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Old 01-12-2012, 09:18 AM   #11
ravi sharma
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फिर मन्त्री ने कहा, हे बगला! तू हंस की रीत क्या करता है? अपने पाखण्ड को छुपाकर तू आपको हंस की नाईं उज्ज्वल दिखाता है पर जब मछली निकलती है तब तू खा लेता है, यही तेरे में अवगुण है | हंस मानसरोवर के मोती चुगनेवाले हैं और तू गढ़े में से तृष्णा करके मछली खानेवाला है, तू क्यों आपको हंस मानता है? तैसे ही जीव विषयों की तृष्णा करते हैं और ज्ञानवान् विवेक से तृप्त हैं, उनकी रीत अज्ञानी क्यों करता है? हे राजन्! जो हंस हैं वे सदा अपनी महिमा में रहते हैं और अपना जो मोती का आहार है उसको भोजन करते हैं, दूसरे किसी पदार्थ का स्पर्श नहीं करते | जैसे चन्द्रमुखी कमल चन्द्रमा को देखकर शोभा पाते हैं-चन्द्रमा बिना शोभा नहीं पाते, तैसे ही बुद्धि भी तब शोभा पाती है जब ज्ञान उदय होता है आत्मज्ञान बिना बुद्धि शोभा नहीं पाती | बड़े बड़े सुगन्धवाले वृक्ष का माहात्म्य भँवरे ही जानते हैं और जीव नहीं जानते | इतना कह वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! समुद्र के किनारे पर राजा विपश्चित् को मन्त्रियों ने ऐसे कहकर फिर कहा, हे राजन्! अब पृथ्वीनगर के मण्डलेश्वर स्थापन करो |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 09:19 AM   #12
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हे रामजी! जब ऐसे मन्त्री ने कहा, तब सब दिशाओं के मण्डलेश्वर स्थापन किये गये और चारों राजा जो अपनी-अपनी दिशा के समुद्र पर बैठे थे उन्होंने अपने-अपने मन्त्री से कहा, हे साधो! अब हमने समुद्रपर्यन्त दिग्विजय की है और अब हमारी जय हुई है, अब चैत्य जो दृश्य है सो दृश्य विभूति को देखो | समुद्र के पार द्वीप है, फिर उस समुद्र के पार और द्वीप है, फिर समुद्र है और फिर द्वीप है और इसी प्रकार सप्तद्वीप और सात समुद्र हैं पर उनके पार क्या हैं? इस प्रकार सर्व दृश्य देखने की इच्छा करके उन्होंने अग्निदेवता का आवाहन किया तब उनकी दृढ़भावना से अग्निदेवता सम्मुख आन स्थित हुए और बोले, हे राजन्! जो कुछ तुमको वाञ्छा है सो माँगो | तब राजा ने कहा, हे भगवन्! ईश्वर की माया से पाञ्चभौतिक दृश्य में जो भूत हैं उनके देखने की हमारी इच्छा है सो पूर्ण करो |
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Old 01-12-2012, 09:19 AM   #13
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हे देव! हम इसी शरीर से दृश्य देखने जावे और जब यह शरीर चलने से रहित हो तब मन्त्र सत्ता से जावें पर जहाँ मन्त्र की भी गम नहीं वहाँ सिद्धि से जावें और जहाँ सिद्धि की भी गम नहीं वहाँ मन के वेग से जावें और मृतक भी न हों | यह वर हमको दो | हे रामजी! जब इस प्रकार राजा ने कहा तब अग्नि ने कहा कि ऐसे ही होगा | इस प्रकार कहकर अग्नि अन्तर्धान हो गये | जैसे समुद्र से तरंग उठकर फिर लय हो जावे तैसे ही अग्नि अन्तर्धान हो गये | जब राजा विपश्चित् वर पाकर चलने को समर्थ हुआ तब जितने मन्त्री और मित्र थे वे रुदन करने लगे और बोले, हे राजन्! तुमने यह क्या निश्चय किया है? ईश्वर की माया का अन्त किसी ने नहीं पाया इससे तुम अपने स्थान को चलो , यह क्या निश्चय तुमने धारा है? हे रामजी! इस प्रकार मन्त्री कहते रहे परन्तु राजा ने उनको आज्ञा देकर एक एक दिशा के समुद्र में प्रवेश किया और चारों दिशाओं में चारों राजाओं ने गमन किया पर जो बड़े बड़े शक्तिमान् मन्त्रीगण थे वे सात ही चले | तब राजा मन्त्रशक्ति से समुद्र को लाँघ गया |
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Old 01-12-2012, 09:19 AM   #14
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कहीं पृथ्वी पर चले और कहीं ऊँचे चले इसी प्रकार और द्वीप में जा निकला, तब बड़ा समुद्र आया उसमें प्रवेश कर गया जिसमें बड़े तरंग उछलते थे और जिसका सौ योजनपर्यन्त विस्तार था | कभी अधः को और कभी ऊर्ध्व को जाते थे | हे रामजी 1 ऐसे तरंग उछलें मानो पर्वत उछलते हैं जब वे ऊर्ध्व को उछलें तब स्वर्गपर्यन्त उछलते भासें और जब अधः को जावें तब पातालपर्यन्त चलते भासें | जैसे पानी में तृण फिरता है, तैसे ही राजा फिरे | इस प्रकार कष्ट से रहित समुद्र और दिशा को लाँघ गया परन्तु मध्य में जो वृत्तान्त हुआ सो सुनो | क्षीर समुद्र में एक मच्छ रहता था जिसको सब देवता प्रणाम करते थे और जो विष्णु भगवन् के मच्छ अवतार के परिवार में था | जब राजा ने क्षीसमुद्र में प्रवेश किया तब राजा को उसने मुख में डाल लिया पर राजा मन्त्र के बल से उसके मुख से निकल गया |
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Old 01-12-2012, 09:19 AM   #15
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आगे फिर एक मच्छ मिला उसने भी उसे मुख में डाल लिया पर उससे भी वह निकल गया | फिर आगे पिशाचिनी का देश था वहाँ राजा को पिशाच ने काम से मोहित किया | फिर उसने दक्षप्रजापति की कुछ अवज्ञा की जिससे उसने शाप दिया और राजा वृक्ष हो गया | निदान कुछ काल वृक्ष रहकर फिर छूटा तो एक देश में दर्दुर हुआ और सौ वर्षपर्यन्त खाईं में पड़ा रहा | फिर उससे छूटकर मनुष्य हुआ तब किसी सिद्ध के शाप से शिला हो गया और सौ वर्षपर्यन्त शिला ही रहा | उसके उपरान्त अग्निदेवता ने शिला से छुड़ाया तो फिर मनुष्य हुआ, तब वह सिद्ध आश्चर्यवान् हुआ कि मेरे शाप को दूर करके यह मनुष्य क्यों कर हुआ है- यह तो मुझसे भी बड़ा सिद्ध है | ऐसे जानकर उसने उसके साथ मैत्री की | इसी प्रकार दूसरे समुद्रों को भी यह लाँघता गया और क्षीरसमुद्र, खारी समुद्र और इक्षु के रस के समुद्र को लाँघकर द्वीपों को लाँघता गया |
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Old 01-12-2012, 09:20 AM   #16
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फिर एक अप्सरा से मोहित हुआ और बहुत काल में वहाँ से छूटा-तो एक देश में पक्षी हुआ और बहुत कालपर्यन्त पक्षी रहकर छूटा तो एक गोपी पिशाचिनी थी उसने बैल बनाके उसे रखा और दूसरे विपश्चित् ने बैल विपश्चित् को उपदेश करके गाया | निदान हे रामजी! चारों दिशाओं में चारों विपश्चित् भ्रमते फिरे | दक्षिण दिशा का तो पिशाचिनी से मोहित हुआ इससे उसने बहुत जन्म पाये और पूर्व का बहता हुआ मच्छ के मुख में चला गया और उसने निकाल डाला, इससे लेकर वह अवस्था देखी | उत्तर दिशा का जो हुआ उसने वही अवस्था देखी और पश्चिम दिशा का हेमचू पक्षी की पीठ पर प्राप्त हुआ और उसने उसे कुशद्वीप में डाल दिया इससे उसने भी अनेक अवस्था पाई | हे रामजी! एक एक विपश्चित् ने भिन्न भिन्न योनि और अवस् था का अनुभव किया | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! तुम कहते हो कि `विपश्चित एक ही था और उनकी संवित् भी एक ही थी और आकार भी एक ही था तो भिन्न भिन्न रुचि कैसे हुई जो एक पक्षी हुआ,दूसरा वृक्ष हुआ और इससे लेकर वासना के अनुसार अनेक शरीर पाते फिरे |
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Old 01-12-2012, 09:20 AM   #17
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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इसमें क्या आश्चर्य है? उनकी संवित् एक ही थी परन्तु भ्रम से भिन्नता हो जाती है | जैसे किसी पुरुष को स्वप्ना आता है तो उसमें पशु-पक्षी हो जाते हैं और भिन्न भिन्न रुचि भी हो जाती है, तैसे ही उसकी भिन्न भिन्न रुचि हो गई | जैसे देखो कि शरीर तो एक ही होता है पर उसमें नेत्र, श्रवण, नासिका, जिह्वा और त्वचा की रुचि भिन्न भिन्न होती है और अपने अपने विषयों को ग्रहण करती हैं सो एकही शरीर में अनेकता भासती है, तैसे ही उनकी एक ही संवित् थी परन्तु भिन्न भिन्न हो गया था इससे मन के फुरने से एक में अनेक भासीं | जैसे एक ही योगेश्वर इच्छा करके और और शरीर धर लेता है और एक से अनेक हो जाता है | एक सहस्त्रबाहु अर्जुन था सो एक भुजा से युद्ध करता था, दूसरी भुजा से दान करता था और एक से लेता था, इसी प्रकार सब भुजाओं से चेष्टा करता था वे भी भिन्न भिन्न हुए | एक ही शरीर में भिन्न भिन्न चेष्टा होती है |
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Old 01-12-2012, 09:20 AM   #18
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जैसे विष्णु भगवन् कहीं दैत्यों के साथ युद्ध करते, कहीं कर्म करते हैं, कहीं लीला करते हैं और कहीं शयन करते हैं सो संवित् तो एक ही है परन्तु चेष्टा भिन्न भिन्न होती है, तैसे ही उनकी संवित् में अनेक रुचि हुई तो इसमें क्या आश्चर्य है? हे रामजी! इस प्रकार उन्होंने जन्म से जन्मान्तर को अविद्यक संसार में देखा | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वे तो बोधवान् विपश्चित् थे और बोधवान् जन्म नहीं पाता फिर उनको किस प्रकार जन्म हुआ? वशिष्ठजी बोले हे रामजी! वे विपश्चित् बोधवान् न थे परन्तु बोध के निकट धारणा अभ्यासवाले थे | जो वे ज्ञानवान् होते तो दृश्यभ्रम देखने की इच्छा क्यों करते? इससे वे ज्ञानवान् न थे-धारणा अभ्यासी थे अतः समुद्र को लाँघ गये और मच्छ के उदर से बल करके निकले सो यह योगशक्ति प्रसिद्ध है | ज्ञान का लक्षण सुसंवेद्य है परसंवेद्य नहीं |
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Old 01-12-2012, 09:20 AM   #19
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राजा विपश्चित् ज्ञानवान् न थे इस कारण देश-देशान्तर में भ्रमते रहे और ज्ञान बिना अविद्यक संसार में जन्ममरण में भटकते रहे | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! योगेश्वरों को भूत, भविष्य, वर्तमान, तीनों कालों का ज्ञान कैसे होता है और एक देश में स्थित हुआ सर्वत्र कर्मों को कैसे करता है सो सब मुझसे कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अज्ञानी की वार्त्ता यह मैंने तुमसे कही है और जितना जगत् है सो सब चिदाकाशस्वरूप है | जिसको ऐसी सत्ता का ज्ञान हुआ है वे महापुरुष हैं | जैसे स्वप्ने से कोई पुरुष जागे तो स्वप्ने की सब दृष्टि उसको अपना ही स्वरूप भासती है और उसमें कन्धायमान नहीं होता | यह सब नानात्व भासती है सो नाना नहीं और अपनी भी नहीं केवल आत्मसत्ता ज्यों की त्यों अपने आप में स्थित है | जैसे आकाश अपनी शून्यता में स्थित है, तैसे ही आत्मा अपने आपमें स्थित है | ये तीनों काल भी ज्ञानवान् को ब्रह्मरूप हो जाते हैं और सब जगत् भी ब्रह्मरूप हो जाते हैं और द्वैतभाव उसका मिट जाता है | ऐसे ज्ञानवान् को ज्ञानी ही जानता है और कोई नहीं जान सकता, जैसे अमृत को जो पान करता है सो ही उसके स्वाद को जानता है और कोई जान नहीं सकता |
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Old 01-12-2012, 09:21 AM   #20
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हे रामजी! ज्ञानी और अज्ञानी की चेष्टा तो तुल्य भासती है परन्तु ज्ञानी के निश्चय में कुछ और है और अज्ञानी के निश्चय में और है | जिसका हृदय शीतल हुआ है वह ज्ञानवान् है और जिसका हृदय जलता है वह अज्ञानी है | वह बाँधा हुआ है और ज्ञानवान् का शरीर चूर्ण हो अथवा उसे राज्य प्राप्त हो तो भी उसको रागद्वेष नहीं उपजता, वह सदा ज्यों का त्यों एकरस रहता है | वह जीवन्मुक्त है परन्तु यह लक्षण उसका कोई जान नहीं सकता वह आपही जानता है शरीर को दुःख और सुख भी प्राप्त होता है, मरता और रुदन भी करता है और हँसता, लेता और देता भी है और इससे लेकर सब चेष्टा करता दृष्टि आता है पर वह अपने निश्चय में न दुःखी होता है, न सुखी होता है, न देता है और न लेता है-सदा ज्यों का त्यों रहता है | हे रामजी! व्यवहार तो उसका भी अज्ञानी की नाईं ही दृष्टि आता है परन्तु हृदय से उसका निश्चय होता है और अद्भुत पद में स्थित रहता है कदाचित् नहीं गिरता | उसका परम उदित रूप होता है और रागसहित भी दृष्टि आता है परन्तु हृदय से राग किसी में नहीं करता, क्रोध करता भी दृष्टि आता है परन्तु उसको क्रोध कदाचित् नहीं होता |
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