30-11-2012, 06:44 PM | #241 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
जोजिमस ने उत्तर दिया-'पूज्य पिता, आपको स्मरण रखना चाहिए कि संतगण और मुख्यतः एकान्तसेवी सन्तगण भयंकर यातनाओं से पीड़ित होते रहते हैं। अगर यह सत्य नहीं है कि देवदूत तुम्हें ले गये तो अवश्य ही यह सम्मान तुम्हारी मूर्ति अथवा छाया का हुआ होगा, क्योंकि लेवियन, तपस्वीगण और दर्शकों ने अपनी आंखों से तुम्हें विमान पर ऊपर जाते देखा।'
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30-11-2012, 06:44 PM | #242 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
पापनाशी ने सन्त एण्तोनी के पास जाकर उनसे आशीवार्द लेने का निश्चय किया। बोला-'बन्धु जोजीमस, मुझे भी खजूर की एक डाली दे दो और मैं भी तुम्हारे साथ पिता एण्तोनी का दर्शन करने चलूंगा।'
जोजीमस ने कहा-'बहुत अच्छी बात है। तपस्वियों के लिए सैनिक विधान ही उपयुक्त है क्योंकि हम लोग ईश्वर के सिपाही हैं। हम और तुम अधिष्ठाता हैं, इसलिए आगओगे चलेंगे और यह लोग भजन गाते हुए हमारी पीछेपीछे चलेंगे।' जब सब लोग यात्रा को चले तो पापनाशी ने कहा-'बराह्मा एक है क्योंकि वह सत्य है और संसार अनेक है क्योंकि वह असत्य है। हमें संसार की सभी वस्तुओं से मुंह मोड़ लेना चाहिए, उनमें भी जो देखने में सर्वदा निर्दोष जान पड़ती हैं। उनकी बहुरूपता उन्हें इतनी मनोहारिणी बना देती है जो इस बात का परत्यक्ष परमाण है कि वह दूषित हैं। इसी कारण मैं किसी कमल को भी शांत निर्मल सागर में हिलते हुए देखता हूं तो मुझे आत्मवेदना होने लगती है, और चित्त मलिन हो जाता है। जिन वस्तुओं का ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है, वे सभी त्याज्य हैं। रेणुका का एक अणु भी दोषों से रहित नहीं, हमें उससे सशंक रहना चाहिए। सभी वस्तुएं हमें बहकाती हैं, हमें राग में रत कराती हैं। और स्त्री तो उन सारे परलोभनों का योग मात्र है जो वायुमंडल में फूलों से लहराती हुई पृथ्वी पर और स्वच्छ सागर में विचरण करते हैं। वह पुरुष धन्य है जिसकी आत्मा बन्द द्वार के समान है। वही पुरुष सुखी है जो गूंगा, बहरा, अन्धा होना जानता है, और जो इसलिए सांसारिक वस्तुओं से अज्ञात रहता है कि ईश्वर का ज्ञान पराप्त करे।'
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30-11-2012, 06:44 PM | #243 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
जोजीमस ने इस कथन पर विचार करने के बाद उत्तर दिया-'पूज्य पिता, तुमने अपनी आत्मा मेरे सामने खोलकर रख दी है, इसलिए आवश्यक है कि मैं अपने पापों को तुम्हारे सामने स्वीकार करुं। इस भांति हम अपनी धर्मपरथा के अनुसार परस्पर अपनेअपने अपराधों को स्वीकार कर लेंगे। यह वरत धारण करने के पहले मेरा सांसारिक जीवन अत्यन्त दुवार्सनामय था। मदौरा नगर में, जो वेश्याओं के लिए परसिद्ध था, मैं नाना परकार के विलासभोग किया करता था। नित्यपरति रात्रि समय जवान विषयगामियों और वीणा बजाने वाली स्त्रियों के साथ शराब पीता, और उनमें जो पसन्द आती उसे अपने साथ घर ले जाता। तुम जैसा साधु पुरुष कल्पना भी नहीं कर सकता कि मेरी परचण्ड कामातुरता मुझे किसी सीमा तक ले जाती थी, इस इतना ही कह देता पयार्प्त है कि मुझसे न विवाहित बचती थी न देवकन्या, और मैं चारों ओर व्यभिचार और अधर्म फैलाया करता था। मेरे हृदय में कुवासनाओं के सिवा किसी बात का ध्यान ही न आता था। मैं अपनी इन्द्रियों को मदिरा से उत्तेजित करता था और यथार्थ में मदिरा का सबसे बड़ा पियक्कड़ समझा जाता था। तिस पर मैं ईसाई धमार्वलस्बी था, और सलीब पर च़ाये गये मसीह पर मेरा अटल विश्वास था। अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति भोगविलास में उड़ाने के बाद मैं अभाव की वेदनाओं से विकल होने लगा था कि मैंने रंगीले सहचरों में सबसे बलवान पुरुष को एकाएक एक भयंकर रोग में गरस्त होते देखा। उसका शरीर दिनोंदिन क्षीण होने लगा। उसकी टांगें अब उसे संभाल न सकतीं, उसके कांपते हुए हाथ शिथिल पड़ गये, उसकी ज्योतिहीन आंखें बन्द रहने लगीं। उसके कंठ से कराहने के सिवा और कोई ध्वनि न निकलती। उसका मन, जो उसकी देह में भी अधिक आलस्यपरेमी था, निद्रा में मग्न रहता पशुओं की भांति व्यवहार करने के दण्डस्वरूप ईश्वर ने उसे पशु ही का अनुरूप बना दिया। अपनी सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने के कारण मैं पहले ही से कुछ विचारशील और संयमी हो गया था। किन्तु एक परम मित्र की दुर्दशा से वह रंग और भी गहरा हो गया। इस उदाहरण ने मेरी आंखें खेल दीं। इसका मेरे मन पर इतना गहरा परभाव पड़ा कि मैंने संसार को त्याग दिया और इस मरुभूमि में चला आया। वहां गत बीस वर्षों से मैं ऐसी शान्ति का आनन्द उठा रहा हूं, जिसमें कोई विघ्न न पड़ा। मैं अपने तपस्वी शिष्यों के साथ यथासमय जुलाहे, राज, ब़ई अथवा लेखक का काम किया करता हूं, लेकिन जो सच पूछो तो मुझे लिखने में कोई आनन्द नहीं आता, क्योंकि मैं कर्म को विचार से श्रेष्ठ समझता हूं। मेरे विचार हैं कि मुझ पर ईश्वर की दयादृष्टि है क्योंकि घोर से घोर पापों में आसक्त रहने पर भी मैंने कभी आशा नहीं छोड़ी। यह भाव मन से एक क्षण के लिए भी दूर हुआ कि परम पिता मुझ पर अवश्य अकृपा करेंगे। आशादीपक को जलाये रखने से अन्धकार मिट जाता है।
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30-11-2012, 07:10 PM | #244 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह बातें सुनकर पापनाशी ने अपनी आंखें आकाश की ओर उठायीं और यों गिला की-'भगवान ! तुम इस पराणी पर दयादृष्टि रखते हो जिस पर व्यभिचार, अधर्म और विषयभोग जैसे पापों की कालिमा पुती हुई है, और मुझ पर, जिसने सदैव तेरी आज्ञाओं का पालन किया, कभी तेरी इच्छा और उपदेश के विरुद्ध आचरण नहीं किया, तेरी इतनी अकृपा ? तेरा न्याय कितना रहस्यमय है और तेरी व्यवस्थाएं कितनी दुगार्ह्य ?'
जोजीमस ने अपने हाथ फैलाकर कहा-पूज्य पिता, देखिये, क्षितिज के दोनों ओर कालीकाली शृंखलाएं चली आ रही हैं, मानो चीटियां किसी अन्य स्थान को जा रही हों। यह सब हमारे सहयात्री हैं जो पिता एण्तोनी के दर्शन को आ रहे हैं।' जब यह लोग उन यात्रियों के पास पहुंचे तो उन्हें एक विशाल दृश्य दिखाई दिया। तपस्वियों की सेना तीन वृहद अर्धगोलाकार पंक्तियों में दूर तक फैली हुई थी। पहली श्रेणी में मरुभूमि के वृद्ध तपस्वी थे, जिनके हाथों में सलीबें थीं और जिनकी दायिं जमीन को छू रही थीं। दूसरी पंक्ति में एफ्रायम और सेरापियन के तपस्वी और नील के तटवर्ती परान्त के वरतधारी विराज रहे थे। उनके पीछे के महात्मागण थे जो अपनी दूरवर्ती पहाड़ियों से आये थे ? कुछ लोग अपने संवलाये और सूखे हुए शरीर को बिना सिले हुए चीथड़ों से के हुए थे, दूसरे लोगों की देह पर वस्त्रों की जगह केवल नरकट की हिड्डयां थीं जो बेंत की डालियों को ऐंठकर बांध ली गयी थीं। कितने ही बिल्कुल नंगे थे लेकिन ईश्वर ने उनकी नग्नता को भेड़ के घनेघने बालों में छिपा दिया था। सभी के हाथों में खजूर की डालियां थीं। उनकी शोभा ऐसी थी मानो पन्ने के इन्द्रधनुष हों अथवा उनकी उपमा स्वर्ग की दीवारों से जी सकती थी।
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30-11-2012, 07:11 PM | #245 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
इतने विस्तृत जनसमूह में ऐसी सुव्यवस्था छाई हुई थी कि पापनाशी को अपने अधीनस्थ तपस्वियों को खोज निकालने में लेशमात्र भी कठिनाई न पड़ी। वह उनके समीप जाकर खड़ा हो गया, किन्तु पहले अपने मुंह को कनटोप से अच्छी तरह ंक लिया कि उसे कोई पहचान न सके और उनकी धार्मिक आकांक्षा में बाधा न पड़े।
सहसा असंख्य कण्ठों से गगन भेदी नाद उठा-वह महात्मा, वह महात्मा आये! देखो वह मुक्तात्मा है जिसने नरक और शैतान को परास्त कर दिया है, जो ईश्वर का चहेता, हमारा पूज्य पिता एण्तोनी है ! तब चारों ओर सन्नाटा छा गया और परत्येक मस्तक पृथ्वी पर झुक गया। उस विस्तीर्ण मरुस्थल में एक पर्वत के शिखर पर से महात्मा एण्तोनी अपने दो पिरय शिष्यों के हाथों के सहारे, जिनके नाम मकेरियस और अमेथस थे आहिस्ता से उतर रहे थे। वह धीरेधीरे चलते थे पर उनका शरीर अभी तक तीर की भांति सीधा था और उससे उनकी असाधारण शक्ति परकट होती थी। उनकी श्वेत दा़ी चौड़ी छाती पर फैली हुई थी और उनके मुंड़े हुए चिकने सिर पर परकाश की रेखाएं, यों जगमगा रही थीं मानो मूसा पैगम्बर का मस्तक हो। उनकी आंखों में उकाव की आंखों कीसी तीवर ज्योति थी, और उनके गोल कपोलों पर बालकों कीसी मधुर मुस्कान थी। अपने भक्तों को आशीवार्द देने के लिए वह अपनी बाहें उठाये हुए थे, जो एक शताब्दी के असाधारण और अविश्रांत परिश्रम से जर्जर हो गयी थीं। अन्त में उनके मुख से यह परेममय शब्द उच्चरित हुए-'ऐ जेकब, तेरे मण्डप कितने विशाल, और ऐ इसराइल, तेरे शामियाने कितने सुखमय हैं।' इसके एक क्षण के उपरान्त वह जीतीजागती दीवार एक सिरे से दूसरे सिरे तक मधुर मेघध्वनि की भांति इस भजन से गुञ्जरित हो गयी-धन्य है वह पराणी जो ईश्वर भीरू है !
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30-11-2012, 07:11 PM | #246 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
एण्तोनी अमेथस और मकेरियस के साथ वृद्ध तपस्वियों, वरतधारियों और बरह्मचारियों के बीच में से होते हुए निकले। यह महात्मा जिसने स्वर्ग और नरक दोनों ही देखा था, यह तपस्वी जिसने एक पर्वत के शिखर पर बैठे हुए ईसाई धर्म का संचालन किया था, यह ऋषि जिसने विधर्मियों और नास्तिकों का काफिया तंग कर दिया था, इस समय अपने परत्येक पुत्र से स्नेहमय शब्दों में बोलता था, और परसन्नमुख उसने विदा मांगता था किन्तु आज उसकी स्वर्गयात्रा का शुभ दिवस था। परमपिता ईश्वर ने आज अपने लाड़ले बेटे को अपने यहां आने का निमन्त्रण दिया था।
उसने एफ्रायम और सिरेपियन के अध्यक्षों से कहा-'तुम दोनों बहुसंख्यक सेनाओं के नेतृत्व और संचालन में कुशल हो, इसलिए तुम दोनों स्वर्ग में स्वर्ण के सैनिकवस्त्र धारण करोगे और देवदूतों के नेता मीकायेल अपनी सेनाओं के सेनापति की पदवी तुम्हें परदान करेंगे।' वृद्ध पॉल को देखकर उन्होंने उसे आलिंगन किया और बोले-'देखो, यह मेरे समस्त पुत्रों में सज्जन और दयालु है। इसकी आत्मा से ऐसी मनोहर सुरभि परस्फुटित होती है जैसी गुलाब की कलियों के फूलों से, जिन्हें वह नित्य बोता है।' सन्त जोजीमस को उन्हांेंने इन शब्दों में सम्बोधित किया-'तू कभी ईश्वरीय दया और क्षमा से निराश नहीं हुआ, इसलिए तेरी आत्मा में ईश्वरीय शान्ति का निवास है। तेरी सुकीर्ति का कमल तेरे कुकर्मों के कीचड़ से उदय हुआ है।' उनके सभी भाषाओं से देवबुद्धि परकट होती थी। वृद्धजनों से उन्होंने कहा-ईश्वर के सिंहासन के चारों ओर अस्सी वृद्धपुरुष उज्ज्वल वस्त्र पहने, सिर पर स्वर्णमुकुट धारण किये बैठे रहते हैं।
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30-11-2012, 07:12 PM | #247 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
युवकवृन्द को उन्होंने इन शब्दों में सान्त्वना दी-'परसन्न रहो, उदासीनता उस लोगों के लिए छोड़ दो जो संसार का सुख भोग रहे हैं !'
इस भांति सबसे हंसहंसकर बातें करते, उपदेश देते वह अपने धर्मपुत्रों की सेना के सामने से चले जाते थे। सहसा पापनाशी उन्हें समीप आते देखकर उनके चरणों पर गिर पड़ा। उसका हृदय आशा और भय से विदीर्ण हो रहा था। 'मेरे पूज्य पिता, मेरे दयालु पिता !'-उसने मानसिक वेदना से पीड़ित होकर कहा-'पिरय पिता, मेरी बांह पकड़िए, क्योंकि मैं भंवर में बहा जाता हूं। मैंने थायस की आत्मा को ईश्वर के चरणों पर समर्पित किया; मैंने एक ऊंचे स्तम्भ के शिखर पर और एक कबर की कन्दरा में तप किया है, भूमि पर रगड़ खातेखाते मेरे मस्तक में ऊंट के घुटनों के समान घट्ठे पड़ गये हैं, तिस पर भी ईश्वर ने मुझसे आंखें फेर ली हैं। पिता, मुझे आशीवार्द दीजिए इससे मेरा उद्घार हो जायेगा।' किन्तु एण्तोनी ने इसका उत्तर न दिया-उसने पापनाशी के शिष्यों को ऐसी तीवर दृष्टि से देखा जिसके सामने खड़ा होना मुश्किल था। इतने में उनकी निगाह मूर्ख पॉल पर जा पड़ी। वह जरा देर उसकी तरफ देखते रहे, फिर उसे अपने समीप आने का संकेत किया। चूंकि सभी आदमियों को विस्मय हुआ कि वह महात्मा इस मूर्ख और पागल आदमी से बातें कर रहे हैं, अतएव उनकी शंका का समाधान करने के लिए उन्होंने कहा-'ईश्वर ने इस व्यक्ति पर जितनी वत्सलता परकट की है उतनी तुम में से किसी पर नहीं। पुत्र पॉल, अपनी आंखें ऊपर उठा और मुझे बतला कि तुझे स्वर्ग में क्या दिखाई देता है।'
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30-11-2012, 07:12 PM | #248 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
बुद्धिहीन पॉल ने आंखें उठायीं। उसके मुख पर तेज छा गया और उसकी वाणी मुक्त हो गयी। बोला-'मैं स्वर्ग में एक शय्या बिछी हुई देखता हूं जिसमें सुनहरी और बैंगनी चादरें लगी हुई हैं। उसके पास तीन देवकन्याएं बैठी हुई बड़ी चौकसी से देख रही हैं कि कोई अन्य आत्मा उसके निकट न आने पाये। जिस सम्मानित व्यक्ति के लिए शय्या बिछाई गयी है उसके सिवाय कोई निकट नहीं जा सकता।
पापनाशी ने यह समझकर कि यह शय्या उसकी सत्कीर्ति की परिचायक है, ईश्वर को धन्यवाद देना शुरू किया। किन्तु सन्त एण्तोनी ने उसे चुप रहने और मूर्ख पॉल की बातों को सुनने का संकेत किया। पॉल उसी आत्मोल्लास की धुन में बोला-'तीनों देवकन्याएं मुझसे बातें कर रही हैं। वह मुझसे कहती हैं कि शीघर ही एक विदुषी मृत्युलोक से परस्थान करने वाली है। इस्कन्द्रिया की थायस मरणासन्न है; और हमने यह शय्या उसके आदरसत्कार के निमित्त तैयार की है, क्योंकि हम तीनों उसी की विभूतियां हैं। हमारे नाम हैं भक्ति, भय और परेम!' एण्तोनी ने पूछा-'पिरय पुत्र, तुझे और क्या दिखाई देता है ?' मूर्ख पॉल ने अधः से ऊध्र्व तक शून्य दृष्टि से देखा, एक क्षितिज से दूसरी क्षितिज तक नजर दौड़ायी। सहसा उसकी दृष्टि पापनाशी पर जा पड़ी। दैवी भय से उसका मुंह पीला पड़ गया और उसके नेत्रों से अदृश्य ज्वाला निकलने लगी। उसने एक लम्बी सांस लेकर कहा-'मैं तीन पिशाचों को देख रहा हूं जो उमंग से भरे हुए इस मनुष्य को पकड़ने की तैयारी कर रहे हैं। उनमें से एक का आकार एक स्तम्भ की भांति है, दूसरे का एक स्त्री की भांति और तीसरे का एक जादूगर की भांति। तीनों के नाम गर्म लोहे से दाग दिये हैं-एक का मस्तक पर, दूसरे के पेट पर और तीसरे का छाती पर और वे नाम हैं-अहंकार, विलासपरेम और शंका। बस, मुझे और कुछ नहीं सूझता।'
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30-11-2012, 07:13 PM | #249 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
यह कहने के बाद पॉल की आंखें फिर निष्परभ हो गयीं, मुंह नीचे को लटक गया और वह पूर्ववत सीधासादा मालूम होने लगा।
जब पापनाशी ने शिष्यगण एण्तोनी की ओर सचिन्त और सशंक भाव से देखने लगे तो उन्होंने यह शब्द कहे-'ईश्वर ने अपनी सच्चाई व्यवस्था सुना दी। हमारा कर्तव्य है कि हम उसको शिरोधार्य करें और चुप रहें। असन्टोष और गिला उसके सेवकों के लिए उपयुक्त नहीं। यह कहकर वह आगे ब़ गये। सूर्य ने अस्ताचल को परयाण किया और उसे अपने अरुण परकाश से आलोकित कर दिया। सन्त एण्तोनी की छाया देैवी लीला से अत्यन्त दीर्घ रूप धारण करके उसके पीछे, एक अनन्त गलीचे की भांति फैली हुई थी, कि सन्त एण्तोनी की स्मृति भी इस भांति दीर्घजीवी होगी, और लोग अनन्तकाल तक उसका यश गाते रहेंगे। किन्तु पापनाशी वजराहत की भांति खड़ा रहा। उसे न कुछ सूझता था, न कुछ सुनाई देता था। यही शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे-थायस मरणासन्न है ! उसे कभी इस बात का ध्यान ही न आया था। बीस वर्षों तक निरन्तर उसने मोमियाई के सिर को देखा था, मृत्यु का स्वरूप उसकी आंखों के सम्मुख रहता था। पर यह विचार कि मृत्यु एक दिन थायस की आंखें बन्द कर देगी, उसे घोर आश्चर्य में डाल रहा था।
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30-11-2012, 07:13 PM | #250 |
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Re: अलंकार (प्रेमचंद)
'थायस मर रही है !'-इन शब्दों में कितनी विस्मयकारी और भयंकर आशय है ! थायस मर रही है, वह अब इस लोक में न रहेगी, तो फिर सूर्य का, फूलों का, सरोवरों का और समस्त सृष्टि का उद्देश्य ही क्या ? इस बरह्माण्ड ही की क्या आवश्यकता है। सहसा वह झपटकर चला-'उसे देखूंगा, एक बार फिर उससे मिलूंगा !' वह दौड़ने लगा। उसे कुछ खबर न थी कि वह कहां जा रहा है, किन्तु अन्तःपरेरणा उसे अविचल रूप से लक्ष्य की ओर लिये जाती थी, वह सीधे नील नदी की ओर चला जा रहा था। नदी पर उसे पालों का एक समूह तैरता हुआ दिखाई पड़ा। वह कूदकर एक नौका में जा बैठा, जिसे हब्शी चला रहे थे, और वहां नौका के मुस्तूल पर पीठ टेककर मुदित आंखों से यात्रा मार्ग का स्मरण करता हुआ, वह त्र्कोध और वेदना से बोला-आह ! मैं कितना मूर्ख हूं कि थायस को पहले ही अपना न कर लिया जब समय था ! कितना मूर्ख हूं कि समझा कि संसार में थायस के सिवा और भी कुछ है ! कितना पागलपन था ! मैं ईश्वर के विचार में, आत्मोद्घार की चिन्ता में, अनन्त जीवन की आकांक्षा में रत रहता; मानो थामस को देखने के बाद भी इन पाखण्डों में कुछ महत्व था। मुझे उस समय कुछ न सूझा कि उस स्त्री के चुम्बन में अनन्त सुख भरा हुआ है, और उसके बिना जीवन निरर्थक है, जिसका मूल्य एक दुःस्वप्न से अधिक नहीं। मूर्ख ! तूने उसे देखा, फिर भी तुझे परलोक के सुखों की इच्छा बनी रही ! अरे कायर, तू उसे देखकर भी ईश्वर से डरता रहा ! ईश्वर स्वर्ग ! अनादि ! यह सब क्या गोरखधन्धा है! उनमें रखा ही क्या है, और क्या वह उस आनन्द का अल्पांश नहीं दे सकते हैं जो तुझे उससे मिलता। अरे अभागे, निबुर्द्धि, मिथ्यावादी, मूर्ख जो थायस के अधरों को छोड़कर ईश्वरीय कृपा को अन्यत्र खोजता रहा ! तेरी आंखों पर किसने पर्दा डाल दिया था? उस पराणी का सत्यानाश हो जाय जिसने उस समय तुझे अन्धा बना दिया था। तुझे दैवी कोप का क्या भय था जब तू उसके परेम का एक क्षण भी आनन्द उठा लेता। पर तूने ऐसा न किया। उसने तेरे लिए अपनी बांहें फैला दी थीं, जिनमें मांस के साथ फूलों की सुगन्ध मिश्रित थी, और तूने उसके उन्मुक्त वृक्ष के अनुपम सुधासागर में अपने को प्लावित न कर दिया। तू नित्य उस द्वेषध्वनि पर कान लगाये रहा जो तुझसे कहती थी, भागभाग ! अन्धे ! हा शोक ! पश्चात्ताप ! हा निराश ! नरक में उसे कभी न भूलने वाली घड़ी की आनन्दस्मृति ले जाने का और ईश्वर से यह कहने का अवसर हाथों से निकल गया कि 'मेरे मांस को जला मेरी धमनियों में जितना रक्त है उसे चूस ले, मेरी सारी हिड्डयों को चूरचूर कर दे, लेकिन तू मेरा हृदय से उस सुखदस्मृति को नहीं निकाल सकता, जो चिरकाल तक मुझे सुगन्धित और परमुदित रखेगी ! थायस मर रही है ! ईश्वर तू कितना हास्यास्पद है ! तुझे कैसे बताऊं कि मैं तेरे नरकलोक को तुच्छ समझता हूं, उसकी हंसी उड़ाता हूं ! थायस मर रही है, वह मेरी कभी न होगी, कभी नहीं, कभी नहीं !
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