21-06-2012, 12:24 AM | #211 |
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Re: कतरनें
हिन्दी सिनेमा ने 'राजा हरिश्चंद्र' से 'थ्री इडियट्स' तक तमाम बदलाव देखे हैं, लेकिन एक परम्परा जो बॉलीवुड में हमेशा कायम रही, वह है फिल्मों के लंबे नाम रखने का चलन। मूक युग से शुरू हुआ यह सिलसिला आज भी न सिर्फ जारी है, बल्कि समय के साथ बढ़ता ही गया है। मूक युग में लंबे नाम वाली सबसे पहली फिल्म 'डेथ आफ नारायणराव पेशवा' 1915 में बनी थी। इस दौर में लंबे नामों से लगभग 64 फिल्में बनीं, पर दिलचस्प बात यह है कि इन सभी फिल्मों के टाइटल अंग्रेजी में थे। इनमें 50 फिल्में 1910 के दशक में ही बन गई थीं। सवाक् युग में लगभग 850 फिल्मों का निर्माण हुआ, लेकिन मूक युग की तुलना में देखा जाए, तो सवाक् युग के प्रारंभिक 1930 के दशक में लंबे नाम से सिर्फ 16 फिल्में ही बनीं। हालांकि बाद के हर दशक में ऐसी फिल्मों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। 1940 के दशक में 21,1950 के दशक में 51, 1960 के दशक में 109, 1980 के दशक में 134, 1990 के दशक में 136 और दो हजार के दशक में सर्वाधिक 188 फिल्मों का निर्माण हुआ। इस ट्रेंड को देखते हुए लगता है कि लंबे नाम से फिल्मों के निर्माण का यह सिलसिला आगे भी लंबे समय तक जारी रहेगा। इस साल 2012 में भी लंबे नाम से 13 फिल्में अब तक बन चुकी हैं, जिनमें गली गली चोर हैं, एक मैं और एक तू, तेरे नाल लव हो गया और अब होगा धरना अनलिमिटेड प्रमुख हैं। यहां लंबे नाम वाली फिल्मों से आशय उन फिल्मों से है, जिनके नाम में चार या उससे अधिक शब्द आए हैं। सवाक् युग में किसी एक वर्ष में लंबे नाम से सबसे ज्यादा 32 फिल्मों के निर्माण का रिकार्ड 2002 में बना। इस दौर में सबसे कम एक-एक फिल्म का निर्माण 1932, 1934 और 1937 में हुआ। सवाक् युग में लंबे नाम वाली सबसे पहले फिल्म अलीबाबा एंड फोर्टी थीव्ज थी, जो मदन थियेटर्स के बैनर तले 1932 में बनी और लंबे नाम वाली हिन्दी टाइटल से निर्मित सबसे पहली फिल्म दो घड़ी की मौज (1935) थी, जिसमें सुलोचना (रूबी मायर्स) और डी. बिलिमोरिया नायक थे। हिन्दी फिल्मों के इतिहास में सबसे लंबे नाम से बनी फिल्मों की संख्या छह है, जिनके टाइटल में सात शब्द हैं। इन फिल्मों के नाम हैं - अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूं आता है (1980), अंधेरी रात में दीया तेरे हाथ में (1986), पाप को जला कर राख कर दूंगा (1988), राजा को रानी से प्यार हो गया (2000), हमें तुमसे प्यार हो गया चुपके चुपके (2003) और तू बाल ब्रह्मचारी मैं हूं कन्या कुंवारी (2003)। लंबे नाम वाली फिल्मों के बारे में एक तय यह भी है कि इनमें कुछ फिल्मों को छोड़कर ज्यादातर फिल्में बॉक्स आफिस पर नाकाम रहीं। इस तरह की कुछ प्रमुख सफल फिल्में हैं - चल चल रे नौजवान (1944), झनक झनक पायल बाजे (1955), मिस्टर एंड मिसेज 55 (1955), दो आंखें बारह हाथ (1957), चलती का नाम गाडी (1958), दिल अपना और प्रीत परायी (1960), जिस देश में गंगा बहती है (1960), साहिब बीबी और गुलाम (1962), तेरे घर के सामने (1963), आई मिलन की बेला (1964), आए दिन बहार के (1966), आया सावन झूम के (1966), एक फूल दो माली (1969), हरे रामा हरे कृष्णा (1971), मेरा गांव मेरा देश (1971), रोटी कपडा और मकान (1974), दुल्हन वही जो पिया मन भाये (1977) हम किसी से कम नहीं (1977), मैं तुलसी तेरे आंगन की (1978), एक दूजे के लिए (1981), कयामत से कयामत तक (1988), हम आपके हैं कौन (1994), दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995), दिल तो पागल है (1997), कुछ कुछ होता है (1998), हम दिल दे चुके सनम (1999), हम साथ साथ हैं (1999), कहो ना प्यार है (2000), कल हो न हो (2003), लगे रहो मुन्ना भाई (2006), रब ने बना दी जोडी (2008), अजब प्रेम की गजब कहानी (2009), आई हेट लव स्टोरीज (2010), वन्स अपान ए टाइम इन मुम्बई (2010) और मेरे ब्रदर की दुल्हन (2011)। यह भी दिलचस्प है कि धर्मेन्द्र, जितेन्द्र, आमिर खान, हृतिक रोशन और रानी मुखर्जी के कैरियर की शुरआत लंबे नाम वाली फिल्मों से ही हुई। धर्मेन्द्र की पहली फिल्म 'दिल भी तेरा हम भी तेरे' (1960), जितेन्द्र की 'गीत गाया पत्थरों ने' (1964), हृतिक रोशन की 'कहो ना प्यार है' (2000) और रानी मुखर्जी की 'राजा की आएगी बारात' (1997) थी। वैसे तो सलमान खान ने भी अपने कैरियर का आगाज लंबे नाम वाली फिल्म 'बीवी हो तो ऐसी' (1988) से किया, लेकिन इसमें उनकी छोटी सी भूमिका थी। लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने का रिकार्ड प्राण के नाम है, जिन्होंने विभिन्न रूपों में लगभग 37 ऐसी फिल्मों में काम किया। उनकी लंबे नाम वाली पहली फिल्म 'बरसात की एक रात' (1948) और आखिरी फिल्म 'दीवाना तेरे प्यार का' (2003) थी। उनके बाद लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने वाले प्रमुख कलाकार हैं धर्मेन्द्र (33), अशोक कुमार (27), सलमान खान (25), गोविन्दा (23), शाहरुख खान (19), शत्रुघ्न सिन्हा और रिषी कपूर (18), अजय देवगन (16), अमिताभ बच्चन (15), राजेश खन्ना और संजय दत्त (13), अक्षय कुमार (12), शम्मी कपूर, विनोद खन्ना, अनिल कपूर और सैफ अली खान (10), शशि कपूर और सुनील शेट्टी (9), राजेन्द्र कुमार और नसीरुद्दीन शाह (8), याकूब, जितेन्द्र और आमिर खान (7), मोतीलाल, संजीव कुमार, सन्नी देओल, अभय देओल, हृतिक रोशन और इमरान खान (6), जयराज, बलराज साहनी, प्रदीप कुमार, जॉय मुखर्जी, विश्वजीत और इरफान (5), राजकुमार, मनोज कुमार, ओम पुरी, अक्षय खन्ना और बाबी देओल (4), किशोर कुमार, रणधीर कपूर और इमरान हाशमी (3), सोहराब मोदी, भारत भूषण, गुरदत्त और रणबीर कपूर (दो) । हिन्दी फिल्मों के स्वर्णिम युग की तिकडी दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनन्द में लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करने के मामले में देव आनन्द अव्वल रहे हैं। उन्होंने लंबे नाम वाली कुल दस फिल्मों में काम किया, जबकि राज कपूर सात फिल्मों में काम करने के साथ दूसरे स्थान पर रहे हैं। दिलीप कुमार को शायद लंबे नाम वाली फिल्मों में काम करना खास पसंद नहीं था। उनके खाते में लंबे नाम वाली सिर्फ एक फिल्म 'दिल दिया दर्द लिया' (1966) शामिल है। नायिकाओं में मुमताज लंबे नाम वाली 16 फिल्मों में काम करके अव्वल रही हैं। उनके बाद लंबे नाम से बनी फिल्मों में काम करने वाली जिन नायिकाओं का स्थान आता है, उनमें प्रमुख हैं - रानी मुखर्जी (14), हेमा मालिनी. रवीना टंडन और काजोल (13), आशा पारिख और रेखा (11), तनूजा. जया बच्चन, जीनत अमान, जूही चावला और सोनाली बेंद्रे (10), लीला चिटनीस और वहीदा रहमान (9), नूतन, मौसमी चटर्जी, प्रीति जिंटा, सुष्मिता सेन और ऐश्वर्या राय बच्चन (8), कामिनी कौशल, स्मिता पाटिल, फराह और करीना कपूर (7), दुर्गा खोटे, मीना कुमारी, माला सिन्हा, साधना, परवीन बाबी, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर और तब्बू (6), राखी, नीलम और कैटरीना कैफ (5), नलिनी जयवंत, बबीता और पद्मिनी कोल्हापुरे (4), मधुबाला, शर्मिला टैगोर, लीना चंदावरकर, श्रीदेवी, शिल्पा शेट्टी, प्रियंका चोपडा, दीपिका पादुकोण (3) तथा रेहाना, सायरा बानो, शबाना आजमी, लारा दत्ता और विद्या बालन (2), निम्मी, वैजयंतीमाला और निगार सुल्ताना ने लंबे नाम वाली फिल्मों में सबसे कम मात्र एक-एक फिल्म में काम किया है। नूरजहां, सुरैया और नर्गिस के खाते में लंबे नाम वाली एक भी फिल्म नहीं आई।
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22-06-2012, 12:01 PM | #212 |
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Re: कतरनें
22 जून को जन्मदिन पर
अमरीश पुरी मानते थे, रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है रंगमंच के मंजे हुए कलाकार और दमदार आवाज के धनी अमरीश पुरी मानते थे कि रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है और एक कलाकार की असली परख यहीं होती है। अमरीश पुरी के साथ कभी मुंबई में रंगमंच पर काम कर चुके उद्धव खेडेकर ने भाषा को बताया, ‘उनकी उर्जा देख कर मन में सवाल उठता था कि यह आदमी कभी थकता भी है या नहीं। वह हर समय काम के लिए तैयार रहते थे। आवाज इतनी बुलंद थी कि माइक की जरूरत ही न पड़े। अभिनय के रंग में इतने रंगे हुए थे कि रिहर्सल के लिए स्क्रिप्ट मिलने के बाद सबसे पहले उनकी ही तैयारी पूरी होती थी।’ उन्होंने बताया, ‘अमरीश पुरी 1960 के दशक में जोर पकड़ने वाले भारतीय थिएटर आंदोलन के मुख्य सदस्यों में से एक थे और उन्होंने अपने दौर के कई उत्कृष्ट नाटक लेखकों के साथ काम किया था। उन्होंने अपने थिएटर दौर का लगभग पूरा समय मुंबई में ही बिताया। बाद में वह फिल्मों में व्यस्त हो गए और रंगमंच पर वापसी नहीं कर पाए। वह मानते थे कि रंगमंच दर्शकों से सीधे संवाद कराता है और एक कलाकार की असली परख यहीं होती है।’ फिल्म समीक्षक अनिरूद्ध दुबे ने बताया. ‘हिंदी सिनेमा में नकारात्मक भूमिकाएं निभाने वाले अमरीश पुरी को दर्शक खास तौर पर 1987 में आई शेखर कपूर की हिंदी फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ के मोगैम्बो के रूप में याद करते हैं। यह एक ऐसा किरदार था जो क्रूरता तो दिखाता है लेकिन अपनी सनक के कारण लोगों को मुस्कुराने पर मजबूर भी करता है। इसमें कुर्सी के हत्थे पर अपनी उंगलियां घुमा कर अमरीश पुरी का यह कहना लोगों को आज भी याद है कि ‘मोगैम्बो खुश हुआ।’ फिल्म समीक्षक माया सिंह कहती हैं, सार्थक सिनेमा में अमरीश पुरी का अभिनव योगदान है लेकिन मसाला फिल्मों की चकाचौंध में हम उसे उपेक्षित कर जाते हैं। ‘निशांत’ का बूढा जमींदार हो या ‘मन्थन’ के मिश्राजी या फिर ‘भूमिका’ के विनायक काले, अमरीश पुरी ने अपनी भूमिका के साथ पूरा न्याय किया। पश्चिमी दर्शकों के लिए स्टीवन स्पीलबर्ग की हॉलीवुड के लिए बनाई गई फिल्म ‘इंडियाना जोन्स एंड द टेम्पल आफ डूम’ में मोला राम की भूमिका अविस्मरणीय है। यह फिल्म 1984 में आई थी। जालंधर जिले की पूर्व तहसील नवांशहर में 22 जून 1932 को जन्मे अमरीश पुरी ने हिमाचल प्रदेश के बी एम कॉलेज से स्नातक की पढाई की थी। अभिनय का शौक उन्हें जल्द ही लग गया था क्योंकि उनके दो भाई चमन पुरी और मदन पुरी पहले से ही फिल्मों से जुड़े हुए थे। दोनों भाइयों के नक्शेकदम पर चलते हुए अमरीश भी मुंबई आ गए। पहली फिल्म में सफलता नहीं मिली और वह एक बीमा कंपनी में काम करने लगे। इसी बीच वह पृथ्वी थिएटर से जुड़ गए और फिर थिएटर, टीवी के विज्ञापनों तथा फिल्मों का सिलसिला शुरू हो गया। वर्ष 1979 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 22 जून 1932 को जन्मे अमरीश पुरी ने 12 जनवरी 2005 को अंतिम सांस ली।
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01-07-2012, 11:53 PM | #213 |
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Re: कतरनें
दो जुलाई को शिमला समझौते की वर्षगांठ के अवसर पर
स्विस उच्चायोग के सहयोग से बनी थी शिमला समझौते की रूपरेखा भारत और पाकिस्तान के रिश्तों का आधार माने जाने वाला शिमला समझौता की रूपरेखा स्विस उच्चायोग के सौजन्य से तैयार की गई थी, क्योंकि उस समय युद्ध के कारण दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध नहीं था। शिमला समझौते ने ही पाकिस्तान की ओर से बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त किया। पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह ने कहा कि शिमला समझौते के 40 साल गुजरने के बावजूद भारत-पाकिस्तान के रिश्तों को सामान्य बनाने की दिशा में कोई दूसरा विकल्प सामने नहीं आया है। शिमला समझौता दोनों देशों के रिश्तों का आधार है। इसी समझौते ने पाकिस्तान के बांग्लादेश को मान्यता प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त किया। ब्रिटेन में भारत के पूर्व उच्चायुक्त एवं लेखक कुलदीप नैयर ने कहा कि शिमला समझौते के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो की बैठक से पूर्व भारतीय प्रतिनिधि डी. पी. धर और पाकिस्तानी प्रतिनिधि अजीज अहमद ने इसका आधार तैयार किया था। उन्होंने कहा कि धर और अजीज के बीच बातचीत की रूपरेखा स्विस उच्चायोग के सौजन्य से तैयार की गयी थी, क्योंकि उस समय युद्ध के कारण भारत और पाकिस्तान के बीच राजनयिक संबंध नहीं थे। धर और अजीज के बीच बातचीत अंग्रेजी में हुई थी, लेकिन धर उर्दू में बात करना चाहते थे। दोनों में सहमति बनी और पूरी अनौपचारिक बातचीत उर्दू में हुई। कश्मीरी पंडित होने के कारण धर अच्छी उर्दू बोलते थे। नैयर ने कहा कि शिमला समझौते के 40 वर्ष गुजरने के बावजूद दोनों देशों के रिश्ते अब भी सामान्य नहीं हो पाए हैं और कश्मीर के विषय पर मामला अटक जाता है। नटवर सिंह ने कहा कि कश्मीर के अंतिम समाधान के विषय को शिमला समझौते में एक उपबंध के माध्यम से शामिल किया गया। इसे उपबंध 6 के तहत टिकाऊ शांति और संबंधों को सामान्य करने के प्रास्ताव में जोड़ा गया। उन्होंने कहा कि कश्मीर के विषय पर उस समय भारत सरकार के रूख की देश के भीतर आलोचना हुई थी, लेकिन इंदिरा गांधी ने भारत और पाकिस्तान के रिश्तो के दीर्घावधि आयामों को ध्यान में रखा। समग्र वार्ता, पर्दे के पीछे के राजनयन के साथ इस विषय पर कोई भी उपाय शिमला समझौते का स्थान नहीं ले सका है। सिंह ने कहा कि कुछ समस्याएं ऐसी होती हैं, जिनका कोई समाधान नहीं होता है, हमें इसके साथ ही जीना होता है। बहरहाल, नैयर ने कहा कि शिमला समझौते पर इंदिरा गांधी और भुट्टो के बीच बातचीत से पूर्व पाकिस्तानी प्रतिनिधि अजीज ने चार सूत्री एजेंडा पेश किया, जिसमें 12 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। दूसरी ओर धर ने दो सूत्री एजेंडा पेश किया, जिसमें 16 बिन्दुओं को शामिल किया गया था। धर और अजीज के मसौदों पर विचार-विमर्श करते हुए 10 सूत्री शिमला समझौता तैयार किया गया, जिस पर दो जुलाई 1972 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उस समय पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने हस्ताक्षर किए।
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02-07-2012, 04:32 PM | #214 |
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Re: कतरनें
पुण्यतिथि 3 जुलाई पर विशेष
संवाद अदायगी के बेताज बादशाह थे राजकुमार मुंबई के माहिम पुलिस थाने में एक सब इंस्पेक्टर के रूप में काम कर रहे शख्स से एक सिपाही ने पूछा, हुजूर। आप रंग-ढंग और कद काठी में किसी हीरो से कम नहीं हैं। फिल्मों में यदि आप हीरो बन जाएं, तो लाखों दिलों पर राज कर सकते हैं। सब इंस्पेक्टर को सिपाही की यह बात जंच गई। माहिम थाने में फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था। एक बार थाने में फिल्म निर्माता बलदेव दुबे आए हुए थे। वह इसी सब इंस्पेक्टर के बातचीत करने के अंदाज से काफी प्रभावित हुए और उन्होंने उनसे अपनी फिल्म शाही बाजार में अभिनेता के रूप में काम देने की पेशकश की। उस शख्स ने सिपाही की बात सुनकर पहले ही अभिनेता बनने का मन बना लिया था, इसलिए तुरंत ही अपनी सब इंस्पेक्टर की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और निर्माता की पेशकश स्वीकार कर ली। यह शख्स और कोई नहीं, संवाद अदायगी के बेताज बादशाह कुलभूषण पंडित उर्फ राजकुमार थे। पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में 8 अक्टूबर 1926 को एक मध्यवर्गीय कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे राजकुमार स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद मुंबई के माहिम थाने में सब इंस्पेक्टर के रूप में काम करने लगे। फिल्म शाही बाजार को बनने में काफी समय लग गया और राजकुमार को अपना जीवनयापन करना भी मुश्किल हो गया। इसलिए उन्होंने वर्ष 1952 में प्रदर्शित फिल्म रंगीली में एक छोटी सी भूमिका स्वीकार कर ली। यह फिल्म सिनेमाघरों में कब लगी और कब चली गई, यह पता ही नहीं चला। इस बीच उनकी फिल्म शाही बाजार भी प्रदर्शित हुई, जो बॉक्स आॅफिस पर औंधे मुंह गिरी। शाही बाजार की विफलता के बाद राजकुमार के तमाम रिश्तेदार यह कहने लगे, तुम्हारा चेहरा फिल्म के लिए उपयुक्त नहीं है। कुछ लोग कहने लगे, तुम खलनायक बन सकते हो। वर्ष 1952 से 1957 तक राजकुमार फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करते रहे। रंगीली के बाद उन्हें जो भी भूमिका मिली, वह उसे स्वीकार करते चले गए। इस बीच उन्होंने अनमोल सहारा, अवसर, घमंड, नीलमणि और कृष्ण सुदामा जैसी कई फिल्मों में अभिनय किया, लेकिन इनमें से कोई भी फिल्म बॉक्स आॅफिस पर सफल नहीं हुई। महबूब खान की वर्ष 1957 में प्रदर्शित फिल्म मदर इंडिया में राजकुमार गांव के एक किसान की छोटी सी भूमिका में दिखाई दिए। हालांकि यह फिल्म पूरी तरह अभिनेत्री नरगिस पर केन्द्रित थी, फिर भी वह अपने अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब रहे। इस फिल्म में उनके दमदार अभिनय के लिए उन्हें अंतर्राष्टÑीय ख्याति भी मिली और फिल्म की सफलता के बाद वह अभिनेता के रूप में फिल्म इंडस्ट्री में स्थापित हो गए। वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म पैगाम में उनके सामने हिन्दी फिल्म जगत के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार थे, लेकिन राजकुमार यहां भी अपनी सशक्त भूमिका के जरिए दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। इसके बाद दिल अपना और प्रीत पराई, घराना, गोदान, दिल एक मंदिर और दूज का चांद जैसी फिल्मों में मिली कामयाबी के जरिए वह दर्शकों के बीच अपने अभिनय की धाक जमाते हुए ऐसी स्थिति में पहुंच गए, जहां वह अपनी भूमिकाएं स्वयं चुन सकते थे। वर्ष 1965 में प्रदर्शित फिल्म काजल की जबर्दस्त कामयाबी के बाद राजकुमार ने अभिनेता के रूप में अपनी अलग पहचान बना ली। बी.आर .चोपड़ा की 1965 में प्रदर्शित फिल्म वक्त में अपने लाजवाब अभिनय से वह एक बार फिर से दर्शक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने में सफल रहे। फिल्म में राजकुमार का बोला गया एक संवाद - चिनाय सेठ, जिनके घर शीशे के बने होते हैं, वो दूसरों पे पत्थर नहीं फेंका करते ... या चिनाय सेठ, ये छुरी बच्चों के खेलने की चीज नहीं, हाथ कट जाए, तो खून निकल आता है ... दर्शकों के बीच काफी लोकप्रिय हुए। वक्तकी कामयाबी से राजकुमार शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे। इसके बाद उन्होंने हमराज, नीलकमल, मेरे हुजूर, हीर रांझा और पाकीजा में रूमानी भूमिकाएं भी स्वीकार की, जो उनके फिल्मी चरित्र से मेल नहीं खाती थीं। इसके बावजूद राजकुमार दर्शकों का दिल जीतने में सफल रहे। कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा पूरी तरह से मीना कुमारी पर केन्द्रित फिल्म थी। इसके बावजूद राजकुमार अपने सशक्त अभिनय से दर्शकों की वाहवाही लूटने में सफल रहे। पाकीजा में उनका बोला गया एक संवाद, आपके पांव देखे ... बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा ... मैले हो जाएंगे... इस कदर लोकप्रिय हुआ कि लोग गाहे बगाहे उनकी आवाज की नकल करने लगे। वर्ष 1991 में प्रदर्शित फिल्म सौदागर में राजकुमार के अभिनय के नए आयाम देखने को मिले। सुभाष घई निर्मित इस फिल्म में राजकुमार वर्ष 1959 में प्रदर्शित फिल्म पैगाम के बाद दूसरी बार दिलीप कुमार के सामने थे और अभिनय की दुनिया के इन दोनों महारथियों का टकराव देखने लायक था। सौदागर में राजकुमार का बोला एक संवाद - दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है, तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है, तो इतिहास लिखे जाते हैं ... आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग मे गूंजता है। अपने संजीदा अभिनय से लगभग चार दशक तक दर्शकों के दिल पर राज करने वाले यह महान अभिनेता 3 जुलाई 1996 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
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03-07-2012, 04:21 AM | #215 |
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Re: कतरनें
प्रसंगवश : राष्ट्रपति चुनाव
गुमनाम पर्चा बंटने के आधार पर वी.वी. गिरि के निर्वाचन को दी गई थी चुनौती देश के चौदहवें राष्ट्रपति के चुनाव की तिथि नजदीक आने के साथ ही चुनाव संबंधी सरगर्मियां बढ़ गई हैं और इसके साथ ही इस चुनाव से संबंधित रोचकताएं भी सामने आने लगी हैं। यह चुनाव भी इस मायने में अन्य चुनावों से अलग नहीं है, जिसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सके और ऐसा हो भी चुका है। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव कानून के तहत राष्ट्रपति के पद पर निर्वाचित व्यक्ति के निर्वाचन को सिर्फ उच्चतम न्यायालय में ही चुनौती जा सकती है और यह चुनौती भी सिर्फ कोई प्रत्याशी या निर्वाचक मंडल के कम से कम 20 सदस्य ही मिलकर दे सकते हैं। आगामी 19 जुलाई को होने वाले इस चुनाव में संप्रग के उम्मीदवार प्रणव मुखर्जी और भाजपा समर्थित प्रत्याशी पूर्णो संगमा के बीच सीधे मुकाबले की संभावना है। इससे पहले, राष्ट्रपति का सबसे दिलचस्प चुनाव अगस्त 1969 में हुआ था। इस चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार थे, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने वी. वी. गिरि को अपने प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारा था। चुनाव में हो रही इस रस्साकसी को सभी देख रहे थे, लेकिन अचानक ही मतदान से ठीक पहले संसद के केन्द्रीय पक्ष में एक गुमनाम पर्चा वितरित हुआ। इसमें नीलम संजीव रेड्डी के बारे में तमाम अनर्गल बातें लिखी थी। चुनाव में अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील हुई और इसके परिणामस्वरूप कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गए। इसके बाद शिवकृपाल सिंह, फूल सिंह, सांसद एन. श्रीराम रेड्डी सहित 13 सांसदों ने और सांसद अब्दुल गनी डार और नौ अन्य सांसदों तथा आठ विधायकों ने उच्चतम न्यायालय में अलग-अलग चुनाव याचिकाएं दायर कीं। इनमें से शिवकृपाल सिंह और फूल सिंह का नामांकन पत्र रिटर्निंग अधिकारी ने अस्वीकार कर दिया था। न्यायमूर्ति एस. एम. सीकरी की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इन चुनाव याचिकाओं पर विचार किया। संविधान पीठ ने याचिकाओं में उठाए गए विभिन्न सवालों पर विस्तार से सुनवाई के बाद सभी याचिकाएं खारिज कर दीं। संविधान पीठ के समक्ष अन्य बातों के साथ ही मुख्य विचारणीय मुद्दा यह था कि क्या चुनाव में नीलम संजीव रेड्डी के बारे में अपमानजनक तथ्यों के साथ गुमनाम पर्चा बंटने को राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव कानून की धारा 18 और भारतीय दंड संहिता की धारा 171-सी के दायरे में ‘अनवाश्यक रूप से प्रभावित’ करने का कृत्य माना जाए? न्यायालय को यह भी फैसला करना था कि क्या यह पर्चा चुनाव जीतने वाले प्रत्याशी की साठगांठ से उसके समर्थकों द्वारा मुद्रित और वितरित किया गया था और क्या इस पर्चे के वितरण से चुनाव प्रभावित हुआ था? संविधान पीठ ने इन याचिकाओं पर विस्तार से सुनवाई के बाद 14 सितंबर, 1970 को अपने फैसले में कहा कि इस पर्चे में ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे अनावश्यक रूप से प्रभावित करने वाला माना जाए। सविधान पीठ ने कहा कि यदि यह भी मान लिया जाए कि यह पर्चा अनावश्यक रूप से प्रभावित करने का आधार बन सकता है, तो भी प्रतिवादी वी. वी. गिरि का चुनाव अवैघ घोषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस मामले में यह साबित नहीं हो सका है कि संसद के केन्द्रीय कक्ष में यह पर्चा वी. वी. गिरि की साठगांठ से बांटा गया था या इसने चुनाव के नतीजों को वास्तव में प्रभावित किया था। इस चुनाव से पहले ही अप्रैल 1969 में कांग्रेस का विभाजन हो गया था। न्यायालय ने इस तथ्य को नोट किया कि सुनवाई के दौरान कांग्रेस दो खेमों में बंटी हुई थी। एक खेमा कांग्रेस (ओ) और दूसरा खेमा कांग्रेस (आर) के नाम से जाना जाता था। इस मामले की सुनवाई के दौरान न्यायालय में 116 गवाहों से पूछताछ हुई। इनमें से 55 गवाह याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए थे, जबकि 61 गवाह वी. वी. गिरि की ओर से पेश हुए । इन गवाहों की हैसियत पर टिप्पणी करते हुए न्यायालय ने कहा था कि ये गवाह या तो उच्च पदों पर रह चुके हैं या अब भी उच्च पदों पर आसीन है। इनमें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी संसद या विधान मंडल के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। न्यायालय ने यह भी कहा था कि सामान्यतया इनके द्वारा पेश साक्ष्य को काफी महत्व मिलना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इनमें से कई सदस्य परस्पर विरोधी खेमों में हैं। न्यायालय ने यह टिप्पणी करने में भी गुरेज नहीं किया कि पुरानी कांग्रेस पार्टी अब एकजुट नहीं रह गई है और इनमें जबर्दस्त मतभेद हैं। संविधान पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि यह पर्चा डाक से भेजा गया था, जिसे केन्द्रीय कक्ष में बांटा गया। सुनवाई के दौरान न्यायालय के समक्ष पेश अधिकांश साक्ष्य इस पर्चे के वितरण के सवाल से जुड़े थे। संविधान पीठ ने कहा कि इस मामले में अधिकांश गवाहों ने पूरा सच बयां नहीं किया और यह देखना काफी दुखद है कि राजनीतिक लाभ के लिए इन गवाहों ने सत्य का बलिदान कर दिया। संविधान पीठ ने कहा कि इस मामले में निश्चित ही यह पर्चा अपमानजनक था, लेकिन यह व्यक्तिगत अपील के सबूत से कम था और इसलिए इसे अनावश्यक रूप से प्रभावित करने वाला कृत्य नहीं कहा जा सकता है। शिवकृपाल सिंह का नामांकन रद्द करने की कार्यवाही को संविधान पीठ ने सही ठहराते हुए कहा था कि नामांकन के साथ उन्होंने संसदीय क्षेत्र की मतदाता सूची में खुद के पंजीकृत मतदाता होने के बारे में प्रमाणित प्रति संलग्न नहीं की थी। इसी तरह न्यायालय ने कहा कि चरनलाल साहू का नामांकन पत्र भी सही आधार पर अस्वीकार किया गया था, क्योंकि उस दिन वह 35 वर्ष के नहीं थे और जहां तक योगी राज का सवाल है, तो उनके नाम का प्रस्ताव और अनुमोदन उन निर्वाचकों ने किया था, जिन्होंने एक अन्य प्रत्याशी राजभोज पांडुरंग नाथूजी के नाम का भी प्रस्ताव और अनुमोदन किया था। संविधान पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता धारा आठ में उल्लिखित आधारों के अलावा किसी अन्य आधार पर राष्ट्रपति के चुनाव को चुनौती नहीं दे सकते हैं। चुनाव के दौरान प्रतिवादी वी. वी. गिरि या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उनकी साठगांठ से रिश्वत देने जैसा अपराध करने के आरोपों पर न्यायालय ने कहा कि स्वदेशी कॉटन मिल्स को पॉलिएस्टर फैक्ट्री का लाइसेंस देने में किसी प्रकार की रिश्वतखोरी का मामला नहीं बनता है।
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06-07-2012, 03:58 PM | #216 |
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Re: कतरनें
चार जुलाई-विवेकानंद की पुण्यतिथि पर विशेष
भारतीय संस्कृति और धर्म को नई परिभाषा देने वाले विवेकानंद अपनी तेज और ओजस्वी वाणी के जरिए पूरे विश्व में भारतीय संस्कृति और अध्यात्म का डंका बजाने वाले स्वामी विवेकानंद ने केवल वैज्ञानिक सोच तथा तर्क पर बल ही नहीं दिया, बल्कि धर्म को लोगों की सेवा और सामाजिक परिवर्तन से जोड़ दिया। विवेकानंद द्वारा स्थापित और जन कल्याण से जुड़े रामकृष्ण मिशन के स्वामी संत आत्मानंद ने कहा कि विवेकानंद ने धर्म को स्वयं के कल्याण की जगह लोगों की सेवा से जोड़ा। उनका मानना था कि धर्म किसी कोने में बैठ कर सिर्फ मनन करने का माध्यम नहीं है। इसका लाभ देश और समाज को भी मिलना चाहिए। शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद के जरिए आधुनिक विश्व को भारतीय धर्म और संस्कृति से परिचित कराने वाले विवेकानंद एक महान समन्वयकारी भी थे। स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विवेकानंद को प्राचीन और आधुनिक भारत के बीच का सेतु बताया है। वहीं सुभाष चंद्र बोस ने विवेकानंद के बारे में लिखा है, ‘स्वामीजी ने पूरब और पश्चिम, धर्म और विज्ञान, अतीत और वर्तमान का समायोजन किया। यही वजह है कि वह महान हैं।’ रामकृष्ण मिशन में स्वयंसेवक देवाशीष मुखर्जी ने कहा, ‘स्वामी विवेकानंद मूल रूप से आध्यात्मिक जगत के व्यक्ति थे, लेकिन सामाजिक कार्यों पर भी उन्होंने काफी जोर दिया। उनके संदेश के केंद्र में मनुष्य की गरिमा है और वह मानव को ईश्वर का अंश मानते थे।’ स्वयं विवेकानंद ने भी ‘राजयोग’ में लिखा है कि प्रत्येक आत्मा ईश्वर का अंश है। अंदर के ईश्वर को बाहर प्रकाशित करना लक्ष्य है। ऐसा कर्म, भक्ति, ध्यान के जरिये किया जा सकता है। देवाशीष मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद भारत को ऐसा देश मानते थे, जहां पर आध्यात्म जीवित है और जहां से पूरे विश्व में आध्यात्म का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है। वह इसे भारत की महत्वपूर्ण विशेषता मानते थे और केवल इसे बनाए रखने की नहीं, बल्कि इसे बढ़ाने की जरूरत पर बल देते थे।’ विवेकानंद ने सामाजिक-आर्थिक समस्याओं को भी अपने चिंतन का विषय बनाया है। उन्होंने 1894 में मैसूर के महाराजा को लिखे पत्र में आम जनता की गरीबी को सभी अनर्थों की जड़ बताया है। उन्होंने इसे दूर करने के लिए शिक्षा और उनमें आत्मविश्वास पैदा करना सरकार और शिक्षितों का मुख्य कार्य बताया था। भारत आज भी इसी दिशा में प्रयासरत है। मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद ने गरीब और पीड़ित जनता के उत्थान को अहम माना है। इसके लिए उन्होंने विज्ञान और तकनीक के इस्तेमाल पर बल दिया है। वह आम लोगों के विकास में ही देश और विश्व का विकास मानते थे।’ आज भी विवेकानंद को युवाओं का आदर्श माना जाता है और प्रत्येक साल उनके जन्मदिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाया जाता है। मुखर्जी ने कहा, ‘विवेकानंद युवाओं से मैदान में खेलने, कसरत करने के लिए कहते थे ताकि शरीर स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हो सके और आत्मविश्वास बढ़े।’ अपनी वाणी और तेज से दुनिया को चकित करने वाले विवेकानंद ने सभी मनुष्यों और उनके विश्वासों को महत्व देते हुए धार्मिक जड़ सिद्धांतों और सांप्रदायिक भेदभाव को मिटाने का संदेश दिया ।
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08-07-2012, 05:08 PM | #217 |
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Re: कतरनें
नौ जुलाई स्मॉल आर्म डिस्ट्रक्शन डे
हथियारों के ‘जखीरे’ पर खड़ी है दुनिया नई दिल्ली। अफ्रीका से लेकर एशिया तक हर तरफ मची हिंसा में छोटे हथियारों का अत्यधिक इस्तेमाल हो रहा है और विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि राजनीतिक अस्थिरता तथा कानून व्यवस्था की स्थिति को सुधारा नहीं गया तो आने वाले समय में स्थिति और विकट हो जाएगी। दुनियाभर में कितने छोटे हथियार हैं इसका कोई ठीक-ठीक आंकड़ा नहीं है लेकिन संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमान के मुताबिक विश्वभर में कम से कम 87 करोड़ 50 लाख छोटे हथियार हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार करीब 100 देशों की लगभग एक हजार कंपनियां छोटे हथियार बनाने के व्यवसाय में शामिल हैं और हर साल 75 से 80 लाख छोटे हथियार बनाए जाते हैं। रक्षा मामलों की पत्रिका ‘इंडियन डिफेंस रिव्यू’ के संपादक भारत वर्मा ने बताया कि समाज में दहशतगर्दी बढ़ रही है और सरकार की पकड़ कमजोर हो रही है। कानून का शासन कमजोर होने पर छोटे हथियार लोग अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए रखते हैं। वर्मा ने कहा कि इसके अलावा आज दुनियाभर में फैले आतंकवादी, असामाजिक तत्व और तस्कर बड़ी संख्या में छोटे हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इनका उद्देश्य हथियारों के बल पर सत्ता को बदलना है। भारत के पूर्वोत्तर में सक्रिय उग्रवादी गुटों का भी कुछ इसी तरह का मंसूबा है जिन्हें चीन और पाकिस्तान जैसे देश हथियारों की आपूर्ति कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हथियार बनाने वाले देश जैसे रूस, चीन, अमेरिका भी इस पूरे खेल में शामिल हैं। कानून का शासन कमजोर होने पर इन देशों के हथियारों का व्यापार बढ़ जाता है। इसका ताजा उदाहरण सीरिया है जहां इन देशों पर संघर्षरत गुटों को हथियार देने के आरोप लगे हैं । वर्मा ने कहा कि ये देश ऐेसे गुटों को हथियारों की आपूर्ति कर दो तरफा फायदा उठाते हैं। इन देशों को जहां हथियार बेचकर खूब मुनाफा होता है वहीं सत्ता बदलने पर वहां अपने मनमुताबिक नीतियां बनवा लेते हैं। रक्षा मामलों के विशेषज्ञ डा. रहीस सिंह ने कहा कि विकसित देश वैश्वीकरण के इस दौर में विभिन्न उत्पादों में विकासशील देशों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं तो वे अब हथियार बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं जहां उनका एकाधिकार है। डा. सिंह ने बताया कि स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि विकासशील देशों सोमालिया, अल्जीरिया, लीबिया, कतर आदि में परंपरागत हथियारों की खरीद में बढ़ोतरी के साथ वहां अशांति भी बढ़ गई है। उन्होंने कहा कि सिप्री की वर्ष 2012 की रिपोर्ट के मुताबिक चीन बहुत तेजी से छोटे हथियार बेच रहा है और उसके खरीददारों में भारत के पड़ोसी और अफ्रीकी देश शामिल हैं। छोटे हथियारों की बढ़ोत्तरी से सामाजिक, राजनीतिक अशांति में बढोत्तरी होगी। डा. रहीस ने कहा कि भारत को इससे निपटने के लिए सीमा सुरक्षा व्यवस्था पर एक पारदर्शी नीति बनानी होगी। आर्थिक नीतियां इस तरह से बनानी होगी कि समाज के भूखे लोगों को रोजगार मिले और आर्थिक असमानता कम हो। उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र संघ हर वर्ष नौ जुलाई को छोटे हथियार विनाश दिवस के रूप में मनाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य छोेटे हथियारों की वजह से उत्पन्न होने वाले खतरों के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाना है ।
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09-07-2012, 01:06 PM | #218 |
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Re: कतरनें
संस्मरण
जब ‘त्रावणकोर के महाराजा’ मिले थे महारानी एलिजाबेथ द्वितीय से भारत में ब्रिटिश शासन से लेकर लोकतंत्र की स्थापना के गवाह रहे, त्रावणकोर के 90 वर्षीय महाराजा उथरादोम तिरूनल मार्तन्ड वर्मा के पास ढेर सारी खट्टी मीठी यादें हैं, लेकिन ब्रिटिश महारानी एलिजबेथ द्वितीय के साथ हुई मुलाकात इन यादों की अनमोल धरोहर है। वर्ष 1947 में भारत की आजादी और रियासतों के भारतीय संघ में विलय से पहले तक दक्षिण केरल में शासन करने वाले पूर्ववर्ती त्रावणकोर राजघराने के प्रमुख महारानी की तीव्र याददाश्त और उनके ज्ञान से हतप्रभ रह गए थे। वर्ष 1933 में उथरादोम तिरूनल पहली बार इंग्लैंड में एलिजाबेथ द्वितीय से मिले थे और तब वह केवल सात साल की राजकुमारी एलिजाबेथ द्वितीय थीं। 21 साल बाद बेंगलूर में दूसरी मुलाकात के दौरान महारानी ने उन्हें न केवल पहचान लिया, बल्कि उनकी रियासत के बारे में पूछताछ भी की। उन्होंने कहा, ‘उनके राजतिलक से बहुत पहले, मैं इंग्लैंड में उनसे मिला था। उनके पिता, तत्कालीन ड्यूक आॅफ यॉर्क भी वहां थे।’ फिर महारानी का राजतिलक हुआ और भारत की आजादी के बाद वह अपने पति के साथ यहां आईं। उथरादोम तिरूनल ने कहा, ‘1954 में मुझे बेंगलूर में महारानी के सम्मान में आयोजित चाय पार्टी में आमंत्रित किया गया। विधानसौध में आयोजित इस पार्टी में महारानी अपने पति के साथ आईं। मैं उनसे मिलना चाहता था और अपनी इच्छा मैंने विजयलक्ष्मी पंडित को बताई। उन्होंने हमारी मुलाकात की व्यवस्था की।’ उथरादोम तिरूनल अपनी पत्नी राधादेवी के साथ महारानी से मिले। उन्होंने कहा, ‘अभिवादन के बाद महारानी ने पूछा, ‘आप त्रावणकोर के इलैयाराजा (युवराज) हैं?’ फिर उन्होंने इंग्लैंड में बरसों पहले हुई हमारी मुलाकात का जिक्र किया। जब उन्होंने पूछा कि क्या त्रावणकोर भारत के दक्षिणी छोर में है, तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा।’ उन्होंने कहा, ‘उन्हें भारत के बारे में अच्छी जानकारी थी। उन्होंने बेंगलूर में मेरे आवास के बारे में पूछा और कहा कि मैसूर के महाराजा के साथ उनके महल में जाते समय वह नंदी हिल्स स्थित मेरे महल के पास से गुजरी थीं और उन्हें मैसूर के महाराजा ने बताया था कि यह महल त्रावणकोर के इलैयाराजा का है।’ उथरादोम तिरूनल के पास महारानी की वह तस्वीर भी है, जो खुद उन्होंने खींची थी। इसमें मैसूर के महाराजा के साथ खुली कार में जा रही महारानी जनता की ओर देख कर हाथ हिला रही हैं। उन्होंने कहा, ‘यह देख कर अच्छा लगता है कि इंग्लैंड के शाही परिवार ने आसानी से बदलता समय स्वीकार कर लिया। वह नए दौर के साथ जीते हैं। जहां तक मुझे याद है, तो ब्रिटिश सरकार ने शाही वंश को दी करों में छूट वापस ले ली थी, लेकिन ब्रिटिश शाही परिवार ने इस बारे में कोई शिकायत नहीं की। यह दुर्लभ गुण है।’ त्रावणकोर रियासत के अंतिम शासक चिथिरा तिरूनल बलराम वर्मा के बाद 1991 में उथरादोम तिरूनल ने त्रावणकोर राजवंश की जिम्मेदारी संभाली। वह कहते हैं, ‘ब्रिटिश प्रशासकों के लिए मन में कभी बैरभाव नहीं आया, क्योंकि उन्हें हमेशा त्रावणकोर शासकों की सराहना की। वह हमारे साथ मित्रता की संधि चाहते थे।’ घूमने के शौकीन उथरादोम तिरूनल कहते हैं कि अमेरिका छोड़ कर वह लगभग सभी पश्चिमी देशों में भ्रमण कर चुके हैं। उन्हें उच्च लोकतांत्रिक ढांचे की वजह से स्विट्जरलैंड बहुत अच्छा लगा। उनके मित्रों की सूची में नेपाल के सम्राट महेंद्र और बीरेन्द्र, फारस के शाह, सोवियत नेता निकिता खु्रश्चेव से लेकर कश्मीर के डॉ. कर्ण सिंह, पंजाब में कपूरथला का राजवंश और तमिलनाडु में पुथुकोट्टी राजवंश तक शामिल हैं। जहां तक रहने की बात है, तो उथरादोम तिरूनल को त्रावणकोर से अच्छी जगह और कोई नहीं लगती। वह कहते हैं, ‘यहां ऐसे राजा हुए जिन्होंने संकट के समय जनता के साथ उपवास किया। इस जमीन ने शासकों को विनम्रता, दया, करूणा और सरलता की सीख दी। मेरी मातृभूमि जैसा देश और कोई नहीं हो सकता।’ हाल ही में त्रावणकोर राजवंश के श्रीपद्मनाथ स्वामी मंदिर के गर्भगृह से निकले खजाने के बारे में उन्होंने कहा, ‘यह खजाना सदियों से मंदिर के गर्भगृह में है और शाही परिवार को इसकी जानकारी भी है। यह भगवान पद्मनाभ की संपत्ति है और हमें इसमें कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। इसे भविष्य में भी भगवान की संपत्ति के तौर पर संरक्षित रखा जाना चाहिए।’
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09-07-2012, 01:09 PM | #219 |
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Re: कतरनें
जगदीश शेट्टार : सत्ता के करीब पहुंच कर दूर हुए, फिर भी मिल गई कुर्सी
बेंगलूर। भाजपा नेता 56 वर्षीय जगदीश शेट्टार के लिए एक साल से भी कम समय में राजनीतिक जीवन का एक चक्र पूरा हो गया। पिछले साल अगस्त में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शेट्टार डी. वी. सदानंद गौड़ा से पीछे रह गए थे। गौड़ा, अवैध खनन को लेकर लोकायुक्त की रिपोर्ट में अभियोग लगाए जाने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले बी. एस. येदियुरप्पा की इस पद के लिए खास पसंद थे। बहरहाल, 11 माह बाद शेट्टार उस येदियुरप्पा खेमे की पसंद बन गए, जो गौड़ा को पद से हटाने के लिए कमर कस चुका था। बीते चार माह में गौड़ा जहां येदियुरप्पा की पकड़ से बाहर आ गए, वहीं उनके भाजपा की कर्नाटक इकाई के दिग्गज के साथ रिश्तों में भी कड़वाहट आ गई। उन्हें हटाने की मांग तेज हो गई। पिछले साल पार्टी के वरिष्ठ नेता एच. एन. अनंतकुमार और भाजपा की राज्य इकाई के अध्यक्ष के. एस. ईश्वरप्पा ने जब शेट्टार का नाम आगे किया, तो खुद शेट्टार ने पैर पीछे कर लिए थे, पर आज उन्हें कुर्सी मिल गई। उनका कार्यकाल हालांकि छोटा होगा, क्योंकि कर्नाटक में अगले साल मई में विधानसभा चुनाव होंगे। यह भी चर्चा चल रही है कि गुजरात में जब दिसंबर में विधानसभा चुनाव होंगे, तब कर्नाटक में भाजपा के कुछ गुट भी समय से पहले चुनाव की मांग कर सकते हैं। फिलहाल शेट्टार के समक्ष चुनौतियां कम नहीं हैं। दक्षिण में पहली सरकार बनाने वाली सत्तारूढ़ भाजपा को विधानसभा चुनावों से पहले अपनी कलह दूर करना और उन मुद्दों को सुलझाना है, जिनकी वजह से जनता में उसकी छवि खराब हुई है। यह काम आसान नहीं होगा। पिछले दिनों गौड़ा के प्रति खुल कर समर्थन जताने वाले मंत्री और विधायक उनके लिए निष्ठा रखते हैं और लगता नहीं है कि वह शेट्टार को आसानी से स्वीकार कर लेंगे। ऐसे में सरकार की स्थिरता को लेकर सवाल उठते हैं। मितभाषी शेट्टार फिलहाल ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री हैं। वह ऐसे समय पर मुख्यमंत्री पद संभालने जा रहे हैं, जब पार्टी पर जातिगत समीकरण हावी हैं और गहरे मतभेद भी हैं। गौड़ा खुद वोक्कलिंगा समुदाय के हैं। पिछले साल लिंगायत समुदाय के शेट्टार के बजाय गौड़ा का समर्थन करने के बाद लिंगायत समुदाय के एक वर्ग ने येदियुरप्पा की जम कर आलोचना की थी। शेट्टार को येदियुरप्पा का आभारी होना चाहिए, जिन्होंने उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए आलाकमान पर बहुत दबाव डाला। इससे पहले, यह भी स्पष्ट हो गया था कि येदियुरप्पा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच चलने की वजह से उन्हें फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनाया जाएगा। 17 दिसंबर 1955 को बगलकोट जिले के केरूर गांव में जन्मे शेट्टार उस परिवार से हैं, जिसकी जड़ें पूर्ववर्ती जनसंघ से जुड़ी थीं। उनके पिता शिवप्पा शिवमूर्थापा शेट्टार जनसंघ के कार्यकर्ता थे और उन्होंने लगातार पांच बार हुबली धारवाड़ नगर निकाय के सदस्य का चुनाव जीता था। वह दक्षिण भारत में जनसंघ के पहले महापौर भी थे। शेट्टार के चाचा सदाशिव शेट्टार ने वर्ष 1967 में जनसंघ के टिकट पर हुबली विधानसभा का चुनाव जीता था। बीकॉम और एलएलबी की डिग्री प्राप्त शेट्टार ने हुबली बार में 20 साल तक वकील के तौर पर प्रैक्टिस की। वह अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ता रहे। वर्ष 1990 में वह भाजपा की हुबली ग्रामीण इकाई के अध्यक्ष बने और चार साल बाद पार्टी की धारवाड़ इकाई के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। शेट्टार सबसे पहले 1994 में हुबली ग्रामीण विधानसभा से राज्य विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए और लगातार चार कार्यकाल तक इसी सीट का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष 1996 में उन्हें पार्टी की राज्य इकाई का सचिव तथा 1999 में विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया गया। उन दिनों विदेश मंत्री एस. एम. कृष्णा राज्य के मुख्यमंत्री थे। शेट्टार वर्ष 2005 में भाजपा की राज्य इकाई के अध्यक्ष नियुक्त किए गए। वर्ष 2006 में एच. डी. कुमार स्वामी के नेतृत्व वाली भाजपा जदएस गठबंधन सरकार में वह राजस्व मंत्री रहे। वर्ष 2008 में भाजपा के सत्ता में आने पर वह अपनी मर्जी न होने पर भी विधानसभा अध्यक्ष बनाए गए, क्योंकि लिंगायत समुदाय का होने की वजह से येदियुरप्पा कथित तौर पर उनका प्रभाव कम करना चाहते थे। 2009 में उन्होंने पद छोड़ने की भरपूर कोशिश की और वह ग्रामीण विकास तथा पंचायत राज मंत्री बनाए गए। उन्होंने 1984 में विवाह किया था। उनकी पत्नी का नाम शिल्पा है। इस जोड़े के दो पुत्र प्रशांत और संकल्प हैं।
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Re: कतरनें
11 जुलाई को पुण्यतिथि पर विशेष
प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढाने वाले साहित्यकार थे भीष्म साहनी बहुमुखी प्रतिभा के धनी भीष्म साहनी आमलोगों की आवाज उठाने और हिंदी के महान लेखक प्रेमचंद की जनसमस्याओं को उठाने की परंपरा को आगे बढाने वाले साहित्यकार के तौर पर पहचाने जाते हैं। विभाजन की त्रासदी पर ‘तमस’ जैसे कालजयी उपन्यास लिखने वाले साहनी ने हिंदुस्तानी भाषा के उपयोग को बढ़ावा दिया। साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा कि भीष्म साहनी ने दबे-कुचले और समाज के पिछड़े लोगों की समस्याओं को जनभाषा में अत्यंत सटीक तरीके से अपनी रचनाओं में अभिव्यक्त किया है। यही वजह है कि उन्हें प्रेमचंद की परंपरा का साहित्यकार कहा जाता है। प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह भी साहनी को प्रेमचंद की परंपरा के अहम और प्रमुख रचनाकार मानते हैं। जिस तरह से प्रेमचंद ने सामाजिक वास्तविकता और पूंजीवादी व्यवस्था के दुष्परिणामों को अपनी रचनाओं में चित्रित किया, उन्हीं विषयों को आजादी के बाद साहनी ने अपनी लेखनी का विषय बनाया। साहनी का जन्म रावलपिंडी (पाकिस्तान) में हुआ था। विभाजन के बाद वह भारत आ गए। बीबीसी को दिए एक साक्षात्कार में साहनी ने उनके भारत आने की परिस्थिति का उल्लेख किया था। उन्होंने बताया था कि वह स्वतंत्रता समारोह का जश्न देखने रावलपिंडी से सप्ताह भर के लिए दिल्ली आए थे। उनकी पंडित नेहरू को लालकिले पर झंडा फहराते और हिन्दुस्तान की आजादी का जश्न देखने की हसरत थी, लेकिन जब वह दिल्ली पहुंचे, तो पता चला कि गाड़ियां बंद हो गई और फिर उनका लौटना नामुमकिन हो गया। भीष्म साहनी ने तमस के अलावा झरोखे, बसंती, मय्यादास की माड़ी जैसे उपन्यासों और हानूश, माधवी, कबिरा खड़ा बाजार में जैसे चर्चित नाटकों की भी रचना की। भाग्यरेखा, निशाचर, मेरी प्रिय कहानियां उनके कहानी संग्रह हैं। राजेंद्र यादव ने बताया कि विभाजन के बाद पाकिस्तान से देश में आने वाले लोगों की मनोदशा और समस्याओं को अत्यंत ही सजीव और वास्तविक वर्णन उन्होंने तमस में किया है। यादव ने उनके साथ अपने संबंधों को ताजा करते हुए कहा कि विभाजन के बाद भारत में ही बस गए साहनी बड़े ही जिंदादिल इंसान थे। अत्यंत साधारण से दिखने वाले साहनी जब-तब फोन करके किसी घटना को मजेदार चुटकुले के रूप में बताते थे। बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहनी ने नाटकों के अलावा फिल्मों में भी काम किया है। मोहन जोशी हाजिर हो, कस्बा के अलावा मिस्टर एंड मिसेज अय्यर फिल्म में उन्होंने अभिनय किया। साहनी की कृति पर आधारित धारावाहिक ‘तमस’ काफी चर्चित रहा था। यादव ने बताया कि वह भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा से भी जुड़े हुए थे। स्वभाविक रूप से उनकी रूचि अभिनय में थी और वह फिल्मों की ओर भी आकर्षित हुए। बेहद सादगी पसंद रचनाकार और दिल्ली विश्वविद्यालय में अंग्रेजी साहित्य के प्रोफेसर साहनी को पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। समाज के अंतिम व्यक्ति की आवाज उठाने वाले इस लेखक का निधन 11 जुलाई 2003 को दिल्ली में हुआ।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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