09-01-2011, 11:12 AM | #201 |
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दुर्वासा हिंदुओं के एक महान ऋषि हैं। वे अपने क्रोध के लिए जाने जाते हैं। दुर्वासा सतयुग, त्रैता एवं द्वापर तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि हैं। वे महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए हैं। कभी-कभी उनमें अकारण ही भयंकर क्रोध भी देखा जाता है। वे सब प्रकार के लौकिक वरदान देने में समर्थ हैं। महर्षि अत्रि जी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मानस पुत्र थे। उनकी पत्नी अनसूयाजी के पातिव्रत धर्म की परीक्षा लेने हेतु ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों ही पत्*ि*नयों के अनुरोध पर श्री अत्री और अनसूयाजी के चित्रकुट स्थित आश्रम में शिशु रूप में उपस्थित हुए। ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में, विष्णु दत्तात्रेय के रूप में और महेश दुर्वासा के रूप में उपस्थित हुए। बाद में देव पत्नियों के अनुरोध पर अनसूयाजी ने कहा कि इस वर्तमान स्वरूप में वे पुत्रों के रूप में मेरे पास ही रहेंगे। साथ ही अपने पूर्ण स्वरूप में अवस्थित होकर आप तीनों अपने-अपने धाम में भी विराजमान रहेंगे। यह कथा सतयुग के प्रारम्भ की है। पुराणों और महाभारत में इसका विशद वर्णन है। दुर्वासा जी कुछ बडे हुए, माता-पिता से आदेश लेकर वे अन्न जल का त्याग कर कठोर तपस्या करने लगे। विशेषत: यम-नियम, आसन, प्राणायाम, ध्यान-धारणा आदि अष्टांग योग का अवलम्बन कर वे ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंचे कि उनको बहुत सी योग-सिद्धियां प्राप्त हो गई। अब वे सिद्ध योगी के रूप में विख्यात हो गए। तत्पश्चात् यमुना किनारे इसी स्थल पर उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया और यहीं पर रहकर आवश्यकता के अनुसार बीच-बीच में भ्रमण भी किया। दुर्वासा आश्रम के निकट ही यमुना के दूसरे किनारे पर महाराज अम्बरीष का एक बहुत ही सुन्दर राजभवन था। एक बार राजा निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत द्वादशी व्रत पालन में थे। समस्त क्रियाएं सम्पन्न कर संत-विप्र आदि भोज के पश्चात भगवत प्रसाद से पारण करने को थे कि महर्षि दुर्वासा आ गए। महर्षि को देख राजा ने प्रसाद ग्रहण करने का निवेदन किया, पर ऋषि यमुना स्नान कर आने की बात कहकर चले गए। पारण काल निकलने जा रहा था। धर्मज्ञ ब्राह्मणों के परामर्श पर श्री चरणामृत ग्रहण कर राजा का पारण करना ही था कि ऋषि उपस्थित हो गए तथा क्रोधित होकर कहने लगे कि तुमने पहले पारण कर मेरा अपमान किया है। भक्त अम्बरीश को जलाने के लिए महर्षि ने अपनी जटा निचोड़ क्रत्या राक्षसी उत्पन्न की, परन्तु प्रभु भक्त अम्बरीश अडिग खडे रहे। भगवान ने भक्त रक्षार्थ चक्र सुदर्शन प्रकट किया और राक्षसी भस्म हुई। दुर्वासाजी चौदह लोकों में रक्षार्थ दौड़ते फिरे। शिवजी की चरण में पहुंचे। शिवजी ने विष्णु के पास भेजा। विष्णु जी ने कहा आपने भक्त का अपराध किया है। अत:यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं, तो भक्त अम्बरीश के निकट ही क्षमा प्रार्थना करें। |
09-01-2011, 11:13 AM | #202 |
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जब से दुर्वासाजी अपने प्राण बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे थे, तब से महाराज अम्बरीशने भोजन नहीं किया था। उन्होंने दुर्वासाजी के चरण पकड़ लिए और बडे़ प्रेम से भोजन कराया। दुर्वासाजी भोजन करके तृप्त हुए और आदर पूर्वक राजा से भोजन करने का आग्रह किया। दुर्वासाजी ने संतुष्ट होकर महाराज अम्बरीश के गुणों की प्रशंसा की और आश्रम लौट आए। महाराज अम्बरीश के संसर्ग से महर्षि दुर्वासा का चरित्र बदल गया। अब वे ब्रह्म ज्ञान और अष्टांग योग आदि की अपेक्षा शुद्ध भक्ति मार्ग की ओर झुक गए। महर्षि दुर्वासा जी शंकर जी के अवतार एवं प्रकाश हैं। शंकर जी के ईश्वर होने के कारण ही उनका निवास स्थान ईशापुर के नाम से प्रसिद्ध है। आश्रम का पुनर्निर्माण त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्ति वेदान्त गोस्वामी जी ने कराया। सम्प्रति व्यवस्था सन्त रास बिहारी दास आश्रम पर रह कर देख रहे हैं।
ब्रज मण्डल के अंतर्गत प्रमुख बारह वनों में से लोहवनके अंतर्गत यमुना के किनारे मथुरा में दुर्वासाजी का अत्यन्त प्राचीन आश्रम है। यह महर्षि दुर्वासा की सिद्ध तपस्या स्थली एवं तीनों युगों का प्रसिद्ध आश्रम है। भारत के समस्त भागों से लोग इस आश्रम का दर्शन करने और तरह-तरह की लौकिक कामनाओं की पूर्ति करने के लिए आते हैं। |
09-01-2011, 11:14 AM | #203 |
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जयद्रथ
हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत में जयद्रथ सिंधु प्रदेश के राजा थे। इनका विवाह कौरवों की एकमात्र बहन दुःशला से हुई। जयद्रथ सिंधु नरेश वृद्धक्षत्र के पुत्र थे। वृद्धक्षत्र के यहाँ जयद्रथ का जन्म काफी समय बाद हुआ था और उन्हें साथ ही यह वरदान प्राप्त हुआ कि जयद्रथ का वध कोई सामान्य व्यक्ति नहीं कर पायेगा। उसने साथ ही यह वरदान भी प्राप्त किया कि जो भी जयद्रथ को मारकर जयद्रथ का सिर ज़मीन पर गिरायेगा, उसके सिर के हज़ारों टुकड़े हो जायेंगे। |
09-01-2011, 11:15 AM | #204 |
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बलराम
पांचरात्र शास्त्रों के अनुसार बलराम (बलभद्र) भगवान् वासुदेव के ब्यूह या स्वरूप हैं। उनका कृष्ण के अग्रज और शेष का अवतार होना ब्राह्मण धर्म को अभिमत है। जैनों के मत में उनका संबंध तीर्थकर नेमिनाथ से है। बलराम या संकर्षण का पूजन बहुत पहले से चला आ रहा था, पर इनकी सर्वप्राचीन मूर्तियाँ मथुरा और ग्वालियर के क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं। ये शुंगकालीन हैं। कुषाणकालीन बलराम की मूर्तियों में कुछ व्यूह मूर्तियाँ अर्थात् विष्णु के समान चतुर्भुज प्रतिमाए हैं, और कुछ उनके शेष से संबंधित होने की पृष्ठभूमि पर बनाई गई हैं। ऐसी मूर्तियों में वे द्विभुज हैं और उनका मस्तक मंगलचिह्नों से शोभित सर्पफणों से अलंकृत है। बलराम का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में उठा हुआ है और बाएँ में मदिरा का चषक है। बहुधा मूर्तियों के पीछे की ओर सर्प का आभोग दिखलाया गया है। कुषाण काल के मध्य में ही व्यूहमूर्तियों का और अवतारमूर्तियों का भेद समाप्तप्राय हो गया था, परिणामत: बलराम की ऐसी मूर्तियाँ भी बनने लगीं जिनमें नागफणाओं के साथ ही उन्हें हल मूसल से युक्त दिखलाया जाने लगा। गुप्तकाल में बलराम की मूर्तियों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उनके द्विभुज और चतुर्भुज दोनों रूप चलते थे। कभी-कभी उनका एक ही कुंडल पहने रहना "बृहत्संहिता" से अनुमोदित था। स्वतंत्र रूप के अतिरिक्त बलराम तीर्थंकर नेमिनाथ के साथ, देवी एकानंशा के साथ, कभी दशावतारों की पंक्ति में दिखलाई पड़ते हैं। कुषाण और गुप्तकाल की कुछ मूर्तियों में बलराम को सिंहशीर्ष से युक्त हल पकड़े हुए अथवा सिंहकुंडल पहिने हुए दिखलाया गया है। इनका सिंह से संबंध कदाचित् जैन परंपरा पर आधारित है। मध्यकाल में पहुँचते-पहुँचते ब्रज क्षेत्र के अतिरिक्त - जहाँ कुषाणकालीन मदिरा पीने वाले द्विभुज बलराम मूर्तियों की परंपरा ही चलती रही - बलराम की प्रतिमा का स्वरूप बहुत कुछ स्थिर हो गया। हल, मूसल तथा मद्यपात्र धारण करनेवाले सर्पफणाओं से सुशोभित बलदेव बहुधा समपद स्थिति में अथवा कभी एक घुटने को किंचित झुकाकर खड़े दिखलाई पड़ते हैं। कभी-कभी रेवती भी साथ में रहती हैं। |
09-01-2011, 11:17 AM | #205 |
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बलभद्र या बलराम श्रीकृष्ण के सौतेले बड़े भाई थे जो रोहिणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। बलराम, हलधर, हलायुध, संकर्षण आदि इनके अनेक नाम हैं। बलभद्र के सगे सात भाई और एक बहन सुभद्रा थी जिन्हें चित्रा भी कहते हैं। इनका ब्याह रेवत की कन्या रेवती से हुआ था। कहते हैं, रेवती 21 हाथ लंबी थीं और बलभद्र जी ने अपने हल से खींचकर इन्हें छोटी किया था।
इन्हें नागराज अनंत का अंश कहा जाता है और इनके पराक्रम की अनेक कथाएँ पुराणों में वर्णित हैं। ये गदायुद्ध में विशेष प्रवीण थे। दुर्योधन इनका ही शिष्य था। इसी से कई बार इन्होंने जरासंध को पराजित किया था। श्रीकृष्ण के पुत्र शांब जब दुर्योधन की कन्या लक्ष्मणा का हरण करते समय कौरव सेना द्वारा बंदी कर लिए गए तो बलभद्र ने ही उन्हें दुड़ाया था। स्यमंतक मणि लाने के समय भी ये श्रीकृष्ण के साथ गए थे। मृत्यु के समय इनके मुँह से एक बड़ा साँप निकला और प्रभास के समुद्र में प्रवेश कर गया था। |
09-01-2011, 11:18 AM | #206 |
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हिडिंब
हिडिंब महाभारत काल का एक राक्षस था, जो अपनी बहन हिडिंबा के साथ वन में रहा करता था। उसकी बहन हिडिंबा काली माता की भक्त थी, और उसे प्रतिदिन चढा़वे के रूप मे एक मनुष्य की बलि माता को देनी होती थी। एक दिन हिडिंब बहन के लिए मानव बलि हेतु वनवासरत् पांडवों में से एक भीम को पकड़ लाया। हिडिंबा भीम को देख उस पर मोहित हो गई, और भीम से बोली कि वह अपने भाई हिडिंब से उसे बचा कर कहीं दूर स्थान पर भेज देगी। जब बहुत समय होने पर भी हिडिंबा मानव बलि के लिए भीम को लेकर नहीं आई, तो हिडिंब अपनी बहन के पास पहुँचा और भीम के साथ विहार करती हिडिंबा को मारने के लिए दौडा़। इसपर भीम ने उसे ललकारा और उसका वध कर दिया। भीम और हिडिंबा के गन्धर्व विवाह से हिडिंबा को घटोत्कच नामक पुत्र प्राप्त हुआ। महाभारत युद्ध मे घटोत्कच ने पांडवों की ओ*र से वीरतापूर्वक भाग लिया था। |
09-01-2011, 11:20 AM | #207 |
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शल्य
शल्य, माद्रा (मद्रदेश) के राजा जो पांडु के सगे साले और नकुल व सहदेव के मामा थे। परंतु महाभारत में इन्होंने पांडवों का साथ नहीं दिया और कर्ण के सारथी बन गए थे। कर्ण की मृत्यु पर युद्ध के अंतिम दिन इन्होंने कौरव सेना का नेतृत्व किया और उसी दिन युधिष्ठिर के हाथ मारे गए। इनकी बहन माद्री, कुंती की सौत थीं और पांडु के शव के साथ चिता पर जीवित भस्म हो गई थीं। अधिरथ ये महाभारत में वर्णित पाँडव-माता कुंती के विवाह पूर्व भगवान सूर्य से उत्पन्न पुत्र कर्ण को पालने वाले पिता थे। अधिरथ अंग वंश में उत्पन्न सत्कर्मा के पुत्र थे। इनकी पत्नी का नाम राधा था। संजय से पहले ये धृतराष्ट्र के सखा और सारथी थे। कर्ण के जन्म ग्रहण करते ही कुन्ती ने उन्हें एक मंजूषा में रखकर गंगा में प्रवाहित कर दिया। यह पेटी अधिरथ और राधा को गंगा में जल-क्रीडा करते समय मिली। दम्पति निस्सन्तान थे, अत: कर्ण का पुत्र की भाँति भरण-पोषण किया। कर्ण को पाल-पोसकर इन्होंने ही बड़ा किया था। |
09-01-2011, 11:22 AM | #208 |
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शिखण्डी
शिखंडी महाभारत का एक पात्र है। महाभारत कथा के अनुसार भीष्म द्वारा अपहृता काशीराज की ज्येष्ठ पुत्री अम्बा का ही दूसरा अवतार शिखंडी के रूप में हुआ था। प्रतिशोध की भावना से उसने शंकर की घोर तपस्या की और उनसे वरदान पाकर महाराज द्रुपद के यहाँ जन्म लिया उसने महाभारत के युद्ध में अपने पिता द्रुपद और भाई धृष्टद्युम्न के साथ पाण्डवों की ओर से युद्ध किया। |
09-01-2011, 11:24 AM | #209 |
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पूर्व जन्म की कथा
शिखंडी के रूप में अंबा का पुनर्जन्म हुआ था। अम्बा काशीराज की पुत्री थी। उसकी दो और बहने थी जिनका नाम अम्बिका और अम्बालिका था। । विवाह योग्य होने पर उसके पिता ने अपनी तीनो पुत्रियों का स्वयंवर रचाया। हस्तिनापुर के संरक्षक भीष्म ने अपने भाइ विचित्रवीर्य के लिए जो हस्तिनापुर का राजा भी था, काशीराज की तीनों पुत्रियों का स्वयंवर से हरण कर लिया। उन तीनों को वे हस्तिनापुर ले गए। वहाँ उन्हें अंबा के किसी और के प्रति आसक्त होने का पता चला। भीष्म ने अम्बा को उसके प्रेमी के पास पहुँचाने का प्रबंध कर दिया किंतु वहां से अंबा तिरस्कृत होकर लौट आइ। अम्बा ने इसका उत्तरदायित्व भीष्म पर डाला और उनसे विवाह करने पर जोर दिया। भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा से बंधे होने का तर्क दिए जाने पर भी वह अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई। अंततः अंबा ने प्रतिज्ञा की कि वह एक दिन भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। इसके लिए उसने घोर तपस्या की। उसका जन्म पुनः एक राजा की पुत्री के रूप में हुआ। पुर्वजन्म की स्मृतियों के कारण अंबा ने पुनः अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए तपस्या आरंभ कर दी। भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दिया तब अंबा ने शिखंडी के रुप में महाराज द्रुपद की पुत्री के रुप में जन्म लिया। जीवन वृत शिखण्डी का जन्म पंचाल नरेश द्रुपद के घर मूल रुप से एक कन्या के रुप में हुआ था। उसके जन्म के समय एक आकशवाणी हुई की उसका लालन एक पुत्री नहीं वरन एक पुत्र के रुप मे किया जाए। इसलिए शिखंडी का लालन-पालन पुरुष के समान किया गया। उसे युद्धकला का प्रक्षिक्षण दिया गया और कालंतर में उसका विवाह भी कर दिया गया। उसकी विवाह रात्री के दिन उसकी पत्नी ने सत्य का ज्ञान होने पर उसका अपमान किया। आहत शिखंडी ने आत्महत्या का विचार लेकर वह पंचाल से भाग गई। तब एक यक्ष ने उसे बचाया, और अपना लिंग परिवर्तन कर अपना पुरुषत्व उसे दे दिया। इस प्रकार शिखंडी एक पुरुष बनकर पंचाल वापस लौट गया और अपनी पत्नी और बच्चों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसका पुरुषत्व यक्ष को वापस मिल गया। |
09-01-2011, 11:25 AM | #210 |
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प्रतिज्ञान पूर्ति और भीष्म का अंत
कुरुक्षेत्र के युद्ध में १० वें दिन वह भीष्म के सामने आ गया, लेकिन भीष्म ने उसके रूप में अंबा को पहचान लिया और अपने हथियार रख दिए। और तब अर्जुन ने अंबा के पीछे से उनपर बाणों की बौछर लगा दी और उन्हें बाण शय्या पर लिटा दिया। इस प्रकार अर्जुन द्वारा भीष्म को परास्त किया गया, जिन्हें किसी भी अन्य विधि से परास्त नहीं किया जा सकता था। मृत्यु महाभारत में पांडवों की विजय के पश्चात अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के शिविर पर रात्री में आक्रमण के दौरान शिखंडी का भी वध कर दिया गया। |
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