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Old 28-03-2011, 12:35 AM   #221
Sikandar_Khan
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

चाह यही छू लूँ स्वप्नों की
नग्न कान्ति बढ़कर निज कर से;
इच्छा है, आवरण स्रस्त हो
गिरे दूर अन्तःश्रुति पर से।
पहुँच अगेय-गेय-संगम पर
सुनूँ मधुर वह राग निरामय,
फूट रहा जो सत्य सनातन
कविर्मनीषी के स्वर-स्वर से।


गीत बनी जिनकी झाँकी,
अब दृग में उन स्वप्नों का अंजन।
गायक, गान, गेय से आगे
मैं अगेय स्वन का श्रोता मन।



रामधारी सिंह "दिनकर"
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Disclaimer......! "फोरम पर मेरे द्वारा दी गयी सभी प्रविष्टियों में मेरे निजी विचार नहीं हैं.....! ये सब कॉपी पेस्ट का कमाल है..."

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Old 28-03-2011, 12:39 AM   #222
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

एक उदास, थका सा कमरा
कमरे की मेज़ पर
क़िताबों का ढेर
मार्खेज़ पर सवार
अमर्त्*य सेन का न्*याय का विचार
रस्किन बॉन्*ड का अकेला कमरा
कुंदेरा का मज़ाक, काफ़्का के पत्र
मोटरसाइकिल पर चिली के बियाबानों में भटकते
चे ग्*वेरा की डायरी
अपने देश में अपना देश खोज रही इज़ाबेला
सोफ़ी के मन में उठते सवाल
उन सवालों के जवाब
कुछ कहानियों के बिखरे ड्रॉफ़्ट
टूटी-फूटी कविताएँ
कुछ फुटकर विचार
और टूटे हैंडल वाला कॉफ़ी का एक पुराना मग
पिछले साल रानीखेत में
एक दोस्*त की खींची हिमालय की कुछ तस्*वीरें
एक पुराना पिक्*चर-पोस्*टकार्ड
पुरानी चिट्ठियों की एक फ़ाइल
जो मैंने लिखीं
जो मुझे लिखी गईं
ये सब
इस एकांत कमरे के साझेदार
भीतर पसरे सन्*नाटे में
सन्*नाटे जैसे मौन
मेरे साथ

बाहर पत्*थरों पर गिरती
बारिश की बूंदों की
आवाज़ सुन रहे हैं


मनीषा पांडेय
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Old 01-04-2011, 10:00 AM   #223
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश



जो पिता अपने बेटे की लाश की शिनाख़्त करने से डरे
मुझे घृणा है उससे
जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है
मुझे घृणा है उससे
जो शिक्षक बुद्धिजीवी, कवि, किरानी
दिन-दहाड़े हुई इस हत्या का
प्रतिशोध नहीं चाहता
मुझे घृणा है उससे

चेतना की बाट जोह रहे हैं आठ शव[1]
मैं हतप्रभ हुआ जा रहा हूँ
आठ जोड़ा खुली आँखें मुझे घूरती हैं नींद में
मैं चीख़ उठता हूँ
वे मुझे बुलाती हैं समय- असमय ,बाग में
मैं पागल हो जाऊँगा
आत्म-हत्या कर लूँगा
जो मन में आए करूँगा

यही समय है कविता लिखने का
इश्तिहार पर,दीवार पर स्टेंसिल पर
अपने ख़ून से, आँसुओं से हड्डियों से कोलाज शैली में
अभी लिखी जा सकती है कविता
तीव्रतम यंत्रणा से क्षत-विक्षत मुँह से
आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आँखें गड़ाए
अभी फेंकी जा सकती है कविता
38 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास
उन सबको दरकिनार कर
अभी पढ़ी जा सकती है कविता

लॉक-अप के पथरीले हिमकक्ष में
चीर-फाड़ के लिए जलाए हुए पेट्रोमैक्स की रोशनी को कँपाते हुए
हत्यारों द्वारा संचालित न्यायालय में
झूठ अशिक्षा के विद्यालय में
शोषण और त्रास के राजतंत्र के भीतर
सामरिक असामरिक कर्णधारों के सीने में
कविता का प्रतिवाद गूँजने दो
बांग्लादेश के कवि भी तैयार रहें लोर्का की तरह
दम घोंट कर हत्या हो लाश गुम जाये
स्टेनगन की गोलियों से बदन छिल जाये-तैयार रहें
तब भी कविता के गाँवों से
कविता के शहर को घेरना बहुत ज़रूरी है


यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश
यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश
यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश
यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश

मैं छीन लाऊँगा अपने देश को
सीने मे* छिपा लूँगा कुहासे से भीगी कांस-संध्या और विसर्जन
शरीर के चारों ओर जुगनुओं की कतार
या पहाड़-पहाड़ झूम खीती
अनगिनत हृदय,हरियाली,रूपकथा,फूल-नारी-नदी
एक-एक तारे का नाम लूँगा
डोलती हुई हवा,धूप के नीचे चमकती मछली की आँख जैसा ताल
प्रेम जिससे मैं जन्म से छिटका हूँ कई प्रकाश-वर्ष दूर
उसे भी बुलाउँगा पास क्रांति के उत्सव के दिन।

हज़ारों वाट की चमकती रोशनी आँखों में फेंक रात-दिन जिरह
नहीं मानती
नाख़ूनों में सुई बर्फ़ की सिल पर लिटाना
नहीं मानती
नाक से ख़ून बहने तक उल्टे लटकाना
नहीं मानती
होंठॊं पर बट दहकती सलाख़ से शरीर दाग़ना
नहीं मानती
धारदार चाबुक से क्षत-विक्षत लहूलुहान पीठ पर सहसा एल्कोहल
नहीं मानती
नग्न देह पर इलेक्ट्रिक शाक कुत्सित विकृत यौन अत्याचार
नहीं मानती
पीट-पीट हत्या कनपटी से रिवाल्वर सटाकर गोली मारना
नहीं मानती
कविता नहीं मानती किसी बाधा को
कविता सशस्त्र है कविता स्वाधीन है कविता निर्भीक है
ग़ौर से देखो: मायकोव्स्की,हिकमत,नेरुदा,अरागाँ, एलुआर
हमने तुम्हारी कविता को हारने नहीं दिया
समूचा देश मिलकर एक नया महाकाव्य लिखने की कोशिश में है
छापामार छंदों में रचे जा रहे हैं सारे अलंकार


गरज उठें दल मादल
प्रवाल द्वीपों जैसे आदिवासी गाँव
रक्त से लाल नीले खेत
शंखचूड़ के विष -फ़ेन सेआहत तितास
विषाक्त मरनासन्न प्यास से भरा कुचिला
टंकार में अंधा सूर्य उठे हुए गांडीव की प्रत्यंचा
तीक्षण तीर, हिंसक नोक
भाला,तोमर,टाँगी और कुठार
चमकते बल्लम, चरागाह दख़ल करते तीरों की बौछार
मादल की हर ताल पर लाल आँखों के ट्राइबल -टोटम
बंदूक दो खुखरी दो और ढेर सारा साहस
इतना सहस कि फिर कभी डर न लगे
कितने ही हों क्रेन, दाँतों वाले बुल्डोज़र,फौजी कन्वाय का जुलूस
डायनमो चालित टरबाइन, खराद और इंजन
ध्वस्त कोयले के मीथेन अंधकार में सख़्त हीरे की तरह चमकती आँखें
अद्भुत इस्पात की हथौड़ी
बंदरगाहों जूटमिलों की भठ्ठियों जैसे आकाश में उठे सैंकड़ों हाथ
नहीं - कोई डर नहीं
डर का फक पड़ा चेहरा कैसा अजनबी लगता है
जब जानता हूँ मृत्यु कुछ नहीं है प्यार के अलावा
हत्या होने पर मैं
बंगाल की सारी मिट्टी के दीयों में लौ बन कर फैल जाऊँगा
साल-दर-साल मिट्टी में हरा विश्वास बनकर लौटूँगा
मेरा विनाश नहीं
सुख में रहूँगा दुख में रहूँगा, जन्म पर सत्कार पर
जितने दिन बंगाल रहेगा मनुष्य भी रहेगा


जो मृत्यु रात की ठंड में जलती बुदबुदाहट हो कर उभरती है
वह दिन वह युद्ध वह मृत्यु लाओ
रोक दें सेवेंथ फ़्लीट को सात नावों वाले मधुकर
शृंग और शंख बजाकर युद्ध की घोषना हो
रक्त की गंध लेकर हवा जब उन्मत्त हो
जल उठे कविता विस्फ़ोटक बारूद की मिट्टी-
अल्पना-गाँव-नौकाएँ-नगर-मंदिर
तराई से सुंदरवन की सीमा जब
सारी रात रो लेने के बाद शुष्क ज्वलंत हो उठी हो
जब जन्म स्थल की मिट्टी और वधस्थल की कीचड़ एक हो गई हो
तब दुविधा क्यों?
संशय कैसा?
त्रास क्यों?

आठ जन स्पर्श कर रहे हैं
ग्रहण के अंधकार में फुसफुसा कर कहते हैं
कब कहाँ कैसा पहरा
उनके कंठ में हैं असंख्य तारापुंज-छायापथ-समुद्र
एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आने जाने का उत्तराधिकार
कविता की ज्वलंत मशाल
कविता का मोलोतोव कॉक्टेल
कविता की टॉलविन अग्नि-शिखा
आहुति दें अग्नि की इस आकांक्षा में.


नवारुण भट्टाचार्य
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Old 01-04-2011, 05:19 PM   #224
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अनमोल कहानी

लगता हैं क्यूँ ऐसा की
पथिक मैं अकेला हूँ
अंजान राहों का खोजी
मैं अलबेला हूँ
रस्ते वही चुनता हूँ
अनभिज्ञ मैं भी जिससे
पग पग मेरी रचती है
कुछ काव्य कुछ किस्से
ये किस्से अनोखे है
कविता भी कुछ नयी सी
ये व्यक्त करते उसको
जो भाव थी दबी सी
हर काव्य मेरी उसी
सफर की निशानी है
जीवन के दास्ताँ मेरी
अनमोल कहानी है ..........

रणजीत कुमार
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Old 03-04-2011, 12:18 PM   #225
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पर्व ज्वाला का, नहीं वरदान की वेला !
न चन्दन फूल की वेला !

चमत्कृत हो न चमकीला
किसी का रूप निरखेगा,
निठुर होकर उसे अंगार पर
सौ बार परखेगा
खरे की खोज है इसको, नहीं यह क्षार से खेला !

किरण ने तिमिर से माँगा
उतरने का सहारा कब ?
अकेले दीप ने जलते समय
किसको पुकारा कब ?
किसी भी अग्निपंथी को न भाता शब्द का मेला !

किसी लौ का कभी सन्देश
या आहूवान आता है ?
शलभ को दूर रहना ज्योति से
पल-भर न भाता है !
चुनौती का करेगा क्या, न जिसने ताप को झेला !
खरे इस तत्व से लौ का
कभी टूटा नहीं नाता
अबोला, मौन भाषाहीन
जलकर एक हो जाता !
मिलन-बिछुड़न कहाँ इसमें, न यह प्रतिदान की वेला !

सभी का देवता है एक
जिसके भक्त हैं अनगिन,
मगर इस अग्नि-प्रतिमा में
सभी अंगार जाते बन !
इसी में हर उपासक को मिला अद्वैत अलबेला !

न यह वरदान की वेला
न चन्दन फूल का मेला !
पर्व ज्वाला का, न यह वरदान की वेला।

महादेवी वर्मा
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Old 03-04-2011, 12:41 PM   #226
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किसने बनाए
वर्णमाला के अक्षर

ये काले-काले अक्षर
भूरे-भूरे अक्षर
किसने बनाए

खड़िया ने
चिड़िया के पंख ने
दीमकों ने
ब्लैकबोर्ड ने

किसने
आख़िर किसने बनाए
वर्णमाला के अक्षर

'मैंने...मैंने'-
सारे हस्ताक्षरों को
अँगूठा दिखातेहुए
धीरे से बोला
एक अँगूठे का निशान

और एक सोख़्ते में
ग़ायब हो गया


केदारनाथ सिंह
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Old 07-04-2011, 01:42 PM   #227
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

आ: धरती कितना देती है

मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी ,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा !
पर बन्जर धरती में एक न अंकुर फूटा ,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला ।
सपने जाने कहां मिटे , कब धूल हो गये ।

मै हताश हो , बाट जोहता रहा दिनो तक ,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर ।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे ,
ममता को रोपा था , तृष्णा को सींचा था ।

अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे ।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे , वर्षा झूलीं , शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे ,खिले वन ।

औ' जब फिर से गाढी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे ।
भू के अन्चल मे मणि माणिक बाँध दिए हों ।

मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन ।
किन्तु एक दिन , जब मै सन्ध्या को आँगन मे
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा ,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से ।

देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं ,प्यारी -
जो भी हो , वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोडकर निकले चिडियों के बच्चे से ।

निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले ,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन मे
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से ,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है ।

तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाडियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है

यह धरती कितना देती है । धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन मे , छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर

रत्न प्रसविनि है वसुधा , अब समझ सका हूँ ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

सुमित्रानंदन पंत
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Sikandar_Khan is offline   Reply With Quote
Old 07-04-2011, 02:25 PM   #228
Bond007
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Smile !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

Quote:
Originally Posted by Sikandar View Post
आ: धरती कितना देती है

मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
...
...
...

...
...
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे ।

सुमित्रानंदन पंत
पन्त जी की ये कविता बहुत अच्छी लगती है; किसी समय में हमारे पाठ्यक्रम में हुआ करती थी|
__________________
Self-Banned.
Missing you guys!
फिर मिलेंगे|
मुझे तोड़ लेना वन-माली, उस पथ पर तुम देना फेंक|
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक||

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Old 07-04-2011, 02:50 PM   #229
Kumar Anil
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Kumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud ofKumar Anil has much to be proud of
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Originally Posted by sikandar View Post
किसने बनाए
वर्णमाला के अक्षर

ये काले-काले अक्षर
भूरे-भूरे अक्षर
किसने बनाए

खड़िया ने
चिड़िया के पंख ने
दीमकों ने
ब्लैकबोर्ड ने

किसने
आख़िर किसने बनाए
वर्णमाला के अक्षर

'मैंने...मैंने'-
सारे हस्ताक्षरों को
अँगूठा दिखातेहुए
धीरे से बोला
एक अँगूठे का निशान

और एक सोख़्ते में
ग़ायब हो गया


केदारनाथ सिंह
बहुत ख़ूबसूरत , लाजबाब ।
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दूसरोँ को ख़ुशी देकर अपने लिये ख़ुशी खरीद लो ।
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Old 07-04-2011, 04:20 PM   #230
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Default Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!

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Originally Posted by bond007 View Post
पन्त जी की ये कविता बहुत अच्छी लगती है; किसी समय में हमारे पाठ्यक्रम में हुआ करती थी|
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Originally Posted by kumar anil View Post
बहुत ख़ूबसूरत , लाजबाब ।

हौशलाअफजाई के लिए आप दोनों का शुक्रिया
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