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Old 01-08-2013, 11:15 AM   #11
VARSHNEY.009
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अंतिम ग़रीब / जगदीश कश्यप

दरबान ने आकर बताया कि कोई फरियादी उनसे जरूर मिलना चाहता है। उन्होंने मेहरबानी करके भीतर बुलवा लिया। फरियादी झिझकता-झिझकता उनके दरबार में पेश हुआ तो वे चौंक पड़े। उन्हें आश्चर्य हुआ कि वह वहाँ कैसे आ गया! फिर यह सोचकर कि उन्हें भ्रम हुआ है, उन्होंने पूछ लिया—“कौन हो?”
“मैं गरीबदास हूँ सरकार।”
“गरीबदास! तुम? तुम्हें तो मैंने दफन कर दिया था!!”
“भूखे पेट रहा नहीं गया माई-बाप। इसलिए उठकर चला आया।”
“अब क्या चाहते हो?”
“कुछ खाने को मिल जाए हुजूर्।”
“अभी देता हूँ।” उसे आश्वासन देकर उन्होंने सामने दीवार पर टँगी अपनी दुनाली उतार ली,“यह लो खाओ…!”
दुनाली ने दो बार आग उगल दी। गरीबदास वहीं ढेर हो गया।
“दरबान, इसे ले जाकर दफना दो। इस कमीने ने तो तंग ही कर दिया है…।”

दूसरे दिन जब वह गरीबी-उन्मूलन के प्रारूप को अंतिम रूप दे रहे थे तो दरबान हड़बड़ाया हुआ-सा उनके कमरे में जा घुसा। उसकी घिग्घी बँधी हुई थी।
“मरे क्यों जा रहे हो?” उन्होंने डाँटा।
“हुजूर-हुजूर…” दरबान ने भयभीत आँखों से बाहर द्वार की ओर संकेत करते हुए कहा, “वही फरियादी फिर आ पहुँचा है…!!!”
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अंततोगत्वा / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक अमीर था। अपने भंडार और उसमें रखी पुरानी शराब पर उसे बड़ा घमंड था। उसके पास पुरातन किस्म का एक सागर(शराब सुरक्षित रखने व कप में डालने वाला ढक्कनदार बर्तन) भी था जिसे खास मौकों पर वह अपने लिए इस्तेमाल करता था।
एक बार राज्य का गवर्नर उससे मिलने आया। अमीर ने उसके बारे में अनुमान लगाया और तय किया, "इस दो कौड़ी के गवर्नर के सामने सागर को निकलने की जरूरत नहीं है।"
फिर एक रोमन कैथोलिक बिशप उससे मिलने आया। तब उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, मैं सागर को नहीं निकालूँगा। यह न तो उसका ही महत्व समझ पाएगा; और न ही उसमें रखी शराब की गंध की कीमत को इसके नथुने जान पाएँगे।"
राज्य का राजा आया और उसने उसके साथ शराब पी। लेकिन अमीर ने सोचा, "मेरे भंडार की शराब इस तुच्छ राजा से कहीं ज्यादा रुतबे वाली है।"
यहाँ तक कि उस दिन, जब उसके भतीजे की शादी थी, उसने अपने-आप से कहा, "नहीं, इन मेहमानों के सामने उस सागर को नहीं लाया जा सकता।"
साल बीतते गए और वह मर गया। उसे और एक बूढ़े को वैसे ही एक साथ दफनाया गया जैसे बरगद का बीज और किसी छोटे पौधे का बीज साथ-साथ जमीन में दफन होते हैं।
और उस दिन, जब उसे दफनाया गया था, रिवाज़ के मुताबिक सभी सागरों को बाहर निकाला गया। तब वह पुराना सागर भी दूसरे सागरों के साथ रख दिया गया। उसकी शराब को भी गरीब पड़ोसियों में बाँट दिया गया। किसी को भी उसके बेशकीमती होने का पता न चला।
उनके लिए, कप में डाली जाने वाली शराब सिर्फ शराब थी।
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Old 01-08-2013, 11:15 AM   #13
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अंतरयामी / अन्तरा करवड़े
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Old 01-08-2013, 11:15 AM   #14
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मेरी दादी¸ पूजा पाठ¸ जप तप में दिन रात लगी रहती है। हमारे घर ठाकुरजी के स्नान प्रसादी के बगैर कोई भी अन्न मुँह में नहीं डालता। दादी फिर ठाकुरजी का श्रृंगार करती है¸ उनकी बलाएँ लेती है¸ लड्*डू गोपाल को मनुहार से प्रसाद खिलाती है। उनके एक प्रभुजी महाराज है। बड़े तपस्वी¸ ज्ञानी संत है। ठाकुरजी के परम्* भक्त । ठाकुरजी उनसे स्वप्न में आकर बातें करते है। ऐसा दादी हमें बताती है। कभी - कभी हमें भी अपने साथ मंदिर में ले जाकर उनसे आशीष दिलवाती है। वहाँ बड़े अच्छे - अच्छे पकवान मिलते है खाने को। लेकिन वो कितना ही जिद करो¸ रोज ले ही नहीं जाती।
दादी कहती है¸ प्रभुजी महाराज अंतरयामी है। मेरे पूछने पर उन्होंने हँसते हुए यह बताया भी था कि जो सामने वाले के मन की बातें जान ले¸ उसे अंतरयामी कहते है। बड़ी कठिन तपस्या से ये बल मिलता है। मैं आँखें फाड़े सुनती रही थी उनकी ये बातें।
फिर कुछ दिनों के बाद दादी ने बड़ा ही कठिन व्रत रखना शुरू किया। दिन भर बस फल और दूध और रात में नमक का फरियाल। ऐसा वे लगातार दो महीने तक करने वाली थी। उनकी तबीयत खराब होती¸ उपवास सहन नहीं होते लेकिन डॉक्टर के स्पष्ट मना करने के बावजूद वे किसी का भी कहा नहीं माना करती।
मैंने उनसे काफी पहले यह पूछा था कि कठिन व्रत उपवास आखिर क्यों किये जाते है? तब उन्होंने मुझे बताया था कि किसी मनोकामना की पूर्ति के लिये ही ऐसा किया जाता है। मुझे समझ में नहीं आया कि इस उम्र में उनकी ऐसी क्या मनोकामना हो सकती है जो वे इतना कठिन व्रत कर रही है।
मैंने माँ से पूछा। मां ने मुस्कुराकर जवाब दिया¸ "तेरी दादी को इस घर में एक कुलदीपक चाहिये है। तेरा छोटा भाई! तभी तो ये सब कर रही है वे।" मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ। फिर व्रत की पूर्णाहूति पर मैंने उन्हें भोग लगाते समय ठाकुरजी से कहते सुना¸ "एक कुलदीपक की कृपा करो प्रभु। तुम्हारे लिये सोन की बंसरी बनवा दूँगी।"
यानी माँ की बात सही थी। लेकिन एक बात मेरी समझ में नहीं आई। यही कि प्रभुजी महाराज के जैसे माँ ने भी तो दादी के मन की बात जान ली थी। फिर दादी उसे अंतरयामी क्यों नहीं कहती?
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अंतिम यात्रा / अरुण कुमार

अर्थी उठने में देरी हो रही है। अन्तिम यात्रा में शामिल होने वालों की भीड़ घर के बाहर जमा है। वर्मा को बीड़ी की तलब उठी तो वह शर्मा की बाँह पकड़कर एक तरफ को ले चला। थोड़ी दूर जाकर वर्मा ने बंडल निकाला-- “यही जीवन का सबसे बड़ा सच है जी! यही सच है…!”
शर्मा ने एक बीड़ी पकड़ते हुए कहा-- “हाँ भाई साहब, एक दिन सभी को जाना है।”
“अब देर किस बात की हो रही है?” --वर्मा ने वर्मा ने बंडल वापस जेब के हवाले किया।
“बड़ा लड़का आ रहा है बंगलोर से। हवाई जहाज से आ रहा है। सुना है कि उसका फोन आ गया है, बस पाँच-सात मिनट में पहुँचने ही वाला है।” --शर्मा ने अपनी बीड़ी के दोनों छोर मुँह में डालकर हल्की-हल्की फूँक मारीं।
“लो जी, अब इसके बालकों को तो सुख ही सुख है…सात पीढ़ियों के लिए जोड़कर जा रहा है अगला।” --वर्मा ने माचिस में से एक सींक निकालकर जलाई।
“और क्या जी, इसे कहते हैं जोड़े कोई और खाए कोई। साले ऐश करेंगे... ऐश!” --वर्मा द्वारा जलाई सींक से शर्मा की बीड़ी भी जल उठी।
“भाई साहब, अब उन सब घोटालों और इंक्वारियों का क्या होगा जो इनके खिलाफ चल रही हैं?” --वर्मा ने गहरा काला धुँआ बाहर उगला।
“अजी होना क्या है। जीवन की फ़ाइल बन्द होते ही सब घोटालों-इंक्वारियों की फ़ाइलें भी बन्द हो जानी हैं। आखिर मुर्दे से तो वसूलने से रहे…” --शर्मा ने जो धुँआ उगला, वह वर्मा द्वारा उगले गये धुँए में मिलकर एक हो गया।
“वैसे भाई साहब, नौकरी करने का असली मजा भी ऐसे ही महकमों में है…क्यों?” --वर्मा ने गहरे असन्तोष-भरा धुँआ अपने फेफड़ों से बाहर उगला।
“और क्या जी, असली जिन्दगी ही लाखों कमाने वालों की है। अब, ये भी कोई जिन्दगी है कि सुबह से शाम तक माथा-पच्ची करके भी केवल पचास-सौ रुपए ही बना पाते हैं। हम तो अपना ईमान भी गँवाते हैं और मजे वाली बात भी नहीं...” --शर्मा ने भी अपना सारा असन्तोष धुँए के साथ बाहर उगल दिया।
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अंतिम संस्कार / बलराम अग्रवाल

पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।
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अंधे : ख़ुदा के बंदे / रमेश बतरा

-इस आदमी को क्यों नहीं चढ़ने दे रहे आप…इसे भी तो जाना है।
-यह तो कहीं भी चढ़ जायेगा। रह भी गया तो अगली गाड़ी से आ जायेगा। मगर तुम्हें तकलीफ होगी।
-मुझ पर इतना तरस क्यों खा रहे हैं आप?
-तुम अंधे जो हो…अपाहिज।
-मैं ही क्यों, आप भी तो अपाहिज हैं।
-सूरदास, भगवान ने आँखें नहीं दीं, कम-से-कम जुबान का तो सही इस्तेमाल कर… मीठा बोलना सीख।
-आपको तो भगवान ने सब-कुछ दिया है; पर क्या दुनिया का कोई भी काम ऐसा नहीं जो आप नहीं कर सकते?
-बहुत-से काम हैं।
-फिर उन कामों को लेकर तो आप भी अपाहिज ही हुए। और तो और, भगवान ने आपको आँखें दी हैं और आप उनका भी सही इस्तेमाल नहीं कर रहे।
-यह तो फिलोसफर लगता है।
-कैसे भई कैसे?
-आपकी आँखें यह नहीं देख रहीं कि दो आदमी हैं और आपका इंसानी फर्ज है कि आपकी तरह वे भी अपनी मंजिल पर पहुँच जायें, बल्कि आपकी आँखें अंधे और सुजाखे को देख रही हैं। जो आदमी होकर आदमी को नहीं पहचानता, उससे ज्यादा अपाहिज कोई नहीं होता।
-अच्छा-अच्छा, भाषण मत दे। चढ़ना है तो चढ़ गाड़ी में, वरना भाड़ में जा…हमें क्या पड़ी है!
-मुझे मालूम था, आप यही कहेंगे। आपकी तकलीफ मैं समझता हूँ…आप एक अंधे को गाड़ी पर चढ़ाकर पुण्य कमाना चाहते थे, किन्तु धर्मराज की बही में आपके नाम एक पुण्य चढ़ता-चढ़ता रह गया।
-पुण्य कमाने के लिए एक तू ही रह गया है बे?…मैं तो इसलिए कह रहा था कि अंधे बेचारों की हालत तो दो-तीन साल के बच्चों से भी बुरी हुई रहती है।
-वाह! दो-तीन साल का बच्चा इस तरह गाड़ी पकड़ सकता है क्या?
-बच्चा भला क्या गाड़ी पकड़ेगा अपने आप!
-मैं अकेला आया हूँ स्टेशन पर…कोई लाया नहीं मुझे।
-पुलिस से बचकर भाग रहा होगा…आजकल खूब ठुकाई कर रही है तुम्हारी।
-अजी, अपना हक माँगने गये थे, भीख माँगने नहीं…लाठी पड़ गयी तो क्या हुआ। आप जाइए तो आप पर भी पड़ सकती हैं लाठियाँ तो।
-हम तो कैसे भी बचाव कर सकते हैं अपना…मगर तुम…!
-देख लीजिए, जीता-जागता खड़ा है यह अविनाश कुमार आपके सामने।
उस आदमी के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ा। गाड़ी, जो सीटी दे चुकी थी, अब चल पड़ी। अविनाश कुमार ने लपककर डंडा पकड़ते हुए अपने पाँव फुटबोर्ड पर जमा दिए। लोग उसका हाथ थामकर उसे डब्बे के अंदर लेने की कोशिश करने लगे…और अविनाश कुमार बड़ी मजबूती-से डंडा थामे कहता रहा—इंसान को संभालना इंसान का फर्ज है…इस नाते मैं आपकी तारीफ करता हूँ…पर मुझे अंधा समझकर मुझ पर दया मत कीजिए…मुझे अपने लायक बनने दीजिए…अंधा हो चुका…मोहताज नहीं होना चाहता…!
गाड़ी तेज होती चली जा रही थी।
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अकेला कब तक लड़ेगा जटायु / बलराम अग्रवाल

लगभग चौथे स्टेशन तक कम्पार्टमेंट से सभी यात्री उतर गये। रह गया मैं और बढ़ती जा रही ठंड के कारण रह-रह क़र सिहरती, सहमी आँखों वाली वह लड़की। कम्पार्टमेंट में अनायास उपजे इस एकांत ने अनेक कल्पनाएँ मेरे मन में भर दीं—काश! पत्नी इन दिनों मायके में रह रही होती…बीमार…अस्पताल में होती…या फिर…। कल्पनाओं के इस उन्माद में अपनी सीट से उठकर मैं उसके समीप जा बैठा।
गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी। एक…दो…तीन नये यात्रियों ने प्रवेश किया, पूरे कम्पार्टमेंट का एक चक्कर लगाया और एक-एक कर उनमें से दो हमारे सामने वाली बर्थ पर आ टिके।
“कहाँ जाओगे?” गाड़ी चलते ही एक ने पूछा।
“शामली।” मैं बोला।
“यह?” सभ्यता का अपना लबादा उतारकर दूसरे ने पूछा।
“येयि…यह…।” मैं हकलाया।
“मैं पत्नी हूँ इनकी।” स्थिति को भाँपकर लड़की बोल उठी। अपनी दायीं बाँह से उसने मेरी बाँह को जकड़ लिया।
“ऐसी की तैसी…तेरी…और तेरे इस शौहर की।” दूसरे ने झड़ाक से एक झापड़ मुझे मारकर लड़की को पकड़ लिया।
“बचा लो…बचा लो…यों चुप न बैठो…!” मेरी बाँह को कुछ और जकड़कर लड़की भयंकर भय और विषाद से डकरा उठी। दुर्धर्ष नजर आ रहे उन गुण्डों ने बलपूर्वक उसे मेरी बाँह से छुड़ा लिया। मेरे देखते-देखते छटपटाती-चिंघाड़ती उस लड़की को कम्पार्टमेंट में वे दूसरी ओर को ले गये।
“लड़की को छोड़ दो!” उधर से अचानक चेतावनी-भरा स्वर उभरा।
यह निश्चय ही उस ओर बैठ गया तीसरा यात्री था। उस गहन रात को दनादन चीरती जा रही गाड़ी के गर्भ में उसकी चेतावनी के साथ ही हाथापाई और मारपीट प्रारम्भ हो जाने का आभास हुआ। काफी देर तक वह दौर चलता रहा। कई स्टेशन आये और गुजर गये। डिब्बे में अन्तत: नीरवता महसूस कर मैंने पेशाब के बहाने उठने की हिम्मत की। जाकर संडास का दरवाजा खोला—तीसरे का नंगा बदन वहाँ पड़ा था…लहूलुहान…जगह-जगह फटा चेहरा! आहट पाकर पल-भर को उसकी आँखें खुलीं…नजर मिलते ही आँखों के पार निकलती आँखें। ‘मर-मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने भीतर सँजोते तो लड़की बच जाती…और गुण्डे…!’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती…थू-थू करती आँखें। उफ्फ!
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अकेले भी जरूर घुलते होंगे पिताजी / बलराम अग्रवाल

पाँच सौ…पाँच सौ रुपए सिर्फ…यह कोई बड़ी रकम तो नहीं है, बशर्ते कि मेरे पास होती—अँधेरे में बिस्तर पर पड़ा बिज्जू करवटें बदलता सोचता है—दोस्तों में भी तो कोई ऐसा नजर नहीं आता है जो इतने रुपए जुटा सके…सभी तो मेरे जैसे हैं, अंतहीन जिम्मेदारियों वाले…लेकिन यह सब माँ को, रज्जू को या किसी और को कैसे समझाऊँ?…समझाने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है…रज्जू अपने ऊपर उड़ाने-बिगाड़ने के लिए तो माँग नहीं रहा है रुपए…फाइनल का फार्म नहीं भरेगा तो प्रीवियस भी बेकार हो जाएगा उसका और कम्पटीशन्स में बैठने के चान्सेज़ भी कम रह जाएँगे…हे पिता! मैं क्या करूँ…तमसो मा ज्योतिर्गमय…तमसो मा…।
“सुनो!” अचानक पत्नी की आवाज सुनकर वह चौंका।
“हाँ!” उसके गले से निकला।
“दिनभर बुझे-बुझे नजर आते हो और रातभर करवटें बदलते…।” पत्नी अँधेरे में ही बोली, “हफ्तेभर से देख रही हूँ…क्या बात है?”
“कुछ नहीं।” वह धीरे-से बोला।
“पिताजी के गुजर जाने का इतना अफसोस अच्छा नहीं।” वह फिर बोली,“हिम्मत से काम लोगे तभी नैय्या पार लगेगी परिवार की। पगड़ी सिर पर रखवाई है तो…।”
“उसी का बोझ तो नहीं उठा पा रहा हूँ शालिनी।” पत्नी की बात पर बिज्जू भावुक स्वर में बोला,“रज्जू ने पाँच सौ रुपए माँगे हैं फाइनल का फॉर्म भरने के लिए। कहाँ से लाऊँ?…न ला पाऊँ तो मना कैसे करूँ?…पिताजी पता नहीं कैसे मैनेज कर लेते थे यह सब!”
“तुम्हारी तरह अकेले नहीं घुलते थे पिताजी…बैठकर अम्माजी के साथ सोचते थे।” शालिनी बोली,“चार सौ के करीब तो मेरे पास निकल आएँगे। इतने से काम बन सलता हो तो सवेरे निकाल दूँगी, दे देना।”
“ठीक है, सौ-एक का जुगाड़ तो इधर-उधर से मैं कर ही लूँगा।” हल्का हो जाने के अहसास के साथ वह बोला।
“अब घुलना बन्द करो और चुपचाप सो जाओ।” पत्नी हिदायती अन्दाज में बोली।
बात-बात पर तो अम्माजी के साथ नहीं बैठ पाते होंगे पिताजी। कितनी ही बार चुपचाप अँधेरे में ऐसे भी अवश्य ही घुलना पड़ता होगा उन्हें। शालिनी! तूने अँधेरे में भी मुझे देख लिया और मैं…मैं उजाले में भी तुझे न जान पाया! भाव-विह्वल बिज्जू की आँखों के कोरों से निकलकर दो आँसू उसके कानों की ओर सरक गए। भरे गले से बोल नहीं पा रहा था, इसलिए कृतज्ञता प्रकट करने को अपना दायाँ हाथ उसने शालिनी के कन्धे पर रख दिया।
“दिन निकलने को है। रातभर के जागे हो, पागल मत बनो।” स्पर्श पाकर वह धीरे-से फुसफुसाई और उसका हाथ अपने सिर के नीचे दबाकर निश्चेष्ट पड़ी रही।
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अफ़सोस / ख़लील जिब्रान / बलराम अग्रवाल

एक दार्शनिक सफाईकर्मी से बोला - "तुम्हारा पेशा वाकई बहुत घिनौना और गंदा है। मुझे दया आती है तुम-जैसे लोगों पर।"
"दया दिखाने का शुक्रिया श्रीमान जी।" सफाईकर्मी बोला - "आपका पेशा क्या है?"
"मैं लोगों के कर्तव्यों, कामनाओं और लालसाओं का अध्ययन करता हूँ।" दार्शनिक सीना फुलाकर बोला।
उसकी इस बात पर वह गरीब हल्के-से मुस्कराया और बोला - "आप भी रहम के काबिल हैं महाशय। सच।"
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