11-01-2011, 06:01 AM | #221 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
ज़रा देर में बीस-पच्चीस बच्चे आ गये। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आँखें उठी थीं, उनकी आँख में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थे। इसका कारण था, माता-पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते। मालती ने यहाँ भी उन्हें भोजन करने का महत्व समझाया, जैसा वह सभी गाँवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नहीं करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसीलिए हुआ है कि तुम मर-मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको? जहाँ दो-चार बैलों के लिए भोजन है, एक दो गाय-भैसों के लिए चारा नहीं है? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर उसे केवल प्राणरक्षा की वस्तु समझते हैं? क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम-मात्र के ब्याज पर रुपए देकर उन्हें सूदख़ोर महाजनों के पंजे से बचाये? उसने जिस किसी से पूछा, यही मालूम हुआ कि उसकी कमाई का बड़ा भाग महाजनों का क़रज़ चुकाने में ख़र्च हो जाता है। बटवारे का मरज़ भी बढ़ता जाता था। आपस में इतना वैमनस्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों। उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ उनकी संकीणर्ता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्ही विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था। आज उसके वह रेशमी कपड़े, जिन पर ज़री का काम था, और वह सुगन्ध से महकता हुआ शरीर, और वह पाउडर से अलंकृत मुख-मंडल, उसे लज्जित करने लगा। उसकी कलाई पर बँधी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर रही थी। उसके गले में चमकता हुआ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा था। इन त्याग और श्रद्धा की देवियों के सामने वह अपनी दृष्टि में नीची लग रही थी। वह इन ग्रामीणों से बहुत-सी बातें ज़्यादा जानती थी, समय की गति ज़्यादा पहचानती थी; लेकिन जिन परिस्थितियों में ये ग़रीबिनें जीवन को सार्थक कर रही हैं, उनमें क्या वह एक दिन भी रह सकती हैं? जिनमें अहंकार का नाम नहीं, दिन भर काम करती हैं, उपवास करती हैं, रोती हैं, फिर भी इतनी प्रसन्न मुख! दूसरे उनके लिए इतने अपने हो गये हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। उनका अपनापन अपने लड़कों में, अपने पति में, अपने सम्बन्धियों में है। इस भावना की रक्षा करते हुए — इसी भावना का क्षेत्र और बढ़ाकर — भावी नारीत्व का आदर्श निर्माण होगा। जाग्रत देवियों में इसकी जगह आत्म-सेवन का जो भाव आ बैठा है — सब कुछ अपने लिए, अपने भोग विलास के लिए — उससे तो यह सुषुप्तावस्था ही अच्छी। पुरुष निर्दयी है, माना; लेकिन है तो इन्हीं माताओं का बेटा। क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री-जाति की पूजा करता? इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आती, इसलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया। नहीं, अपने को मिटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, उसी तरह जैसे इन किसानों की अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ त्याग करना पड़ेगा। सन्ध्या हो गयी थी। मालती को औरतें अब तक घेरे हुए थीं। उसकी बातों से जैसे उन्हें तृप्ति न होती थी। कई औरतों ने उससे रात को वहीं रहने का आग्रह किया। मालती को भी उनका सरल स्नेह ऐसा प्यारा लगा कि उसने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया। रात को औरतें उसे अपना गाना सुनायेंगी। मालती ने भी प्रत्येक घर में जा-जाकर उसकी दशा से परिचय प्राप्त करने में अपने समय का सदुपयोग किया, उसकी निष्कपट सद्भावना और सहानुभूति उन गँवारिनों के लिए देवी के वरदान से कम न थी। उधर मेहता साहब खाट पर आसन जमाये किसानों की कुश्ती देख रहे थे और पछता रहे थे, मिरज़ाजी को क्यों न साथ ले लिया, नहीं उनका भी एक जोड़ हो जाता। उन्हें आश्चर्य हो रहा था, ऐसे प्रौढ़ और निरीह बालकों के साथ शिक्षित कहलानेवाले लोग कैसे निर्दयी हो जाते हैं। अज्ञान की भाँति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखनेवाला होता है। मानवता में उसका विश्वास इतना दृढ़, इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझने लगता है। यह वह भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का जवाब सदैव पंजे और दाँतों से दिया है। वह अपना एक आदर्श-संसार बनाकर उसको आदर्श मानवता से आबाद करता है और उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। |
11-01-2011, 06:01 AM | #222 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
मेहता जी इस समय इन गँवारों के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों है। वह इस सत्य से आँखें मिलाने का साहस न कर सकते थे कि इनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काश, ये आदमी ज़्यादा और देवता कम होते, तो यों न ठुकराये जाते। देश में कुछ भी हो, क्रान्ति ही क्यों न आ जाय, इनसे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आये, उसके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुँच गयी है, जिसे कठोर आघात ही कर्मण्य बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश होकर अब अपने अन्दर ही टाँगें तोड़कर बैठ गयी है। उनमें अपने जीवन की चेतना ही जैसे लुप्त हो गयी है। सन्ध्या हो गयी थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर रहे थे, वे भी दौड़े चले आ रहे थे।
उसी समय मेहता ने मालती को गाँव की कई औरतों के साथ इस तरह तल्लीन होकर एक बच्चे को गोद में लिए देखा, मानो वह भी उन्हीं में से एक है। मेहता का हृदय आनन्द से गद्गद हो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मेहता पर अर्पण कर दिया था। इस विषय में मेहता को अब कोई सन्देह न था; मगर अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह उत्कट भावना जाग्रत न हुई थी, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए हास्य-जनक था। मालती बिना बुलाये मेहमान की भाँति उनके द्वार पर आकर खड़ी हो गयी थी, और मेहता ने उसका स्वागत किया था। इसमें प्रेम का भाव न था, केवल पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती है कि उन पर अपनी कृपा-दृष्टि फेरे, तो मेहता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ ही वह मालती को गोविन्दी के रास्ते से हटा देना चाहते थे और वह जानते थे, मालती जब तक आगे अपना पाँव न जमा लेगी, वह पिछला पाँव न उठायेगी। वह जानते थे, मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का परिचय दे रहे हैं। इसके लिए उनकी आत्मा बराबर उन्हें धिक्कारती रही थी; मगर ज्यों-ज्यों वह मालती को निकट से देखते थे, उनके मन में आकर्षण बढ़ता जाता था। रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। यह गुण का आकर्षण था। यह वह जानते थे, जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बन्धन में बँध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति-मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं; मगर इसके पहले यह निश्चय तो कर लेना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के ख़राद पर चढ़ेगा, उसमें ख़रादे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर तो ख़राद पर चढ़कर सुन्दर मूतिर्याँ नहीं बन जाते। इतने दिनों में मालती ने उनके हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी रश्मियाँ डाली थीं; पर अभी तक वे केंद्रित होकर उस ज्वाला के रूप में न फूट पड़ी थीं, जिससे उनका सारा अन्तस्तल प्रज्वलित हो जाता। आज मालती ने ग्रामीणों में मिलकर और सारे भेद-भावों को मिटाकर इन रश्मियों को मानो केंद्रित कर दिया। और आज पहली बार मेहता को मालती से एकात्मता का अनुभव हुआ। ज्यों ही मालती गाँव का चक्कर लगाकर लौटी, उन्होंने उसे साथ लेकर नदी की ओर प्रस्थान किया। रात यहीं काटने का निश्चय हो गया। मालती का कलेजा आज न जाने क्यों धक-धक करने लगा। मेहता के मुख पर आज उसे एक विचित्र ज्योति और इच्छा झलकती हुई नज़र आयी। नदी के किनारे चाँदी का फ़र्श बिछा हुआ था और नदी रत्न-जिटत आभूषण पहने मीठे स्वरों में गाती चाँद की और तारों की और सिर झुकाये नींद में माते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही थी। मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से जैसे मस्त हो गये। जैसे उनका बालपन अपनी सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो। बालू पर कई कुलाटें मारीं। फिर दौड़े हुए नदी में जाकर घुटने तक पानी में खड़े हो गये। मालती ने कहा — पानी में न खड़े हो। कहीं ठंड न लग जाय। |
11-01-2011, 06:02 AM | #223 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
मेहता ने पानी उछालकर कहा — मेरा तो जी चाहता है, नदी के उस पार तैरकर चला जाऊँ।
‘ नहीं-नहीं, पानी से निकल आओ। मैं न जाने दूँगी। ‘ ‘ तुम मेरे साथ न चलोगी, उस सूनी बस्ती में जहाँ स्वप्नों का राज्य है। ‘ ‘ मुझे तो तैरना नहीं आता। ‘ ‘ अच्छा, आओ, एक नाव बनायें, और उस पर बैठकर चलें। ‘ वह बाहर निकल आये। आस-पास बड़ी दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मेहता ने जेब से चाकू निकाला, और बहुत-सी टहनियाँ काटकर जमा कीं। करार पर सरपत के जूट खड़े थे। ऊपर चढ़कर सरपत का एक गट्ठा काट लाये और वहीं बालू के फ़र्श पर बैठकर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वगार्रोहण की तैयारी कर रहे हैं। कई बार उँगलियाँ चिर गयीं, ख़ून निकला। मालती बिगड़ रही थीं, बार-बार गाँव लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थी; पर उन्हें कोई परवाह न थी। वही बालकों का-सा उल्लास था, वही अल्हड़पन, वही हठ। दर्शन और विज्ञान सभी इस प्रवाह में बह गये थे। रस्सी तैयार हो गयी। झाऊ का बड़ा-सा तख़्त बन गया, टहनियाँ दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी गयी थीं। उसके छिद्रों में झाऊ की टहनियाँ भर दी गयीं, जिससे पानी ऊपर न आये। नौका तैयार हो गयी। रात और भी स्वप्निल हो गयी थी। मेहता ने नौका को पानी में डालकर मालती का हाथ पकड़कर कहा — आओ, बैठो। मालती ने सशंक होकर कहा — दो आदमियों का बोझ सँभाल लेगी? मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा — जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर रहे हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है मालती? क्या डर रही हो? ‘ डर किस बात का जब तुम साथ हो। ‘ ‘ सच कहती हो? ‘ ‘ अब तक मैंने बग़ैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूँ। ‘ दोनों उस झाऊ के तख़्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख़्ता डगमगाता हुआ पानी में चला। मालती ने मन को इस तख़्ते से हटाने के लिए पूछा — तुम तो हमेशा शहरों में रहे, गाँव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख़्ता कभी न बना सकती। मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा — शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है; नस-नस में स्फूर्ति छा जाती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनन्द का निमन्त्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनन्द मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, संगीत के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊँची उड़ानों में भी नहीं। जैसे अपने आपको पा जाता हूँ, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाय। |
11-01-2011, 06:03 AM | #224 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
तख़्ता डगमगाता, कभी तिर्छा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था। सहसा मालती ने कातर कंठ से पूछा — और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती?
मेहता ने उसका हाथ पकड़कर कहा — आती हो, बार-बार आती हो, सुगन्ध के एक झोंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बाँध लूँ; पर हाथ खुले रह जाते हैं और तुम ग़ायब हो जाती हो। मालती ने उन्माद की दशा में कहा — लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा? समझना चाहा? ‘ हाँ मालती, बहुत सोचा, बार-बार सोचा। ‘ ‘ तो क्या मालूम हुआ? ‘ ‘ यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूँ, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शान्त कुटिया है; लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए। ‘ मालती ने अपना हाथ छुड़ाकर जैसे मान करते हुए कहा — यह झूठा आक्षेप है। तुमने सदैव मुझे परीक्षा की आँखों से देखा, कभी प्रेम की आँखों से नहीं। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुण, सुन्दर को असुन्दर बनानेवाली चीज़ है; प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुन्दर को सुन्दर! मैंने तुमसे प्रेम किया, मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तुममें कोई बुराई भी है; मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अस्थिर, चंचल और जाने क्या-क्या समझकर मुझसे हमेशा दूर भागते रहे। नहीं, मैं जो कुछ कहना चाहती हूँ, वह मुझे कह लेने दो। मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूँ; इसलिए कि मुझे वह प्रेम नहीं मिला, जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाता; अगर तुमने मेरे सामने उसी तरह आत्म-समर्पण किया होता, जैसे मैंने तुम्हारे सामने किया है, तो तुम आज मुझ पर यह आक्षेप न रखते। मेहता ने मालती के मान का आनन्द उठाते हुए कहा — तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं की? सच कहती हो? ‘ कभी नहीं। ‘ ‘ तो तुमने ग़लती की। ‘ ‘ मैं इसकी परवाह नहीं करती। ‘ ‘ भावुकता में न आओ मालती! प्रेम देने के पहले हम सब परीक्षा करते हैं और तुमने की, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही की हो। मैं आज तुमसे स्पष्ट कहता हूँ कि पहले मैंने तुम्हें उसी तरह देखा, जैसे रोज़ ही हज़ारों देवियों को देखा करता हूँ, केवल विनोद के भाव से; अगर मैं गलती नहीं करता, तो तुमने भी मुझे मनोरंजन के लिए एक नया खिलौना समझा। ‘ मालती ने टोका — ग़लत कहते हो। मैंने कभी तुम्हें इस नज़र से नहीं देखा। मैंने पहले ही दिन तुम्हें अपना देव बनाकर अपने हृदय …। |
11-01-2011, 06:04 AM | #225 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
मेहता बात काटकर बोले — फिर वही भावुकता। मुझे ऐसे महत्व के विषय में भावुकता पसन्द नहीं; अगर तुमने पहले ही दिन से मुझे इस कृपा के योग्य समझा, तो इसका यही कारण हो सकता है, कि मैं रूप भरने में तुमसे ज़्यादा कुशल हूँ, वरना जहाँ तक मैंने नारियों का स्वभाव देखा है, वह प्रेम के विषय में काफ़ी छान-बीन करती हैं। पहले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा होती थी? वह मनोवृत्ति अब भी मौजूद है, चाहे उसका रूप कुछ बदल गया हो। मैंने तब से बराबर यही कोशिश की है कि अपने को सम्पूर्ण रूप से तुम्हारे सामने रख दूँ और उसके साथ ही तुम्हारी आत्मा तक भी पहुँच जाऊँ। और मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे अन्तस्तल की गहराई में उतरा हूँ, मुझे रत्न ही मिले ही हैं। मैं विनोद के लिए आया और आज उपासक बना हुआ हूँ। तुमने मेरे भीतर क्या पाया यह मुझे मालूम नहीं।
नदी का दूसरा किनारा आ गया। दोनों उतरकर उसी बालू के फ़र्श पर जा बैठे और मेहता फिर उसी प्रवाह में बोले — और आज मैं यहाँ वही पूछने के लिए तुम्हें लाया हूँ? मालती ने काँपते हुए स्वर में कहा — क्या अभी तुम्हें मुझसे यह पूछने की ज़रूरत बाक़ी है? ‘ हाँ, इसलिए कि मैं आज तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊँगा, जो शायद अभी तक तुमने नहीं देखा और जिसे मैंने भी छिपाया है। अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफ़ाई करूँ तो तुम मुझे क्या सज़ा दोगी? ‘ मालती ने उसकी ओर चकित होकर देखा। इसका आशय उसकी समझ में न आया। ‘ ऐसा प्रश्न क्यों करते हो? ‘ ‘ मेरे लिए यह बड़े महत्व की बात है। ‘ ‘ मैं इसकी सम्भावना नहीं समझती। ‘ ‘ संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी एक क्षण में पतित हो सकता है। ‘ ‘ मैं उसका कारण खोजूँगी और उसे दूर करूँगी। ‘ ‘ मान लो, मेरी आदत न छूटे। ‘ ‘ फिर मैं नहीं कह सकती, क्या करूँगी। शायद विष खाकर सो रहूँ। ‘ ‘ लेकिन यदि तुम मुझसे यही प्रश्न करो, तो मैं उसका दूसरा जवाब दूँगा। ‘ मालती ने सशंक होकर पूछा — बतलाओ! मेहता ने दृढ़ता के साथ कहा — मैं पहले तुम्हारा प्राणान्त कर दूँगा, फिर अपना। मालती ने ज़ोर से क़हक़हा मारा और सिर से पाँव तक सिहर उठी। उसकी हँसी केवल उसके सिहरन को छिपाने का आवरण थी। मेहता ने पूछा — तुम हँसी क्यों? |
11-01-2011, 06:05 AM | #226 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
इसलिए कि तुम ऐसे हिंसावादी नहीं जान पड़ते। ‘
‘ नहीं मालती, इसी विषय में मैं पूरा पशु हूँ और उस पर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और निःस्वार्थ प्रेम जिसमें आदमी अपने को मिटाकर केवल प्रेमिका के लिए जीता है, उसके आनन्द से आनन्दित होता है और उसके चरणों पर अपनी आत्मा समर्पण कर देता है, मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएँ पढ़ी हैं जहाँ प्रेमी ने प्रेमिका के नये प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी है; मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूँ, सेवा कह सकता हूँ, प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, ख़ूँख़्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आँख भी नहीं पड़ने देता। ‘ मालती ने उनकी आँखों में आँखें डालकर कहा — अगर प्रेम ख़ूँख़्वार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूँगी। मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था। मैं प्रेम को सन्देह से ऊपर समझती हूँ। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। सन्देह का वहाँ ज़रा भी स्थान नहीं और हिंसा तो सन्देह का ही परिणाम है। वह सम्पूर्ण आत्म-समपर्ण है। उसके मन्दिर में तुम परीक्षक बनकर नहीं, उपासक बनकर ही वरदान पा सकते हो। वह उठकर खड़ी हो गयी और तेज़ी से नदी की तरफ़ चली, मानो उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो। ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी अनुभव न हुआ। उसने स्वतन्त्र जीवन में भी अपने में एक दुर्बलता पायी थी, जो उसे सदैव आन्दोलित करती रहती थी, सदैव अस्थिर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा करता था, जिसके बल पर टिक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे यह शक्ति न मिलती थी। बुद्धि और चरित्र की शक्ति देखकर वह उसकी ओर लालायित होकर जाती थी। पानी की भाँति हर एक पात्र का रूप धारण कर लेती थी। उसका अपना कोई रूप न था। उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी परीक्षार्थी छात्र की-सी थी। छात्र को पुस्तकों से प्रेम हो सकता है और आज हो जाता है; लेकिन वह पुस्तक के उन्हीं भागों पर ज़्यादा ध्यान देता है, जो परीक्षा में आ सकते हैं। उसकी पहली ग़रज परीक्षा में सफल होना है। ज्ञानार्जन इसके बाद। अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा दयालु है या अन्धा है और छात्रों को यों ही पास कर दिया करता है, तो शायद वह पुस्तकों की ओर आँख उठाकर भी न देखे। मालती जो कुछ करती थी, मेहता को प्रसन्न करने के लिए। उसका मतलब था, मेहता का प्रेम और विश्वास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी बन जाना; लेकिन उसी छात्र की तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमाकर। लियाक़त आ जाने से परीक्षक आप-ही-आप उससे सन्तुष्ट हो जायगा, इतना धैर्य उसे न था। मगर आज मेहता ने जैसे उसे ठुकराकर उसकी आत्म-शक्ति को जगा दिया। मेहता को जब से उसने पहली बार देखा था, तभी से उसका मन उनकी ओर झुका था। उसे वह अपने परिचितों में सबसे समर्थ जान पड़े। उसके परिष्कृत जीवन में बुद्धि की प्रखरता और विचारों की दृढ़ता ही सबसे ऊँची वस्तु थी। धन और ऐश्वर्य को तो वह केवल खिलौना समझती थी, जिसे खेलकर लड़के |
11-01-2011, 06:07 AM | #227 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
तोड़-फोड़ डालते हैं। रूप में भी अब उसके लिए विशेष आकर्षण न था, यद्यपि कुरूपता के लिए घृणा थी। उसको तो अब बुद्धि-शक्ति ही अपने ओर झुका सकती थी, जिसके आश्रय में उसमें आत्म-विश्वास जगे, अपने विकास की प्रेरणा मिले, अपने में शक्ति का संचार हो, अपने जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजिस्वता ने उसके ऊपर अपनी मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक शक्ति की उसे ज़रूरत थी, वह मिल गयी थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया था, वह अपने को उसके समीप पहुँचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह और मेहता एकात्म हो जायँगे और यह कल्पना उसे और भी दृढ़ और निष्ठ बना रही थी। मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुँचा दिया गया था, जहाँ सन्देह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरु को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे लिये जाती है और उसके देवत्व की ओर से आँखें बन्द किये लेती है, और यह देखकर उसका दिल बैठ गया।
मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा — आओ, कुछ देर और बैठें। मालती बोली — नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है। राय साहब का सितारा बुलन्द था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गये थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गयी थी, मुक़दमा जीत गये थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गये थे। चारों ओर से बधाइयाँ मिल रही थीं। तारों का ताँता लगा हुआ था। इस मुक़दमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुक़ेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था; मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मज़बूत हो गयी थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। क़रज़ की मात्रा बहुत बढ़ गयी थी; मगर अब राय साहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नयी मिलिकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर क़रज़ से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊँची-से-ऊँची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊँचे जा पहुँचे थे। अभी तक उनका बँगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला — तीनों स्थानों में एक-एक बँगला बनवाना लाज़िम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जायँ, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बँगले में ठहरें। जब सूर्यप्रतापसिंह के बँगले इन सभी स्थानों में थे, तो राय साहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बँगले न हों। संयोग से बँगले बनवाने की ज़हमत न उठानी पड़ी। बने-बनाये बँगले सस्ते दामों में मिल गये। हर एक बँगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, ख़ानसामा आदि भी रख लिये गये थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज़ मैजेस्टी के जन्म-दिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गयी। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गयी। उस दिन ख़ूब जशन मनाया गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड टूट गये। जिस वक़्त हिज़ एक्सेलेंसी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक-एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन! नहीं, विद्रोहियों के फेर में पड़कर व्यर्थ बदनामी ली, जेल गये और अफ़सरों की नज़रों से गिर गये। जिस डी. एस. पी. ने उन्हें पिछली बार गिरफ़्तार किया था, इस वक़्त वह उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा माँग रहा था। मगर जीवन की सबसे बड़ी विजय उन्हें उस वक़्त हुई, जब उनके पुराने, परास्त शत्रु, सूर्यप्रतापसिंह ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालसिंह से अपनी कन्या के विवाह का सन्देशा भेजा। राय साहब को न मुक़दमा जीतने की इतनी ख़ुशी |
11-01-2011, 06:07 AM | #228 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
हुई थी, न मिनिस्टर होने की। वह सारी बातें कल्पना में आती थीं; मगर यह बात तो आशातीत ही नहीं, कल्पनातीत थी। वही सूर्यप्रतापसिंह जो अभी कई महीने तक उन्हें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता था, वह आज उनके लड़के से अपनी लड़की का विवाह करना चाहता था! कितनी असम्भव बात! रुद्रपाल इस समय एम. ए. में पढ़ता था, बड़ा निर्भीक, पक्का आदर्शवादी, अपने ऊपर भरोसा रखने वाला, अभिमानी, रसिक और आलसी युवक था, जिसे अपने पिता की यह धन और मानलिप्सा बुरी लगती थी।
राय साहब इस समय नैनीताल में थे। यह सन्देशा पाकर फूल उठे। यद्यपि वह विवाह के विषय में लड़के पर किसी तरह का दबाव डालना न चाहते थे; पर इसका उन्हें विश्वास था कि वह जो कुछ निश्चय कर लेंगे, उसमें रुद्रपाल को कोई आपत्ति न होगी और राजा सूर्यप्रतापसिंह से नाता हो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कि रुद्रपाल का सहमत न होना ख़याल में भी न आ सकता था। उन्होंने तुरन्त राजा साहब को बात दे दी और उसी वक़्त रुद्रपाल को फ़ोन किया। रुद्रपाल ने जवाब दिया — मुझे स्वीकार नहीं। राय साहब को अपने जीवन में न कभी इतनी निराशा हुई थी, न इतना क्रोध आया था। पूछा — कोई वजह? ‘ समय आने पर मालूम हो जायगा। ‘ ‘ मैं अभी जानना चाहता हूँ। ‘ ‘ मैं नहीं बतलाना चाहता। ‘ ‘ तुम्हें मेरा हुक्म मानना पड़ेगा। ‘ ‘ जिस बात को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती, उसे मैं आपके हुक्म से नहीं मान सकता। ‘ राय साहब ने बड़ी नम्रता से समझाया — बेटा, तुम आदर्शवाद के पीछे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह सम्बन्ध समाज में तुम्हारा स्थान कितना ऊँचा कर देगा, कुछ तुमने सोचा है? इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी मुझे मिलती, तो मैं अपने भाग्य को सराहता, यह तो राजा सूर्यप्रताप की कन्या है, जो हमारे सिरमौर हैं। मैं उसे रोज़ देखता हूँ। तुमने भी देखा होगा। रूप, गुण, शील, स्वभाव में ऐसी युवती मैंने आज तक नहीं देखी। मैं तो चार दिन का और मेहमान हूँ। तुम्हारे सामने सारा जीवन पड़ा है। मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम जानते हो, विवाह के विषय में मेरे विचार कितने उदार हैं, लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है कि अगर तुम्हें ग़लती करते देखूँ, तो चेतावनी दे दूँ। रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया — मैं इस विषय में बहुत पहले निश्चय कर चुका हूँ। उसमें अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। राय साहब को लड़के की जड़ता पर फिर क्रोध आ गया। गरजकर बोले — मालूम होता है, तुम्हारा सिर फिर गया है। आकर मुझसे मिलो। विलंव न करना। मैं राजा साहब को ज़बान दे चुका हूँ। रुद्रपाल ने जवाब दिया — खेद है, अभी मुझे अवकाश नहीं है। |
11-01-2011, 06:08 AM | #229 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
दूसरे दिन राय साहब ख़ुद आ गये। दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे हुए तैयार खड़े थे। एक ओर सम्पूर्ण जीवन का मँजा हुआ अनुभव था, समझौतों से भरा हुआ; दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद था, ज़िद्दी, उद्दंड और निर्मम। राय साहब ने सीधे मर्म पर आघात किया — मैं जानना चाहता हूँ, वह कौन लड़की है?
रुद्रपाल ने अचल भाव से कहा — अगर आप इतने उत्सुक हैं, तो सुनिए। वह मालती देवी की बहन सरोज है। राय साहब आहत होकर गिर पड़े — अच्छा वह! ‘ आपने तो सरोज को देखा होगा? ‘ ‘ ख़ूब देखा है। तुमने राजकुमारी को देखा है या नहीं? ‘ ‘ जी हाँ, ख़ूब देखा है। ‘ ‘ फिर भी … ‘ ‘ मैं रूप को कोई चीज़ नहीं समझता। ‘ ‘ तुम्हारी अक्ल पर मुझे अफ़सोस आता है। मालती को जानते हो कैसी औरत है? उसकी बहन क्या कुछ और होगी। ‘ रुद्रपाल ने तेवरी चढ़ाकर कहा — मैं इस विषय में आपसे और कुछ नहीं कहना चाहता; मगर मेरी शादी होगी, तो सरोज से। ‘ मेरे जीते जी कभी नहीं हो सकती। ‘ ‘ तो आपके बाद होगी। ‘ ‘ अच्छा, तुम्हारे यह इरादे हैं! ‘ और राय साहब की आँखें सजल हो गयीं। जैसे सारा जीवन उजड़ गया हो। मिनिस्टरी और इलाक़ा और पदवी, सब जैसे बासी फूलों की तरह नीरस, निरानन्द हो गये हों। जीवन की सारी साधना व्यर्थ हो गयी। उनकी स्त्री का जब देहान्त हुआ था, तो उनकी उम्र छत्तीस साल से ज़्यादा न थी। वह विवाह कर सकते थे, और भोगविलास का आनन्द उठा सकते थे। सभी उनसे विवाह करने के लिए आग्रह कर रहे थे; मगर उन्होंने इन बालकों का मुँह देखा और विधुर जीवन की साधना स्वीकार कर ली। इन्हीं लड़कों पर अपने जीवन का सारा भोग-विलास न्योछावर कर दिया। आज तक अपने हृदय का सारा स्नेह इन्हीं लड़कों देते चले आये हैं, और आज यह लड़का इतनी निष्ठुरता से बातें कर रहा है, मानो उनसे कोई नाता नहीं, फिर वह क्यों जायदाद और सम्मान और अधिकार के लिए जान दें। इन्हीं लड़कों ही के लिए तो वह सब कुछ कर रहे थे, जब लड़कों को उनका ज़रा भी लिहाज़ नहीं, तो वह क्यों यह तपस्या करें। उन्हें कौन संसार में बहुत दिन रहना है। उन्हें भी आराम से पड़े रहना आता है। उनके और हज़ारों भाई मूँछों पर ताव देकर जीवन का भोग करते हैं और मस्त घूमते हैं। फिर वह भी क्यों न भोग-विलास में पड़े रहें। उन्हें इस वक़्त याद न रहा कि वह जो तपस्या कर रहे हैं, वह लड़कों के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए; केवल यश के लिए नहीं, बल्कि इसीलिए कि वह कर्मशील हैं और |
11-01-2011, 06:08 AM | #230 |
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Re: गोदान -"प्रेमचन्द"
उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी ज़रूरत है। वह विलासी और अकर्मण्य बनकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट नहीं रख सकते। उन्हें मालूम नहीं, कि कुछ लोगों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि विलास का अपाहिजपन स्वीकार ही नहीं कर सकते। वे अपने जिगर का ख़ून पीने ही के लिए बने हैं, और मरते दम तक पिये जायँगे। मगर इस चोट की प्रतिक्रिया भी तुरन्त हुई। हम जिनके लिए त्याग करते हैं उनसे किसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं, चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो, यद्यपि उस हित को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न होकर हमारा हो जाता है। त्याग की मात्रा जितनी ही ज़्यादा होती है, यह शासन-भावना भी उतनी ही प्रबल होती है और जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना पड़ता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं, और वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप ले लेता है।
राय साहब को यह ज़िद पड़ गयी कि रुद्रपाल का विवाह सरोज के साथ न होने पाये, चाहे इसके लिए उन्हें पुलिस की मदद क्यों न लेनी पड़े, नीति की हत्या क्यों न करनी पड़े। उन्होंने जैसे तलवार खींचकर कहा — हाँ, मेरे बाद ही होगी और अभी उसे बहुत दिन हैं। रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी — ईश्वर करे, आप अमर हों! सरोज से मेरा विवाह हो चुका। ‘ झूठ! ‘ ‘ बिलकुल नहीं, प्रमाण-पत्र मौजूद है। ‘ राय साहब आहत होकर गिर पड़े। इतनी सतृष्ण हिंसा की आँखों से उन्होंने कभी किसी शत्रु को न देखा था। शत्रु अधिक-से-अधिक उनके स्वार्थ पर आघात कर सकता था, या देह पर या सम्मान पर; पर यह आघात तो उस मर्मस्थल पर था, जहाँ जीवन की सम्पूर्ण प्रेरणा संचित थी। एक आँधी थी जिसने उनका जीवन जड़ से उखाड़ दिया। अब वह सर्वथा अपंग हैं। पुलिस की सारी शक्ति हाथ में रहते हुए अपंग हैं। बल-प्रयोग उनका अन्तिम शस्त्र था। वह शस्त्र उनके हाथ से निकल चुका था। रुद्रपाल बालिग़ है, सरोज भी बालिग़ है। और रुद्रपाल अपनी रियासत का मालिक है। उनका उस पर कोई दबाव नहीं। आह! अगर जानते यह लौंडा यों विद्रोह करेगा, तो इस रियासत के लिए लड़ते ही क्यों? इस मुक़दमेबाज़ी के पीछे दो-ढाई लाख बिगड़ गये। जीवन ही नष्ट हो गया। अब तो उनकी लाज इसी तरह बचेगी कि इस लौंडे की ख़ुशामद करते रहें, उन्होंने ज़रा बाधा दी और इज़्ज़त धूल में मिली। वह जीवन का बलिदान करके भी अब स्वामी नहीं हैं। ओह! सारा जीवन नष्ट हो गया। सारा जीवन! रुद्रपाल चला गया था। राय साहब ने कार मँगवाई और मेहता से मिलने चले। मेहता अगर चाहें तो मालती को समझा सकते हैं। सरोज भी उनकी अवहेलना न करेगी; अगर दस-बीस हज़ार रुपए बल खाने से भी यह विवाह रुक जाय, तो वह देने को तैयार थे। उन्हें उस स्वार्थ के नशे में यह बिल्कुल ख़्याल न रहा कि वह मेहता के पास ऐसा प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं, जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी उनके साथ न होगी। |
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