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Old 30-11-2012, 06:40 PM   #231
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

इसके कुछ समय बाद पापनाशी को एक स्वप्न हुआ। उसने निर्मल परकाश में एक चौड़ी सड़क, बहते हुए नाले और लहलहाते हुए उद्यान देखे। सड़क पर अरिस्टोबोलस और चेरियास अपने अरबी घोड़ों को सरपट दौड़ाये चले जाते थे और इस चौगान दौड़ से उनका चित्त इतना उल्लसित हो रहा था कि उनमें मुंह अरुणवर्ण हुए जाते थे। उनके समीप ही के एक पेशताक में खड़ा कवि कलित्र्कान्त अपने कवित्त पॄ रहा था। सफल वर्ग उसके स्वर में कांपता था और उसकी आंखों में चमकता था। उद्यान में जेनाथेमीज पके हुए सेब चुन रहा था और एक सर्प को थपकियां दे रहा था जिसके नीले पर थे। हरमोडोरस श्वेत वस्त्र पहने, सिर पर एक रत्नजटित मुकुट रखे, एक वृक्ष के नीचे ध्यान में मग्न बैठा था। इस वृक्ष में फूलों की जगह छोटेछोटे सिर लटक रहे थे जो मिस्त्र देश की देवियों की भांति गिद्ध; बाज या उज्ज्वल चन्द्रमण्डल का मुकुट पहने हुए थे। पीछे की ओर एक जलकुण्ड के समीप बैठा हुआ निसियास नक्षत्रों की अनन्त गति का अवलोकन कर रहा था।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
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Old 30-11-2012, 06:40 PM   #232
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

तब एक स्त्री मुंह पर नकाब डाले और हाथ में मेंहदी की एक टहनी लिये पापनाशी के पास आयी और बोली-'पापनाशी, इधर देख ! कुछ लोग ऐसे हैं जो अनन्त सौन्दर्य के लिए लालायित रहते हैं, और अपने नश्वर जीवन को अमर समझते हैं। कुछ ऐसे पराणी भी हैं जो जड़ और विचार शून्य हैं, जो कभी जीवन के तत्त्वों पर विचार ही नहीं करते लेकिन दोनों ही केवल जीवन के नाते परकृति देवी की आज्ञाओं का पालन करते हैं; वह केवल इतने ही से सन्तुष्ट और सुखी हैं कि हम जीते हैं, और संसार के अद्वितीय कलानिधि का गुणगान करते हैं क्योंकि मनुष्य ईश्वर की मूर्तिमान स्तुति है। पराणी मात्र का विचार है कि सुख एक निष्पाप, विशुद्ध वस्तु है, और सुखभोग मनुष्य के लिए वर्जित नहीं है। अगर इन लोगों का विचार सत्य है तो पापनाशी, तुम कहीं के न रहे। तुम्हारा जीवन नष्ट हो गया। तुमने परकृति के दिये हुए सवोर्त्तम पदार्थ को तुच्छ समझा। तुम जानते हो, तुम्हें इसका क्या दण्ड मिलेगा?'पापनाशी की नींद टूट गयी।
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Old 30-11-2012, 06:40 PM   #233
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

इसी भांति पापनाशी को निरन्तर शारीरिक तथा मानसिक परलोभनों का सामना करना पड़ता था। यह दुष्परेरणाएं उसे सर्वत्र घेरे रहती थीं। शैतान एक पल के लिए भी उसे चैन न लेने देता। उस निर्जन कबर में किसी बड़े नगर की सड़कों से भी अधिक पराणी बसे हुए जान पड़ते थे। भूतपिशाच हंसहंसकर शोर मचाया करते और अगणित परेत, चुड़ैल आदि और नाना परकार की दुरात्माएं जीवन का साधारण व्यवहार करती रहती थीं। संध्या समय जब वह जलधारा की ओर जाता तो परियां उसे चुड़ैले उसके चारों ओर एकत्र हो जातीं और उसे अपने कामोत्तेजक नृत्यों में खींच ले जाने की चेष्टा करतीं। पिशाचों को अब उससे जरा भी भय न होता था। वे उसका उपहास करते, उस पर अश्लील व्यंग करते और बहुधा उस पर मुष्टिपरहार भी कर देते। वह इन अपमानों से अत्यन्त दुःखी होता था। एक दिन एक पिशाच, जो उसकी बांह से बड़ा नहीं था, उस रस्सी को चुरा ले गया जो वह अपनी कमर में बांधे था। अब वह बिल्कुल नंगा था। आवरण की छाया भी उसकी देह पर न थी। यह सबसे घोर अपमान था जो एक तपस्वी का हो सकता था।
पापनाशी ने सोचा-मन तू मुझे कहां लिये जाता है ?
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Old 30-11-2012, 06:41 PM   #234
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

उस दिन से उसने निश्चय किया कि अब हाथों से श्रम करेगा जिसमें विचारेद्रियों को वह शान्ति मिले जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता थी। आलस्य का सबसे बुरा फल कुपरवृत्तियों को उकसाना है। जलधारा के निकट, छुहारे के वृक्षों के नीचे कई केले के पौधे थे जिनकी पत्तियां बहुत बड़ीबड़ी थीं। पापनाशी ने उनके तने काट लिये और उन्हें कबर के पास लाया। उन्हें उसने एक पत्थर से कुचला और उनके रेशे निकाले। रस्सी बनाने वालों को उसने केले के तार निकालते देखा था। वह उस रस्सी की जगह जो एक पिशाच चुरा ले गया था कमरे में लपेटने के लिए दूसरी रस्सी बनाना चाहता था। परेतों ने उसकी दिनचार्य में यह परिवर्तन देखा तो त्र्कुद्ध हुए। किन्तु उसी क्षण से उनका शोर बन्द हो गया, और सितार वाली रमणी ने भी अपनी अलौकिक संगीतकला को बन्द कर दिया और पूर्ववत दीवार से जा मिली और चुपचाप खड़ी हो गयी।
पापनाशी ज्योंज्यों केले के तनों को कुचलता था, उसका आत्मविश्वास, धैर्य और धर्मबल ब़ता जाता था।
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Old 30-11-2012, 06:41 PM   #235
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

उसने मन में विचार किया-ईश्वर की इच्छा है तो अब भी इन्द्रियों का दमन कर सकता हूं। रही आत्मा, उसकी धर्मनिष्ठा अभी तक निश्चल और अभेद्य है। ये परेत, पिशाच, गण और वह कुलटा स्त्री, मेरे मन में ईश्वर के सम्बन्ध में भांतिभांति की शंकाएं उत्पन्न करते रहते हैं। मैं ऋषि जॉन के शब्दों में उनको यह उत्तर दूंगा-आदि में शब्द था और शब्द भी निराकार ईश्वर था। यह मेरा अटल विश्वास है, और यदि मेरा विश्वास मिथ्या और भरममूलक है तो मैं दृ़ता से उस पर विश्वास करता हूं। वास्तव में इसे मिथ्या ही होना चाहिए। यदि ऐसा न होता तो मैं 'विश्वास' करता, केवल ईमान न लाता, बल्कि अनुभव करता, जानता। अनुभव से अनन्त जीवन नहीं पराप्त होता ज्ञान हमें मुक्ति नहीं दे सकता। उद्घार करने वाला केवल विश्वास है। अतः हमारे उद्घार की भित्ति मिथ्या और असत्य है।
यह सोचतेसोचते वह रुक गया। तर्क उसे न जाने किधर लिये जाता था।
वह इन बिखरे हुए रेशों को दिनभर धूप में सुखाता और रातभर ओस में भीगने देता। दिन में कई बार वह रेशों को फेरता था कि कहीं सड़ न जायें। अब उसे यह अनुभव करके परम आनन्द होता था कि बालकों के समान सरल और निष्कपट हो गया है।
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Old 30-11-2012, 06:42 PM   #236
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

रस्सी बट चुकने के बाद उसने चटाइयां और टोकरियां बनाने के लए नरकट काटकर जमा किया। वह समाधिकुटी एक टोकरी बनाने वाले की दूकान बन गयी। और अब पापनाशी जब चाहता ईशपरार्थना करता, जब चाहता काम करता; लेकिन इतना संयम और यत्न करने पर भी ईश्वर की उस दयादृष्टि न हुई। एक रात को वह एक ऐसी आवाज सुनकर जाग पड़ा जिसने उसका एकएक रोआं खड़ा कर दिया। यह उसी मरे हुए आदमी की आवाज थी जो उस कबर के अन्दर दफन था। और कौन बोलने वाला था ?
आवाज सायंसायं करती हुई जल्दीजल्दी यों पुकार रही थी-हेलेन, हेलेन, आओ, मेरे साथ स्नान करो !'
एक स्त्री ने जिसका मुंह पापनाशी के कानों के समीप ही जान पड़ता था, उत्तर दिया-पिरयतम, मैं उठ नहीं सकती। मेरे ऊपर एक आदमी सोया हुआ है।
सहसा पापनाशी को ऐसा मालूम हुआ कि वह अपना गाल किसी स्त्री के हृदयस्थल पर रखे हुए है। वह तुरन्त पहचान गया कि वही सितार बजाने वाली युवती है। वह ज्योंही जरासा खिसका तो स्त्री का बोझ कुछ हलका हो गया और उसने अपनी छाती ऊपर उठायी। पापनाशी तब कामोन्मत्त होकर, उस कोमल, सुगंधमय, गर्म शरीर से चिमट गया और दोनों हाथों से उसे पकड़कर भींच लिया ! सर्वनाशी दुर्दमनीय वासना ने उसे परास्त कर दिया। गिड़गिड़ाकर वह कहने लगा-'ठहरो, ठहरो, पिरये ! ठहरो, मेरी जान !'
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Old 30-11-2012, 06:42 PM   #237
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

लेकिन युवती एक छलांग में कबर के द्वार पर जा पहुंची। पापनाशी को दोनों हाथ फैलाये देखकर वह हंस पड़ी और उसकी मुस्कराहट राशि की उज्ज्वल किरणों में चमक उठी।
उसने निष्ठुरता से कहा-'मैं क्यों ठहरुं ? ऐसे परेमी के लिए जिसकी भावनाशक्ति इतनी सजीव और परखर हो, छाया ही काफी है। फिर तुम अब पतित हो गये, तुम्हारे पतन में अब कोई कसर नहीं रही। मेरी मनोकामना पूरी हो गयी, अब मेरा तुमसे क्या नाता ?'
पापनाशी ने सारी रात रोरोकर काटी और उषाकाल हुआ तो उसने परभु मसीह की वंदना की जिसमें भक्तिपूर्ण व्यंग भरा हुआ था-ईसू, परभू ईसू, तूने क्यों मुझसे आंखें फेर लीं ! तू देख रहा है कि मैं कितनी भयावह परिस्थितियों में घिरा हुआ हूं। मेरे प्यारे मुक्तिदाता आ, मेरी सहायता कर। तेरा पिता मुझसे नाराज है, मेरी अनुनयविनय कुछ नहीं सुनता, इसलिए याद रख कि तेरे सिवाय मेरा अब कोई नहीं है। तेरे पिता से अब मुझे कोई आशा नहीं है मैं उसके रहस्य को समझ नहीं सकता और न उसे मुझ पर दया आती है। किन्तु तूने एक स्त्री के गर्भ से जन्म लिया है, तूने माता का स्नेहभोग किया है और इसलिए तुझ पर मेरी श्रद्घा है। याद रख कि तू भी एक समय मानवदेहधारी था। मैं तेरी परार्थना करता हूं, इस कारण नहीं कि तू ईश्वर का ईश्वर, ज्योति की ज्योति परमपिता है, बल्कि इस कारण कि तूने इस लोक में, जहां अब मैं नाना यातनाएं भोग रहा हूं, दरिद्र ओैर दीन पराणियों कासा जीवन व्यतीत किया है, इस कारण कि शैतान ने तुझे भी कुवासनाओं के भंवर में डालने की चेष्टा की है, और मानसिक वेदना ने तेरे भी मुख को पसीने से तर किया है। मेरे मसीह, मेरे बन्धु मसीह, मैं तेरी दया का, तेरी मनुष्यता का परार्थी हूं।
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Old 30-11-2012, 06:43 PM   #238
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

जब वह अपने हाथों को मलमलकर यह परार्थना कर रहा था, तो अट्टाहास की परचंड ध्वनि से कबर की दीवारें हिल गयीं और वही आवाज, जो स्तम्भ शिखर पर उसके कानों में आयी थी, अपमानसूचक शब्दों में बोली-'यह परार्थना तो विधमीर मार्कस के मुख से निकलने के योग्य है! पापनाशी भी मार्कस का चेला हो गया। वाह वाह! क्या कहना ! पापनाशी विधमीर हो गया !'
पापनाशी पर मानो वजरघात हो गया। वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा।
जब उसने फिर आंखें खोलीं, तो उसने देखा कि तपस्वी काले कनटोप पहने उसके चारों ओर खड़े हैं, उसके मुख पर पानी के छींटे दे रहे हैं और उसकी झाड़फूंक, यन्त्रमन्त्र में लगे हुए हैं। कोई आदमी हाथों में खजूर की डालियां लिये बाहर खड़े हैं।
उनमें से एक ने कहा-'हम लोग इधर से होकर जा रहे थे तो हमने इस कबर से चिल्लाने की आवाज निकलती हुई सुनी, और जब अन्दर आये तो तुम्हें पृथ्वी पर अचेत पड़े देखा। निस्सन्देह परेतों ने तुम्हें पछाड़ दिया था और हमको देखकर भाग खड़े हुए।'
पापनाशी ने सिर उठाकर क्षीण स्वर में पूछा-'बन्धुवर, आप लोग कौन है ? आप लोग क्यों खजूर की डालियां लिये हुए हैं ? क्या मेरी मृतकक्रिया करने तो नहीं आये हैं?'
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Old 30-11-2012, 06:43 PM   #239
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

उनमें से एक तपस्वी बोला-'बन्धुवर, क्या तुम्हें खबर नहीं कि हमारे पूज्यपिता एण्तोनी, जिनकी अवस्था अब एक सौ पांच वर्षों की हो गयी है, अपने अन्तिम काल की सूचना पाकर उस पर्वत से उतर आये हैं जहां वह एकांत सेवन कर रहे थे ? उन्होंने अपने अगणित शिष्यों और भक्तों को जो उनकी आध्यात्मिक सन्तानें हैं, आशीवार्द देने के निमित्त यह कष्ट उठाया है। हम खजूर की डालियां लिये (जो शान्ति की सूचक हैं) अपने पिता की अभ्यर्थना करने जा रहे हैं। लेकिन बन्धुवर, यह क्या बात है कि तुमको ऐसी महान घटना की खबर नहीं। क्या यह सम्भव है कि कोई देवदूत यह सूचना लेकर इस कबर में नहीं आया ?'
पापनाशी बोला-'आह ! मेरी कुछ न पूछो। मैं अब इस कृपा के योगय नहीं हूं और इस मृत्युपुरी में परेतों और पिशाचों के सिवा और कोई नहीं रहता। मेरे लिए ईश्वर से परार्थना करो। मेरा नाम पापनाशी है जो एक धमार्श्रम का अध्यक्ष था। परभु के सेवकों में मुझसे अधिक दुःखी और कोई न होगा।'
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Old 30-11-2012, 06:43 PM   #240
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Default Re: अलंकार (प्रेमचंद)

पापनाशी का नाम सुनते ही सब योगियों ने खजूर की डालियां हिलायीं और एक स्वर से उसकी परशंसा करने लगे। वह तपस्वी जो पहले बोला था, विस्मय से चौंककर बोला-'क्या तुम वही सन्त पापनाशी हो जिसकी उज्ज्वल कीर्ति इतनी विख्यात हो रही है कि लोग अनुमान करने लगे थे कि किसी दिन वह पूज्य एण्तोनी की बराबरी करने लगेगा? श्रद्धेय पिता, तुम्हीं ने थायस नाम की वेश्या को ईश्वर के चरणों में रत किया ? तुम्हीं को तो देवदूत उठाकर एक उच्च स्तम्भ के शिखर पर बिठा आये थे, जहां तुम नित्य परभु मसीह के भोज में सम्मिलित होते थे। जो लोग उस समय स्तम्भ के नीचे खड़े थे, उन्होंने अपने नेत्रों से तुम्हारा स्वगोर्त्थान देखा। देवदूतों के पास श्वेत मेघावरण की भांति तुम्हारे चारों ओर मंडल बनाये थे और तुम दाहिना हाथ फैलाये मनुष्यों को आशीवार्द देते जाते थे। दूसरे दिन जब लोगों ने तुम्हें वहां न पाया तो उनकी शोकध्वनि उस मुकुटहीन स्तम्भ के शिखर पर जा पहुंची। चारों ओर हाहाकार मच गया। लेकिन तुम्हारे शिष्य लेवियन ने तुम्हारे आत्मोत्सर्ग की कथा कही और तुम्हारे आश्रम का अध्यक्ष बनाया गया। किन्तु वहां पॉल नाम का एक मूर्ख भी था ! शायद वह भी तुम्हारे शिष्यों में था। उने जनसम्मति के विरोध करने की चेष्टा की। उसका कहना था कि उसने स्वप्न देखा है कि पिशाच तुम्हें पकड़े लिये जाता है। जनता को यह सुनकर बड़ा त्र्कोध आया। उन्होंने उसको पत्थर से मारना चाहा। चारों ओर से लोग दौड़ पड़े। ईश्वर ही जाने कैसे मूर्ख की जान बची। हां, वह बच अवश्य गया। मेरा नाम जोजीमस है। मैं इन तपस्वियों का अध्यक्ष हूं जो इस समय तुम्हारे चरणों पर गिरे हुए हैं। अपने शिष्यों की भांति मैं भी तुम्हारे चरणों पर सिर रखता हूं कि पुत्रों के साथ पिता को भी तुम्हारे शुभ शब्दों का फल मिल जाये। हम लोगों को अपने आशीवार्द से शान्ति दीजिये। उसके बाद उन अलौकिक कृत्यों का भी वर्णन कीजिए जो ईश्वर आपके द्वारा पूरा करना चाहता है। हमारा परम सौभाग्य है कि आप जैसे महान पुरुष के दर्शन हुए।'
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