09-02-2013, 09:24 AM | #11 |
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Re: जनतंत्र का भविष्य :: किशन पटनायक
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09-02-2013, 09:24 AM | #12 |
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Re: जनतंत्र का भविष्य :: किशन पटनायक
यह कोई विचित्र या अभूतपूर्व प्रस्ताव नहीं है। कोई भी राज्य व्यवस्था हो, सार्वजनिक जीवन में चरित्र की जरूरत होगी। किसी भी समाज में समर्पित कार्यकर्ताओं का एक समूह चाहिए। आधुनिक युग के पहले संगठित धर्म ने कई देशों में सार्वजनिक जीवन का मार्गदर्शन किया। धार्मिक संस्थाओं ने भिक्षुओं, ब्राह्मणों, बिशपों को प्रशिक्षण और संरक्षण दिया, ताकि वे सार्वजनिक जीवन का मानदंड बनाएं रखें। ग्रीस में और चीन में प्लेटो और कन्फ्यूशियस ने राजनैतिक कार्य के लिए प्रशिक्षित और समर्पित समूहों के निर्माण पर जोर दिया। सिर्फ आधुनिक काल में सार्वजनिक जीवन के मानदंडों को ऊँचा रखने की कोई संस्थागत प्रक्रिया नहीं तय की गई है। इसलिए सारी दुनिया का सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त है। सार्वजनिक जीवन का दायरा बढ़ गया है, लेकिन मूल्यों और आदर्शों को बनाए रखने की संस्थाएँ नहीं हैं।
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09-02-2013, 09:24 AM | #13 |
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Re: जनतंत्र का भविष्य :: किशन पटनायक
संविधान के तहत या राजकोष से राजनीति का खर्च वहन करना भी कोई नई बात नहीं है। विपक्षी सांसदों और विधायकों का खर्च राजकोष से ही आता है। यह एक पुरानी माँग है कि चुनाव का खर्च भी क्यों नहीं? राजनीति का खर्च भी क्यों नहीं? कुछ प्रकार के राजनेताओं का जीवन बचाने के लिए केन्द्रीय बजट का प्रतिमाह 51 करोड़ रुपये खर्च होता है। करोड़पती सांसदों को भी पेंशन भत्ता आदि मिलता है। इनमें से कई अनावश्यक खर्चों को काट कर देशभक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक सामाजिक कोष का निर्माण शुरू हो सकता है।
अगर विवेकशील लोग राजनीति में दखल नहीं देंगे तो भारत की राजनीति कुछ ही अरसे के अंदर अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हाथों में चली जायेगी। जो लोग इसके बारे में चिंतित हो रहे हैं, उन्हें एक मूल्य आधारित राजनैतिक खेमा खड़ा करना होगा। इस खेमे के लिए एक बड़े पैमाने का कोष निर्माण करना होगा। आज की संसद या विधान सभा इसके लिए अनुदान नहीं देगी। सामाजिक और स्वैच्छिक ढंग से ही इस काम को शुरू करना होगा। |
09-02-2013, 09:25 AM | #14 |
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Re: जनतंत्र का भविष्य :: किशन पटनायक
अन्ना हजारे इस काम को शुरू करेंगे, तो अच्छा असर होगा। यह राजनैतिक काम नहीं है, जनतांत्रिक राजनीति को बचा कर रखने के लिए यह एक सामाजिक काम है। धर्मविहीन राज्य में चरित्र का मानदंड बना कर रखने का यह एक संस्थागत उपाय है। अंततोगत्वा इसे (ऐसी संस्थाओं को) समाज का स्थायी अंग बना देना होगा या सांविधानिक बनाना होगा।
धर्म-नियंत्रित समाजों के पतन के बाद नैतिक मूल्यों पर आधारित एक मानव समाज के पुनर्निर्माण के बारे में कोई व्यापक बहस नहीं हो पाई है। यह बहस अनेक बिंदुओं से शुरू करनी होगी। यह भी एक महत्वपूर्ण बिंदु है। --समाप्त-- |
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