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Old 03-02-2013, 07:06 PM   #11
jai_bhardwaj
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गए दिनों, एक के बाद एक, तीन शव यात्राओं (अन्तिम यात्राओं) में शामिल हुआ। चूँकि तीनों अवसर, एक के बाद एक, लगातार आए शायद इसीलिए दो-एक बातें अधिक प्रभाव से अनुभव हुईं। इस अनुभूति के साथ ही साथ याद आया कि ये सारी बातें पहले भी, शव यात्रा में शामिल होते हुए हर बार ही अनुभव तो हुईं थी किन्तु जिस सहजता से अनुभव हुई थीं, उसी सहजता से विस्मृत भी हो गईं। इस बार याद रहीं तो केवल इसीलिए कि एक के बाद एक लगातार तीन प्रसंग ऐसे आ गए।

पहली बात तो यह अनुभव हुई कि अब समयबद्धता पर अधिक चिन्ता, सजगता और गम्भीरता से ध्यान दिया जाने लगा है। याद आ रहा है कि अधिकांश मामलों में, मृतक के परिजनों ने ही समयबद्धता को लेकर स्वतः चिन्ता जताई। कभी-कभार जब ऐसा हुआ कि बाहर से आनेवाले की प्रतीक्षा में, घोषित समय से विलम्ब होने लगा तो शोक संतप्त परिजनों के चेहरे पर क्षमा-याचना के भाव उभरने लगे।

एक बड़ा अन्तर जो मैंने अनुभव किया वह यह कि पहले शव को ‘तैयार’ करने में परिजन सामान्यतः दूर ही रहते थे। ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाला मुहावरा मैंने बचपन में खूब सुना था और उस पर उतना ही प्रभावी अमल भी देखा था। किन्तु अब यह मुहावरा अपना अर्थ और प्रभाव खोता हुआ नजर आ रहा है। ‘अन्तिम यात्रा’ के लिए शव को ‘तैयार’ करने में परिजनों की भागीदारी लगातार बढ़ती नजर आ रही है। शुरु-शुरु में तो मुझे यह अटपटा लगा था किन्तु अब लग रहा है कि स्थितिजन्य विवशता के अधीन ऐसा करना पड़ रहा होगा। हमारी आर्थिक नीतियों ने हमारे सामाजिक व्यवहार को किस तरह से प्रभावित और परिवर्तित किया है, यह उसी का नमूना लगता है मुझे। हमारी ‘सामाजिकता’ अब प्रसंगों तक सिमटती जा रही है और हम सब भीड़ में अकेले होते जा रहे हैं। गोया, अब हम ‘अकेलों की भीड़’ में बदलते जा रहे हैं। पूँजीवादी विचार आदमी को ‘आत्म केन्द्रित’ होने के नाम ‘स्वार्थी’ (और मुझे कहने दें कि ‘स्वार्थी’ से आगे बढ़कर ‘लालची’) बनाता है। यह सोच हमारे व्यवहार को कब और कैसे प्रभावित करता है, यह हमें पता ही नहीं हो पाता। यह इतना चुपचाप और इतना धीमे होता है कि हम इसे ‘कुदरती बदलाव’ मान बैठते हैं। शायद इसीलिए, ‘मुर्दा तो पंचों का’ वाली भावना तिरोहित होती जा रही है। गाँवों की स्थिति तो मुझे पता नहीं किन्तु शहरों में तो मुझे ऐसा ही लग रहा है।

इन तीनों ही शव यात्राओं की जिस बात ने सबसे पहले और सबसे ज्यादा ध्यानाकर्षित किया वह है - अर्थी को श्मशान तक पहुँचानेवालों की संख्या में कमी। तीनों मामलों में मैंने देखा कि घर पर जितने लोग एकत्र थे, उसके एक चौथाई लोग ही अर्थी के साथ श्मशान पहुँचे। शेष तीन चौथाई लोग वाहनों से पहुँचे। इनमें से अभी अधिकांश लोग शव के श्मशान पहुँचने से पहले पहुँचे। तीनों ही मामलों में मैं भी इन्हीं ‘अधिकांश लोगों’ में शामिल था। एक समय था जब मैं, नंगे पाँवों, अर्थी को लगातार कन्धा देते हुए, श्मशान तक जाया करता था। किन्तु गए कुछ बरसों से अब केवल अर्थी के उठने के तत्काल बाद, जल्दी से जल्दी, कुछ देर के लिए कन्धा देते हुए, सौ-दो सौ कदम चलता हूँ। तब तक कोई न कोई मेरी जगह लेने के लिए आ ही जाता है और मैं अर्थी छोड़ कर, अपनी चाल धीमी कर, जल्दी ही शव यात्रा के अन्तिम छोर पर आ जाता हूँ और थोड़ी देर रुक कर, अपना स्कूटर लेकर श्मशान के लिए चल देता हूँ। ऐसा करते समय मैंने हर बार पाया कि मुझ जैसा आचरण करनेवाले लोग बड़ी संख्या में हैं और जो कुछ मैंने किया वही सब, वे लोग जल्दी से जल्दी (यथा सम्भव, सबसे पहले) करके, अपने-अपने वाहन पर सवार हो चुके हैं।

लगातार तीन मामलों में यह देखने के बाद अब याद आ रहा है कि ऐसे में अर्थी ढोने का जिम्मा गिनती के कुछ लोगों पर आ जाता है। अच्छी बात यह है कि गिनती के ऐसे लोगों में अधिकांश वे ही होते हैं जो भावनाओं के अधीन यह काम करते हैं। किन्तु कुछ लोग अनुभव करते हैं (यह अनुभव ऐसे लोगों के सुनाने के बाद ही कह पा रहा हूँ) कि वे ‘फँस’ गए थे और चूँकि कोई ‘रीलीवर’ नहीं आया, इसलिए मजबूरी में कन्धा दिए रहे। ऐसे में ‘दुबले पर दो आषाढ़’ वाली उक्ति तब लागू हो जाती है जब, शव यात्रा का मार्ग विभिन्न कारणों से, अतिरिक्त रूप से लम्बा निर्धारित कर दिया जाता है। कहना न होगा कि भावनाओं के अधीन स्वैच्छिक रूप से करनेवाले हों या ‘फँस’ कर, विवशता में करनेवाले हों, दोनों ही प्रकार के लोग सचमुच में थक कर चूर हो जाते हैं। वे मुँह से तो कुछ नहीं बोलते किन्तु श्मशान पहुँचने के बाद उनकी आँखें सबको काफी-कुछ कहती नजर आती हैं।

ऐसे में मुझे हर बार लगा कि अब शव यात्रा के लिए वाहन का उपयोग अनिवार्यतः किए जाने पर विचार किया जाना चाहिए। हमने अपनी अनेक परम्पराओं में बदलाव किया है। कुछ बदलाव अपनी हैसियत दिखाने के लिए तो कुछ बदलाव स्थितियों के दबाव में स्वीकार किए हैं। शव यात्रा के मामले में हमने यह बदलाव फौरन ही स्वीकार कर लेना चाहिए। मेरा निजी अनुभव है कि जिन-जिन परिवारों ने, शव यात्रा के लिए वाहन प्रयुक्त किया, उन्हें सबने न केवल मुक्त कण्ठ से सराहा अपितु उन्हें धन्यवाद भी दिया - अधिसंख्य लोगों ने मन ही मन, कुछ लोगों ने आपस में बोलकर और कुछ लोगों ने ऐसे परिवारों के लोगों से आमने-सामने। अनेक नगरों में तो एकाधिक लोग ऐसे सामने आए हैं जो शव यात्रा के लिए अपनी ओर से निःशुल्क वाहन व्यवस्था किए बैठे हैं। मुझे याद नहीं आ रहा किन्तु हमारे नगर के एक सज्जन यह काम खुद करते हैं। वाहन भी उनका, ईंधन भी उनका और वाहन चालक भी वे खुद। अधिक महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय बात यह कि यह सब करके वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि इस काम के लिए उन्हें माध्यम बनाया।

ऐसी बातें करने से लोग प्रायः ही बचते हैं। कन्नी काटते हैं। ऐसी बातें करना ‘अच्छा’ नहीं माना जाता। यह अलग बात है कि अधिसंख्य लोग (ताज्जुब नहीं कि ‘सब के सब’) मेरी इन बातों से सहमत हों।
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Old 05-02-2013, 01:24 PM   #12
jai_bhardwaj
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वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!

शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!

सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!

तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।

त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीम् मातरम्।
(साभारः आनन्द मठ् पृ0 60, राजकमल प्रकाशन,संस्करण तृतीय, 1997)

अनुवाद
1.
हे माँ मैं तेरी वन्दना करता हूँ
तेरे अच्छे पानी, अच्छे फलों,
सुगन्धित, शुष्क, उत्तरी समीर (हवा)
हरे-भरे खेतों वाली मेरी माँ।
2.
सुन्दर चाँदनी से प्रकाशित रात वाली,
खिले हुए फूलों और घने वृ़क्षों वाली,
सुमधुर भाषा वाली,
सुख देने वाली वरदायिनी मेरी माँ।
3.
तीस करोड़ कण्ठों की जोशीली आवाज़ें,
साठ करोड़ भुजाओं में तलवारों को
धारण किये हुए
क्या इतनी शक्ति के बाद भी,
हे माँ तू निर्बल है,
तू ही हमारी भुजाओं की शक्ति है,
मैं तेरी पद-वन्दना करता हूँ मेरी माँ।
4.
तू ही मेरा ज्ञान, तू ही मेरा धर्म है,
तू ही मेरा अन्तर्मन, तू ही मेरा लक्ष्य,
तू ही मेरे शरीर का प्राण,
तू ही भुजाओं की शक्ति है,
मन के भीतर तेरा ही सत्य है,
तेरी ही मन मोहिनी मूर्ति
एक-एक मन्दिर में,
5.
तू ही दुर्गा दश सशस्त्र भुजाओं वाली,
तू ही कमला है, कमल के फूलों की बहार,
तू ही ज्ञान गंगा है, परिपूर्ण करने वाली,
मैं तेरा दास हूँ, दासों का भी दास,
दासों के दास का भी दास,
अच्छे पानी अच्छे फलों वाली मेरी माँ,
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
6.
लहलहाते खेतों वाली, पवित्र, मोहिनी,
सुशोभित, शक्तिशालिनी, अजर-अमर
मैं तेरी वन्दना करता हूँ।
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Old 05-02-2013, 02:08 PM   #13
bindujain
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उड़ता उड़ता मैं फिरूं दीवाना,
ख़ुद से, जग से, सब से बेगाना,
ये हवा ये फिजा, ये हवा ये फिजा,
है ये साथी मेरे, हमसफ़र-
है ये साथी मेरे, हमसफ़र-
आवारा दिल .... आवारा दिल....
आवारा दिल....आवारा दिल....

धूप में छाँव में ,
चलूँ सदा झूमता,
और बरसातों में,
फिरता हूँ भीगता,
साहिल की रेत पे बैठ कभी.
आती जाती लहरों को ताकता रहूँ,
मस्त बहारों में लेट कभी,
भंवरों के गीतों की शोखी सुनूँ,
आवारा दिल.....

रास्तों पे बेवजह,
ढूंडू मैं उसका पता,
जाने किस मोड़ पर,
मिले वो सुबह,
पलकों पे सपनों की झालर लिए,
आशा के रंगों में ढलता रहूँ,
जन्मों की चाहत को मन में लिए,
पथिरीली राहों पे चलता चलूँ,
आवारा दिल....
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 09-02-2013, 08:27 PM   #14
jai_bhardwaj
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फैजाबाद के रामभवन में दो वर्ष तक रहे दिवंगत गुमनामी बाबा उर्फ भगवनजी ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। यह दावा सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के सचिव शक्ति सिंह, विधायक अखिलेश सिंह व उनके सहयोगी अनुज धर का है। शुक्रवार को प्रेस क्लब में पत्रकार वार्ता के दौरान इस मामले को लेकर मीडिया के समक्ष कई साक्ष्य प्रस्तुत किए गए और प्रदेश सरकार से अपील की गई कि वह अदालत के आदेश का अनुपालन करते हुए जांच कमेटी गठित करे और तीन माह के भीतर अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपे।

फैजाबाद के रामभवन निवासी शक्ति सिंह की याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने यूपी सरकार को गुमनामी बाबा की पहचान पुष्ट करने के लिए जांच आयोग का गठन करने के लिए विचार करने के निर्देश दिए हैं। शुक्रवार को प्रेस क्लब में मीडिया से मुखातिब होने के दौरान शक्ति सिंह ने बताया कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके घर में भगवनजी के नाम से दो वर्ष तक रहे हैं। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन पर आधारित पुस्तक इंडियाज बिगेस्ट कवर अप के लेखक व भूतपूर्व पत्रकार अनुज धर ने कई ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत किए जिससे साबित होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मौत किसी दुर्घटना में नहीं हुई थी, बल्कि वह पूर्व योजना के तहत रूस चले गए थे। वहां से वह अलग-अलग देशों में आते-जाते रहे। 1955 में वह लखनऊ भी आए थे। यहां वह सिंगार नगर में रुके थे। उसके बाद वह गुमनामी बाबा उर्फ भगवन जी के रूप नीमसार, अयोध्या, बस्ती व फैजाबाद में रहे। सितंबर 1985 को फैजाबाद में वह दिवंगत हुए थे। हाई कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति एमके मुखर्जी आयोग को जांच के दौरान कई महत्वपूर्ण साक्ष्य मिले थे, लेकिन रामभवन से मिले दांतों के डीएनए टेस्ट से सामने आया कि दांत सुभाष चंद्र बोस के नहीं थे।

अनुज धर ने दावा किया कि डीएनए जांच की सरकारी रिपोर्ट मनगढ़ंत है। आयोग व सरकार के पास ऐसे तमाम सुबूत हैं, जिससे साबित हो सकता है कि सुभाष चंद्र बोस ही भगवनजी थे।

भय से गुमनामी में रहे भगवन :

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में गहन अध्ययन करने वाले अनुज धर ने बताया कि साक्ष्यों से साबित होता है कि भगवनजी को भय था कि उनके सामने आते ही कई देश उनके पीछे पड़ जाएंगे। उन्होंने एक पत्र में लिखा है कि मेरा जनता के सामने आना उचित नहीं है। उन्हें विश्वास था कि उन्हें भारत सरकार की सहमति से ही युद्ध अपराधी घोषित किया गया है। उनका यह भी दावा था कि 1947 के सत्ता हस्तांतरण के अभिलेख सार्वजनिक किए जाएंगे तो भारत के लोग जान जाएंगे कि वह अज्ञातवास में जाने पर क्यों विवश हुए थे?

पर्दे के पीछे से बात करते थे भगवन:

फैजाबाद के सुभाष चंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के सचिव शक्ति सिंह ने बताया कि उनके एक दोस्त ने उनसे कहा था कि उसके बाबा बीमार हैं। इसी कारण गुमनामी बाबा को रामभवन में रखा गया था। व्हील चेयर से बाबा को रात में डेढ़ बजे उनके घर लाया गया था। वहां उनसे मिलने सीमित लोग आते थे। कुछ लोग कार से भी देर रात आते थे और सुबह होने से पहले ही चले जाते थे। चिट्ठियां भी आती थीं। गुमनामी बाबा ज्यादातर लोगों से पर्दे के पीछे रहकर बात करते थे। वह किसी के सामने नहीं आते थे। उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी। वह कई भाषाएं जानते थे।

कमेटी गठित कर जांच की मांग :

- यूपी सरकार हाई कोर्ट के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में जांच समिति गठित करे। समिति में जांच एजेंसियों के विशेषज्ञ हों और एक वरिष्ठ पत्रकार को भी शामिल किया जाए।

- निजी विशेषज्ञ से डीएनए जांच कराई जाए और जांच में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के उन पत्रों को शामिल कर लेखन की भी जांच कराई जाए, जिन्हें उन्होंने गुमनामी से पहले और बाद में लिखे थे।

- भगवनजी के हस्तलेख का परीक्षण अमेरिका या ब्रिटेन की किसी प्रतिष्ठित प्रयोगशाला में कराया जाए।
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लोकायुक्त पुलिस की चपेट में आए मुख्य वन संरक्षक बसंत कुमार सिंह के यहां मिले दस्तावेजों से नए-नए खुलासे हो रहे हैं। उनकी काली कमाई का आंकड़ा 75 करोड़ से ज्यादा पहुंच गया है। छानबीन अभी जारी है, जिससे यह आंकड़ा सौ करोड़ तक पहुंचने की संभावना जताई जा रही है।

सीहोर-होशंगाबाद में पोस्टिंग के दौरान वन अधिकारी ने करीब डेढ़ करोड़ रुपये मूल्य की सागौन की लकड़ी भी बेची। बैंक लॉकर से चार लाख का सोना और 17 लाख रुपये की फिक्स डिपाजिट रसीदें बरामद हुई हैं।

भोपाल, वाराणसी, जौनपुर के अलावा उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों में भी संपत्ति होने की जानकारी मिली है। जांच के लिए लोकायुक्त पुलिस की एक टीम लखनऊ और वाराणसी भी भेजी जा रही है। गुरुवार को पुलिस उन्हें लेकर उज्जैन से भोपाल के बैंक में लेकर पहुंची। बैंक लॉकर से सोने की गिन्नियां, एक बिस्कुट और हार-चूड़ी आदि निकले। 13 तोला सोने के इन जेवरों की कीमत करीब चार लाख रुपये आंकी गई है। इनके अलावा लॉकर में 17 लाख रुपये की फिक्स डिपाजिट रसीदें भी बरामद हुई। वाराणसी के एचडीएफसी बैंक में उनकी पत्**नी के नाम एक और एकाउंट मिला है, जिसमें करीब तीन लाख जमा हैं। इस बीच सरकार ने वन अधिकारी का तबादला उज्जैन से भोपाल कर दिया।
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पगली .... डा. संजीव मिश्र


आज की सुबह कुछ अजीब सी थी। यूं इस खुशनुमा कालोनी में कोयलों की कूक कई बार मोबाइल रिंग टोन का सा एहसास कराती है किन्तु आज ऐसा नहीं हुआ। आज तो बस अलग-अलग तरह की आवाजों ने झकझोर कर जगाया था। उठ कर छज्जे तक पहुंचा तो देखा मोहल्ले की औरतें पार्क के कोने में इकट्ठा थीं। कहने को यह पॉश कालोनी थी, अगल-बगल के लोग भी एक दूसरे को जान जाएं तो बहुत था, किन्तु यह क्या… आज तो कभी कार से न उतरने वाली, मॉल से सब्जी खरीद कर लाने वाली मिसेज बंसल भी वहाँ दिख गयीं। कुछ रोने जैसी आवाजों के बीच हल्की सी चीख और फिर बेटी… बेटी… जैसी आवाजें फिजां में गूंजने लगी थीं। मैं कुछ समझने की कोशिश करता, तब तक अम्मा दिखायी पड़ गयीं। मैं एक बार फिर अचम्भे में पड़ गया!!

अम्मा और सुबह-सुबह इस तरह मोहल्ले की महिलाओं की भीड़ में। खैर मुझे ज्यादा देर दिमाग नहीं खपाना पड़ा। अम्मा आयीं तो शायद पहली दफा, मैंने दौड़कर दरवाजा खोला था। मेरे मुंह से क्या हुआ अम्मा? क्यों भीड़ लगी थी वहाँ? आप वहाँ क्यों गयी थीं? जैसे सवालों की बौछार सी छूट गयी। अम्मा बोलीं, रुको बताती हूं, क्यों परेशान हुए जा रहे हो। फिर उन्होंने जो बताया उसके बाद मेरे स्मृति पटल में मानो रिवर्स गेयर लग गया था। आज को छोड़ मैं पहुंच गया था, दस साल पहले।

सच्ची, दस साल पहले की ही तो बात है, जब हम इस कॉलोनी में नये-नये रहने आये थे। मोहल्ले में परिचय का सिलसिला बस शुरू ही हुआ था। भले ही शुरुआत में मेरा कोई दोस्त नहीं था किन्तु यह स्थिति बहुत दिन नहीं रही। घर के सामने का वह पार्क दोस्त बनाने में खासा मददगार साबित हुआ। रोज शाम अम्मा मुझे पार्क जाने से नहीं रोकतीं और वहां इक्का-दुक्का लड़कों से दोस्ती की जो शुरुआत हुई, वह कुछ महीनों में पूरी क्रिकेट टीम में तब्दील हो गयी। उसी पार्क में वह भी आती थी। हम अपनी क्रिकेट किट के साथ पहुंचते और वह अपने पालतू कुत्ते के साथ। उसके पहुंचने के साथ ही पार्क की हमारी खुशनुमा क्रिकेट टीम का रंग-ढंग भी मानो बदल जाता था। हर किसी की नजर उसकी ओर होती और वह थी कि किसी से बात ही नहीं करती। कुछ देर अपने कुत्ते को टहलाने के बाद वह तो लौट जाती, किन्तु हम सब मानो उसके पीछे ही टहलते रहते।

उसके बारे में पता करने की होड़ सी लगी थी। हमें पता भी चल गया था कि वह अपने माता-पिता की एकलौती संतान है। वह लाडली बेटी है और उसकी हर बात माता-पिता जरूर मानते हैं। कुल मिलाकर हमारी बातों में बस वह होती और उसकी चाल-ढाल। मैं भी तो मानो उसका मुरीद ही था। उसकी सिर से लपेट कर चुन्नी ओढ़ने की अदा, हमेशा लंबे सलवार सूट पहनने की आदत जैसी तमाम कितनी ही चीजें मानो मैंने गांठ बांध रखी थी। कोई उसके लिए कुछ उल्टा सीधा कहता तो मैं लड़ बैठता। पता नहीं क्यों, बर्दाश्त नहीं होता था, उसके लिए कोई कमेंट। अब तो मेरी टीम के साथी उस पर कोई चर्चा करने के साथ मेरी ओर इशारा कर कहते, भइया इनके सामने ज्यादा कुछ मत कहना, मुंह फुला लेंगे। कोई उसे मेरी वाली कहता तो कोई कुछ और, पर इतना तय था कि हमारी शामें उसके कसीदे काढ़ते कटती थीं।

इन्हीं कसीदों के साथ एक दिन घर लौटा तो अम्मा एक शादी का कार्ड पढ़ रही थीं। मैंने पूछा, किसकी शादी का कार्ड है और उसके बाद तो मानो मेरे कानों में लावा सा घुल गया था। उसी की शादी थी…. जी हां, वही पार्क वाली, मेरी वाली… शादी करने जा रही थी। कई दिन लगे मुझे संभलने में। फिर अम्मा को साथ लेकर उसकी शादी में भी गया। सच… क्या लग रही थी। बहुतों की खुशी के बीच मैं खासा दुखी सा थी। ऊपर से मेरी टीम के लोग। कोई मुझे चिढ़ाने का मौका नहीं छोड़ रहा था। गयी तेरी वाली… जैसे कटाक्ष मुझे सुनने पड़ रहे थे। अगले दिन वह विदा हो गयी और तमाम स्मृतियों के साथ जिंदगी भी चलने ही लगी थी।
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….धीरे धीरे पांच साल बीत गये। खुशनुमा कालोनी का खुशनुमा स्वरूप बदस्तूर कायम रहा। तमाम नये लोग आ गये। पार्क अब भी था, पर मेरा वहां जाना थम चुका था। उसके जाने के बाद पार्क की शाम सूनी सी जो हो गयी थी। अचानक एक शाम छज्जे पर खड़ा था, तभी आंखों के आगे कुछ अलग सा उजाला चमका। वह एक बैग के साथ घर से कुछ दूर पर रिक्शे से उतर रही थी। यूं, वह इन पांच वर्षों में बीच-बीच में आती-जाती रही किन्तु उसका पति हमेशा उसके साथ होता था। इसके विपरीत इस बार वह अकेली आयी थी। उसका चेहरा उतरा हुआ था और उदासी साफ नजर आ रही थी। वह सिर झुकाए हुए ही आगे बढ़ी और घर में घुस गयी। इसके बाद रोज शाम मैं तो छज्जे पर होता किन्तु वह दिखाई नहीं देती। इन पांच वर्षों में उसका मायका भी बदल चुका था। पिता की मौत हो चुकी थी और मां अकेले जीवनयापन को मजबूर थी। वह मां-बेटी घर से बाहर कम ही निकलते और मेरे सवाल थे कि बढ़ते ही जा रहे थे। वह इस तरह अकेले क्यों आयी और फिर रुक क्यों गयी जैसे सवालों के बीच एक बार फिर वह मेरे इर्द-गिर्द सी रहने लगी थी। अचानक वह शाम भी आ गयी, जब मुझे सभी सवालों के जवाब मिलने थे। अम्मा ही इस बार भी मेरी जानकारी का माध्यम बनीं। उन्होंने बताया कि ससुराल पहुंचने पर तो उसे सबने सिर माथे पर बिठाया। बड़ी-बड़ी बातें हुईं। खूब आशीष दिये गये।

पर, यह सब कुछ बहुत दिन नहीं चला। पांच-छह महीने होते ही सास को अपने वंश की चिंता सताने लगी। हर कोई उसे मां बनते देखना चाहता था। विवाह के दो वर्ष बीतते-बीतते तो उसके गर्भवती न होने के लिए उसे ही जिम्मेदार मान लिया गया। अब तो कभी कभी पति उसकी पिटाई भी करने लगा था। यह सिलसिला बढ़ने लगा। बीच-बीच में सास भी हमलावर होने लगी। वह भी स्वयं मां न बन पाने के लिए खुद को ही जिम्मेदार मान कर सब सह रही थी। ….लेकिन उस दिन तो हद ही हो गयी। शाम को अचानक उसका पति घर आया और उसका सामान निकालकर एक बैग में पैक कर दिया। उसके पति व सास ने उसे पीटा और धक्के देकर घर से बाहर निकाल दिया। वह तड़प रही थी, तभी उसका पति बाहर निकला, एक रिक्शा लेकर आया और उसे उस पर बिठा दिया। वह भी सुबकते हुए अपने मायके चली आयी।


…लेकिन उसकी जिंदगी में तो मानो अभी दर्द ही दर्द बाकी था। अचानक एक दिन खबर आयी कि उसका पति दूसरी शादी कर रहा है। वह भाग कर पहुंची लेकिन उसकी नहीं सुनी गयी। वह पुलिस के पास गयी किन्तु वहां से भी निराश लौटना पड़ा। इस घटना के बाद वह टूट गयी। वह लौटी और बस रोती रही। उसे अब दुनिया में कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। नियति शायद उसके साथ लगातार खिलवाड़ सा करना चाहती थी। आंसुओं के सैलाब के बीच एक सुनामी सा आया और उसकी मां को अपने साथ ले गया। मां की मौत के बाद तो उसने सुध-बुध सी खो दी थी। वह घर से निकलती तो कई बार कई-कई दिन तक नहीं आती। इस हालात में कुछ महीने बीतते-बीतते लोग उसे पगली कहने लगे थे। कभी पार्क की बेंच पर तो कभी मंदिर के चबूतरे पर उसकी रात बीत जाती। वह अपने आपको भूल सी चुकी थी। कोई उसे खाने को दे देता, तो वह खा लेती वरना भूखी ही बनी रहती। उसकी खुराक के साथ भी मानो सौदे से होने लगे थे और आज यह साबित भी हो चुका था।

और आज जिन चीखों के बीच मैं छज्जे पर पहुंचा था, वह उसके प्रसव की चीखें थीं। उसके पागलपन का फायदा उठाकर किसी ने उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ किया था और इस बार वह गर्भवती हो गयी थी। गर्भवती न होने के जिस दंश के कारण उसकी यह दशा हुई थी और उसे खुद ही मातृत्व का एहसास नहीं था। वह तो बस चीख रही थी। मेरे दिमाग में भी पता नहीं क्या क्या चल रहा था। मैं उसके पति को कोस रहा था। उसके इस हाल का जिम्मेदार तो पति ही था। वह खुद ही पिता बनने के काबिल नहीं था और दोष उस पर मढ़ दिया गया। समाज की यह विसंगति आज मुझे परेशान कर रही थी।
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तमाम बातें हो रही थीं। कोई उस पर तरस खा रहा था तो कोई चटखारों के साथ उसकी कहानियां बना रहा था। इन सबके बीच मुझे गुस्सा आ रहा था, उस पति पर जिसने अपनी कमियों की सजा उसे दी थी। मेरा वश चलता तो शायद आज मैं उसके प्रति अपने प्रेम का सर्वस्व समर्पण कर देता। इस विचार मंथन के बीच उसकी नवजात बेटी का क्रंदन भी कानों तक पहुंच रहा था। मैंने एक बड़ा फैसला लिया। तय किया कि वह बेटी अब मेरे घर पढ़ेगी। मैंने मां को साथ लिया, सीढ़ियों से उतरा, और पुराने कपड़ों में लिपटी उस बच्ची को संभाल लिया। मुझे नहीं पता कि ऐसा क्यों था किन्तु आज मुझे अलग सा एहसास हो रहा था। कई वर्षों में जिससे बात करने का साहस न जुटा सका, उसे अस्पताल ले जा रहा था और बेटी मेरी गोद में आकर चुप भी हो गयी थी।
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किसी लड़की को अगर अपना काम निकलवाना है तो कहा जाता है कि बस वह एक बार मुस्कुरा कर देख दे तो एक क्या हजारों लड़के वह काम करने के लिए तैयार हो जाएंगे. उसके चेहरे की एक मुस्कुराहट लड़कों के दिल को छलनी करने के लिए काफी है. लेकिन हम यहां जो बात कहने जा रहे हैं वह इसके बिल्कुल विपरीत है क्योंकि ना सिर्फ लड़के बल्कि लड़कियां भी लड़कों की एक स्माइल पर फिदा होकर उनके सारे काम करने के लिए तैयार हो जाती हैं. अन्य शब्दों में कहा जाए तो वे पुरुष जिनकी मुस्कान लड़कियों का मन मोह ले वह दूसरे पुरुषों की तुलना में महिलाओं से मनचाहा काम करवाने में सक्षम हैं.

ग्रेनाडा विश्वविद्यालय (स्पेन) के शोधकर्ताओं ने अपने एक सर्वेक्षण में यह प्रमाणित किया है कि अगर कोई पुरुष महिला को देखकर मुस्कुरा दे तो महिलाएं उनके साथ बहुत नम्र तरीके से व्यवहार करती हैं.

डेली मेल में प्रकाशित इस रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं का कहना है कि अगर कोई पुरुष मुस्कुराने के बाद महिला को कोई कामुक कमेंट भी देता है तो भी महिलाएं उस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं देतीं. इस शोध में जितने भी महिलाओं और पुरुषों को शामिल किया गया उनके व्यवहार पर अध्ययन करने के बाद यह बात प्रमाणित हुई कि भले ही महिलाएं प्रभावी भूमिका में क्यों ना रहें लेकिन अगर उनका पुरुष साथी या फिर कोई अजनबी पुरुष ही उनसे मुस्कुराकर कुछ कहता है तो वह फटाफट उनकी बात मानने के लिए तैयार हो जाती हैं.


लेकिन शारीरिक व्यवहार विज्ञान की जानकार पैटी वुड के अनुसार यह अध्ययन और इसके निष्कर्ष थोड़े परेशान करने वाले हैं क्योंकि अगर महिलाएं अपने स्वभाव और अपने व्यवहार को पुरुषों की भाव-भंगिमाओं को देखकर परिवर्तित करेंगी तो निश्चित ही यह उनकी अपनी पहचान के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है. पैटी वुड की सलाह भारतीय परिदृश्य के अनुसार भी इसीलिए सही कही जा सकती है क्योंकि एक तो पहले ही भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका और उनके स्थान को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता और इसके साथ ही किसी पुरुष से जरूरत से ज्यादा घुलना-मिलना भी महिलाओं के लिए सही नहीं कहा जा सकता. इसके विपरीत महिलाओं को चाहिए कि वह सही और गलत का निर्णय पुरुषों की भाव-भंगिमाओं और उनके व्यवहार को देखकर नहीं बल्कि अपनी अपेक्षा और जरूरत के आधार पर पुरुषों के साथ संबंध रखें. उदाहरण के तौर पर ही ले लीजिए कि अगर कोई पुरुष आपसे कामुक बात करता है और आप इस पर सामान्य भाव देती हैं तो उसका अर्थ वह यही लेगा कि वह आगे भी आपसे ऐसी बातें कर सकता है और, निश्चित ही यह आपकी अपनी छवि को धूमिल करता है.
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एक औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है, यह बात तो आपने कई बार सुना होगा लेकिन एक मां अपनी ही बेटी की खुशियां छीनकर बहुत खुश है, यह शायद आप पहली बार सुन रहे होंगे. जिस घटना का जिक्र हम यहां करने जा रहे हैं वह आपके होश उड़ाने के लिए काफी है कि कैसे एक बुजुर्ग मां ने अपने बेटी के सुहाग को हथिया कर उसे अपना बना लिया.

मां-बेटी के भावनात्मक रिश्ते और सास-दामाद के मर्यादित संबंध की अहमियत को तार-तार करते हुए आठ बच्चों की मां ने घर से भागकर अपनी बड़ी बेटी के पति से विवाह कर लिया और जब सामाजिक दबाव और लोकलाज के कारण उसे अपनी गलती का एहसास हुआ तो उस महिला ने जहर खाकर आत्महत्या करने की नाकाम कोशिश भी की.

घटना बिहार के जिले समस्तीपुर की है जहां करीब दो साल पहले मल्हीपुर निवासी अशोक कुमार यादव की शादी गंगो देवी की बड़ी बेटी से हुई और विवाह के बाद दामाद, सास और बेटी शहर के ही एक होटल में खाना बनाने का काम करने लगे और वहीं एक कमरा लेकर रहने लगे. एक ही कमरे में रहने के कारण दामाद और सास के बीच नजदीकियां बढ़ने लगीं और अंतत: उन्होंने विवाह करने का निश्चय कर लिया. पहले उन्होंने बेटी को घर से भगाया और फिर चोरी-छिपे विवाह कर लिया.

बेटी ने अपने साथ हुए इस अन्याय के खिलाफ गांव में ही मोर्चा खोल दिया और ग्रामीण लोगों ने उन पर अपने संबंध को तोड़ने का दबाव बनाया. ना तो महिला इस बात के लिए राजी हुई और ना ही दामाद को कोई इस बात के लिए राजी कर पाया कि वह अपनी सास को छोड़कर पत्नी के साथ रहे. जब बात नहीं बनी तो महिला के बेटे को बुलाया गया और इस बीच महिला ने जहर खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया.

एक ओर जहां हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं वहां जब महिलाएं ही एक दूसरे के अधिकार छीनकर अपने जीवन में खुशियां भरने की कोशिश कर रही हैं तो हम कैसे महिला उत्थान और उनके अधिकारों की उम्मीद कर सकते हैं.

शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण इलाकों में रिश्तों को अहमियत दी जाती है, यह हमने कई बार सुना है लेकिन ऐसी अहमियत का क्या फायदा जो किसी के जीवन, उसकी खुशियों के लिए विनाशक बन जाए.

शहरों के विषय में तो यह आसानी से कहा जाता है कि वहां आधुनिकता हावी हो चुकी है और इंटरनेट संस्कृति ने शहरी नागरिकों की मानसिकता को बदल कर रख दिया है. लेकिन बिहार का एक पिछड़ा हुआ ग्राम जो शायद आधुनिकता की बयार से कोसों दूर है, वहां यह सब होने का क्या कारण है?

आज सामाजिक मानसिकता ने रिश्तों की मर्यादा को नकारात्मक ढंग से प्रभावित किया है जिसके लिए एक नहीं बल्कि कई कारण जिम्मेदार हैं.

सास और दामाद के बीच बढ़ी यह नजदीकी एक पूरे परिवार के लिए घातक सिद्ध हुई लेकिन यह ऐसा अकेला मामला नहीं है. पहले भी बाप-बेटी, मां-बेटे और ससुर-बहू के बीच रिश्तों की ऐसी अनैतिक कहानियां सुनाई देती रही हैं.

क्या हम कभी इस सवाल का जवाब ढूंढ़ने की कोशिश करेंगे कि आखिर ऐसा क्यों होता है या फिर हर बार की तरह इसे भी बस एक पारिवारिक मसला मानकर नजरअंदाज कर दिया जाएगा.
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