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Old 25-11-2012, 08:26 AM   #191
Sameerchand
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व्यावहारिकता

एक शिष्या अपने विवाह की तैयारियों में लगी हुयी थी। इस अवसर पर होने वाले प्रीतिभोज के लिए उसने घोषणा की कि गरीबों के प्रति अगाध प्रेम के कारण उसने यह तय किया है कि समारोह में सबसे आगे की पंक्तियों में गरीब लोग ही बैठेंगे और अमीर मेहमान पीछे की पंक्तियों में रहेंगे। भोजन में भी यही क्रम रहेगा।

यह बात कहकर उसने अपने गुरूजी की आँखों में देखा तथा उनकी स्वीकृति चाही।

गुरूजी ने एक पल विचार करने के बाद कहा -"मेरे विचार से यह सर्वथा ग़लत होगा। किसी को भी विवाह समारोह में मजा नहीं आएगा। तुम्हारे परिवार को शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। तुम्हारे अमीर मेहमानों को अपमान महसूस होगा और गरीब मेहमान भी बेझिझक भोजन नहीं कर पायेंगे।"
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Old 25-11-2012, 08:27 AM   #192
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ड्यूटी का बहाना

एक गुरूजी ने राज्यपाल को सख्त शिकायती पत्र लिखकर यह आपत्ति जतायी कि नस्लभेद विरोधी शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर बर्बर लाठीचार्ज किया गया है।

राज्यपाल ने पत्र लिखकर यह उत्तर दिया कि उन्होंने सिर्फ अपनी ड्यूटी की है।

गुरूजी बोले - "जब भी कोई बेवकूफ व्यक्ति गलती करता है तो उस पर शर्मिंदा होने की बजाए वह यही कहता है कि यह उसकी ड्यूटी थी।"
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Old 25-11-2012, 08:27 AM   #193
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जुनैद एवं नाई


पुण्यात्मा जुनैद ने एक बार भिखारी का वेश धारण किया और मक्का में एक नाई की दुकान पर पहुँच गए। वह नाई उस समय एक रईस ग्राहक की दाढ़ी बना रहा था। उसने तुरंत उस रईस व्यक्ति की दाढ़ी बनाना छोड़कर पहले भिखारी की दाढ़ी बनाने का निर्णय लिया। उसने न केवल भिखारी का वेश धारण किए जुनैद से पैसे नहीं लिए वरन उन्हें भिक्षा भी दी।


जुनैद उस नाई से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि वे उस दिन जो कुछ भी भिक्षा के रूप में प्राप्त करेंगे, उस नाई को दे देंगे।


उसी दिन एक अमीर तीर्थयात्री ने जुनैद को सोने के सिक्कों से भरा पर्स भिक्षा के रूप में दिया। जुनैद खुशी-खुशी उस नाई की दुकान पर पहुंचे और उसे वह पर्स दे दिया।


जब नाई को यह ज्ञात हुआ कि जुनैद ने उसे वह पर्स क्यों दिया है तो वह क्रोधित हो गया और बोला - "आखिर तुम किस तरह के पुण्यात्मा व्यक्ति हो? तुम मुझे मेरे प्रेम के बदले में यह पुरस्कार दे रहे हो ! "


"जब आप अपने उपकार के बदले में कुछ चाहते हैं
तो आप का उपहार रिश्वत बन जाता है। "
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Old 25-11-2012, 08:27 AM   #194
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बयाज़िद ने नियम तोड़ा

संत बयाज़िद कभी-कभी अपने संप्रदाय के नियम और परंपराओं के विरुद्ध कार्य किया करते थे। एक बार वे तीर्थयात्रा से लौटते समय एक नगर में पहुंचे। वहां के नागरिकों ने श्रद्धाभाव से उनका स्वागत किया। उनके नगर आगमन के कारण लोगों में हलचल मच गयी।

बयाज़िद जब लोगों की चापलूसी से थक गए तो बाज़ार के बीचोबीच पहुंचकर उन्होंने सब लोगों के सामने ही ब्रेड का पैकेट उठाकर खाना शुरू कर दिया। रमज़ान की पवित्र महीना होने के कारण उस दिन उपवास था। यद्यपि वह उपवास का दिन था परंतु बयाज़िद जानते थे कि यात्रा में होने के कारण उन्हें उपवास तोड़ने की अनुमति थी।

परंतु उनके अनुयायियों को यह अच्छा नहीं लगा। वे उनके व्यवहार से इतने क्षुब्ध हुए कि उन्हें छोड़कर अपने घरों को चले गए।

बयाज़िद ने अपने शिष्य से कहा - "जैसे ही मैंने उनकी आकांक्षा के अनुरूप आचरण नहीं किया, उनकी सारी श्रृद्धा गायब हो गयी। "

"श्रद्धा की कीमत आपको अपेक्षा अनुरूप आचरण कर के चुकानी पड़ती है। "
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Old 25-11-2012, 08:27 AM   #195
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आखिर आप किस तरह लोगों की मदद करते हैं?

एक सामाजिक कार्यक्रम में अपने गुरूजी से मिलने पर एक मनोचिकित्सक ने अपने मन में उमड़ रहे एक प्रश्न को पूछने का निर्णय लिया।

उसने पूछा - "आखिर आप किस तरह लोगों की मदद करते हैं?"

गुरू जी ने उत्तर दिया - "मैं उनको उस सीमा तक ले जाता हूं कि उनके मन में कोई भी प्रश्न शेष न रहे। "
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Old 25-11-2012, 08:27 AM   #196
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तीन छन्नी परीक्षण

प्राचीन यूनान में सुकरात नामक एक विख्यात दार्शनिक एवं ज्ञानी व्यक्ति रहा करते थे। एक दिन उनका एक परिचित उनसे मिलने आया और बोला - "क्या तुम जानते हो कि मैंने तुम्हारे मित्र के बारे में क्या सुना है?"

सुकरात ने उसे टोकते हुए कहा - "एक मिनट रुको। इसके पहले कि तुम मुझे मेरे मित्र के बारे में कुछ बताओ, उसके पहले मैं तीन छन्नी परीक्षण करना चाहता हूं।"

"तीन छन्नी परीक्षण?"

सुकरात ने कहा - "जी हां मैं इसे तीन छन्नी परीक्षण इसलिए कहता हूं क्योंकि जो भी बात आप मुझसे कहेंगे, उसे तीन छन्नी से गुजारने के बाद ही कहें।"

"पहली छन्नी है "सत्य "। क्या आप यह विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि जो बात आप मुझसे कहने जा रहे हैं, वह पूर्ण सत्य है?"

"व्यक्ति ने उत्तर दिया - "जी नहीं, दरअसल वह बात मैंने अभी-अभी सुनी है और...."

सुकरात बोले - "तो तुम्हें इस बारे में ठीक से कुछ नहीं पता है। "

"आओ अब दूसरी छन्नी लगाकर देखते हैं। दूसरी छन्नी है "भलाई "। क्या तुम मुझसे मेरे मित्र के बारे में कोई अच्छी बात कहने जा रहे हो?"

"जी नहीं, बल्कि मैं तो...... "

"तो तुम मुझे कोई बुरी बात बताने जा रहे थे लेकिन तुम्हें यह भी नहीं मालूम है कि यह बात सत्य है या नहीं।"- सुकरात बोले।

"तुम एक और परीक्षण से गुजर सकते हो। तीसरी छन्नी है "उपयोगिता "। क्या वह बात जो तुम मुझे बताने जा रहे हो, मेरे लिए उपयोगी है?"

"शायद नहीं..."

यह सुनकर सुकरात ने कहा - "जो बात तुम मुझे बताने जा रहे हो, न तो वह सत्य है, न अच्छी और न ही उपयोगी। तो फिर ऐसी बात कहने का क्या फायदा?"

"तो जब भी आप अपने परिचित, मित्र, सगे संबंधी के बारे में कुछ गलत बात सुने,
ये तीन छन्नी परीक्षण अवश्य करें।"
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Old 25-11-2012, 08:28 AM   #197
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कोई मेरे सारे पाप धो दो!

गंगा नदी के घाट पर स्नानार्थियों की भीड़ थी. शुभ मुहूर्त पर सब अपने पाप गंगा नदी में धोने दूर-दराज से मुंह अंधेरे चले आए थे.

सब अपने अपने समय से स्नान ध्यान कर जा रहे थे. वहीं पर आगे एक गड्ढे में एक स्त्री गिरी हुई पड़ी थी. वह मदद के लिए हाथ उठाकर चिल्ला रही थी कि कोई उसे उस गड्ढे से बाहर निकलने में मदद करे!

लोग मदद के लिए हाथ बढ़ाते, मगर वह स्त्री हाथ पकड़ने से पहले उनसे पूछती – “यदि आप पूरी तरह निष्पाप हों. तभी आप मुझे बाहर निकालें. नहीं तो जो श्राप मुझपर है, वह आप पर स्थानांतरित हो जाएगा. और मैं यह भार अपने ऊपर लेना नहीं चाहती.”

लोग सहम जाते, कुछ क्षण विचार कर फिर आगे बढ़ जाते. बहुत देर हो गई. यही सिलसिला चलता रहा.

आखिर में एक युवक आया. वह गंगा में अभी हाल ही में स्नान कर आया था. उसके शरीर से नदी का पानी ढंग से सूखा भी नहीं था. उस स्त्री के क्रंदन सुनकर वह उसके पास पहुँचा. उस स्त्री ने उससे फिर वही बात दोहराई.

उस युवक ने पूरी बात सुनकर मुस्कुराते हुए कहा – “बिलकुल. मैं पूरी तरह निष्पाप व्यक्ति हूँ. देख नहीं रही कि मैं अभी गंगा से स्नान कर निकला हूँ. मेरे सारे पूर्व पाप पवित्र गंगा की नदी की धारा में धुल चुके हैं. और अभी तक मुझसे कोई नया पाप नहीं हुआ है. यदि मैं तुम्हें नहीं बचाऊं तो एक नया पाप जरूर हो जाएगा. अब जल्द अपना हाथ मुझे दो...”

"हम सभी अपने कर्मकांड विश्वास-रहित तरीके से करते हैं. जिस दिन हममें विश्वास पैदा हो जाएगा, उस दिन चमत्कार भी हो जाएगा."
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Old 25-11-2012, 08:28 AM   #198
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पत्थरों का थैला


एक युवक को मुंह अंधेरे किसी दूसरे नगर जाना था. समय का भ्रम होने से वह घर से थोड़ा पहले निकल गया. रास्ते में नदी पड़ती थी. तय समय से यदि वह घर से निकलता तो सूर्योदय पर नदी तक पहुँच जाता जिससे उसे नदी पार करने में सहूलियत होती. मगर चूंकि वह जल्दी निकल गया था, अतः अभी भी घनघोर अँधेरा था. युवक ने सूर्योदय तक का समय नदी के किनारे काटने का निश्चय किया. वह बैठने के लिए समुचित चट्टान तलाशने लगा. इतने में उसके पैर से कोई चीज टकराई. उसने टटोला तो पाया कि वह एक थैला था. थैले के अंदर उसे लगा कि किसी ने पत्थरों के छोटे छोटे टुकड़े जमा कर रखे हैं. उसने बेध्यानी में थैला हाथ में ले लिया.

उसे नदी के किनारे पर ही बैठने लायक एक चट्टान मिल गया. नदी की कल कल धारा बह रही थी और वातावरण में सुमधुर संगीत की रचना कर रही थी.

युवक ने थैले से एक पत्थर निकाला और नदी की धारा में उछाल दिया. छप् की आवाज हुई और वो देर तर गूंजती रही. युवक ने दूसरा पत्थर थैले से निकाला और नदी की धारा में उछाल दिया. फिर से छप्प की आवाज हुई और एक नया संगीत बज उठा. युवक ने थैले के पत्थरों से देर तक संगीत की रचना की.

इतने में यकायक क्षितिज में सूर्य की किरणें चमकने लगीं. युवक के हाथ में थैले का आखिरी पत्थर था. वह उसे नदी की ओर उछालने ही वाला था कि एक चमकीली रौशनी उसके आँखों में पड़ी. वह रौशनी उसके हाथ में रखे पत्थर से परिवर्तित हो कर आ रही थी. उसके हाथ में हीरा था जो सूर्य प्रकाश से दमकने लगा था.

युवक ने अपना माथा पकड़ लिया. तो, वह अब तक थैले में भरी सामग्री को पत्थरों के टुकड़े समझ कर फेंक रहा था!

"हम सभी क्षणिक आनंद की खातिर अपना बहुत सारा जीवन इसी प्रकार पत्थर की तरह फेंकते रहते हैं, और तभी उसके महत्व को समझ पाते हैं जब जीवन का क्षीणांश बचता है."
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Old 25-11-2012, 08:28 AM   #199
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गुस्सा न करें


पांडवों को उनके गुरु ने पहला सबक यह सिखाया कि जो सबक वे उन्हें सिखाते हैं उन्हें वे अपने जीवन में भी उतारें. एक बार गुरु ने एक और सबक सिखाया – गुस्सा न हों. फिर गुरु ने अपने शिष्यों को कहा कि वे आज के सबक की परीक्षा कल लेंगे.

दूसरे दिन गुरु ने पांडव बंधुओं से पूछा कि क्या उन्होंने कल का सबक सीख लिया? युधिष्ठिर को छोड़कर बाकी चारों भाइयों ने स्वीकृति में सर हिलाया.
गुरु ने तीक्ष्ण दृष्टि से युधिष्ठिर की ओर देखा और पूछा – युधिष्ठिर, तुम्हें यह जरा सा सबक सीखने में क्या समस्या है? तुम्हारे चारों छोटे भाई इसे सीख लिए. सबक याद करो और मैं फिर कल तुमसे पूछूंगा.

अगले दिन गुरु ने कक्षा प्रारंभ होते ही सबसे पहले युधिष्ठिर से पूछा कि क्या उन्होंने सबक सीख लिया? युधिष्ठिर ने फिर से इंकार में सर हिलाकर जवाब दिया – “अभी नहीं गुरूदेव!”

गुरु ने आव देखा न ताव और तड़ से युधिष्ठिर को एक तमाचा जड़ दिया. और कहा “कैसे मूर्ख हो! जरा सा एक लाइन का सबक सीख नहीं सकते!”

युधिष्ठिर मार खाकर भी मुस्कुराते खड़े थे. गुरु को और ताव आ गया. बोले “मूर्ख, दंड पाकर भी किसलिए मुस्कुरा रहे हो! कारण बताओ नहीं तो तुम्हें और सज़ा मिलेगी.”
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया – “गुरुदेव, अब मैंने सबक सीख लिया!”

एक क्षण को गुरु को समझ में नहीं आया कि युधिष्ठिर क्या कह रहे हैं. परंतु दूसरे ही क्षण वे जड़वत हो गए. जो बात वे युधिष्ठिर को, अपने शिष्यों को सिखाना चाह रहे थे, वह बात युधिष्ठिर ने उन्हें सिखा दी थी!
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अपने आप को प्रकाशित करें

जब बुद्ध मृत्युशैय्या पर थे, तो एक समय उनका एक शिष्य आनंद जार जार रोने लगा. बुद्ध ने क्षीण आवाज में उससे रोने का कारण पूछा.


आनंद ने कहा – “तथागत, मेरे जीवन का प्रकाश तो खत्म हो रहा है. आपके बगैर मेरे जीवन का क्या होगा? मैं आपके बगैर नहीं रह सकता.”

बुद्ध ने धीरे से कहा – “इस तरह की मूर्खतापूर्ण बातें मत करो. अपने आप को प्रकाशित करो. प्रकाश तुम्हारे भीतर स्वयं है. उसे पहचानो.”

"आपके भीतर भी बुद्ध जैसा प्रकाश है. उसे पहचानें. पहले अपने आप पर विश्वास करना सीखें."
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