04-12-2010, 12:36 AM | #11 | |
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Re: मान्यता
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गोरेपन की क्रीम लगते ही लड़की आजकल साइकल की रेस जीत जाती है, लड़के के साथ मोहल्ले की हर अठन्नी चवन्नी चिपक जाती हैं आदि आदि इत्यादि | बकवास और बिना सर पैर की बकवास | हम भारतीय तो सदियों से सांवले राम और सलोने कृष्ण को पूजते आ रहे हैं, नेत्रहीन सूरदास ने जो सलोने कृष्ण की बाल लीला का वर्णन किया है उसे सुन कर किसी का भी मन मोहित हो जाये | भला ऐसे में गोरेपन के पीछे क्या भागना | आज कल की बात की जाये तो सलमान खान, बिपाशा बासु, मुग्धा गोडसे, माधवन, महेश बाबू ये सभी अभिनेता/अभिनेत्रियाँ सांवली रंगत के हैं किन्तु क्या इनके चाहने वाले कम हैं ??? मेरे अनुसार तो माधवन की मुस्कान किसी अभिनेत्री को भी पछाड़ दे | क्या ये सुन्दर नहीं दिखते ? अरे त्वचा के एक कण की अधिकता और कमताई के पीछे क्या भागना!!! चमड़ी के अन्दर का आदमी तो वही है | |
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14-12-2010, 09:58 AM | #12 |
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Re: मान्यता
लघुशंका का निवारण:-
प्रायः आम आदमी शंकाओं से घिरा रहता है और लघुशंकाओं से तो और भी अधिक. ये शंका घर से बाहर निकलकर ही घेरती हैं और व्यक्ति उसके निवारण के लिए प्रयासरत रहता है और वास्तव में इस शंका का निवारण जब तक न हो इन्सान सहज ही नहीं हो पाता . किसी भी शहर के गली, दीवारों कि आड़, वृक्ष के पीछे कहीं भी लोग अपनी इस शंका का निवारण करते देखे जा सकते हैं और ये भारत के सार्वजनिक जीवन का हिस्सा इस कदर बन चुका है कि आम सहमती इसे मान्यता के रूप में स्थापित कर चुकी है जिसका विरोध करने का साह्स किसी में भी नहीं.
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घर से निकले थे लौट कर आने को मंजिल तो याद रही, घर का पता भूल गए बिगड़ैल |
15-12-2010, 12:05 PM | #13 |
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Re: मान्यता
कचरे की मान्यता:-
कचरा फेकने की प्रतियोगिता हर गाली-कूंचे व हर शहर में देखी जा सकती है.अपने घर का कचरा किसी के भी घर के सामने या कहीं भी ये सोच कर फेंका जा सकता है की सारा भारत हमारा है बल्कि हम तो विश्व बंधुत्व की भावना भी रखते हैं. अगर कोई इस अपनत्व की भावना को न समझकर क्रोध करे तो उसकी नादानी पर गुस्सा न करके उसे बताये की ये आपका अपनापन दिखाने का तरीका है और इससे अच्छा तरीका कोई और हो ही नहीं सकता . यदि अगली बार कोई अपने आस-पड़ोस से अपनापन जाहिर करना चाहता हो तो अपने घर का कचरा उनके घर के सामने फेंक आये और उन्हें कृतार्थ करें बाकि इस मान्यता का अगला चरण वे अपने आप तय कर लेंगे.
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31-01-2011, 01:35 PM | #14 |
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Re: मान्यता
अभिनन्दन कि परम्परा:-
मात अभिनन्दन कि परम्परा भारत में बहुत पुरानी है. ये संस्कारों में रची- बसी है. माँ के प्रति आदर कि भावना घर और सार्वजनिक जीवन में प्रत्यक्ष देखी जा सकती है और ये इतनी अधिक स्थापित हो चुकी है कि प्रेम या क्रोध में होने पर गाली के रूप में धड़ल्ले से प्रयोग में लाई जाती है और इसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त है. लोगों में यह प्रचलन बेशक शर्मनाक लग सकता है किन्तु यह सामाजिक रूप से बुरा नहीं लगता यदि किसी को बुरा भी लगे तो विरोध करने के लिए इस मान्यता में स्थान ही नहीं है. और तो और बोलीवुड कि फिल्मों में भी आजकल ये एक फैशन के रूप में आ रहा है. माँ का गाली के रूप में प्रयोग एक ऐसे देश में जहाँ नारी कि पूजा करने कि हिदायत दी गई हो वो भी वेदों में तो इस तरह का आचरण वाकई शर्मनाक है.
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01-02-2011, 12:52 PM | #15 |
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Re: मान्यता
रंगाई-छपाई कि कारीगरी:-
छपाई प्रथा के रूप में सर्वसाधारण में व्याप्त है. राह चलते कहीं भी छपाई का कार्क्रम करने कि पूरी स्वंत्रता प्राप्त है. ये वह क्षेत्र है जिसे कानूनन अपराध नहीं माना जाता है ये बात अलग है कि सार्वजनिक स्वच्छता हमारी किताबों में लिखी है परन्तु वह भी सिर्फ पढ़ने के लिए शेष है. आइये आपको छपाई के प्रकार बताएं- रास्ते चलते आप कही भी थूक सकते हैं और अपनी छपाई करके किसी को भी कृतार्थ कर सकते हैं. क्या मजाल कोई इसका विरोध कर सके क्योकिं इसके लिए इस चलन का प्रदर्शन करने वाला इतना समय ही नहीं देता कि आप सम्हल जाये, ये छपाई बिना पूर्व सूचना के कि जाती है. दूसरी छपाई कुल्ले के रूप में होती है, जिसका क्षेत्र कुछ विस्तृत होता है. तीसरी तरह कि छपाई सबसे खतरनाक होती है, पान खाकर अक्सर लोग उसे थूकने के मर्ज के शिकार होते हैं और जब भी वे इसे मुंह से बाहर फेकते हैं, इसकी छपाई लाल रंग में अवतरित होती है और स्थाई प्रभाव छोडती है. इस सार्वजनिक मान्यता का भुक्तभोगी विरोध के रूप में गाली- गुफ्तार कर ले पर इसे स्वीकार तो करना ही पड़ेगा.
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02-02-2011, 08:54 AM | #16 |
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Re: मान्यता
अतिक्रमण - सरकारी सम्पति: व्यक्तिगत कब्ज़ा :-
भारत के महानगर से लेकर गाँवों तक सरकारी जमीन पर कोई भी इन्सान कभी भी अपने व्यक्तिगत ऊपयोग हेतु कब्ज़ा कर लेता है और दूसरों को उसकी इस हरकत से कोई परेशानी हो सकती है इस विषय पर वह सोचना ही नहीं चाहता. पिछले २०-२५ सालों में इस आदत ने अधिकार की शक्ल अख्तियार कर ली है. और अब ये जीवन का हिस्सा बन चुकी है.अतिक्रमण एक महामरी की शक्ल ले चुका है.
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05-03-2011, 01:58 PM | #17 |
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Re: मान्यता
आपने मान्यतावाद का एक पक्ष देखा, दूसरा पक्ष भी है। जो बेहद अच्छा है। मान्यतावाद हमें सही आचरण करने की सीख भी देता है। यह भी तो मान्यता है कि भगवान या अल्लाह, या इशा या गाड कुछ भी कहें हमें देख रहा है। और, हम उसके डर से सही आचरण कर रहे हैं। गीता के ज्ञान को तो हम कभी भूल भी नहीं सकते। जो हमें कर्म की सीख देता है। मुझे लगता है यदि मान्यताएं न हो, तो इंसान फस्र्टरेट हो जाएगा। इंसान है तो मान्यताएं है, हां, मान्यताओं में यदि वैज्ञानिक पुट आ जाए तो बात बन सकती है। मेरे ख्याल से हमें मान्यताओं में वैज्ञानिकता लाने की बात करनी चाहिए। मान्यताएं अवचेतन मन का वह अनुशासन है जो हमें समाज में सही सही करने के लिए प्रेरित करता है, या मजबूर करता है।
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23-07-2014, 10:59 AM | #18 |
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Re: मान्यता
बहुत अच्छे मित्र ,मान्यताओं से परिचित कराने के लिए धन्यवाद मित्र
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29-10-2014, 12:59 PM | #19 |
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Re: मान्यता
एक बार एक महात्माजी अपने कुछ शिष्यों के साथ जंगल में आश्रम बनाकर रहते थें, एक दिन कहीं से एक बिल्ली का बच्चा रास्ता भटककर आश्रम में आ गया । महात्माजी ने उस भूखे प्यासे बिल्ली के बच्चे को दूध-रोटी
खिलाया । वह बच्चा वहीं आश्रम में रहकर पलने लगा। लेकिन उसके आने के बाद महात्माजी को एक समस्या उत्पन्न हो गयी कि जब वे सायं ध्यान में बैठते तो वह बच्चा कभी उनकी गोद में चढ़ जाता, कभी कन्धे या सिर पर बैठ जाता । तो महात्माजी ने अपने एक शिष्य को बुलाकर कहा देखो मैं जब सायं ध्यान पर बैठू, उससे पूर्व तुम इस बच्चे को दूर एक पेड़ से बॉध आया करो। अब तो यह नियम हो गया, महात्माजी के ध्यान पर बैठने से पूर्व वह बिल्ली का बच्चा पेड़ से बॉधा जाने लगा । एक दिन महात्माजी की मृत्यु हो गयी तो उनका एक प्रिय काबिल शिष्य उनकी गद्दी पर बैठा । वह भी जब ध्यान पर बैठता तो उससे पूर्व बिल्ली का बच्चा पेड़ पर बॉधा जाता । फिर एक दिन तो अनर्थ हो गया, बहुत बड़ी समस्या आ खड़ी हुयी कि बिल्ली ही खत्म हो गयी। सारे शिष्यों की मीटिंग हुयी, सबने विचार विमर्श किया कि बड़े महात्माजी जब तक बिल्ली पेड़ से न बॉधी जाये, तब तक ध्यान पर नहीं बैठते थे। अत: पास के गॉवों से कहीं से भी एक बिल्ली लायी जाये। आखिरकार काफी ढॅूढने के बाद एक बिल्ली मिली, जिसे पेड़ पर बॉधने के बाद महात्माजी ध्यान पर बैठे। विश्वास मानें, उसके बाद जाने कितनी बिल्लियॉ मर चुकी और न जाने कितने महात्माजी मर चुके। लेकिन आज भी जब तक पेड़ पर बिल्ली न बॉधी जाये, तब तक महात्माजी ध्यान पर नहीं बैठते हैं। कभी उनसे पूछो तो कहते हैं यह तो परम्परा है। हमारे पुराने सारे गुरुजी करते रहे, वे सब गलत तो नहीं हो सकते । कुछ भी हो जाये हम अपनी परम्परा नहीं छोड़ सकते। यह तो हुयी उन महात्माजी और उनके शिष्यों की बात । पर कहीं न कहीं हम सबने भी एक नहीं; अनेकों ऐसी बिल्लियॉ पाल रखी हैं । कभी गौर किया है इन बिल्लियों पर ?सैकड़ों वर्षो से हम सब ऐसे ही और कुछ अनजाने तथा कुछ चन्द स्वार्थी तत्वों द्वारा निर्मित परम्पराओं के जाल में जकड़े हुए हैं। ज़रुरत इस बात की है कि हम ऐसी परम्पराओं और अॅधविश्वासों को अब और ना पनपने दें , और अगली बार ऐसी किसी चीज पर यकीन करने से पहले सोच लें की कहीं हम जाने – अनजाने कोई अन्धविश्वास रुपी बिल्ली तो नहीं पाल रहे
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