06-11-2011, 08:58 AM | #11 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
ईश्वर ईश्वर,
सड़क बुहारते भीखू से बचते हुए बिलकुल पवित्र पहुँचती हूं तुम्हारे मंदिर में ईश्वर जूठन साफ़ करती रामी के बेटे की नज़र न लगे इसलिए आँचल से ढक कर लाती हूँ तुम्हारे लिए मोहनभोग की थाली ईश्वर दो चोटियां गूँथे रानी आ कर मचले उससे पहले तुम्हारे श्रृंगार के लिए तोड़ लेती हूँ बगिया में खिले सारे फूल ईश्वर अभी परसों मैंने रखा था व्रत तुम्हें ख़ुश करने के लिए बस दूध, फल, मेवे और मिष्ठान्न से मिटाई थी भूख कितना मुश्किल है बिना अनाज के जीवन तुम नहीं जानते ईश्वर दरवाज़े पर दो रोटी की आस लिए आए व्यक्ति से पहले तुम्हारे प्रतिनिधि समझे जाने वाले पंडितों को खिलाया ख़ूब जी भर कर चरण छू कर लिए तुम्हारी ओर से आशीर्वाद ईश्वर दो बरस के नन्हें नाती की ज़िद सुने बिना मैंने तुम्हें अर्पण किए थे ऋतुफल ईश्वर इतने बरसों से तुम्हारी भक्ति, सेवा और श्रद्धा में लीन हूँ और तुम हो कि कभी आते नहीं दर्शन देने...
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Last edited by Sikandar_Khan; 06-11-2011 at 09:01 AM. |
06-11-2011, 08:59 AM | #12 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
एक टुकड़ा आसमान
लड़की के हिस्से में है खिड़की से दिखता आसमान का टुकड़ा खुली सड़क का मुँहाना एक व्यस्त चौराहा और दिन भर का लम्बा इन्तज़ार। खिड़की पर तने परदे के पीछे से उसकी आँखें जमी रहती हैं व्यस्त चौराहे की भीड़ में खोजती हैं निगाहें रोज एक परिचित चेहरा। अब चेहरा भी करता है इन्तज़ार दो आँखें हो गई हैं चार। दबी जुबान से फैलने लगी हैं लड़की की इच्छाएँ अब छीन लिया गया है लड़की से उसके हिस्से का एक टुकड़ा आसमान भी।
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07-11-2011, 12:07 PM | #13 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
क्या करूंगी मैं
देहरी पर आती पीली धूप के ठीक बीच खड़े थे तुम प्रखर रश्मियों के बीच कोई न समझ सका था तुम्हारा प्रेम पूरे आंगन में, बिखरी पड़ी थी तुम्हारी याचना, पिता का क्रोध भाई की अकड़ माँ के आँसू शाम बुहारने लगी जब दालान मैंने चुपके से समेट लिया गुनगुनी धूप का वो टुकड़ा क़ैद है आज भी वो मखमली डिबिया में रोशनी के नन्हे सितारे वाली डिबिया नहीं खोलती मैं सितारे निकल भागें दुख नहीं बिखर जाए रोशनी परवाह नहीं गर निकल जाए डिबिया से तुम्हारी परछाई का टुकड़ा तो क्या करूंगी मैं?
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07-11-2011, 12:10 PM | #14 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
ख़ौफ़
मैं नहीं डरती मौत से न डराता है मुझे उसका ख़ौफ़ मैं नहीं डरती उसके आने के अहसास से न डराते हैं मुझे उसके स्वप्न मैं डरती हूं उस सन्नाटे से जो पसरता है घर से ज़्यादा दिलों पर डरती हूँ उन आँसुओं से जो दामन से ज़्यादा भिगोते हैं मन डरती हूँ माँ के चेहरे से जो रोएगा हर पल मुस्कराते हुए भी।
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10-11-2011, 06:42 AM | #15 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
घर सड़क किनारे तनी हैं सैकड़ों नीली, पीली पन्नियाँ ठिठुरती रात झुलसते दिन गीली ज़मीन टपकती छत के बावजूद गर्व से वे कहते हैं उन्हें घर उन घरों में हैं चूल्हे की राख पेट की आग सपनों की खाट हौसले का बक्सा उम्मीद का कनस्तर कल की फ़िक्र किए बिना वे जीते हैं आज कभी अतिक्रमण कभी सौंदर्यीकरण कभी बिना कारण उजाड़ दिए जाते हैं वे बिना शिकन बांधते हैं वे अपनी जमीन अपना आसमान निकल पड़ते हैं सड़क के नए किनारे की तलाश में।
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10-11-2011, 06:45 AM | #16 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
घर संभालती स्त्री गुस्सा जब उबलने लगता है दिमाग में प्रेशर कुकर चढ़ा देती हूँ गैस पर भाप निकलने लगती है जब एक तेज़ आवाज़ के साथ ख़ुद-ब-ख़ुद शांत हो जाता है दिमाग पलट कर जवाब देने की इच्छा पर पीसने लगती हूँ, एकदम लाल मिर्च पत्थर पर और रगड़ कर बना देती हूँ स्वादिष्ट चटनी जब कभी मन किया मैं भी मार सकूँ किसी को तब धोती हूँ तौलिया, गिलाफ़ और मोटे भारी परदे जो धुल सकते थे आसानी से वॉशिंग मशीन में मेरे मुक्के पड़ते हैं उन पर और वे हो जाते हैं उजले, शफ़्फ़ाक सफ़ेद बहुत बार मैंने पूरे बगीचे की मिट्टी को कर दिया है खुरपी से उलट-पलट गुड़ाई के नाम पर जब भी मचा है घमासान मन में सूती कपड़ों पर पानी छिड़क कर जब करती हूं इस्त्री तब पानी उड़ता है भाप बन कर जैसे उड़ रही हो मेरी ही नाराज़गी किसी जली हुई कड़ाही को रगड़ कर घिसती रहती हूँ लगातार चमका देती हूँ और लगता है बच्चों को दे दिए हैं मैंने इतने ही उजले संस्कार घर की झाड़ू-बुहारी में पता नहीं कब मैं बुहार देती हूँ अपना भी वजूद मेरे परिवार में, रिश्तेदारों में, पड़ोस में जहाँ भी चाहें पूछ लीजिए सभी मुझे कहते हैं दक्ष गृहिणी।
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08-04-2012, 06:28 PM | #17 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
किसी भी आने-जाने वाले के हाथ
माँ भेजती रहती है कुछ न कुछ आज भी घर से आई हैं ढेर सौगात प्यार में पगे शकरपारे लाड़ की झिड़की जैसी नमकीन मठरियाँ भेज दी हैं कुछ किताबें भी जो छूट गई थीं पिछली दफ़ा काग़ज़ के छोटे टुकड़े पर पिता ने लिख भेजी हैं कुछ नसीहतें जल्दबाज़ी में जो बताना भूल गए थे वे लिख दिया है उन्होंने बड़े शहर में रहने का सलीका शब्दों के बीच करीने से छुपाई गई चिंता भी उभर आई है बार-बार।
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08-04-2012, 06:32 PM | #18 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
हर जगह मचा है शोर
ख़त्म हो गया है अच्छा आदमी रोज़ आती हैं ख़बरें अच्छे आदमी का साँचा बेच दिया है ईश्वर ने कबाड़ी को 'अच्छे आदमी होते कहाँ हैं का व्यंग्य मारने से चूकना नहीं चाहता कोई एक दिन विलुप्त होते भले आदमी ने खोजा उस कबाड़ी को और मांग की उस साँचे की कबाड़ी ने बताया साँचा टूट कर बिखर गया है बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में कभी-कभी उस भले आदमी को दिख जाते हैं, वे टुकड़े किसी बच्चे के रूप में जो हाथ थामे बूढ़े का पार कराता है सड़क भरी बस में गोद में बच्चा लिए चढ़ी स्त्री के लिए सीट छोड़ता युवा चौराहे पर भरे ट्रैफिक में मंदिर दिख जाने पर सिर नवाती लड़की विलुप्त होता भला आदमी ख़ुश है टुकड़ों में ही सही ज़िन्दा है भलाई!
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08-04-2012, 06:41 PM | #19 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
कुछ न कह कर भी
बहुत कुछ कह डालती हैं उनमें दिखाई नहीं पड़ती मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें फिर भी वे सहेजी जाती हैं एक अविस्मरणीय दस्तावेज़ के रूप में ऐसी ही तुम्हारी एक तस्वीर सहेज रखी है मैंने मैं चाहती हूँ उभर आएँ उस पर तुम्हारे मन की उलझनें, चेहरे की लकीरें ताकि तस्वीर की जगह सहेज सकूँ उन्हें और तुम नज़र आओ उस निश्छल बच्चे की तरह जिस के मुँह पर दूध की कुछ बूंदे अब भी बाक़ी हैं।
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08-04-2012, 06:44 PM | #20 |
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Re: आकांक्षा पारे की रचनाएँ
मेरे कहने
तुम्हारे समझने के बीच कब फ़ासला बढ़ता गया मेरे हर कहने का अर्थ बदलता रहा तुम तक जा कर हर दिन समझने-समझाने का यह खेल हम दोनों को ही अब बना गया है इतना नासमझ कि स्पर्श के मायने की परिभाषा एक होने पर भी नहीं समझते उसे हम दोनों
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