02-09-2011, 10:32 AM | #251 | |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
इसे पढ़ कर मुनव्वर राना जी की कुछ पंक्तियाँ याद आ गयी भाई ... चमन में सुबह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है... कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कुराती है... हमें ऐ ज़िंदगी तुझपर हमेशा रश्क़ आता है... मसायल में घिरी रहती है फिर भी मुस्कुराती है... बड़ा गहरा तआल्लुक़ है सियासत का तबाही से... कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कुराती है... Quote:
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07-09-2011, 12:19 AM | #252 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मैं नीर भरी दुख की बदली!
स्पन्दन में चिर निस्पन्द बसा क्रन्दन में आहत विश्व हँसा नयनों में दीपक से जलते, पलकों में निर्झारिणी मचली! मेरा पग-पग संगीत भरा श्वासों से स्वप्न-पराग झरा नभ के नव रंग बुनते दुकूल छाया में मलय-बयार पली। मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल चिन्ता का भार बनी अविरल रज-कण पर जल-कण हो बरसी, नव जीवन-अंकुर बन निकली! पथ को न मलिन करता आना पथ-चिह्न न दे जाता जाना; सुधि मेरे आगन की जग में सुख की सिहरन हो अन्त खिली! विस्तृत नभ का कोई कोना मेरा न कभी अपना होना, परिचय इतना, इतिहास यही- उमड़ी कल थी, मिट आज चली! महादेवी वर्मा
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08-09-2011, 10:08 PM | #253 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मन प्रसन्न हो गया !! एक दम practical कविता !!
ये पंक्ति एक दम सही है !! पर कैसे ??? ये पंक्ति मेरे समझ से बाहर है !!
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"खैरात में मिली हुई ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती,
मैं अपने दुखों में भी रहता हूँ नवाबों की तरह !!" |
08-09-2011, 10:30 PM | #254 | |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
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किन्तु मुझे इस कविता की ये पंक्तियाँ बहुत ही अच्छी लगी / सूत्रधार को मेरा selut
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16-09-2011, 12:52 AM | #255 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
रात की हथेली पर
रखे थे कुछ सफेद फूल सीने में धड़कती थी एक याद आंखों में लहराती थीं गंगा, जमुना, नर्मदा टेम्स, वोल्गा और भी न जाने कितनी नदियां हर याद के नाम पर वो नदियों में बहाती थी कुछ फूल. लेकिन रात की हथेली खाली होती ही न थी नदियां जरूर सफेद फूलों से टिमटिमाने लगीं जितने फूल आसमान में थे उतने ही नदियों में न याद खत्म होती न रात की हथेली खाली होती ये याद की रात के संग आंख-मिचौली का खेल है.
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17-09-2011, 10:09 AM | #256 |
Administrator
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
bahut hi acchi kavita hai..
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17-09-2011, 11:40 AM | #257 | ||
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
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17-09-2011, 11:52 AM | #258 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक
कविता लिखना चाहता हूँ। चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में मेरे परों की रंगीनी है?' मैंने कहा, 'नहीं'। 'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?' 'नहीं।' 'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?' 'नहीं।' 'जान है?' 'नहीं।' 'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?' मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है' चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?' एक अनुभव हुआ नया। मैं मौन हो गया! हरिवंशराय बच्चन
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17-09-2011, 11:55 AM | #259 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन? जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन! संग-सौध में हो श्रृंगार मरण का शोभन, नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन? मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति? आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!! प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण? स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण? शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का? गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर! भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर, मृतकों के हैं मृतक, जीवतों का है ईश्वर! सुमित्रानंदन पंत
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17-09-2011, 11:56 AM | #260 |
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Re: !!मेरी प्रिय कविताएँ !!
कल सहसा यह सन्देश मिला
सूने-से युग के बाद मुझे कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर तुम कर लेती हो याद मुझे । गिरने की गति में मिलकर गतिमय होकर गतिहीन हुआ एकाकीपन से आया था अब सूनेपन में लीन हुआ । यह ममता का वरदान सुमुखि है अब केवल अपवाद मुझे मैं तो अपने को भूल रहा, तुम कर लेती हो याद मुझे । पुलकित सपनों का क्रय करने मैं आया अपने प्राणों से लेकर अपनी कोमलताओं को मैं टकराया पाषाणों से । मिट-मिटकर मैंने देखा है मिट जानेवाला प्यार यहाँ सुकुमार भावना को अपनी बन जाते देखा भार यहाँ । उत्तप्त मरूस्थल बना चुका विस्मृति का विषम विषाद मुझे किस आशा से छवि की प्रतिमा ! तुम कर लेती हो याद मुझे ? हँस-हँसकर कब से मसल रहा हूँ मैं अपने विश्वासों को पागल बनकर मैं फेंक रहा हूँ कब से उलटे पाँसों को । पशुता से तिल-तिल हार रहा हूँ मानवता का दाँव अरे निर्दय व्यंगों में बदल रहे मेरे ये पल अनुराग-भरे । बन गया एक अस्तित्व अमिट मिट जाने का अवसाद मुझे फिर किस अभिलाषा से रूपसि ! तुम कर लेती हो याद मुझे ? यह अपना-अपना भाग्य, मिला अभिशाप मुझे, वरदान तुम्हें जग की लघुता का ज्ञान मुझे, अपनी गुरुता का ज्ञान तुम्हें । जिस विधि ने था संयोग रचा, उसने ही रचा वियोग प्रिये मुझको रोने का रोग मिला, तुमको हँसने का भोग प्रिये । सुख की तन्मयता तुम्हें मिली, पीड़ा का मिला प्रमाद मुझे फिर एक कसक बनकर अब क्यों तुम कर लेती हो याद मुझे ? भगवतीचरण वर्मा
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