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Old 19-09-2013, 07:31 PM   #241
jai_bhardwaj
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जब नज़्म को सुनाना शुरू किया था तो मन एकदम अनमना-सा था. बस, ऐसा-सा कि शहरयार साहब के उस मन को रखना था - उनके उस भाव कि इज्ज़त करनी थी. पर यहाँ तक आते-आते लगा कि कविता के सम्मोहन ने मुझे अपने घेरे-फंदे में खींच-जकड़ लिया है. शहरयार साहब से ऐसा कुछ पूछने का भी मन हुआ कि क्या इस नज़्म को इतनी इस दिलीचाहत, ख़ुशी और हैरानी के साथ आपसे सुनने का सौभाग्य किसी और को भी मिला है - पर नहीं - इस कारण अगर एक भी शब्द अनसुना रह गया तो मिल रहे इस आनंद में ख़लल भी तो पड़ सकता है न ! इस नज़्म से अपने प्रथम परिचय के उन अनमोल क्षणों में मैं ख़ुद को हैरान करती-सी उस ख़ुशी से लेशमात्र भी वंचित नहीं होने देना चाह रहा था. वो थे कि नज़्म में बेजिस्म सर-ओ-पा बहुत गहरे उतरे-रुके से बोले जा रहे थे -


अब अपनी छाती में हमने
इस देश के घाव देखे थे
था वैदों पर विश्वास बहुत
और याद बहुत से नुस्ख़े थे
यूँ लगता था बस कुछ दिन में
सारी बिपता कट जायेगी
और सब घाव भर जायेंगे
ऐसा ना हुआ के रोग अपने
तो सदियों ढेर पुराने थे
वैद इनकी तह को पा न सके
और टोटके सब नाकाम गये
अब जो भी चाहो छान करो
अब जितना चाहो दोष धरो
छाती तो वही है घाव वही
अब तुम ही कहो क्या करना है
ये घाव कैसे भरना है

कुछ तो हुआ ही था कि मैं कुछ ऐसे वाह-वाह कर उठा था जैसे मुझे शहरयार साहब नहीं ख़ुद 'फ़ैज़' ही अपनी नज़्म सुना रहे हों ! इस ख़्याल के आते ही याद आया कि हाँ - बहुत लोग कहते हैं कि शहरयार भी तो 'फ़ैज़' कि तरह ही पढ़ते हैं. शहरयार कई बार बता चुके हैं कि 'फ़ैज़' अपनी ग़ज़लें और अपनी नज़्में अच्छी तरह नहीं पढ़ पाते थे. तो - इसका मतलब - ! मेरी आँखों में से झाँकते चकित-से उस आह्लाद को शहरयार की निगाहों में शायद भांप-जान लिया है - "नहीं - इस तरह की नज़्में उनके पास बहुत कम हैं उनके डिक्शन पर सजावट और आराइश का बहुत असर है. इसलिए फ़ारसी, आमेज़ ज़बान उनकी नज़्मों में बहुत नज़र आती है. अलबत्ता ग़ज़लें निस्बतन सहज ज़बान में हैं और वो सहज इसलिए भी लगने लगी हैं कि बहुत गायी गई हैं. बार-बार सुनने से कान उससे मानूस हो गये हैं. तो वो बहुत आसान लगने लगी हैं..."

यह बिना वजह तो नहीं ही होगा कि इस समय मुझे नज़ीर याद आ रहे हैं ! आपको कुछ ऐसा लगता है कि नज़ीर और 'फ़ैज़'... ?

"नहीं 'फ़ैज़' से नज़ीर कि तुलना तो ठीक नहीं है. जहाँ तक नज़ीर का सवाल है उन्होंने बहुत आवामी ज़बान इस्तेमाल की. इसलिए कि जो उनका कंटेंट था वो भी आम आदमी कि प्रॉब्लम्स से - ज़िन्दगी से लिया गया था. और उर्दू का जो आम स्टाइल था, उससे वो बहुत अलग था. इसलिए बहुत दिनों तक उर्दू वालों ने उन्हें शायरी में वो ख़ास दर्जा नहीं दिया जो उनको बीसवीं सदी में मिला. ख़ासतौर से तब जब प्रोग्रेसिव मूवमेंट का दौर चला. जब आम आदमी को अदब में जगह मिली तो नज़ीर को भी अदब में जगह मिल गई. जबकि बहुत से लोग उनको बड़े शायरों में शुमार नहीं करते. जी - 'फ़ैज़' से कँपेरिज़न इसलिए ठीक नहीं कि 'फ़ैज़' उर्दू की आम ट्रेडिशन से जुड़े हैं. उससे - वो जो आम चलन था - वो जो सॉफ्स्टिकेटेड लैंग्वेज होती है जिसमे तसन्नो-तकल्लुफ और सजावट का एलिमेंट ज़्यादा है.

यहाँ यह एक और बात हमें ध्यान में रखनी चाहिये कि वो शायर और राइटर - जिनकी मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी - उनके जो अदबी क्रिएशंस हैं - उनकी ज़बान एक ख़ास तरह की बोलचाल कि ज़बान से थोड़ी दूर ही रहती है. जी - जैसे एक्वायर्ड लैंग्वेज होती है ना ! 'फ़ैज़' की मादरी ज़बान पंजाबी थी. पंजाबी में - ज़्यादा नहीं - मगर उन्होंने शायरी भी की है."

ऐसे और भी तो शायर हैं कई ?

"हाँ - राशिद हैं ! यासिर काज़मी, इब्ने इंशा - बहुत लोग हैं. कृष्ण चंदर, बेदी, मंटो हैं. इनमे किसी की मादरी ज़बान उर्दू नहीं थी. इसलिए इनकी ज़बान थोड़ी अलग होती है. इसका एक फायदा इन लोगों को ये हुआ कि इन लोगों ने उर्दू वाले इलाके के अदीबों के मुकाबले में ज़्यादा मेहनत की और ज़्यादा पढ़ा. इसलिए इनके यहाँ निस्बतन औरों के मुकाबले डेप्थ ज़्यादा है. जी - मजाज़, सरदार जाफ़री, जाँ निसार अख्तर आदि के मुकाबले में आप ये देख सकते हैं."

देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?

"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."

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साभार : आजकल हिंदी पत्रिका - फ़ैज़ जन्मशती विशेषांक
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Old 19-09-2013, 07:37 PM   #242
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कैसा चलन है गर्दिश-ए-लैल-ओ-नहार का
शिकवा हर एक को है गम-ए-रोज़गार का

टूटी जो आस जल गए पलकों पे सौ चिराग
निखारा कुछ और रंग शब्-ए-इंतज़ार का

इस ज़िन्दगी की हमसे हकीकत ना पूछिए
इक जब्र जिसको नाम दिया इख्तियार का

ये कौन आ गया मेरी बज़्म-ए-ख़याल में
पूछा मिजाज़ किसने दिल-ए-सोगवार का

देखो फिर आज हो ना जाए कहीं खून-ए-ऐतमाद
देखो न टूट जाए फुसूं ऐतबार का

-मुमताज़ मिर्ज़ा
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Old 19-09-2013, 07:43 PM   #243
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तुमको हम दिल में बसा लेंगे तुम आओ तो सही
सारी दुनिया से छुपा लेंगे, तुम आओ तो सही

एक वादा करो अब हम से ना बिछडोगे कभी
नाज़ हम सारे उठा लेंगे, तुम आओ तो सही

बेवफा भी हो, सितमगर भी, जफापेशा भी
हम खुदा तुम को बना लेंगे, तुम आओ तो सही

यूं तो जिस सिम्त नज़र उठती है तारीकी है
प्यार के दीप जला लेंगे, तुम आओ तो सही

इख्तलाफात भी मिट जायेंगे रफ्ता रफ्ता
जिस तरह होगा निबाह लेंगे, तुम आओ तो सही

दिल की वीरानी से घबरा के ना मुँह को मोड़ो
बज़्म ये फिर से सज़ा लेंगे, तुम आओ तो सही

राह तारीक है और दूर है मंजिल लेकिन
दर्द की शमएँ जला लेंगे, तुम आओ तो सही

-मुमताज़ मिर्ज़ा
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Old 19-09-2013, 07:52 PM   #244
jai_bhardwaj
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जब से बुलबुल तू ने दो तिनके लिए
टूटती है बिजलियाँ इन के लिए

है जवानी खुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है उस सिन के लिए
(सिन = जिन्दगी के कुछ ख़ास पल)

कौन वीराने में देखेगा बहार
फूल जंगल में खिले किन के लिए

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिनके लिए

बागबां! कलियाँ हों हलके रंग की
भेजनी हैं एक कमसिन के लिये

सब हसीं हैं जाहिदों को नापसंद
अब कोई हूर आयेगी इनके लिए
(जाहिद=धार्मिक व्यक्ति)

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते हैं इस दिन के लिए
(वस्ल = मिलन, मुख़्तसर = कम अवधि)

-अमीर मिनाई
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Old 19-09-2013, 10:19 PM   #245
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Default Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत

महाकवि फैज़ अहमद फैज़ के सन्दर्भ में जनाब शहरयार साहब से प्रेमकुमार की मुलाक़ात से बहुत सी नई बातें दोनों विख्यात शायरों के बारे में मालूम हुयीं.

"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है -

'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह.
वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो.

इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."[/QUOTE]

देशों-भाषाओं की बंदिशों-सीमाओं से परे और पार - 'फ़ैज़' को यह जो महत्त्व, मुक़ाम और मान हासिल है - उसे लेकर कैसे और क्या सोचते हैं आप ?

"साफ़ है कि 'फ़ैज़' बड़े शायर हैं. इसलिए बड़े शायर हैं कि इनका डिक्शन भी अलग है और क्वालिटी व क्वान्टिटी - दोनों के ऐतबार से बड़ाई का एलिमेंट 'फ़ैज़' के यहाँ बहुत ज़्यादा है."

मैं यहां पर अपनी ओर से फैज़ की शायरी की विशेषताओं में डिक्शन, क्वालिटी, क्वांटिटी के साथ content भी जोड़ना चाहूँगा. प्रस्तुति हेतु आपका अनेकानेक धन्यवाद, जय जी.
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Old 20-09-2013, 07:01 AM   #246
bindujain
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Default Re: ग़ज़लें, नज्में और गीत



ठहरो, गम आबाद करें--गजल / मनोज श्रीवास्तव



गूंगों की इस बस्ती में
आओ, खुद से बात करें

शीशे, शोले, शूल जहां
ठहरो, गम आबाद करें

फफकी, सिसकी, हिचकी का
हंसियों में अनुवाद करें

हकलों की जमघट हैं हम
चल, बैठक कुछ ख़ास करें

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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 21-09-2013, 06:37 PM   #247
jai_bhardwaj
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महाकवि फैज़ अहमद फैज़ के सन्दर्भ में जनाब शहरयार साहब से प्रेमकुमार की मुलाक़ात से बहुत सी नई बातें दोनों विख्यात शायरों के बारे में मालूम हुयीं.

"ख़लीलुर्रहमान आज़मी का एक शेर है -

'अपना मुशाहिदा नहीं करता स्याह रूह.
वो देखे आईना कि जो रौशन ज़मीर हो.

इसीलिए तो - ज़मीर जिसका पाक़-साफ़ हो उसे आईना देखने में डर नहीं लगता...."
मैं यहां पर अपनी ओर से फैज़ की शायरी की विशेषताओं में डिक्शन, क्वालिटी, क्वांटिटी के साथ content भी जोड़ना चाहूँगा. प्रस्तुति हेतु आपका अनेकानेक धन्यवाद, जय जी.[/QUOTE]

सूत्र पर लगातार सहृदयता बनाए रखने के लिए हार्दिक आभार बन्धु। आपकी प्रतिक्रियाएं कुछ नवीन खोज कर लाने के लिए प्रेरित करती हैं। आज भी कुछ लाया हूँ। शायद मंच के लिए नवीन ही हो। धन्यवाद बन्धु।
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Old 21-09-2013, 06:37 PM   #248
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ठहरो, गम आबाद करें--गजल / मनोज श्रीवास्तव



गूंगों की इस बस्ती में
आओ, खुद से बात करें

शीशे, शोले, शूल जहां
ठहरो, गम आबाद करें

फफकी, सिसकी, हिचकी का
हंसियों में अनुवाद करें

हकलों की जमघट हैं हम
चल, बैठक कुछ ख़ास करें

अच्छी पंक्तियाँ हैं बन्धु। हार्दिक आभार।
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Old 21-09-2013, 06:40 PM   #249
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लाल किले पर मुशायरा

(१६ - ०६ - २०१३ को यह नाटक खेला जा चुका है)

इज्जत से काम करने जाओ तो नहीं मिलता और गलत रास्ते अख्तियार करो तो बाइज्जत मिलता है। एसआरसी में कल साढ़े सात बजे खेले जाने वाले नाटक का नाम लाल किले का आखिरी मुशायरा था। अब मेरे जैसा आदमी जो न ठीक से हिन्दी सीख सका, न उर्दू का ही विद्यार्थी बन पाया और इस तरह अधकचरा ज्ञान पाया, सो नाम सुनकर ही उत्साहित हो गया। मज़ा तो तब आया जब टॉम अल्टर का नाम देखा। थियेटर में इनका बड़ा नाम है। अदब से टिकट लेने काउंटर पर गया तो जबाव मिला - सॉरी सर। आल टिकेट्स हैव बीन आलरेडी सोल्ड आऊट सर टाईप जैसा कुछ। हरी घास पर मुंह तिकोना हो आया। फिर वही पटना वाले लाइन पर आना पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस तरह के संघर्ष को राष्ट्रीय शब्दावली में जुगाड़ कहते हैं। फिर शुरू हो गई मुहिम गार्ड को पटाने की। कोशिश रंग लाई और जो लाई तो कहां हम ऊपरी माले के बाड़े में प्लास्टिक कुर्सी पर बैठने वाले कौम और कहां एकदम फ्रंट पर तीसरी लाइन में गद्देदार सीट पर उजले साफे में लिपटे रिजव्र्ड पर आसीन हुए। कुछ ही लम्हें बाद लाल मखमली पर्दा जो उठा तो मुखमंडल भी प्रकाशमान हो उठा। देखते क्या हैं कि एक शमां जली हुई है और तीन उजले पर्दे लटके हैं जो नीचे आकर सिमटे हुए हैं। तीन दरबान सावधान विश्राम की मुद्रा में खड़े हैं। ये ऐसे ही डेढ़ घंटे तक रहे।
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मंच पर बारी बारी से कई शायर आते हैं। और फिर इंट्री होती है बहादुर शाह जफर की यानि टॉम अल्टर की। सत्तर साल के बूढ़े जफर को देखते ही अपनी कक्षा नौ की धुंधली सी याद आई जब मास्टर ने सुनाया था -

न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
और
न किसी के आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्तेग़ुबार हूँ

न जफ़र किसी का रक़ीब हूँ न जफ़र किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ


(लिखे सारे शेर स्मृति आधारित हैं, सो उनमें गलतियां संभव है।)
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