19-02-2014, 09:20 PM | #191 |
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Re: इधर-उधर से
यह जापान में प्रबंधन के विद्यार्थियों कोपढ़ाया जाने वाला बहुत पुराना किस्सा है जिसे ‘साबुन के खाली डिब्बे काकिस्सा’ कहते हैं. कई दशक पहले जापान में साबुन बनानेवाली सबसे बड़ी कंपनीको अपने एक ग्राहक से यह शिकायत मिली कि उसने साबुन का व्होल-सैल पैक खरीदाथा पर उनमें से एक डिब्बा खाली निकला. कंपनी के अधिकारियों को जांच करनेपर यह पता चल गया कि असेम्बली लाइन में हो किसी गड़बड़ के कारण साबुन के कईडिब्बे भरे जाने से चूक गए थे. कंपनी ने एक कुशल इंजीनियर को रोज़ पैक होरहे हज़ारों डिब्बों में से खाली रह गए डिब्बों का पता लगाने के लिए तरीकाढूँढने के लिए निर्देश दिया. कुछ सोचविचार करने के बाद इंजीनियर नेअसेम्बली लाइन पर एक हाई-रिजोल्यूशन एक्स-रे मशीन लगाने के लिए कहा जिसेदो-तीन कारीगर मिलकर चलाते और एक आदमी मॉनीटर की स्क्रीन पर निकलते जा रहेडिब्बों पर नज़र गड़ाए देखता रहता ताकि कोई खाली डिब्बा बड़े-बड़े बक्सोंमें नहीं चला जाए. उन्होंने ऐसी मशीन लगा भी ली पर सब कुछ इतनी तेजी सेहोता था कि वे भरसक प्रयास करने के बाद भी खाली डिब्बों का पता नहीं लगा पारहे थे. ऐसे में एक अदना कारीगर ने कंपनीअधिकारीयों को असेम्बली लाइन पर एक बड़ा सा इंडस्ट्रियल पंखा लगाने के लिएकहा. जब फरफराते हुए पंखे के सामने से हर मिनट साबुन के सैंकड़ों डिब्बेगुज़रे तो उनमें मौजूद खाली डिब्बा सर्र से उड़कर दूर चला गया।इस तरह सभी की मुश्किलें पल भर में आसान हो गयी। जीवन में भी हमेशा ऐसे मौके आते हैं जब समस्यायों का समाधान बड़ा ही आसान होता है लेकिन हम कईतरह के कॉम्लेक्स उपायोंका उपयोग करते रहते हैं, जो हमारी मुश्किलों को सुलझाने के बजाये उन्हें और मुश्किल कर देती हैं ।
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25-02-2014, 12:45 PM | #192 |
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Re: इधर-उधर से
सच्चा दोस्त
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25-02-2014, 07:09 PM | #193 |
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Re: इधर-उधर से
छोटे मुहं बड़ी बात यह कहावत कई बार सही साबित होते देखि हें.......
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26-02-2014, 12:05 AM | #194 | |
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Re: इधर-उधर से
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26-02-2014, 12:06 AM | #195 |
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Re: इधर-उधर से
बनारसके किस्सों की बात ही कुछ और है
बनारस के पुराने रईसों के संदर्भमें डा. रायकृष्ण दास से बातचीत चल रही थी। मैंने कहा- एक किस्सा प्रचलित है। फक्कड़ साह के जमाने में नौकर से एक झाड़-फानूस गिर गया। टूटकर गिरने से उसकी अजीबो-गरीब मनमोहक तरंग की आवाज सुन फक्कड़ साह ने नौकर को बुलाया और पूछा यह कैसी आवाज थी? वह डर गया, किंतु कोई जवाब देता इसके पहले उनकी फरमाईश हो गई कि ठीक है - नुकसान के लिये डरों नहीं, उन मोहक तरंगोंको फिर से पैदा करो! नौकर ने एक-एक कर शेष पांच झाड़ फानूसों को झाड़-झाड़ कर गिरा दिया और तरंगित तरंगों को सुन फक्कड़ साह नौकर पर खुश हुए और एक अशरफी इनाम में दी। इस किस्से को सुन रायकृष्ण दास मुस्करा उठे थे। उन्होंने कहा-बनारस के गप्प में जो रस है, वह अकबर बीरबल के किस्सों में नहीं है।
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17-03-2014, 12:58 PM | #196 |
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Re: इधर-उधर से
[दो बाल कहानियां मुंशी प्रेमचंद के नाती और वरिष्*ठ लेखक प्रबोध कुमार के सौजन्य से प्रस्तुत हैं। उनका कहना है कि उनकी मां कमला देवी (प्रेमचंद जी की पहली संतान) ये कहानियां बचपन में हम भाई-बहन को सुनाती थीं. उनमे से दो कहानियाँ यहाँ प्रस्तुत हैं]
चालाक चिडिय़ा एक पेड़ परएक घोंसला था जिसमें चिड़ा और चिडिय़ा की एक जोड़ी रहती थी। एक दिन चिडिय़ा ने चिड़ा से कहा, ‘‘आज मेरा मन खीर खाने को कर रहा है, जाओ जाकर कहीं से चावल, दूध और चीनी ले आओ।’’ चिड़ा ने चिडिय़ा को समझाया, ‘‘आजकल बहुत महंगाई है। लोग चावल खाते नहीं है या कम खाते हैं। चावल लाने में बड़ी मुसीबत है, लोग झट भगा देते हैं। और दूध ? उसका भी मिलना बड़ा कठिन है और मिला भी तो दूध के नाम सफेद पानी ! कहीं ऐसा भी दूध होता है भला- न गाढ़ापन और न चिकनाई ! और चीनी ? अरे बाप रे ! बिल्कुल नदारद, लोग तरस रहे हैं चीने के लिए ! ऐसे में कैसे बनेगी तुम्हारी खीर ? हाँ, खिचड़ी-विचड़ी बनाना चाहो तो बना लो हालांकि वह भी सरल नहीं है।’’ पर स्त्री की जिद बुरी होती है। चिडिय़ा बोली, ‘‘नहीं, खीर ही बनेगी। जाओ इंतजाम करो और नहीं तो दूसरी चिडिय़ा तलाश लो, मैं बाज आई ऐसे कामचोर चिड़ा से। अरे ये झंझट तो रोज की है और इन्हीं के लिए बैठे रहो तो हो गई जिंदगी। मैं रोज तो किसी बड़ी चीज की फरमाइश करती नहीं हूँ। कभी कुछ अच्छा खाने का मन हुआ भी तो तुम ऐसे निखट्टू हो कि वह साध भी पूरी करने में इधर-उधर करते हो। मैं खीर खाऊँगी और आज ही खाऊँगी। अब जाओ जल्दी से और करो सारा इंतजाम। खीर क्या मैं अकेली खाऊँगी, तुम्हे भी तो मिलेगी।’’ अब चिड़ा करे तो क्या करे ! निकला खीर की सामग्री जुटाने। जैसे-तैसे चावल लाया, दूध लाया और चीनी नहीं मिली तो कहीं से गुड़ ले आया। >>>
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17-03-2014, 01:01 PM | #197 |
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Re: इधर-उधर से
चिडिय़ा तो बस खुशी से निहाल हो उठी और लगी चिड़ा को प्यार करने। खैर, खीर पकाई गई। दूध के उबाल की सोंधी महक चिडिय़ा की तो नस-नस में नशा छा गई। खीर तैयार हो जाने पर चिड़ा से कहा, ‘‘थोड़ी ठंडी हो जाए तब हम खीर खाएँगे। तब तक मैं थोड़ा सो लेती हूँ और तुम भी नहा-धोकर आ जाओ। चिड़ा नहाने चला गया तो चिडिय़ा ने सारी खीर चट कर डाली। और फिर झूठ-मूठ में सो गई। नहा-धोकर चिड़ा लौटा तो देखा चिडिय़ा सो रही है। उसने चिडिय़ा को जगाया और कहा, ‘‘मुझे बहुत भूख लगी है, चलो खीर खाई जाए। चिडिय़ा बोली, ‘‘तुम खुद निकालकर खा लो और जो बचे उसे मेरे लिए हांडी में ही रहने दो, मैं तो अभी थोड़ा और सोऊँगी। आज इतनी थक गई हूँ खीर बनाते-बनाते कि कुछ मत पूछो !’’
चिड़ा ने छोटी-सी खीर की हाँड़ी में चोंच डाली तो खीर की जगह उसकी चोंच में चिडिय़ा की बीट आ गई। सारी खीर खाकर चिडिय़ा ने छोड़ी हाड़ी में बीट जो कर दी थी। चिड़ा गुस्से से चिल्ला पड़ा, ‘‘सारी खीर खाकर और हांड़ी में बीट कर अब नींद का बहाना कर रही हो !’’ चिडिय़ा ने अचरज दिखाते हुए कहा, ‘‘यह तुम क्या कह रहे हो ? मैं तो थकावट के मारे उठ तक नहीं पा रही हूँ और तुम मुझ पर झूठा इलजाम लगा रहे हो ? मैंने खीर नहीं खाई । मुझे क्या पता कौन खा गया। मैं तो खुद अब भूखी हूँ।’’ चिड़ा फिर चिल्लाया, ‘‘अच्छा, खाओ कसम कि तुमने खीर नहीं खाई।’’ चिडिय़ा बोली, ‘‘मैं तैयार हूँ। बोलो कैसे कसम खाऊँ।’’ चिड़ा ने कहा, ‘‘चलो, मेरे साथ कुएँ पर चलो तो बताता हूँ।’’ दोनों कुएँ पर गए। चिड़ा ने एक कच्चा, सूत का धाग कुएँ के एक किनारे से दूसरे किनारे तक बाँधा और चिडिय़ा से कहा, ‘‘इस धागे को पकड़कर इस ओर से उस ओर तक जाओ। यदि तुमने खीर खाई होगी तो धागा टूट जाएगा और तुम पानी में गिर जाओगी। और जो नहीं खाई होगी तो मजे से इस ओर से उस ओर पहुंच जाओगी।’’ चिडिय़ा धागे पर चली। खीर से उसका पेट भरा था। उसने तो सचमुच खीर खाई थी। चिड़ा से वह झूठ बोली थी सो बीच रास्ते में धागा टूट गया और वह धम्म से पानी में जा गिरी। चिड़ा गुस्से में उसे झूठी, बेईमान कहता वहां से उड़ गया और चिडिय़ा पानी में फडफ़ड़ाने लगी। >>>
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17-03-2014, 01:03 PM | #198 |
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Re: इधर-उधर से
तभी शिकार की खोज में एक बिल्ली कुएँ पर पहुँची। उसकी नजर चिडिय़ा पर पड़ी वह सावधानी से कुएँ में उतरी और चिडिय़ा को मुँह में दबाकर निकाल लाई। बिल्ली ने अब चिडिय़ा को खाना चाहा। चिडिय़ा तो चालाक थी ही, झट बोली, ‘‘बिल्ली रानी, अभी मुझे खाओगी तो मजा नहीं आएगा। थोड़ा ठहर जाओ। मुझे धूप में सूखने रख दो, मेरे पंख सूख जाएँ तब खा लेना। और हाँ, न हो तो तुम भी मेरे पास बैठ जाना। तुम भी गीली हो गई हो। धूप में सूख भी जाओगी और मेरे ऊपर नजर भी रख सकोगी।’’
बिल्ली को चिडिय़ा की बात जँच गई। उसने चिडिय़ा को धूप में सूखने के लिए रख दिया और खुद भी वहीं पास में बैठ धूप का मजा लेने लगी। चिडिय़ा के पंख धीरे-धीरे सूखने लगे। गीले पंख लेकर वह ठीक से उड़ नहीं सकती थी। इसलिए उसने बिल्ली को यह सलाह दी थी। उसने सोचा था, जैसे ही मेरे पंख सूखें और मुझ में उडऩे की शक्ति आई फिर देखूँगी बिल्ली रानी मेरा क्या बिगाड़ सकती है ! इधर बिल्ली सावधान थी। इसकी पूरी नजर चिडिय़ा पर थी, पर वह धूप की गरमाहाट का मजा भी ले रही थी। चिडिय़ा के पंख जब काफी कुछ सूख गए और उसे लगा कि अब वह ठीक से उड़ सकती है तब उसने बिल्ली की ओर नजर फेरी। >>>
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17-03-2014, 01:06 PM | #199 |
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Re: इधर-उधर से
बिल्ली उसे पूरी तरह सावधान दिखी। उसने बिल्ली से कहा, ‘‘बिल्ली रानी, मेरे पंख बस सूखने ही वाले हैं। वे सूख जाएँ तो तुम्हें अपनी पसंद का गरम-गरम गोश्त खाने को मिल जाएगा पर हाँ, बिल्ली रानी, उसके पहले आँखे बंद कर तुम थोड़ी देर भगवान का ध्यान कर लो तो कितना अच्छा रहे ! भगवान का स्मरण कर मुझे खाओगी तो मेरा अगला जीवन सुधर जाएगा और मेरा कल्याण करने से भगवान भी तुमसे बहुत प्रसन्न होंगे।’’ चिडिय़ा की सलाह बिल्ली को अच्छी लगी। उसने आँखें बंद कर लीं और भगवान का स्मरण करने लगी। चालाक चिडिय़ा तो इसी मौके का इंतजार कर रही थी। जैसे ही बिल्ली की आँखें बंद हुईं वह फुर्र से उड़ कर एक पेड़ पर जा बैठी और बोली, ‘‘ बिल्ली रानी, आँखें खोलकर देखा तो सही मेरे पंख कैसे सूख गए ! ’’
बिल्ली ने आँखें खोली तो चिडिय़ा को पेड़ पर बैठी देख उसके गुस्से का ठिकाना न रहा। वह चिल्ला पड़ी, ‘‘बेईमान, धोखेबाज चिडिय़ा….।’’ लेकिन बिल्ली की गालियाँ सुनने वाला पेड़ पर अब कौन था। चिडिय़ा तो आसमान में चहचहाती इधर-उधर चक्कर लगा रही थी। बिल्ली अपनी मूर्खता पर खिसिया कर रह गई और चिडिय़ा के गोश्त का स्वाद याद करते-करते अपनी जीभ अपने ही मुँह पर फेरने लगी। **
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17-03-2014, 01:08 PM | #200 |
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Re: इधर-उधर से
दो गप्पी
एक छोटे सेशहर में दो गप्पी रहते थे। दूर की हाँकने वाले। अपने को सबसे बड़ा बताने वाले। एक दिन दोनों में ठन गई। देखें कौन बड़ा गप्पी है। शर्त लग गई। जो जीते दो सौ रुपये पाए और जो हारे वह दो सौ रुपये दे। बात शुरू हुई। गप्पें लगने लगीं। पहला बोला, ‘‘ मेरे बाप के पास इतना बड़ा, इतना बड़ा मकान था कि कुछ पूछो मत। बरसों घूमों, दिन-रात घूमों पर उसके ओर-छोर का पता न चले।’’ दूसरे ने कहा, ‘‘सच है भाई, वह मकान सचमुच इतना बड़ा रहा होगा।’’ उसे मालूम था कि पहला गप्पी बिल्कुल झूठ बोल रहा है, लेकिन इस होड़ में यह शर्त थी कि कोई किसी को झूठा नहीं कहेगा, नहीं तो शर्त हार जाएगा। इसीलिए उसे, ‘सच है भाई’, कहना पड़ा। पहला गप्पी फिर बोला, ‘‘उस बड़े मकान में घूमना बहादुरों का काम था, कायरों का नहीं। मेरे बाप ने उस मकान को ऐसे बनवाया था- ऐसा, जैसे चीन की दीवार हो। बाप भी मेरे बस दूसरे भीमसेन ही थे- इतने तगड़े, इतने तगड़े कि बस हाँ। दूसरा गप्पी बोला, ‘‘भाई, मेरे बाप के पास इतना लम्बा बाँस था कि कुछ पूछो मत- इतना लम्बा कि तुम्हारे बाप के मकान के इस सिरे से डालो तो उस सिरे से निकल जाए और फिर भी बचा रहे। उस बाँस से यदि आसमान को छू दो तो बस छेद हो जाए आसमान में और झर-झर-झर वर्षा होने लगे, पानी की धार लग जाए।’’ >>>
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