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Old 17-11-2012, 09:48 AM   #11
abhisays
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

एक साल हाजियों के काफिले में फूट पड़ गयी। मैं भी साथ ही यात्रा कर रहा था। हमने खूब लड़ाई की। एक ऊंटवान ने हमारी यह दशा देखकर अपने साथी से कहा, खेद की बात है कि शतरंज के प्यादे तो जब मैदान पार कर लेते हैं, तो वजी़र बन जाते हैं, मगर हाजी प्यादे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, पहले से भी ख़राब होते जाते हैं। इनसे कहो, तुम क्या हज करोगे जो यों एक-दूसरे को काटे खाते हो। हाजी तो तुम्हारे ऊंट हैं, जो कांटे खाते हैं और बोझ भी उठाते हैं।

रूम में एक साधु महात्मा की प्रशंसा सुनकर हम उनसे मिलने गये। उन्होंने हमारा विशेष स्वागत किया, किन्तु खाना न खिलाया। रात को वह तो अपनी माला फेरते रहे और हमें भूख से नींद नहीं आयी। सुबह हुई तो उन्होंने फिर वही कल का सा आगत-स्वागत आरंभ किया। इस पर हमारे एक मुंहफट मित्र ने कहा, महात्मन, अतिथि के लिए इस सत्कार से अधिक ज़रूरत भोजन की है। भला ऐसी उपासना से कभी उपकार हो सकता है जब कई आदमी घर में भूख के मारे करवटें बदलते रहें।

एक बार मैंने एक मनुष्य को तेंदुए पर सवार देखा। भय से कांपने लगा। उसने यह देखकर हंसते हुए कहा, सादी डरता क्यों है, यह कोई आश्*चर्य की बात नहीं। यदि मनुष्य ईश्*वर की आज्ञा से मुंह न मोड़े तो उसकी आज्ञा से भी कोई मुंह नहीं मोड़ सकता।
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Old 17-11-2012, 09:48 AM   #12
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

सादी ने भारत की यात्रा भी की थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि वह चार बार हिन्दुस्तान आये, परन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं। हाँ, उनका एक बार यहाँ आना निर्भ्रान्त है। वह गुजरात तक आये और शायद वहीं से लौट गये। सोमनाथ के विषय में उन्होंने एक घटना लिखी है जो शायद सादी के यात्रा वृत्तांत में सबसे अधिक कौतूहल जनक है।

जब मैं सोमनाथ पहुंचा तो देखा कि सहस्रों स्त्री-पुरुष मन्दिर के द्वार पर खड़े हैं। उनमें कितने ही मुरादें मांगने दूर-दूर से आये हैं। मुझे उनकी मूर्खता पर खेद हुआ। एक दिन मैंने कई आदमियों के सामने मूर्ति पूजा की निंदा की। इस पर मंदिर के बहुत से पुजारी जमा हो गये, और मुझे घेर लिया। मैं डरा कि कहीं यह लोग मुझे पीटने न लगें। मैं बोला, मैंने कोई बात अश्रध्दा से नहीं कहीं। मैं तो खुद इस मूर्ति पर मोहित हूं, लेकिन मैं अभी यहाँ के गुप्त रहस्यों को नहीं जानता इसलिए चाहता हूं कि इस तत्व का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके उपासक बनूं। पुजारियों को मेरी यह बातें पसंद आयीं। उन्होंने कहा, आज रात को तू मंदिर में रह। तेरे सब भ्रम मिट जायेंगे। मैं रातभर वहाँ रहा। प्रात:काल जब नगरवासी वहाँ एकत्रित हुए तो उस मूर्ति ने अपने हाथ उठाये जैसे कोई प्रार्थना कर रहा हो। यह देखते ही सब लोग जय-जय पुकारने लगे। जब लोग चले गये तो पुजारी ने हंसकर मुझसे कहा, क्यों अब तो कोई शंका नहीं रही? मैं कृत्रिम भाव बनाकर रोने लगा और लज्जा प्रकट की। पुजारियों को मुझ पर विश्वास हो गया। मैं कुछ दिनों के लिए उनमें मिल गया। जब मंदिर वालों का मुझ पर विश्वास जम गया तो एक रात को अवसर पाकर मैंने मंदिर का द्वार बंद कर दिया और मूर्ति के सिंहासन के निकट जाकर ध्यान से देखने लगा। वहाँ मुझे एक परदा दिखाई पड़ा जिसके पीछे एक पुजारी बैठा था। उसके हाथ में एक डोर थी। मुझे मालूम हो गया कि जब यह उस डोर को खींचता है तो मूर्ति का हाथ उठ जाता है। इसी को लोग दैविक बात समझते हैं।

यद्यपि सादी मिथ्यावादी नहीं थे तथापि इस वृत्तांत में कई बातें ऐसी हैं जो तर्क की कसौटी पर नहीं कसी जा सकतीं। लेकिन इतना मानने में कोई आपत्ति न होनी चाहिए कि सादी गुजरात आये और सोमनाथ में ठहरे थे।
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Old 17-11-2012, 09:50 AM   #13
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

का शीराज़ में पुनरागमन

तीस-चालीस साल तक भ्रमण करने के बाद सादी को जन्म–भूमि का स्मरण हुआ । जिस समय वह वहाँ से चले थे, वहाँ अशांति फैली हुई थी। कुछ तो इस कुदशा और कुछ विद्या लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर सादी ने देशत्याग किया था। लेकिन अब शीराज़ की वह दशा न थी। साद बिन जंग़ी की मृत्यु हो चुकी थी और उसका बेटा अताबक अबूबक राजगद्दी पर था। यह न्याय-प्रिय, राज्य-कार्य-कुशल राजा था। उसके सुशासन ने देश की बिगड़ी हुई अवस्था को बहुत कुछ सुधार दिया था। सादी संसार को देख चुके थे। अवस्था वह आ पहुंची थी जब मनुष्य को एकांतवास की इच्छा होने लगती है, सांसारिक झगड़ों से मन उदासीन हो जाता है। अतएव अनुमान कहता है कि पैंसठ या सत्तर वर्ष की अवस्था में सादी शीराज़ आये। यहाँ समाज और राजा दोनों ने ही उनका उचित आदर किया। लेकिन सादी अधिकतर एकांतवास ही में रहते थे। राज-दरबार में बहुत कम आते-जाते। समाज से भी किनारे रहते। इसका कदाचित्त एक कारण यह भी था कि अताबक अबूबक को मुल्लाओं और विद्वानों से कुछ चिढ़ थी। वह उन्हें पाखंडी और उपद्रवी समझता था। कितने ही सर्वमान्य विद्वानों को उसने देश से निकाल दिया था। इसके विपरीत वह मूर्ख फ़कीरों की बहुत सेवा और सत्कार करता; जितना ही अपढ़ फ़कीर होता उतना ही उसका मान अधिक करता था। सादी विद्वान भी थे, मुल्ला भी थे, यदि प्रजा से मिलते-जुलते तो उनका गौरव अवश्य बढ़ता और बादशाह को उनसे खटका हो जाता। इसके सिवा यदि वह राज-दरबार के उपासक बन जाते तो विद्वान लोग उन पर कटाक्ष करते। इसलिए सादी ने दोनों से मुंह मोड़ने में ही अपना कल्याण समझा और तटस्थ रहकर दोनों के कृपापात्र बने रहे। उन्होंने गुलिस्तां और बोस्तां की रचना शीराज़ ही में की, दोनों ग्रंथों में सादी ने मूर्ख साधु, फ़कीरों की खूब ख़बर ली है और राजा, बादशाहों को भी न्याय, धर्म और दया का उपदेश किया है। अंध-विश्वास पर सैकड़ों जगह धार्मिक चोटें की हैं। इनका तात्पर्य यही था कि अताबक अबूबक सचेत हो जाय और विद्वानों से द्रोह करना छोड़ दे। सादी को बादशाह की अपेक्षा युवराज से अधिक स्नेह था। इसका नाम फ़ख़रूददीन था। वह बग़दाद के ख़लीफ़ा के पास कुछ तुहफ़े भेंट लेकर मिलने गया था। लौटती बार मार्ग ही में उसे अपने पिता के मरने का समाचार मिला। युवराज बड़ा पितृभक्त था। यह ख़बर सुनते ही शोक से बीमार पड़ गया और रास्ते ही में परलोक सिधार गया। इन दोनों मृत्युओं से सादी को इतना शोक हुआ कि वह शीराज़ से फिर निकल खड़े हुए और बहुत दिनों तक देश-भ्रमण करते रहे। मालूम होता है कि कुछ काल के उपरांत वह फिर शीराज़ आ गये थे, क्योंकि उनका देहांत यहीं हुआ। उनकी कब्र अभी तक मौजूद है, लोग उसकी पूजा, दर्शन (जि़यारत) करने जाया करते हैं। लेकिन उनकी संतानों का कुछ हाल नहीं मिलता है। संभवत: सादी की मृत्यु 1288 ई. के लगभग हुई। उस समय उनकी अवस्था एक सौ सोलह वर्ष की थी। शायद ही किसी साहित्य सेवी ने इतनी बड़ी उम्र पायी हो।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

सादी के प्रेमियों में अलाउद्दीन नाम का एक बड़ा उदार व्यक्ति था। जिन दिनों युवराज फ़ख़रूद्दीन की मृत्यु के पीछे सादी बगदाद आए तो अलाउद्दीन वहाँ के सुल्तान अबाक़ ख़ांका वजीर था। एक दिन मार्ग में सादी से उसकी भेंट हो गयी। उसने बड़ा आदर-सत्कार किया। उस समय से अन्त तक वह बड़ी भक्ति से सादी की सेवा करता रहा। उसके दिये हुए धन से सादी अपने ब्याह के लिए थोड़ा-सा लेकर शेष दीनों को दान कर दिया करते थे। एक बार ऐसा हुआ कि अलाउद्दीन ने अपने एक गुलाम के हाथ सादी के पास पांच सौ दीनार भेजे। गुलाम जानता था कि शेख़साहब कभी किसी चीज़ को गिनते तो हैं नहीं, अतएव उसने धूर्तता से एक सौ पचास दीनार निकाल लिये। सादी ने धन्यवाद में एक कविता लिखकर भेजी, उसमें तीन सौ पचास दीनारों का ही जिश्क्र था। अलाउद्दीन बहुत लज्जित हुआ, गुलाम को दंड दिया और अपने एक मित्र को जो शीराज़ में किसी उच्च पद पर नियुक्त था लिख भेजा कि सादी को दस हजार दीनार दे दो। लेकिन इस पत्र के पहुंचने से दो दिन पहले ही उनके यह मित्र परलोक सिधार चुके थे, रुपये कौन देता? इसके बाद अलाउद्दीन ने अपने एक परम विश्वस्त मनुष्य के हाथ सादी के पास पचास हज़ार दीनार भेजे। इस धन से सादी ने एक धर्मशाला बनवा दी। मरते समय तक शेख़शादी इसी धर्मशाला में निवास करते रहे। उसी में अब उनकी समाधि है।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

चरित्र

सादी उन कवियों में हैं ... जिनके चरित्र का प्रतिबिंब उनके काव्य रूपी दर्पण में स्पष्ट दिखाई देता हैं।

हृदय से निकलते थे और यही कारण है कि उनमें इतनी प्रबल शक्ति भरी हुई है। सैकड़ों अन्य उपदेशकों की भांति वह दूसरों को परमार्थ सिखाकर आप स्वार्थ पर जान न देते थे। दूसरों को न्याय, धर्म और कर्तव्य पालन की शिक्षा देकर आप विलासिता में लिप्त न रहते थे। उनकी वृत्ति स्वभावत: सात्विक थी। उनका मन कभी वासनाओं से विचलित नहीं हुआ। अन्य कवियों की भांति उन्होंने किसी राज-दरबार का आश्रय नहीं लिया। लोभ को कभी अपने पास नहीं आने दिया। यश और ऐश्वर्य दोनों ही सत्कर्म के फल हैं। यश दैविक है, ऐश्वर्य मानुषिक। सादी ने दैविक फल पर संतोष किया, मानुषिक के लिए हाथ नहीं फैलाया। धन की देवी जो बलिदान चाहती है वह देने की सामर्थ्य सादी में नहीं थी। वह अपनी आत्मा का अल्पांश भी उसे भेंट न कर सकते थे। यही उनकी निर्भीकता का अवलंब है। राजाओं को उपदेश देना सांप के बिल में उंगली डालने के समान है। यहाँ एक पांव अगर फूलों पर रहता है तो दूसरा कांटों में। विशेषकर सादी के समय में तो राजनीति का उपदेश और भी जोखिम का काम था। ईरान और बग़दाद दोनों ही देश में अरबों का पतन हो रहा था, तातारी बादशाह प्रजा को पैरों तले कुचले डालते थे। लेकिन सादी ने उस कठिन समय में भी अपनी टेक न छोड़ी। जब वह शीराज़ से दूसरी बार बग़दाद गये तो वहाँ हलाकू ख़ां मुग़ल का बेटा अबाक़ खां बादशाह था। हलाकू ख़ां के घोर अत्याचार चंगीज़ और तैमूर की पैशाचिक क्रूरताओं को भी लज्जित करते थे। अबाक़ खां यद्यपि ऐसा अत्याचारी न था तथापि उसके भय से प्रजा थर-थर कांपती थी। उसके दो प्रधान कर्मचारी सादी के भक्त थे। एक दिन सादी बाज़ार में घूम रहे थे कि बादशाह की सवारी धूमधाम से उनके सामने से निकली। उनके दोनों कर्मचारी उनके साथ थे। उन्होंने सादी को देखा तो घोड़ों से उतर पड़े और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह को अपने वज़ीरों की यह श्रध्दा देखकर बड़ा कौतूहल हुआ। उसने पूछा यह कौन आदमी है। वजी़रों ने सादी का नाम और गुण बताया। बादशाह के हृदय में भी सादी की परीक्षा करने का विचार पैदा हुआ। बोला, कुछ उपदेश मुझे भी कीजिये। संभवत: उसने सादी से अपनी प्रशंसा करानी चाही होगी। लेकिन सादी ने निर्भयता से यह उद्देश्यपूर्ण शेर पढ़े
शहे कि पासे रऐयत निगाह मीदारद,
हलाल बाद ख़िराज़ कि मुज्दे चौपानीस्त।
बगर न राइये ख़ल्कस्त ज़हरमारश बाद;
कि हरचे मी ख़ुरद अज़ जजियए मुसलमानीस्त।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

भावार्थ - बादशाह जो प्रजा-पालन का ध्यान रखता है। एक चरवाहे के समान है। यह प्रजा से जो कर लेता है वह उसकी मजदूरी है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो हराम का धन खाता है!
अबाक़ खां यह उपदेश सुनकर चकित हो गया। सादी की निर्भयता ने उसे भी सादी का भक्त बना दिया। उसने सादी को बड़े सम्मान के साथ विदा किया।

सादी में आत्मगौरव की मात्रा भी कम न थी। वह आन पर जान देने वाले मनुष्यों में थे। नीचता से उन्हें घृणा थी। एक बार इस्कन दरिया में बड़ा अकाल पड़ा। लोग इधर- उधर भागने लगे। वहाँ एक बडा संपत्तिशाली ख़ोजा था। वह ग़रीबों को खाना खिलाता और अम्यागतों की अच्छी सेवा-सम्मान करता। सादी भी वहीं थे। लोगों ने कहा, आप भी उसी ख़ोजे के मेहमान बन जाइए। इस पर सादी ने उत्तर दिया शेर कभी कुत्तों का जूठा नहीं खाता चाहे अपनी मांद में भूखों मर भले ही जाय।

सादी को धर्मध्वजीपन से बड़ी चिढ़ थी। वह प्रजा को मूर्ख और स्वार्थी मुल्लाओं के फंदे में पड़ते देखकर जल जाते थे। उन्होंने काशी, मथुरा, वृन्दावन या प्रयाग के पाखंडी पंडों की पोपलीलायें देखी होतीं तो इस विषय में उनकी लेखनी और भी तीव्र हो जाती। छत्रधारी हाथी पर बैठने वाले महंत, पालकियों में चंवर डुलाने वाले पुजारी, घंटों तिलक मुद्रा में समय ख़र्च करने वाले पंडित और राजारईसों के दरबार में खिलौना बनने वाले महात्मा उनकी समालोचना को कितनी रोचक और हृदयग्राही बना देते? एक बार लेखक ने दो जटाधारी साधुओं को रेलगाड़ी में बैठे देखा। दोनों महात्मा एक पूरे कम्पार्टमेंट में बैठे हुए थे और किसी को भीतर न घुसने देते थे। मिले हुए कम्पार्टमेंटों में इतनी भीड़ थी कि आदमियों को खड़े होने की जगह भी न मिलती थी। एक वृध्द यात्री खड़े-खड़े थककर धीरे से साधुओं के डब्बे में जा बैठा। फिर क्या था। साधुओं की योग शक्ति ने प्रचंड रूप धारण किया, बुङ्ढे को डांट बताई और ज्योंही स्टेशन आया, स्टेशन-मास्टर के पास जाकर फरियाद की कि बाबा, यह बूढ़ा यात्री साधुओं को बैठने नहीं देता। मास्टर साहब ने साधुओं की डिगरी कर दी। भस्म और जटा की यह चमत्कारिक शक्ति देखकर सारे यात्री रोब में आ गये और फिर किसी को उनकी उस गाड़ी को अपवित्र करने का साहस नहीं हुआ। इसी तरह रीवां में लेखक की मुलाकात एक संन्यासी से हुई। वह स्वयं अपने गेरुवें बाने पर लज्जित थे। लेखक ने कहा, आप कोई और उद्यम क्यों नहीं करते? बोले, अब उद्यम करने की सामर्थ्य नहीं और करू भी तो क्या। मेहनत-मजूरी होती नहीं, विद्या कुछ पढ़ी नहीं, यह जीवन तो इसी भांति कटेगा। हाँ, ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि दूसरे जन्म में मुझे सद्बुध्दि दे और इस पाखंड में न फंसावे। सादी ने ऐसी हज़ारों घटनायें देखी होंगी, और कोई आश्*चर्य नहीं कि इन्हीं बातों से उनका दयालु हृदय भी पाखंडियों के प्रति ऐसा कठोर हो गया हो।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

सादी मुसलमानी धर्मशास्त्र के पूर्ण पंडित थे। लेकिन दर्शन में उनकी गति बहुत कम थी। उनकी नीति शिक्षा स्वर्ग और नर्क, तथा भय पर ही अवलंबित है। उपयोगवाद तथा परमार्थवाद की उनके यहाँ कोई चर्चा नहीं है। सच तो यह है कि सर्वसाधारण में नीति का उपदेश करने के लिए इनकी आवश्यकता ही क्या थी। वह सदाचार जिसकी नींव दर्शन के सिध्दांतों पर होती है धार्मिक सदाचार से कितने ही विषयों में विरोध रखता है और यदि उसका पूरा-पूरा पालन किया जाय तो संभव है समाज में घोर विप्लव मच जाय।

सादी ने संतोष पर बड़ा जोर दिया है। यह उनकी सदाचार शिक्षा का एकमात्र मूलाधार है। वह स्वयं बड़े संतोषी मनुष्य थे। एक बार उनके पैरों में जूते नहीं थे, रास्ता चलने में कष्ट होता था। आर्थिक दशा भी ऐसी नहीं थी कि जूता मोल लेते। चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। इसी विकलता में कूफ़ा की मस्जिद में पहुंचे तो एक आदमी को मस्जिद के द्वार पर बैठे देखा जिसके पांव ही नहीं थे। उसकी दशा देखकर सादी की आंखें खुल गयीं। मस्जिद से चले आये और ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने उन्हें पांव से तो वंचित नहीं किया। ऐसी शिक्षा इस बीसवीं शताब्दी में कुछ अनुपयुक्त-सी प्रतीत होती है। यह असंतोष का समय है। आजकल संतोष और उदासीनता में कोई अंतर नहीं समझा जाता। समाज की उन्नति असंतोष की ऋणि समझी जाती है। लेकिन सादी की संतोष शिक्षा सदुद्योग की उपेक्षा नहीं करती। उनका कथन है कि यद्यपि ईश्वर समस्त सृष्टि की सुधि लेता है लेकिन अपनी जीविका के लिए यत्न करना मनुष्य का परम् कर्तव्य है।

यद्यपि सादी के भाषा लालित्य को हिंदी अनुवाद में दर्शाना बहुत ही कठिन है तथापि उनकी कथाओं और वाक्यों से उनकी शैली का भली भांति परिचय मिलता है। नि:संदेह वह समस्त साहित्य संसार के एक समुज्ज्वल रत्न हैं, और मनुष्य समाज के एक सच्चे पथ प्रदर्शक। जब तक सरल भावों को समझने वाले, और भाषा लालित्य का रसास्वादन करने वाले प्राणी संसार में रहेंगे तब तक सादी का सुयश जीवित रहेगा, और उनकी प्रतिभा का लोग आदर करेंगे।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

रचनाएँ और उनका महत्तव

सादी के रचित ग्रंथों की संख्या पंद्रह से अधिक हैं । इनमें चार ग्रंथ केवल गज़लों के हैं । एक दो ग्रंथों मेंक़सीदे दर्ज हैं जो उन्होंने समय-समय पर बादशाहों या वज़ीरों की प्रशंसा में लिखे थे। इनमें एक अरबी भाषा में है। दो ग्रंथ भक्तिमार्ग पर हैं। उनकी समस्त रचना में मौलिकता और ओज विद्यमान है, कितने ही बड़े-बड़े कवियों ने उन्हें गज़लों का बादशाह माना है। लेकिन सादी की ख्याति और कीर्ति विशेषकर उनकी गुलिस्तां और बोस्तां पर निर्भर है। सादी ने सदाचार का उपदेश करने के लिए जन्म लिया था और उनके कसीदों और गज़लों में भी यही गुण प्रधान है। उन्होंने कसीदों में भाटपना नहीं किया है, झूठी तारीफों के पुल नहीं बांधे हैं। गज़लों में भी हिज्र और विशाल, जुल्फ़ और कमर के दुखड़े नहीं रोये हैं। कहीं भी सदाचार को नहीं छोड़ा। गुलिस्तां और बोस्तां का तो कहना ही क्या है? इनकी तो रचना ही उपदेश के निमित्त हुई थी। इन दोनों ग्रंथों को फ़ारसी साहित्य का सूर्य और चंद्र कहें तो अत्युक्ति न होगी। उपदेश का विषय बहुत शुष्क समझा जाता है, और उपदेशक सदा से अपनी कड़वी, और नीरस बातों के लिये बदनाम रहते आये हैं। नसीहत किसी को अच्छी नहीं लगती। इसीलिए विद्वानों ने इस कड़वी औषधि को भांति-भांति के मीठे शर्बतों के साथ पिलाने की चेष्टा की है। कोई चील-कौवे की कहानियाँ गढ़ता है, कोई कल्पित कथायें नमक-मिर्च लगाकर बखानता है। लेकिन सादी ने इस दुस्तर कार्य को ऐसी विलक्षण कुशलता और बुध्दिमत्त से पूरा किया है कि उनका उपदेश काव्य से भी अधिक सरस और सुबोध हो गया है। ऐसा चतुर उपदेशक कदाचित ही किसी दूसरे देश में उत्पन्न हुआ हो।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

सादी का सर्वोत्तमगुण वह वाक्य निपुणता है, जो स्वाभाविक होती है और उद्योग से प्राप्त नहीं हो सकती। वह जिस बात को लेते हैं उसे ऐसे उत्कृष्ट और भावपूर्ण शब्दों में वर्णन करते हैं, जो अन्य किसी के ध्*यान में भी नहीं आ सकती। उनमें कटाक्ष करने की शक्ति के साथ-साथ ऐसी मार्मिकता होती है कि पढ़ने वाले मुग्ध हो जाते हैं। उदाहरण की भांति इस बात को कि पेट पापी है, इसके कारण मनुष्य को बड़ी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती हैं, वह इस प्रकार वर्णन करते हैं
अगर जौरे शिकम न बूदे, हेच मुर्ग़ दर
दाम न उफतादे, बल्कि सैयाद खुद
दाम न निहारे।
भाव - यदि पेट की चिंता न होती तो कोई चिड़िया जाल में न फंसती, बल्कि कोई बहेलिया जाल ही न बिछाता।
इसी तरह इस बात को कि न्यायाधीश भी रिश्*वत से वश में हो जाते हैं, वह यों बयान करते हैं
हमा कसरा दन्दां बतुर्शी कुन्द गरदद,
मगर काजियां रा बशीरीनी।
भाव - अन्य मनुष्यों के दांत खटाई से गट्ठल हो जाते हैं लेकिन न्यायकारियों के मिठाई से।
उनको यह लिखना था कि भीख मांगना जो एक निंद्य कर्म है उसका अपराध केवल फ़कीरों पर ही नहीं बल्कि अमीरों पर भी है, इसको वह इस तरह लिखते हैं
अगर शुमा रा इन्साफ़ बूदे व मारा कनावत,
रस्मे सवाल अज़ जहान बरख़ास्ते।
भाव - यदि तुममें न्याय होता और हममें संतोष, तो संसार में मांगने की प्रथा ही उठ जाती।
इनके प्रधान ग्रंथ गुलिस्तां और बोस्तां का दूसरा गुण उनकी सरलता है। यद्यपि इनमें एक वाक्य भी नीरस नहीं है, किन्तु भाषा ऐसी मधुर और सरल है कि उस पर आश्*चर्य होता है। साधारण लेखक जब सजीली भाषा लिखने की चेष्टा करता है तो उसमें कृत्रिमता आ जाती है लेकिन सादी ने सादगी और सजावट का ऐसा मिश्रण कर दिया है कि आज तक किसी अन्य लेखक को उस शैली के अनुकरण करने का साहस न हुआ, और जिन्होंने साहस किया, उन्हें मुंह की खानी पड़ी। जिस समय गुलिस्तां की रचना हुई उस समय फ़ारसी भाषा अपनी बाल्यावस्था में थी। पद्य का तो प्रचार हो गया था लेकिन गद्य का प्रचार केवल बातचीत, हाट-बाज़ार में था। इसलिए सादी को अपना मार्ग आप बनाना था। वह फ़ारसी गद्य के जन्मदाता थे। यह उनकी अद्भुत प्रतिभा है कि आज छ: सौ वर्ष के उपरांत भी उनकी भाषा सर्वोत्*तम समझी जाती है। उनके पीछे कितनी ही पुस्तकें गद्य में लिखी गयीं, लेकिन उनकी भाषा को पुरानी होने का कलंक लग गया। गुलिस्तां जिसकी रचना आदि में हुई थी आज भी फ़ारसी भाषा का शृंगार समझी जाती है। उसकी भाषा पर समय का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा।
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Default Re: शेख़ सादी :: जीवनी

साहित्य संसार और कवि वर्ग में ऐसा बहुत कम देखने में आता है कि एक ही विषय पर गद्य और पद्य के दो ग्रथों में गद्य रचना अधिक श्रेष्ठ हो। किन्तु सादी ने यही कर दिखाया है। गुलिस्तां और बोस्तां दोनों में नीति का विषय लिया गया है। लेकिन जो आदर और प्रचार गुलिस्तां का है वह बोस्तां का नहीं। बोस्तां के जोड़ की कई किताबें फ़ारसी भाषा में वर्तमान हैं। मसनवी (भक्ति के विषय में मौलाना जलालुद्दीन का महाकाव्य), सिकन्दरनामा (सिकन्दर बादशाह के चरित्र पर निज़ामी का काव्य) और शाहनामा (फिरदोसी का अपूर्व काव्य, ईरान देश के बादशाहों के विषय में, फ़ारसी का महाभारत) यह तीनों ग्रंथ उच्चकोटि के हैं और उनमें यद्यपि शब्द योजना, काव्यसौदर्य, अलंकार और वर्णन शक्ति बोस्तां से अधिक है तथापि उसकी सरलता, और उसकी गुप्त चुटकियॉं और युक्तियॉं उनमें नहीं है। लेकिन गुलिस्तां के जोड़ का कोई ग्रंथ फ़ारसी भाषा में है ही नहीं। उसका विषय नया नहीं है। उसके बाद से नीति पर फ़ारसी में सैकड़ों ही किताबें लिखी जा चुकी हैं। उसमें जो कुछ चमत्कार है वह सादी के भाषा लालित्य और वाक्य चातुरी का है। उसमें बहुत-सी कथायें और घटनायें स्वयं लेखक ने अनुभव की हैं, इसलिए उनमें ऐसी सजीवता और प्रभावोत्पादकता का संचार हो गया है जो केवल अनुभव से ही हो सकता है। सादी पहले एक बहुत साधारण कथा छेड़ते हैं लेकिन अंत में एक ऐसी चुटीली और मर्मभेदी बात कह देते हैं कि जिससे सारी कथा अलंकृत हो जाती है। यूरोप के समालोचकों ने सादी की तुलना 'होरेस' (यूनान का सर्वश्रेष्ठ कवि) से की है। अंग्रेज़ विद्वान ने उन्हें एशिया के शेक्सपियर की पदवी दी है इससे विदित होता है कि यूरोप में भी सादी का कितना आदर है। गुलिस्तां के लैटिन, फ्रेंच, जर्मन, डच, अंग्रेजी, तुर्की आदि भाषाओं में एक नहीं कई अनुवाद हैं। भारतीय भाषाओं में उर्दू, गुजराती, बंगला में उसका अनुवाद हो चुका है। हिंदी भाषा में भी महाशय मेहरचन्द दास का किया हुआ गुलिस्तां का गद्य-पद्यमय अनुवाद 1888 में प्रकाशित हो चुका है। संसार में ऐसे थोड़े ही ग्रंथ हैं जिनका इतना आदर हुआ हो।
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