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Old 22-03-2011, 02:12 AM   #191
Sikandar_Khan
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

फिर बसंत आना है - डा. कुमार विश्वास
तूफानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों,
पुरुवा के दामन पर दाग बहुत गहरे हों,
सागर के मांझी, मत मन को तू हारना,
जीवन के क्रम मैं जो खोया है पाना है.
पतझर का मतलब है
फिर बसंत आना है.

राजवंश रूठे तो
राज मुकुट टूटे तो
सीतापति राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार,
पर सागर के एक बार,
पत्थर मैं प्राण फूंक सेतु फिर बनाना है
अंधियारे के आगे, दीप फिर जलाना है
पतझर का मतलब है
फिर बसंत आना है.

घर-भर चाहे छोडे,
सूरज भी मुंह मोड़े
विदुर रहे मौन, छीने राज्य, स्वर्ण रथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे,
पंचतत्व सौ पर हैं भारी बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है
फिर बसंत आना है
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 22-03-2011, 02:26 AM   #192
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चाँद ने कहा है - डा. कुमार विश्वास
चाँद ने कहा है, एक बार फिर चकोर से,
इस जनम में भी जलेगे तुम ही मेरी और से
हर जनम का अपना चाँद है, चकोर है अलग,
यूँ जनम जनम का एक ही मछेरा है मगर,
हर जनम की मछलियाँ अलग हैं डोर है अलग,
डोर ने कहा है मछलियों की पोर-पोर से
इस जनम में भी बिंधोगी तुम ही मेरी ओर से
इस जनम में भी जलोगी तुम ही मेरी ओर से

यूँ अनंत सर्ग और ये कथा अनंत है
पंक से जनम लिया है पर कमल पवित्र है
यूँ जनम जनम का एक ही वो चित्रकार है
हर जनम की तूलिका अलग, अलग ही चित्र है
ये कहा है तूलिका ने, चित्र के चरित्र से
इस जनम में भी सजोगे तुम ही मेरी कोर से
चाँद ने कहा है एक बार फिर चकोर से
इस जनम में भी जलोगी तुम ही मेरी ओर से

हर जनम के फूल हैं अलग, हैं तितलियाँ अलग
हर जनम की शोखियाँ अलग, हैं सुर्खियाँ अलग
ध्वँस और सृजन का एक राग है अमर, मगर
हर जनम का आशियाँ अलग, है बिजलियाँ अलग
नीड़ से कहा है बिजलियों ने जोर शोर से
इस जनम में भी जलोगी तुम ही मेरी ओर से
इस जनम में भी मिटोगे तुम ही मेरी ओर से
चाँद ने कहा है एक बार फिर चकोर से
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 22-03-2011, 02:28 AM   #193
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मधुयामिनी - डा. कुमार विश्वास

क्या अजब रात थी, क्या गज़ब रात थी
दंश सहते रहे, मुस्कुराते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

मन मे अपराध की, एक शंका लिए
कुछ क्रियाये हमें जब हवन सी लगीं
एक दूजे की साँसों मैं घुलती हुई
बोलियाँ भी हमें, जब भजन सी लगीं
कोई भी बात हमने न की रात-भर
प्यार की धुन कोई गुनगुनाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

पूर्णिमा की अनघ चांदनी सा बदन
मेरे आगोश मे यूं पिघलता रहा
चूड़ियों से भरे हाथ लिपटे रहे
सुर्ख होठों से झरना सा झरता रहा
इस नशा सा अजब छा गया था की हम
खुद को खोते रहे तुमको पाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे

आहटों से बहुत दूर पीपल तले
वेग के व्याकरण पायलों ने गढ़े
साम-गीतों की आरोह - अवरोह में
मौन के चुम्बनी- सूक्त हमने पढ़े
सौंपकर उन अंधेरों को सब प्रश्न हम
इक अनोखी दीवाली नामाते रहे
देह की उर्मियाँ बन गयी भागवत
हम समर्पण भरे अर्थ पाते रहे
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 22-03-2011, 02:34 AM   #194
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मोरे अंगना, आये सांझ सकारे - डा कुमार विश्वास



तन मन महका जीवन महका
महक उठे घर-द्वारे
जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे

खिली रूप की धुप
चटक गयीं कलियाँ, धरती डोली
मस्त पवन से लिपट के पुरवा, हौले-हौले बोली
छीनके मेरी लाज की चुनरी, टाँके नए सितारे

जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे


सजना के अंगना तक पहुंचे
बातें जब कंगना की
धरती तरसे, बादल बरसे, मिटे प्यास मधुबन की
होठों की चोटों से जागे, तन के सुप्त नगारे

जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे


नदिया का सागर से मिलने
धीरे-धीरे बढ़ना
पर्वत के आखरघाटी, वाली आँखों से पढ़ना
सागर सी बाहों मे आकर, टूटे सभी किनारे

जब- जब सजना
मोरे अंगना, आये सांझ सकारे
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Old 22-03-2011, 02:36 AM   #195
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तुमने जाने क्या पिला दिया. - डा.कुमार विश्वास

कैसे भूलूं वह एक रात, तन हरर्सिंगार मन-पारिजात,
छुअनें,सिहरन,पुलकन,कम्पन,
अधरो से अंतर हिला दिया,
तुमने जाने क्या पिला दिया.


तन की सारी खिडकिया खोलकर मन आया अगवानी मै,
चेतना और सन्यम भटके,मन की भोली नादानी मै,
थी तेज धार,लहरे अपार,भवरे थी कठिन, मगर फिर भी,
डरते-डरते मैं उतर गया,नदिया के गहरे पानी मै
नदिया ने भी जोबन-जीवन,
जाकर सागर मैं मिला दिया,
तुमने जाने क्या पिला दिया


जिन जख्मो की हो दवा सुलभ,उनके रिसते रहने से क्या,
जो बोझ बने जीवन-दर्श,न,उसमे पिसते रहने सेक्या.
हो सिंह्दवार परअंधकार,तो जगमग महल किसे दीखे
तन पर काई जम जाये तो,मन को रिसते रहने से क्या.
मेरी भटकन पी गये स्वयम,
मुझसे मुझको क्यो मिला दिया,
तुमने जाने क्या पिला दिया.
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Old 22-03-2011, 03:30 PM   #196
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मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है

मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है
और एक बार मुझे मेरे बचपन में बुलाती है


उसका तुतलाना , चलते चलते गिर जाना
गिर कर उठाना फिर दौड़ जाना
मुझे गिर कर संभलना सिखाती है
मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है

उनकी गृहस्थी का अलग संसार है
उसकी गुडिया उसका गुड्डा जिससे उसे प्यार है
रोज वह उनका ब्याह का खेल रचती है
मुझे बेटी गृहस्थी के नियम सिखाती है
मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है


अपनी दुनिया से जब थक जाती है
मेरे सीने से लग सो जाती है
वह सिखाती है की दुनिया एक झमेला है
यह बस गुड्डा गुडिया का मेला है


जिद करती है रट लगाती है
अपनी हर बात को मनवाती है
जरा सी भी औकात नहीं है हमारी
फिर भी वह दुनिया से जीत जाती है
मेरी बेटी मुझे बहुत कुछ सिखाती है


(nm)
वाह सिकंदर भाई एक बार फिर से आपकी कविता पढ़कर मजा आ गया.
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Old 24-03-2011, 09:57 AM   #197
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होता मोती अनमोल

सागर में सीपी
सीपी में मोती ,
वह गहरे जल में जा बैठी
आचमन किया सागर जल से
स्नान किया खारे जल से
फिर भी कभी नहीं हिचकी
गहरे जल में रहने में
क्योंकि वह जान गई थी
एक मोती पल रहा था
तिल-तिल कर बढ़ रहा था
उसके तन में
पानी क्यूँ ना हो मोती में
कई परतों में छिपा हुआ था
जतन से सहेजा गया था
यही आभा उसकी
बना देती अनमोल उसे
बिना पानी वह कुछ भी नहीं
उसका कोई मूल्य नहीं
सारा श्रेय जाता सीपी को
जिसने कठिन स्थिति में
हिम्मत ज़रा भी नहीं हारी
हर वार सहा जलनिधि का
और आसपास के जीवों का
क्योंकि मोती पल रहा था
अपना विकास कर रहा था
उसके ही तन में
था बहुत अनमोल
सब के लिये |

आशा
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Old 24-03-2011, 10:01 AM   #198
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रंग बिरंगे फूल चुने
रंग बिरंगे फूल चुने ,
चुन-चुन कर माला बना ,
रोली चावल और नैवेद्य से ,
थाली खूब सजाई है ,
यह नहीं केवल आकर्षण ,
प्रबल भावना है मेरी ,
माला में गूँथे गये फूल ,
कई बागों से चुन-चुन ,
नाज़ुक हाथों से ,
सुई से धागे में पिरो कर ,
माला के रूप में लाई हूँ ,
भावनाओं का समर्पण ,
ध्यानमग्न रह ,
तुझ में ही खोये रहना ,
सुकून मन को देता है ,
शांति प्रदान करता है ,
जब भी विचलित होता मन ,
सानिध्य पा तेरा ,
स्थिर होने लगता है ,
नयी ऊर्जा आती है ,
नित्य प्रेरणा मिलती है ,
दुनिया के छल छिद्रों से ,
बहुत दूर रह ,
शांत मना रहती हूँ ,
भय मुक्त रहती हूँ ,
होता है संचार साहस का ,
है यही संचित पूँजी ,
इस पर होता गर्व मुझे ,
हे सृष्टि के रचने वाले ,
पूरे मन से सदा ,
तेरा स्मरण करती हूँ ,
तुझ पर ही ,
पूरी निष्ठा रखती हूँ !



आशा
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Old 24-03-2011, 11:26 AM   #199
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अनाथ

माँ मैं तेरी बगिया की ,
एक नन्हीं कली ,
क्यूँ स्वीकार नहीं किया तूने ,
कैसे भूल गई मुझे ,
छोड़ गई मझधार में
तू तो लौट गई
अपनी दुनिया में
मुझे झूला घर में छोड़ गई ,
क्या तुझे पता है ,
जब-जब आँख लगी मेरी ,
तेरी सूरत ही याद आई ,
तेरा स्पर्श कभी न भूल पाई ,
बस मेरा इतना ही तो कसूर था ,
तेरी लड़के की आस पूरी न हुई ,
और मैं तेरी गोद में आई ,
तू कितनी पाषाण हृदय हो गई ,
सारी नफरत, सारा गुस्सा ,
मुझ पर ही उतार डाला ,
मुझे रोता छोड़ गई ,
और फिर कभी न लौटी,
अब मैं बड़ी हो गई हूँ ,
अच्छी तरह समझती हूँ
मेरा भविष्य क्या होगा
मुझे कौन अपनाएगा ,
मैं अकेली
इतना बड़ा जहान ,
कब क्या होगा
इस तक का मुझे पता नहीं है ,
फिर भी माँ तेरा धन्यवाद
कि तूने मुझे जन्म दिया ,
मनुष्य जीवन समझने का
एक अवसर तो मुझे दिया !

आशा
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Old 25-03-2011, 12:06 AM   #200
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हैरान हूँ
हैरान हूँ
सदियों से
मुठ्ठी में बंद
यादों के स्निग्ध,और

सुन्दर, सुनहरे मोती
अनायास ही अंगार की तरह
दहक कर
मेरी हथेलियों को
जला क्यों रहे हैं !

अंतरतम की
गहराइयों में दबे
मेरे सुषुप्त ज्वालामुखी में
घनीभूत पीड़ा का लावा
सहसा ही व्याकुल होकर
करवटें क्यों
बदलने लगा है !

वर्षों से संचित
आँसुओं की झील
की दीवारें सहसा
कमज़ोर होकर दरक
कैसे गयी हैं कि
ये आँसू प्रबल वेग के साथ
पलकों की राह
बाहर निकलने को
आतुर हो उठे हैं !

मेरे सारे जतन ,
सारे इंतजाम ,
सारी चेष्टाएं
व्यर्थ हुई जाती हैं
और मैं भावनाओं के
इस ज्वार में
उमड़ते घुमड़ते
लावे के साथ
क्षुद्र तिनके की तरह
नितांत असहाय
और एकाकी
बही जा रही हूँ !

क्या पता था
इस ज्वालामुखी को
इतने अंतराल के बाद
इस तरह से
फटना था और
मेरे संयम,
मेरी साधना,
मेरी तपस्या को
यूँ विफल करना था !



साधना वैद
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