![]() |
#241 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#242 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वशिष्ठजी बोले, हे राजन्! इन अर्थों का जो आश्रयभूत है सो मैं तुमसे कहता हूँ | इस जगत् के आदि अचेत चिन्मात्र था और उसमें किसी शब्द की प्रवृत्ति न थी-अशब्द पद था | फिर उसमें जानना फुरा और उसका आभास जगत् हुआ | उस आभास में जिसको अधिष्ठान की अहंप्रतीति है उसको जगत् आकाशरूप भासता है और वह संसार में नहीं डूबता, क्योंकि उसको अज्ञान का अभाव है | जो डूबता नहीं वह निकलता भी नहीं, उसे अज्ञाननिवृत्ति और ज्ञान का भी अभाव है, क्योंकि वह स्वतः ज्ञानस्वरूप है | जिनको अधिष्ठान का प्रमाद हुआ है उनको दोनों अवस्था होती हैं | जो ज्ञानवान् है उसको जगत् आत्मरूप भासता है और जो ज्ञान से रहित है उसको भिन्न-भिन्न नामरूप जगत् भासता है | हे रामजी! आत्मा निराख्यात है, वह चारों आख्यातों से रहित निराभाससत्ता है और चारों आख्यात उसमें आभास हैं एक आख्यात्, दूसरा विपर्ययाख्यात्, तीसरा असत्याख्यात और चौथा आत्माख्यात है | आख्यात ज्ञान को कहते है | जिसको यह ज्ञान है कि मैं आपको नहीं जानता, इसका नाम आख्यात है |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#243 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
आपको देह इन्द्रियरूप जानने का नाम विपर्ययाख्यात है | जगत् असत्य जानने का नाम असत्याख्यात है और आत्मा को आत्मा जानने का नाम आत्माख्यात है | ये चारों आख्यात चिन्मात्र आत्मतत्त्व के आभास है | आत्मसत्ता निर्विकल्प अचेत चिन्मात्र है उसमें वाणी की गम नहीं है | हे रामजी! जगत् भी वही स्वरूप है और कुछ बना नहीं और घनशिला की नाईं अचिन्त्य स्वरूप है | इस पर एक आख्यात है जो श्रवणों का भूषण है इसलिये तुझसे कहता हूँ | वह द्वैतदृष्टि को नाश करता है और ज्ञानरूपी कमल का विकास करनेवाला सूर्य है और परमपावन है सो सुनो | हे रामजी! एक बड़ी शिला है जिसका कोटि योजनपर्यन्त विस्तार है अनन्त है किसी ओर उसका अन्त नहीं आता शुद्ध निर्मल और निरासाध है अर्थात् यह कि अणु-अणु से पुष्ट नहीं हुई अपनी सत्ता से पूर्ण है और बहुत सुन्दर है |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#244 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
जैसे शालग्राम की प्रतिमा सुन्दर होती है, तैसे ही वह सुन्दर है और जैसे शालग्राम पर, शंख , चक्र, गदा और पद्म की रेखा होती हैं तैसे ही उस पर रेखा होती हैं और वही रूप है | वह वज्र से भी क्रूर, शिला की नाईं निर्विकास और निराकार अचेतन परमार्थ है | यह जो कुछ चैतन्यता भासती है सो उस पर रेखा है और अनन्त कल्प बीत गये हैं परन्तु उसका नाश नहीं होता | पृथ्वी, अपू, तेज, वायु और आकाश, ये सब भी उस पर रेखा हैं और आप पृथ्वी आदिक भूतों से रहित और शिलावत् है और इन रेखाओं को जीवित की नाईं चेतती है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो वह अचेतन है और शिला की नाईं निर्विकास है तो उसमें चैतन्यता कहाँ से आई जिससे जीवित-धर्मा हुई-वह तो अचैतन्य थी? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह तो न चैतन्य है और न जड़ है शिलारूप है और पत्थर से भी उज्ज्वल है यह चैतन्यता जो तुम कहते हो सो चैतन्यता स्वभाव से दृष्टि आती है- जैसे जल का स्वभाव द्ववीभूत है, तैसे ही चैतन्यता भी उसका स्वभाव है- और जैसे जल में तरंग स्वाभाविक भासते हैं, तैसे ही इससे चैतन्यता स्वाभाविक भासती है परन्तु भिन्न कुछ नहीं |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#245 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वह सदा अपने आपमें स्थित है और किसी से जानी नहीं जाती अबतक किसी ने नहीं जाना | रामजी ने पूछा, हे भगवन्!किसी ने उसको देखा भी है अथवा नहीं देखा और किसी से वह भंग हुई है कि नहीं? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैंने उस शिला को देखा है और तुम भी जो उस शिला के देखने का अभ्यास करोगे तो देखोगे | वह परमशुद्ध है-उसको मल कदाचित् नहीं लगता | वह चिह्नों, पोलों और आदि, मध्य, अन्त से रहित है | न उसे कोई तोड़ सकता है और न वह तोड़ने योग्य है, उससे कोई अन्य हो तो उसको भेदे | ये जितने पदार्थ पृथ्वी, पर्वत, वृक्ष, अपू, तेज, वायु, आकाश, देवता, दानव, सूर्य और चन्द्रमा हैं वे सब उसी की रेखा हैं और उसके भीतर स्थित हैं |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#246 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वह शिला महासूक्ष्म निराकार आकाशरूप है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो वह आदि मध्य और अन्त से रहित है तो तुमने कैसे देखी सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह और किसी से जानी नहीं जाती अपने आप अनुभव से जानी जाती है | मैंने उसे अपने स्वभाव में स्थित होकर देखा है |जैसे थम्भे को अनथम्भें में स्थित होकर देखे, तैसे हीं मैंने उसमें स्थित होकर देखा | हम भी उस शिला की रेखा हैं, इससे मैंने उसमें स्थित होकर देखा है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! वह कौन शिला है और उस पर रेखा कौन है सो कहो? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! वह परमात्मारूपी शिला है | मैंने शिलारूप इसलिये कहा कि वह घन चैतन्यरूप है उससे इतर कुछ नहीं और अचिन्त्यरूप है उस पर पञ्चतत्त्व रेखा हैं सो वे रेखा भी वही रूप हैं | एक रेखा बड़ी है जिसमें और रेखा रहती हैं वह बड़ी रेखा आकाश है जिसमें और तत्त्व रहते हैं |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#247 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
सब पदार्थ आकाश में हैं सो सब वही रूप है, तुम भी वही रूप हो और मैं भी वही रूप हूँ और कुछ हुआ नहीं | पृथ्वी, जल तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि सर्व पदार्थ और कर्म जो भासते हैं सो सब ब्रह्मरूपी शिला की रेखा की रेखा हैं और कुछ हुआ नहीं, सर्वकाल में ब्रह्मसत्ता ही स्थित है | नाना प्रकार के व्यवहार भी दृष्टि आते हैं परन्तु वही रूप हैं और कुछ है नहीं तैसे ही वह जानो | घट, पट, पहाड़,कन्दरा, स्थावर, जंगम, जगत् सब आत्मरूप है | आत्मा ही फुरने से ऐसे भासता है | जैसे जल ही तरंग और लहरें होकर भासता है तैसे ही ब्रह्मसत्ता ही जगत््रूप होकर भासती है और सर्व पदार्थ पवित्र, अपवित्र, सत्य, असत्य, विद्या, अविद्या, सब आत्मसत्ता ही के नाम है इतर वस्तु कुछ नहीं | ब्रह्मसत्ता ही अपने आपमें स्थित है | हे रामजी! सर्व ही घन ब्रह्मरूप है और चिन्मात्र घन ही सबमें व्याप रही है वह परमार्थ सत्ता घन शान्तरूप है और यह भी सर्व परमार्थ घनरूप है इसलिये संकल्परूपी कलना को त्याग कर उसमें स्थित हो रहो |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#248 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वशिष्ठजी बोले , हे रामजी! जो पुरुष स्वभावसत्ता में स्थित हुए हैं उनको ये चारों आख्यात कहे हैं और इनसे लेकर जितने शब्दार्थ हैं वे शशे के सींगवत् असत्य भासते हैं जगत् का निश्चय उनमें नहीं रहता और सर्वब्रह्माण्ड उनको आकाशवत् भासता है | आख्यात की कल्पना भी उन्हे कुछ नहीं फुरती और सर्व जगत् जो दीखता है वह निराकार परम चिदा काशरूप है और परमनिर्वाणसत्ता से युक्त भासता है और उसी से निर्वाण हो जाता है इस लिये वही स्वरूप है | हे रामजी! जब इस प्रकार जानकर तुम उस पद में स्थित होगे तब बड़े शब्द को करते भी तुम निश्चय से पाषाण शिलावत् मौन रहोगे और देखोगे, खावोगे, पिवोगे, सूँघोगे परन्तु निश्चय में कुछ न फुरेगा | जैसे पाषाण की शिला में फुरना नहीं फुरता, तैसे ही तुम रहोगे-जो चरणों से दौड़ते जावोगे तो भी निश्चय से चलायमान न होगे | जैसे आकाश, सुमेरु पर्वत अचल है तैसे ही तुम भी स्थित रहोगे और क्रिया तो सब करोगे परन्तु हृदय में क्रिया का अभिमान तुमको कुछ न होगा केवल स्वभावसत्ता में स्थित होगे |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#249 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
जैसे मूढ़ बालक अपनी परछाहीं में वैताल कल्पता है सो अविचारसिद्ध है और विचार किये से कुछ नहीं रहता, तैसे ही मूर्ख अज्ञानी आत्मा में मिथ्या आकार कल्पते हैं विचार किये से सब आकाशरूप है कुछ बना नहीं | जैसे मरुस्थल में नदी तबतक भासती है जबतक विचार करके नहीं देखता और विचार किये से नदी नहीं रहती,तैसे ही यह जगत् विचार किये नहीं रहता | जगत् चैतन्यरूपी रत्न का चमत्कार है, चैतन्य आत्मा का किञ्चन फुरने से ही जगत््रूप हो भासता है | रामजी बोले हे भगवन्! इस जगत् का कारण मैं स्मृति मानता हूँ, वह स्मृति अनुभव से होती है और स्मृति से अनुभव होता है | स्मृति और अनुभव परस्पर कारण हैं, जब अनुभव होता है तब उसको स्मृति भी होती है और वह स्मृतिसंस्कार फिर स्वप्ने में जगत््रूप हो क्यों भासती है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह जगत् किसी संस्कार से नहीं उपजा और किसी अनुभव का संस्कार नहीं काकतालीयवत् अकस्मात् फुर आया है |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
#250 |
Special Member
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
हे रामजी! इसलिये न जाग्रत् है, न स्वप्ना है, न कोई सुषुप्ति है और न तुरीया है केवल अद्वैतसत्ता सर्व उत्थान से रहित चिन्मात्र स्थित है, इसलिये जगत् भी वही रूप है और जो क्रिया भी दृष्टि आती है तो भी कुछ हुआ नहीं | जैसे स्वप्ने में अंगना कण्ठ से आ मिलती है तो उसकी क्रिया कुछ सच नहीं होती, तैसे ही यह क्रिया भी सच नहीं | जाग्रत,स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया शब्दों का अर्थ निश्चय ज्ञानवान् पुरुष को है और शशे के सींग और आकाश के फलवत् असत्य भासते हैं | जैसे बन्ध्या का पुत्र और श्याम चन्द्रमा शब्द कहने मात्र हैं और इनका अर्थ असत्य है, तैसे ही ज्ञानी के निश्चय में पाँचों अवस्थाओं का होना असंभव है |
__________________
![]() ![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Bookmarks |
|
|