर समय टीचरों को यह कहते रहते हैं कि उन्हें कैसे पढ़ाना चाहिए और कैसे नहीं, क्या करना चाहिए और क्या नहीं...........अब ऐसे लोगों के बारे में मैं क्या कहूं? यह जाहिर ही है, है ना? (सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित
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