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Old 24-05-2013, 01:46 AM   #241
Dark Saint Alaick
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

श्रेष्ठता का घमन्ड

एक युवा धनुर्धर ने गुरु से धनुर्विद्या सीखी और जल्दी ही वह बहुत अच्छा निशाना लगाने लगा। वह इतना निपुण हो गया था कि अपने साथी से पूछता था कि बोलो कहां निशाना लगाना है। साथी बताते कि फलां पेड़ या फलां फल को गिराकर बताओ और वह धनुर्धर तुरंत ही वैसा करके दिखा देता। अपनी इस विधा पर धनुर्धर फूला नहीं समा रहा था। वह कहने लगा कि वह गुरुजी से बढ़िया धनुर्धर हो गया है। गुरुजी को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुछ नहीं कहा। एक बार गुरुजी को किसी काम से दूसरे गांव जाना था। उन्होंने अपने इसी शिष्य को बुलाया और साथ चलने को कहा। गुरु-शिष्य जब चले तो बीच में एक जगह खाई दिखी। गुरु ने देखा, खाई में एक तरफ से दूसरी तरफ जाने के लिए एक पेड़ के तने का पुल बना हुआ है। गुरु पेड़ के तने पर पैर रखते हुए आगे बढ़े और पुल के बीच पहुंच गए। वहां पहुंचकर उन्होंने शिष्य की तरफ देखा और पूछा बताओ कहां निशाना लगाना है। शिष्य ने कहा कि वो सामने पतला पेड़ दिख रहा है उसके तने पर निशाना साधिए। गुरु ने तत्काल निशाना लगाकर बता दिया। गुरु पुल से इस तरफ आ गए। इसके बाद उन्होंने शिष्य से भी ऐसा ही करने को कहा। शिष्य ने जैसे ही पुल पर पैर रखा वह घबरा गया। पुल पर अपना वजन संभालकर आगे बढ़ना उसके लिए मुश्किल काम था। शिष्य जैसे-तैसे पुल के बीच में पहुंचा। गुरु ने कहा, तुम भी उसी पेड़ के तने पर निशाना साधकर बताओ। शिष्य ने जैसे ही धनुष उठाया संतुलन बिगड़ने लगा और वह तीर ही नहीं चला पाया। वह चिल्लाने लगा,गुरुजी बचाइए। गुरुजी पुल पर गए और शिष्य को पकड़कर इस तरफ उतार लाए। दोनों ने यहां से चुपचाप गांव तक का सफर तय किया। शिष्य के समझ में यह बात आ गई थी कि उसे अभी भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। इसलिए कभी अपनी श्रेष्ठता का घमंड नहीं करना चाहिए।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु

Last edited by Dark Saint Alaick; 24-05-2013 at 01:50 AM.
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Old 24-05-2013, 01:51 AM   #242
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

पूर्वाग्रह से प्रभावित न हों

आज शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र है जहां गु्रप डिस्कशन (जीडी) नहीं होता हो। बोलचाल में कौन कितना निपुण है यह जानकारी गु्रप डिस्कशन से ही पता चलती है। खासतौर पर मैनेजमेंट क्षेत्र में उम्मीदवार के बिजनेस एप्टीटयूड, कम्युनिकेशन स्किल, विश्लेषण क्षमता, नेतृत्व, प्रबंधकीय कौशल और टीम भावना परखने के लिए जीडी का आयोजन किया जाता है। लिखित परीक्षा में जहां इस बात की जांच की जाती है कि उम्मीदवार की जानकारी का स्तर कितना है वहीं गु्रप डिस्कशन और पर्सनेलिटी टेस्ट के जरिए उम्मीदवार की समझ और उस समझ को इस्तेमाल करने की क्षमता का आकलन किया जाता है। ज्यादातर उम्मीदवार मानते हैं कि अधिक बोलने पर वे ज्यादा स्कोर कर सकेंगे। यह एक तरह से भ्रांति है जिसका लाभ नहीं मिलता। बहुत अधिक या बहुत कम बोलना दोनों ही उचित नहीं है। विषय का अच्छी तरह विश्लेषण कर लें। तथ्यों को सोच-समझकर बोलें और उनके दोहराव से बचें। यह सोचना गलत है कि कठिन और आलंकारिक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग कर आप इंटरव्यू पैनल को प्रभावित कर सकते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप व्याकरण की दृष्टि से शुध्द और सरल भाषा का इस्तेमाल करें ताकि आप बिना किसी उलझन के पैनल व समूह के अन्य सदस्यों तक अपनी बात पहुंचा सकें। जीडी का प्रमुख उद्देश्य ऐसे योग्य उम्मीदवार चुनना होता है जो भावी मैनेजर बनने की योग्यता रखते हैं। जरूरी है कि करेंट घटनाओ, बिजनेस मूल्य और सिध्दांत, नवीन आर्थिक नीतियां और वुमन मैनेजर जैसे सम-सामयिक विषयों पर अपनी स्पष्ट सोच विकसित करें। अपनी बातों को अधिक से अधिक जानकारी, आंकड़ों व सर्वे से पुष्ट करें। वर्ष की बड़ी घटनाओं की विस्तृत जानकारी रखें। आपका मत किसी तरह के पूर्वाग्रह से प्रभावित नहीं होना चाहिए। अपनी सोच को उदाहरण व तथ्यों के साथ ही रखें। अगर ऐसा कर पाते हैं तो पैनल अवश्य आपसे प्रभावित होगी।
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Old 29-05-2013, 09:59 AM   #243
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

अपनी चेतना को चंडी रूप दें

शास्त्र की कथा कहती है कि दुर्गा और रक्तबीज का युद्ध हुआ तो दुर्गा उस राक्षस का सिर काटती, उसकी गर्दन गिरती, खून की धार बहती तो जितनी बूंदें खून की गिरतीं, उतने ही नए रक्तबीज पैदा हो जाते। लंबा युद्ध चला। फिर दुर्गा ने अपना रूप बदला और काल,चंडी,चामुण्डा जैसे रूप धारण किए। तब उस राक्षस का सिर कटा और खून की एक बूंद भी जमीन पर नहीं गिरी क्योंकि पूरा का पूरा खून चंडिका खुद पी गईं। अब रक्तबीज कहां से पैदा होता? आपका मन रक्तबीज की तरह ही तो है। एक विचार हटाओ, हजार खड़े हो जाते हैं। बस अपने होश को चंडी बनने दो, चंडी को भागवद पुराण में कहा है कि देवी सुप्त है। उसको भाव से जागृत करना पड़ता है। तुम भी अपने बीच सो रही चेतना को चंडी का रूप दो। यही तुम्हारे मन रूपी रक्तबीज राक्षस का नाश करेगी। जिस दिन मन के विचारों से ज्यादा परेशानी लगने लग जाए उस दिन कह देना कि आज हमें यह मन की भीड़ स्वीकार, विचारों की भीड़ भी स्वीकार है। तब तुम पाओगे कि मन तो बहुत कुछ विचार करता है पर आप परेशान न हों। बस स्वीकार कर लीजिए कि यही मन का शोर स्वीकार है। कहिए कि मन तूने खूब खेल दिखाए आज हम तेरा शोर देखेंगे। इस प्रयोग का नतीजा क्या होगा? जब आप करोगे तो तभी आपको पता चलेगा कि नतीजा क्या निकला, क्योंकि सच तो यह है कि अध्यात्म के पथ पर दो दूनी चार ही नहीं होता, दो दूनी छह भी हो सकता है, आठ भी हो सकता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो जन्म-जन्म तक ध्यान करते रहते हैं और कोई नतीजा नहीं निकलता। इसके विपरीत कोई एक ही बार आए ध्यान में और यदि वह भाव जागृत हो जाए तो समझ लो कि वह बुद्ध हो गया। मतलब बुद्धू से बुद्ध हो गया। यह बुद्धत्व की घटना बड़ी अदभुत घटना है। यह कब, किस घड़ी,कैसी स्थिति में घट जाए, हम कह नहीं सकते,वर्णन नहीं कर सकते। इसी तरह अपने जीवन को खेल ही समझो और जो करो मन लगाकर करो।
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Old 29-05-2013, 09:59 AM   #244
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

मित्र की बात छू गई दिल को

जर्मनी के एक स्कूल की छुट्टी हुई तो दो दोस्त रोज की तरह खेलते-कूदते घर की ओर चले। यह उनका रोज का नियम था। दोनों स्कूल साथ-साथ आते भी थे और साथ-साथ घर भी लौटते थे। शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरा हो जब दोनो साथ-साथ नहीं दिखाई देते हों। अगर दोनो में से कोई एक बीमार ही पड़ गया हो तो ही बात अलग है वरना दोनो कभी स्कूल जाने में चूक भी नहीं करते थे। एक दिन रोजाना की तरह दोनो दोस्त घर लौट रहे थे। उस दिन रास्ते में एक अखाड़ा देख वे दोनो भी मस्ती के मूड में आ गए। दोनो ने ही बस्ता एक ओर रखा और कुश्ती लड़ने का फैसला किया। दोनों में जो कमजोर बालक था वह हार गया और बलवान जीत गया। जीतने वाला बालक शेखी बघारने लगा। कमजोर बालक ने कहा,देखो अगर मैं भी तुम्हारी तरह अमीर घर में पैदा हुआ होता तो मुझे भी खाने में पौष्टिक खुराक मिलती। तब शायद तुम्हारी जगह मैं जीतता। यह छोटी सी बात उस विजयी बालक के दिल को छू गई। वह अपने मित्र की बात से बेहद दुखी हुआ लेकिन उसने मन ही मन कुछ निश्चय कर लिया। वह उस दिन से खूब मन लगाकर पढ़ने लगा। उसने खेलना-कूदना कम कर दिया और शरारतें भी छोड़ दीं। पढ़ाई में वह अव्वल आने लगा और फिर एक दिन वह डॉक्टर बन गया। लेकिन अपने बचपन के उस मित्र की छोटी सी बात वह कभी नहीं भूला। उसने और डॉक्टरों से अलग रास्ता चुना। उसने निर्बलों और गरीबों की सहायता करना अपना लक्ष्य बना लिया। इस उद्देश्य से उसने अपना वतन छोड़कर अफ्रीका की राह पकड़ ली। वहां उसने एक सेवाग्राम स्थापित किया और अफ्रीका के पीड़ित और असहाय लोगों की सेवा में जुट गया। उसकी नि:स्वार्थ सेवा की चर्चा पूरी दुनिया में होने लगी। वह बालक था अल्बर्ट श्राइत्जर। श्राइत्जर को उनकी सेवाओं के लिए नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।
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Old 05-06-2013, 01:48 AM   #245
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

प्रजा के खजाने का महत्व

फारस के शासक साइरस अपनी प्रजा की भलाई में जुटे रहते थे। उन्हे अपनी प्रजा के हित के अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। वे हर वक्त बस यही सोचते रहते थे कि किस तरह से लोगों के दुखों को कम किया जाए और किस तरह से उन्हे पूरी तरह खुश रखा जाए। वे यही सोचते रहते थे कि प्रजा को जितना संभव हो उच्च स्तर का जीवन जीने को मिले और वे खुश रहें। लेकिन खुद उनका जीवन सादगी से भरा था। वह रियासत की सारी आमदनी व्यापार,उद्योग और खेतीबाड़ी में लगा देते थे। इस कारण शाही खजाना हल्का रहता था। लेकिन प्रजा खुशहाल थी। एक दिन साइरस के दोस्त पड़ोसी शासक क्रोशियस उनके यहां आए। उनका मिजाज साइरस से अलग था। उन्हें प्रजा से ज्यादा अपनी खुशहाली की चिंता रहती थी। उनका खजाना हमेशा भरा रहता था। बातों-बातों में जब क्रोशियस को साइरस के खजाने का हाल मालूम हुआ तो उन्होंने साइरस से कहा,अगर आप इसी तरह प्रजा के लिए खजाना लुटाते रहोगे तो एक दिन वह एकदम खाली हो जाएगा। आप कंगाल हो जाओगे। अगर आप भी मेरी तरह खजाना भरने लगें तो आपकी गिनती मेरी तरह सबसे धनी शासकों में होने लगेगी। साइरस मुस्कराए फिर बोले,आप दो दिन ठहरिए मैं इस मामले में लोगों का इम्तिहान लेना चाहता हूं। उन्होंने घोषणा करवा दी कि एक बहुत बड़े काम के लिए साइरस को दौलत की निहायत जरूरत है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि प्रजा मदद करेगी। दो दिन पूरा होने से पहले ही शाही महल के बाहर मोहरों,सिक्कों व जेवरों का बड़ा ढेर लग गया। यह देख क्रोशियस हैरत में पड़ गए। साइरस ने कहा,मैंने रियासत का खजाना लोगों की खुशहाली पर खर्च करके एक तरह से उन्हीं को सौंप दिया है। लोग उसमें इजाफा करते रहते हैं। मुझे जब जरूरत होगी वे मुझे लौटा देंगे जबकि तुम्हारा खजाना बांझ है। वह कोई बढ़ोतरी नहीं कर रहा है।
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Old 05-06-2013, 01:49 AM   #246
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

बच्चों को सकारात्मक बनाएं

जब एक बच्चा आपके पास आकर आपसे शिकायत करता है तो आप क्या करते है? क्या आप उनकी नकारात्मकता को बढ़ावा देते हैं या उसे सकारात्मकता में ढाल देते हैं? यहां पर आपको एक संतुलित भूमिका निभानी होती है। यदि वे किसी के बारे में आकर नकारात्मक बातें करते हैं तो आपको सकारात्मकता दर्पण बनना होगा। प्रकृति के अनुसार बालक में भरोसा रखने की प्रवृति होती है। लेकिन जब वे बड़े होते हैं तो उनका विश्वास कहीं न कहीं टूट या हिल जाता है। एक स्वस्थ बालक में तीन प्रकार का विश्वास होता है। पहला दिव्यता में, दूसरा लोगों में और तीसरा लोगों की अच्छाई में। ये तीन प्रकार के विश्वास ही एक बालक को गुणवान और प्रतिभाशाली बनाने के लिए आवश्यक तत्व हैं। यदि आप उनसे यही कहते रहेंगे कि यहां सभी झूठे या धोखेबाज हैं तो उनका लोगों और समाज से विश्वास उठ जाता है। और इसका असर हर रोज की उनकी बातचीत पर पड़ता है। यदि उनका लोगों से, समाज से और लोगों की अच्छाई से विश्वास हट जाता है तो वे चाहे कितने भी योग्य हों उनकी सारी योग्यता किसी के काम नहीं आती और वे कुछ भी करें असफल ही रहते हैं। जब हम विश्वास का वातावरण बनाते हैं तो बच्चे बुद्धिमान बन बड़े होते हैं। लेकिन यदि हम नकारात्मकता,परेशानी या उदासी और क्रोध का वातावरण बनाते हैं तो वे बड़े होकर यही सब वापस लौटाते हैं। हर रोज जब आप काम से लौटें तो उनके साथ खेलें या हंसे। जहां तक हो सके सभी एकसाथ बैठकर खाना खाएं। एक रविवार उन्हें बाहर ले जाएं और उनको कुछ चॉकलेट देकर उन्हें सबसे गरीब बच्चों में बांटने को कहें या फिर साल में एक दो बार कच्ची बस्तीं में ले जाकर उनसे सेवा कार्य करने के लिए कहें। थोड़ी-बहुत धार्मिकता,नैतिक और आध्यात्मिक मूल्य उन पर गहरा प्रभाव उत्पन्न करते हैं। यह अज्ञात रूप से उनके व्यक्तित्व का विकास करते हैं। कभी लगाम कसनी होती है तो कभी ढीली छोड़नी होती है।
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Old 14-06-2013, 09:52 AM   #247
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

प्रकृति का संरक्षण बड़ी जरूरत

आयुधौम ऋषि अपने आश्रम के बच्चों को हमेशा यह बताया करते थे कि इस पृथ्वी पर कोई भी वस्तु, जीव या पौधा निरर्थक नहीं है। सभी हमारे कुछ न कुछ काम आते हैं। उनको बिना किसी कारण के नष्ट नहीं करना चाहिए। एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि सामने वाले खेत में जाओ और जो भी पौधा निरर्थक हो उसे उखाड़ कर ले आओ। सभी शिष्य कोई न कोई पौधा ले आए किंतु आरुणि कोई पौधा नहीं लाया। साथी उसकी हंसी उड़ाने लगे। तब आयुधौम ने आरुणि से पूछा कि क्या तुम्हें कोई पौधा नहीं मिला? आरुणि ने कहा,कोई पौधा निरर्थक नहीं दिखाई दिया। किसी में औषधीय गुण थे तो किसी में प्रकृति संरक्षण के। आयुधौम प्रसन्न हो गए। कम से कम आरुणि ने मेरी शिक्षा का मर्म समझा। कहने का भाव यह है कि प्रकृति का संरक्षण केवल प्रवचनों और भाषणों से नहीं होगा। उनको जीवन में अमल में लाने की जरूरत है। हमें प्रकृति का हर संभव संरक्षण करना चाहिए क्योंकि वही हमारा पोषण करती है। प्रकृति का शोषण न हो बल्कि पोषण हो। इसके लिए सबसे पहले हमें संग्रह की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यदि हमारा काम एक लोटे पानी से चल सकता है तो वहां बाल्टी भर पानी नहीं बहाना चाहिए। हमें मधुमक्खियों से प्रेरणा लेनी चाहिए। वे फूलों से इस प्रकार पराग ग्रहण करती हैं कि फूल को उनसे कोई नुकसान नहीं होता। उसके सौंदर्य में भी कमी नहीं आती। मनुष्य को गाय,भैंस, बकरी जैसे पशुओं से भी प्रेरणा लेनी चाहिए। वे प्रकृति से बहुत थोड़ा लेते हैं। लेकिन बदले में मनुष्य और प्रकृति उनसे बहुत कुछ प्राप्त करते हैं। जिस समय पर्यावरण की कोई समस्या नहीं थी उस समय हमारे ऋषियों ने गहरा चिंतन किया और प्रकृति विज्ञान को धर्म के साथ जोड़ने का प्रयास किया। पीपल और वट में जीवनदायिनी शक्ति एवं तुलसी में रोग निरोधक शक्ति के कारण इस प्रकार की वनस्पतियों को पूजनीय माना। नदियों को मां की तरह पूजते थे। हमें उसी राह पर फिर चलना होगा।
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Old 14-06-2013, 09:53 AM   #248
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

जरूरतों को कम रखो

गंगा के किनारे एक संत का आश्रम था। उनके अनेक शिष्य थे जो उनसे शिक्षा प्राप्त करने आते थे। एक बार आम के मौसम में एक शिष्य के खेत में बहुत सारे आम लगे। पूरे गांव में आम बांटे गए। वह शिष्य ढेर सारे आमों की टोकरी लेकर संत के आश्रम पर पहुंचा। वहां मौजूद अन्य शिष्य एक बार तो यह समझ ही नहीं पाए कि इतने सारे आम आश्रम में कैसे पहुंचे लेकिन बाद में उन्हे पता लगा कि एक शिष्य संत के लिए बहुत सारे आम लेकर आया है। शिष्य ने आम कटवाए और संत के सामने परोसे। संत ने आम के एक-दो टुकड़े खाकर उसके स्वाद की प्रशंसा तो खूब की लेकिन बाद में कहा,इसे तुम भी खाकर देखो और अपने अन्य मित्रों को भी दो। शिष्य को आश्चर्य हुआ कि संत ने आम के केवल एक-दो टुकड़े ही खाए। उसने संत से पूछा, गुरुदेव,आपका स्वास्थ्य तो ठीक है न? इतने सारे आम होते हुए भी आपने इतना कम लिया? संत बोले, ये मुझे बहुत स्वादिष्ट लगे इसीलिए मैं अधिक नहीं ले रहा। संत की यह बात शिष्य को अटपटी लगी। संत ने कहा,बचपन में मेरे पड़ोस में एक महिला रहती थी। वह पहले काफी संपन्न थी पर दुर्भाग्य से उसकी सारी संपत्ति चली गई। किसी प्रकार अपना और पुत्र का पालन-पोषण हो सके, इतनी ही आय थी। वह कई बार जब अकेली होती, तब अपने आप से कहती,मेरी जीभ बहुत चटोरी है। इसे बहुत समझाती हूं कि अब चार-छह सब्जियों के साथ रोटी खाने के दिन गए। कई प्रकार की मिठाइयां अब दुर्लभ हैं। पकवानों को याद करने से कोई लाभ नहीं, फिर भी मेरी जीभ नहीं मानती जबकि मेरा बेटा रूखी-सूखी खाकर पेट भर लेता है। उसकी बात सुनकर तभी से मैंने नियम बना लिया कि जीभ जिस वस्तु को पसंद करे, उसे थोड़ा ही खाना है। अपनी आवश्यकताओं को कम रखने से जहां सुख के दिनों में आनंद रहता है, वहीं दुख के दिनों में भी कष्ट नहीं रहता।
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Old 14-06-2013, 12:18 PM   #249
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

आज निम्नलिखित पाठ पढ़ कर हार्दिक प्रसन्नता मिली एवम् निस्वार्थ जीवन, प्रकृति प्रेम और सीमित जरूरतों के विषय में शाश्वत ज्ञान प्राप्त हुआ:

1. प्रजा के खजाने का महत्व
2. बच्चों को सकारात्मक बनायें
3. प्रकृति का संरक्षण बड़ी जरुरत
4. जरूरतों को कम रखो

पाठशाला मानव कल्याण के क्षेत्र में बहुत अच्छा काम कर रही है. धन्यवाद, अलैक जी.
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Old 18-06-2013, 12:39 PM   #250
Dark Saint Alaick
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

स्वयं पर संयम रखना सीखें

किसी के पीठ पीछे उसकी बुराई करना या चुगली करना इंसान को सात्विकता से दूर ले जाता है। वैसे कमोबेश यह बीमारी हर इंसान में होती है और मौका मिलते ही प्रकट भी हो जाती है। बड़ा आसान होता है किसी की बुराई करना। और उतना ही कठिन होता है स्वयं पर संयम रखना। एक मदरसे (इस्लामी पाठशाला) में कुछ शिष्य मौलाना (गुरु) से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। किसी कारणवश देर रात तक जागना हुआ और थक कर सभी शिष्य सो गए। फज्र यानी पौ फटने से पहले पढ़ी जाने वाली नमाज के वक्त कुछ शिष्य सोते रह गए और नमाज के लिए नहीं पहुंच पाए। मौलवी साहब के पूछने पर एक शिष्य बोला, वे लोग बडे नामुराद हैं जो नमाज कजा (देर अथवा समय निकल जाने पर पढ़ी जाने वाली नमाज) कर रहे हैं। उन्हें तो मदरसे और उस्ताद, दोनों की ही फिक्र नहीं है। ऐसे लोगों को सजा मिलनी चाहिए। तब उस्ताद ने उसे बीच में ही रोक कर कहा, मैंने तो सिर्फ पूछा भर था, तुमने तो उनकी चुगली का पिटारा ही खोल दिया। इससे तो अच्छा था कि तुम भी सोते ही रहते, कम से कम एक गुनाह से तो बच जाते। रब उन लोगों से खुश नहीं होता जो पीठ पीछे चुगली करते हैं। और जो चीज रब को बुरी लगती हो, वह भला इंसानों को कैसे अच्छी लग सकती है। इसलिए हर इंसान को इस बुरी आदत से छुटकारा पाने की कोशिश करनी चाहिए। चुगली की आदत बहुत लोगों में देखने को मिलती है, परंतु सबका मिजाज अलग-अलग होता है। कुछ तो बहुत ही शालीन होते हैं, बहुत सोच-समझ कर योजना बनाकर अपना काम करते हैं। कुछ लोग सामने तारीफों के पूल बांधते हैं और सामने से हटते ही शिकायत शुरू कर देते हैं। जब आप के सामने कोई व्यक्ति जरूरत से ज्यादा तारीफ करे तो समझ जाना चाहिए कि वह अपने आप को चुगली के लिए तैयार कर रहा है। बस अवसर की तलाश में है। कुछ लोग हर किसी में केवल बुराइयां व कमियां ही ढूंढते हैं। हमें ऐसी आदतों से बचना चाहिए।
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