09-11-2012, 10:10 PM | #11 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
चाह के हाथों किसी को सुख नहीं। है भला वह कौन जिसको दुख नहीं।। उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमराइयाँ ताड़ के मैं उनमें गया, तो उन अमराइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहिला है। कुछ रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं। उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जी रह जाय, सो कीजिए।" |
09-11-2012, 10:10 PM | #12 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से यों लिखा - "हम दोनों ने इस अँगूठी और लिखौट को अपनी आँखों से मला। अब तुम इतने कुछ कुढ़ो पचो मत। जो रानी केतकी के माँ बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन हैं। दोनों राज एक हो जायेंगे। और जो कुछ नाँह-नूँह ठहरेगी तो जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, बोलो चालो, आनंदें करो। अच्छी घड़ी, सुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी ब्राह्मन को भेजते हैं; जो बात चीतचाही ठीक कर लावे।' और सुभ घड़ी सुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के माँ-बाप के पास भेजा।
ब्राह्मन जो सुभ मुहूरत देखकर हड़बड़ी से गया था, उस पर बुरी घड़ी पड़ी। सुनते ही रानी केतकी के माँ-बाप ने कहा - "हमारे उनके नाता नहीं होने का! उनके बाप-दादे हमारे बापदादे के आगे सदा हाथ जोड़कर बातें किया करते थे और टुक जो तेवरी चढ़ी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ़ गए, ऊँचे पर चढ़ गए। जिनके माथे हम बाएँ पाँव के अँगूठे से टीका लगावें, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लावे!" ब्राह्मण ने जल-भुन के कहा - "अगले भी बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। |
09-11-2012, 10:10 PM | #13 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे - हममें उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से निकलती।" यह सुनते ही उन महाराज ने ब्राह्मन के सिर पर फूलों की चँगेर फेंक मारी और कहा - "जो ब्राह्मण की हत्या का धड़का न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता।" और अपने लोगों से कहा - "इसको ले जाओ और ऊपर एक अँधेरी कोठरी में मँूद रक्खो।" जो इस ब्राह्मन पर बीती सो सब उदैभान के माँ-बाप ने सुनी। सुनते ही लड़ने के लिये अपना ठाठ बाँध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी सावन-भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई - यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।
कुँवर ने चुपके से यह कहला भेजा - "अब मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लड़ने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय।" |
09-11-2012, 10:11 PM | #14 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुँवर की चिट्ठी किसी फूल की पंखड़ी में लपेट लपेट कर रानी केतकी तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी को अपनी आँखों लगाया और मालिन को एक थाल भर के मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँह की पीक से यह लिखा - "ऐ मेरे जी के ग्राहक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर के चील-कौंवों को दे डाले, तो भी मेरी आँखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं। इसमें एक बाप-दादे के चिट लग जाती है; और जब तक माँ-बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डौल से बेटे-बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जो तो क्या, जो करोड़ जी जाते रहें तो कोई बात हमें रूचती नहीं।"
वह चिठ्ठी जो बिस भरी कुँवर तक जा पहुँची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है। और उस चिठ्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बाँध लेता है। आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड़ पर से और कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप को हिरनी हिरन कर डालना |
09-11-2012, 10:11 PM | #15 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
जगतपरकास अपने गुरू को जो कैलास पहाड़ पर रहता था, लिख भेजता है - कुछ हमारी सहाय कीजिए। महाकठिन बिपताभार हम पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक वाव बँहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है।
सराहना जोगी जी के स्थान का कैलास पहाड़ जो एक डौल चाँदी का है, उस पर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई ९० लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में लेकर उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छूट सब उसके आगे कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसकी सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छ: राग छत्तीस रागिनियाँ आठ पहर रूप बँदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं। और वहाँ अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे - भैरोगिर, विभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपकसेन, जोतिसरूप सारंगरूप। और अतीतिनें उस ढब से कहलाती थीं - गुजरी, टोड़ी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिधासन पर बैठकर उड़ाए फिरता था और नब्बें लाख अतीत गुटके अपने मुँह में लिए, गेरूए वस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिठ्ठी एक बगला उसके घर पहुँचा देता है, गुरू महेंदर गिर एक चिग्घाड़ मारकर दल बादलों को ढलका देता है। |
09-11-2012, 10:11 PM | #16 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
बघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ कुछ पढंत़ करता हुआ बाव के घोड़े भी पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों पर बैठे हुए गुटके मुँह में लिए हुए बोल उठे - गोरख जागा और मुंछदर भागा। एक आँख की झपक में वहाँ आ पहुँचता है जहाँ दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुध न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगत परकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योड़े की बँूदों की नन्हीं-नन्हीं फुहार सी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरूजी ने अतीतियों से कहा - "उदैभान, सूरजभान, लछमीबास इन तीनों को हिरनी हिरन बना के किसी बन में छोड़ दो; और जो उनके साथी हों, उन सभों को तोड़ फोड़ दो।"
जैसा गुरूजी ने कहा, झटपट वही किया। विपत का मारा कुँवर उदैभान और उसका बाप वह राजा सूरजभान और उसकी माँ लछमीबास हिरन हिरनी वन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड़ भाड़ का तो कुछ थल बेड़ा न मिला, किधर गए और कहाँ थे बस यहाँ की यहीं रहने दो। फिर सुनो। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगतपरकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरूजी के पाँव पर गिरा और सबने सिर झुकाकर कहा - "महाराज, यह आपने बड़ा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आज आप न पहुँचते तो क्या रहा था। सब ने मर मिटने की ठान ली थी। |
09-11-2012, 10:12 PM | #17 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राज पाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता। सूरजभान के हाथ से आपने बचाया। अब कोई उनका चचा चंद्रभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं। फिर ऐसे राज का फिट्टे मुँह कहाँ तक आपको सताया करें।" जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा - "तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहों। अब वह कौन है जो तुम्हें आँख भरकर और ढब से देख सके। वह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ़ पड़े तो इसमें से एक रोंगटा तोड़ आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुँचेंगे। रहा भभूत, सो इसलिये है जो कोई इसे अंजन करै, वह सबको देखै और उसे कोई न देखै, जो चाहै सो करै।"
जाना गुरूजी का राजा के घर गुरू महेंदर गिर के पाँव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुर्छल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछावर किए और माथे रगड़े। उन्होंने सबकी पीठें ठोंकी। रानी केतकी ने भी गुरूजी को दंडवत की; पर जी में बहुत सी गुरू जी को गालियाँ दी। गुरूजी सात दिन सात रात यहाँ रह कर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बघंबर पर बैठ उसी डौल से कैलाश पर आ धमके और राजा जगतपरकास अपने अगले ढब से राज करने लगा। |
09-11-2012, 10:12 PM | #18 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
रानी केतकी का मदनबान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना।
दोहरा (अपनी बोली की धुन में) रानी को बहुत सी बेकली थी। कब सूझती कुछ बुरी भली थी।। चुपके चुपके कराहती थी। जीना अपना न चाहती थी।। कहती थी कभी अरी मदनबान। है आठ पर मुझे वही ध्यान।। याँ प्यास किसे किसे भला भूख। देखूँ वही फिर हरे हरे रूख।। टपके का डर है अब यह कहिए। चाहत का घर है अब यह कहिए।। अमराइयों में उनका वह उतरना। और रात का साँय साँय करना।। और चुपके से उठके मेरा जाना। और तेरा वह चाह का जताना।। उनकी वह उतार अँगूठी लेनी। और अपनी अँगूठी उनको देनी।। आँखों में मेरे वह फिर रही है। जी का जो रूप था वही है।। क्योंकर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं। माँ बाप से कब तक डरूँ मैं।। अब मैंने सुना है ऐ मदनबान। बन बन के हिरन हुए उदयभान।। चरते होंगे हरी हरी दूब। कुछ तू भी पसीज सोच में डूब।। मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल। मत मुझको संुघा यह डहडहे फूल।। फूलों को उठाके यहाँ से लेजा। सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा।। बिखरे जी को न कर इकट्ठा। एक घास का ला के रख दे गट्ठा।। हरियाली उसी की देख लूँ मैं। कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं।। इन आँखों में हैं फड़क हिरन की। पलकें हुई जैसे घासवन की।। जब देखिए डब-डबा रही है। ओसें आंसू की छा रही हैं।। यह बात जो जी में गड़ गई है। एक ओस-सी मुझ पै पड़ गई है। इसी डौल जब अकेली होती तो मदनवान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती। |
09-11-2012, 10:13 PM | #19 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत का, जो गुरूजी दे गए थे, आँख-मिचौबल के बहाने अपनी माँ रानी कामलता से।
एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा - "गुरूजी गुसाई महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहाँ रक्खा है और उससे क्या होता है?" रानी कामलता बोल उठी - आँख-मिचौवल खेलने के लिये चाहती हूँ। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो मुझको कोई पकड़ न सके।" महारानी ने कहा - "वह खेलने के लिये नहीं हैं। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के सँभालने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घड़ी कैसी है, कैसी नहीं।" रानी केतकी अपनी माँ की इस बात पर अपना मुँह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रूच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठीं- "अजी तुमने सुना भी, बेटी तुम्हारी आँख मिचौवल खेलने क लिये वह भभूत गुरूजी का दिया माँगती थी। मैंने न दिया और कहा, लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिये गुरूजी गए हैं। इसी पर मुझ से रूठी है। बहुतेरा बहलाती हूँ, मानती नहीं।" महाराज ने कहा - "भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या, जो करोर जी हों तो दे डालें।" रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ा सा भभूत दिया। कई दिन तलक आँख मिचौवल अपने माँ-बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोड़ों पोथियों में ज्यों की त्यों न आ सके। |
09-11-2012, 10:13 PM | #20 |
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Re: इंशा अल्ला खाँ की रानी केतकी की कहानी
रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन बान का साथ देने से नहीं करना
एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी - "अब मैं निगोडी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे।" मदनबान ने कहा - क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया - "यह सब आँख-मिचौवल के झाई झप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रक्खे थे।" मदनबान बोली - "मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी आँखों में उस भभूत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा। और हम तुम सब को देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पड़ी भटका करें और हिरनों की सींगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिए यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोड़ी नोची खसोटी उजड़ी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत जिसके लिए आपकी माँ-बाप का राज-पाट सुख नींद लाज छोड़कर नदियों के कछारों में फिरना पड़े, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोड़ा बहुत आसरा था। |
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