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Old 11-01-2011, 07:34 AM   #261
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

भी दूसरों का है। भविष्य अन्धकार की भाँति उनके सामने है। उसमें उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता। उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल हो गयी हैं। द्वार पर मनों कूड़ा जमा है दुर्गन्ध उड़ रही है; मगर उनकी नाक में न गन्ध है, न आँखों में ज्योति। सरेशाम द्वार पर गीदड़ रोने लगते हैं; मगर किसी को ग़म नहीं। सामने जो कुछ मोटा-झोटा आ जाता है, वह खा लेते हैं, उसी तरह जैसे इंजिन कोयला खा लेता है। उनके बैल चूनी-चोकर के बग़ैर नाद में मुँह नहीं डालते; मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए। स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है। उनसे धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो, मुट्ठी-भर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो। पतन की वह इन्तहा है, जब आदमी शर्म और इज़्ज़त को भी भूल जाता है। लड़कपन से गोबर ने गाँवों की यही दशा देखी थी और उनका आदी हो चुका था; पर आज चार साल के बाद उसने जैसे एक नयी दुनिया देखी। भले आदमियों के साथ रहने से उसकी बुद्धि कुछ जग उठी है; उसने राजनैतिक जलसों में पीछे खड़े होकर भाषण सुने हैं और उनसे अंग-अंग में बिधा है। उसने सुना है और समझा है कि अपना भाग्य ख़ुद बनाना होगा, अपनी बुद्धि और साहस से इन आफ़तों पर विजय पाना होगा। कोई देवता, कोई गुप्त शक्ति उनकी मदद करने न आयेगी। और उसमें गहरी संवेदना सजग हो उठी है। अब उसमें वह पहले की उद्दंडता और ग़रूर नहीं है। वह नम्र और उद्योग-शील हो गया है। जिस दशा में पड़े हो, उसे स्वार्थ और लोभ के वश होकर और क्यों बिगाड़ते हो? दुःख ने तुम्हें एक सूत्र में बाँध दिया है। बन्धुत्व के इस दैवी बन्धन को क्यों अपने तुच्छ स्वार्थो में तोड़े डालते हो? उस बन्धन को एकता का बन्धन बना लो। इस तरह के भावों ने उसकी मानवता को पंख-से लगा दिये हैं। संसार का ऊँच-नीच देख लेने के बाद निष्कपट मनुष्यों में जो उदारता आ जाती है, वह अब मानो आकाश में उड़ने के लिए पंख फड़फड़ा रही है। होरी को अब वह कोई काम करते देखता है, तो उसे हटाकर ख़ुद करने लगता है, जैसे पिछले दुर्व्यवहार का प्रायश्चित करना चाहता हो। कहता है, दादा अब कोई चिन्ता मत करो, सारा भार मुझ पर छोड़ दो, मैं अब हर महीने ख़र्च भेजूँगा, इतने दिन तो मरते-खपते रहे कुछ दिन तो आराम कर लो; मुझे धिक्कार है कि मेरे रहते तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़े। और होरी के रोम-रोम से बेटे के लिए आशीर्वाद निकल जाता है। उसे अपनी जीर्ण देह में दैवी स्फूर्ति का अनुभव होता है। वह इस समय अपने क़रज़ का ब्योरा कहकर उसकी उठती जवानी पर चिन्ता की बिजली क्यों गिराये? वह आराम से खाये-पीये, ज़िन्दगी का सुख उठाये। मरने-खपने के लिए वह तैयार है। यही उसका जीवन है। राम-राम जपकर वह जी भी तो नहीं सकता। उसे तो फावड़ा और कुदाल चाहिए। राम-नाम की माला फेरकर उसका चित्त न शान्त होगा।

गोबर ने कहा — कहो तो मैं सबसे क़िस्त बँधवा लूँ और हर महीने-महीने देता जाऊँ। सब मिलकर कितना होगा?

होरी ने सिर हिलाकर कहा — नहीं बेटा, तुम काहे को तकलीफ़ उठाओगे। तुम्हीं को कौन बहुत मिलते हैं। मैं सब देख लूँगा। ज़माना इसी तरह थोड़े ही रहेगा। रूपा चली जाती है। अब क़रज़ ही चुकाना तो है। तुम कोई चिन्ता मत करना। खाने-पीने का संजम रखना। अभी देह बना लोगे, तो सदा आराम से रहोगे। मेरी कौन? मुझे तो मरने-खपने की आदत पड़ गयी है। अभी मैं तुम्हें खेती में नहीं जोतना चाहता बेटा! मालिक अच्छा मिल गया है। उसकी कुछ दिन सेवा कर लोगे, तो आदमी बन जाओगे! वह तो यहाँ आ चुकी हैं। साक्षात देवी हैं।

‘ ब्याह के दिन फिर आने को कहा है। ‘

‘ हमारे सिर-आँखों पर आयें। ऐसे भले आदमियों के साथ रहने से चाहे पैसे कम भी मिलें; लेकिन ज्ञान बढ़ता है और आँखें खुलती हैं। ‘
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Old 11-01-2011, 07:36 AM   #262
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Post Re: गोदान -"प्रेमचन्द"

उसी वक़्त पण्डित दातादीन ने होरी को इशारे से बुलाया और दूर ले जाकर कमर से सौ-सौ रुपये के दो नोट निकालते हुए बोले — तुमने मेरी सलाह मान ली, बड़ा अच्छा किया। दोनों काम बन गये। कन्या से भी उरिन हो गये और बाप-दादों की निशानी भी बच गयी। मुझसे जो कुछ हो सका, मैंने तुम्हारे लिए कर दिया, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। होरी ने रुपए लिए तो उसका हाथ काँप रहा था, उसका सिर ऊपर न उठ सका, मुँह से एक शब्द न निकला, जैसे अपमान के अथाह गढ़े में गिर पड़ा है और गिरता चला जाता है। आज तीस साल तक जीवन से लड़ते रहने के बाद वह परास्त हुआ है और ऐसा परास्त हुआ है कि मानो उसको नगर के द्वार पर खड़ा कर दिया गया है और जो आता है, उसके मुँह पर थूक देता है। वह चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है, भाइयो मैं दया का पात्र हूँ मैंने नहीं जाना जेठ की लू कैसी होती है और माघ की वर्षा कैसी होती है? इस देह को चीरकर देखो, इसमें कितना प्राण रह गया है, कितना ज़ख़्मों से चूर, कितना ठोकरों से कुचला हुआ! उससे पूछो, कभी तूने विश्राम के दर्शन किये, कभी तू छाँह में बैठा। उस पर यह अपमान! और वह अब भी जीता है, कायर, लोभी, अधम। उसका सारा विश्वास जो अगाध होकर स्थूल और अन्धा हो गया था, मानो टूक-टूक उड़ गया है। दातादीन ने कहा — तो मैं जाता हूँ। न हो, तो तुम इसी वखत नोखेराम के पास चले जाओ। होरी दीनता से बोला — चला जाऊँगा महाराज! मगर मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है।

दो दिन तक गाँव में ख़ूब धूमधाम रही। बाजे बजे, गाना-बजाना हुआ और रूपा रो-धोकर बिदा हो गयी; मगर होरी को किसी ने घर से निकलते न देखा। ऐसा छिपा बैठा था, जैसे मुँह में कालिख लगी हो। मालती के आ जाने से चहल-पहल और बढ़ गयी। दूसरे गाँवों की स्त्रियाँ भी आ गयीं। गोबर ने अपने शील-स्नेह से सारे गाँव को मुग्ध कर लिया है। ऐसा कोई घर न था, जहाँ वह अपने मीठे व्यवहार की याद न छोड़ आया हो। भोला तो उसके पैरों पर गिर पड़े। उनकी स्त्री ने उसको पान खिलाये और एक रुपया बिदायी दी और उसका लखनऊ का पता भी पूछा। कभी लखनऊ आयेगी तो उससे ज़रूर मिलेगी। अपने रुपए की उससे चर्चा न की। तीसरे दिन जब गोबर चलने लगा, तो होरी ने धनिया के सामने आँखों में आँसू भरकर वह अपराध स्वीकार किया, जो कई दिन से उसकी आत्मा को मथ रहा था, और रोकर बोला — बेटा, मैंने इस ज़मीन के मोह से पाप की गठरी सिर लादी। न जाने भगवान् मुझे इसका क्या दंड देंगे! गोबर ज़रा भी गर्म न हुआ, किसी प्रकार का रोष उसके मुँह पर न था। श्रद्धाभाव से बोला — इसमें अपराध की तो कोई बात नहीं है दादा, हाँ रामसेवक के रुपए अदा कर देना चाहिए। आख़िर तुम क्या करते हो? मैं किसी लायक़ नहीं, तुम्हारी खेती में उपज नहीं, करज़ कहीं मिल नहीं सकता, एक महीने के लिए भी घर में भोजन नहीं। ऐसी दशा में तुम और कर ही क्या सकते थे? जैजात न बचाते तो रहते कहाँ? जब आदमी का कोई बस नहीं चलता, तो अपने को तक़दीर पर ही छोड़ देता है। न जाने यह धाँधली कब तक चलती रहेगी। जिसे पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उसके लिए मरजाद और इज़्ज़त सब ढोंग है। औरों की तरह तुमने भी दूसरों का गला दबाया होता, उनकी जमा मारी होती, तो तुम भी भले आदमी होते। तुमने कभी नीति को नहीं छोड़ा, यह उसी का दंड है। तुम्हारी जगह मैं होता तो या तो जेल में होता या फाँसी पर गया होता। मुझसे यह कभी बरदाश्त न होता कि मैं कमा-कमाकर सबका घर भरूँ और आप अपने
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Old 11-01-2011, 07:36 AM   #263
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बाल-बच्चों के साथ मुँह में जाली लगाये बैठा रहूँ। धनिया बहू को उसके साथ भेजने पर राज़ी न हुई। झुनिया का मन भी अभी कुछ दिन यहाँ रहने का था। तय हुआ कि गोबर अकेला ही जाय। दूसरे दिन प्रातःकाल गोबर सबसे बिदा होकर लखनऊ चला। होरी उसे गाँव के बाहर तक पहुँचाने आया। गोबर के प्रति इतना प्रेम उसे कभी न हुआ था। जब गोबर उसके चरणों पर झुका, तो होरी रो पड़ा, मानो फिर उसे पुत्र के दर्शन न होंगे। उसकी आत्मा में उल्लास था, गर्व था, संकल्प था। पुन्न से यह श्रद्धा और स्नेह पाकर वह तेजवान हो गया है, विशाल हो गया है। कई दिन पहले उस पर जो अवसाद-सा छा गया था, एक अन्धकार-सा, जहाँ वह अपना मार्ग भूल जाता था, वहाँ अब उत्साह है और प्रकाश है। रूपा अपनी ससूराल में ख़ुश थी। जिस दशा में उसका बालपन बीता था, उसमें पैसा सबसे क़ीमती चीज़ थी। मन में कितनी साधें थीं, जो मन में ही घुट-घुटकर रह गयी थीं। वह अब उन्हें पूरा कर रही थी और रामसेवक अधेड़ होकर भी जवान हो गया था। रूपा के लिए वह पति था, उसके जवान, अधेड़ या बूढ़े होने से उसकी नारी-भावना में कोई अन्तर न आ सकता था। उसकी यह भावना पति के रंग-रूप या उम्र पर आश्रित न थी, उसकी बुनियाद इससे बहुत गहरी थी, श्वेत परम्पराओं की तह में, जो केवल किसी भूकम्प से ही हिल सकती थीं। उसका यौवन अपने ही में मस्त था, वह अपने ही लिए अपना बनाव-सिंगार करती थी और आप ही ख़ुश होती थी। रामसेवक के लिए उसका दूसरा रूप था। तब वह गृहिणी बन जाती थी, घर के कामकाज में लगी हुई। अपनी जवानी दिखाकर उसे लज्जा या चिन्ता में न डालना चाहती थी। किसी तरह की अपूणर्ता का भाव उसके मन में न आता था। अनाज से भरे हुए बखार और गाँव से सिवान तक फैले हुए खेत और द्वार पर ढोरों की क़तारें और किसी प्रकार की अपूर्णता को उसके अन्दर आने ही न देती थीं। और उसकी सबसे बड़ी अभिलाषा थी अपने घरवालों की ख़ुशी देखना। उनकी ग़रीबी कैसे दूर कर दे? उस गाय की याद अभी तक उसके दिल में हरी थी, जो मेहमान की तरह आयी थी और सब को रोता छोड़कर चली गयी थी। वह स्मृति इतने दिनों के बाद अब और भी मृदु हो गयी थी। अभी उसका निजत्व इस नये घर में न जम पाया था। वही पुराना घर उसका अपना घर था। वहीं के लोग अपने आत्मीय थे, उन्हीं का दुःख उसका दुःख और उन्हीं का सुख उसका सुख था। इस द्वार पर ढोरों का एक रेवड़ देखकर उसे वह हर्ष न हो सकता था, जो अपने द्वार पर एक गाय देखकर होता। उस के दादा की यह लालसा कभी पूरी न हुई। जिस दिन वह गाय आयी थी, उन्हें कितना उछाह हुआ था, जैसे आकाश से कोई देवी आ गयी हो। तब से फिर उन्हें इतनी समाई ही न हुई कि कोई दूसरी गाय लाते, पर वह जानती थी, आज भी वह लालसा होरी के मन में उतनी ही सजग है। अबकी यह जायगी, तो साथ वह धौरी गाय ज़रूर लेती जायगी। नहीं, अपने आदमी से क्यों न भेजवा दे। रामसेवक से पूछने की देर थी। मंज़ूरी हो गयी, और दूसरे दिन एक अहीर के मारफ़त रूपा ने गाय भेज दी। अहीर से कहा, दादा से कह देना, मंगल के दूध पीने के लिए भेजी है। होरी भी गाय लेने की फ़िक्र में था। यों अभी उसे गाय की कोई जल्दी न थी; मगर मंगल यहीं है और बिना दूध के कैसे रह सकता है! रुपए मिलते ही वह सबसे पहले गाय लेगा। मंगल अब केवल उसका पोता नहीं है, केवल गोबर का बेटा नहीं है, मालती देवी का खिलौना भी है। उसका लालन-पालन उसी तरह का होना चाहिए। मगर रुपये कहाँ से आयें। संयोग से उसी दिन एक ठीकेदार ने सड़क के लिए गाँव के ऊसर में कंकड़ की खुदाई शुरू की। होरी ने सुना तो चट-पट वहाँ जा पहुँचा, और आठ आने रोज़ पर खुदाई करने लगा; अगर यह काम दो महीने भी टिक गया, तो गाय भर को रुपए मिल जायँगे। दिन-भर लू और धूप में काम करने के बाद वह घर आता, तो बिलकुल मरा हुआ; पर अवसाद का नाम नहीं। उसी उत्साह से दूसरे दिन काम करने जाता। रात को भी खाना खा कर डिब्बी के सामने बैठ जाता, और सुतली कातता। कहीं बारह-एक बजे सोने जाता। धनिया भी पगला गयी थी, उसे इतनी मेहनत करने से रोकने के बदले ख़ुद उसके साथ बैठी-बैठी सुतली कातती। गाय तो लेनी ही है, रामसेवक के रुपए भी तो अदा करने हैं। गोबर कह गया है। उसे बड़ी चिन्ता है। रात के बारह बज गये थे। दोनों बैठे सुतली कात रहे थे। धनिया ने कहा — तुम्हें नींद आती हो तो जाके सो रहो। भोरे फिर तो काम करना है। होरी ने आसमान की ओर देखा — चला जाऊँगा। अभी तो दस बजे होंगे। तू जा, सो रह।
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Old 11-01-2011, 07:37 AM   #264
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मैं तो दोपहर को छन-भर पौढ़ रहती हूँ। ‘

‘ मैं भी चबेना करके पेड़ के नीचे सो लेता हूँ। ‘

‘ बड़ी लू लगती होगी। ‘

‘ लू क्या लगेगी? अच्छी छाँह है। ‘

‘ मैं डरती हूँ, कहीं तुम बीमार न पड़ जाओ। ‘

‘ चल; बीमार वह पड़ते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फ़ुरसत होती है। यहाँ तो यह धुन है कि अबकी गोबर आये, तो रामसेवक के आधे रुपए जमा रहें। कुछ वह भी लायेगा। बस इस साल इस रिन से गला छूट जाय, तो दूसरी ज़िन्दगी हो। ‘

‘ गोबर की अबकी बड़ी याद आती है। कितना सुशील हो गया है। चलती बेर पैरों पर गिर पड़ा। ‘

‘ मंगल वहाँ से आया तो कितना तैयार था। यहाँ आकर दुबला हो गया है। ‘

‘ वहाँ दूध, मक्खन, क्या नहीं पाता था? यहाँ रोटी मिल जाय वही बहुत है। ठीकेदार से रुपए मिले और गाय लाया। ‘

‘ गाय तो कभी आ गयी होती, लेकिन तुम जब कहना मानो। अपनी खेती तो सँभाले न सँभलती थी, पुनिया का भार भी अपने सिर ले लिया। ‘

‘ क्या करता, अपना धरम भी तो कुछ है। हीरा ने नालायक़ी की तो उसके बाल-बच्चों को सँभालनेवाला तो कोई चाहिए ही था। कौन था मेरे सिवा, बता? मैं न मदद करता, तो आज उनकी क्या गति होती, सोच। इतना सब करने पर भी तो मँगरू ने उस पर नालिश कर ही दी। ‘

‘ रुपए गाड़कर रखेगी तो क्या नालिश न होगी?’

‘क्या बकती है। खेती से पेट चल जाय यही बहुत है। गाड़कर कोई क्या रखेगा। ‘

‘ हीरा तो जैसे संसार ही से चला गया। ‘

‘मेरा मन तो कहता है कि वह आवेगा, कभी न कभी ज़रूर। ‘

दोनों सोये। होरी अँधेरे मुँह उठा तो देखता है कि हीरा सामने खड़ा है, बाल बढ़े हुए, कपड़े तार-तार, मुँह सूखा हुआ, देह में रक्त और मांस का नाम नहीं, जैसे क़द भी छोटा हो गया है। दौड़कर होरी के क़दमों पर गिर पड़ा। होरी ने उसे छाती से लगाकर कहा — तुम तो बिलकुल घुल गये हीरा! कब आये? आज तुम्हारी बार-बार याद आ रही थी। बीमार हो क्या? आज उसकी आँखों में वह हीरा न था जिसने उसकी ज़िन्दगी तल्ख़ कर दी थी, बल्कि वह हीरा था, जो बे-माँ-बाप का छोटा-सा बालक था। बीच के ये पचीस-तीस साल जैसे मिट गये, उनका कोई चिन्ह भी नहीं था। हीरा ने कुछ जवाब न दिया। खड़ा रो रहा था। होरी ने उसका हाथ पकड़कर गढगढ कंठ से कहा — क्यों रोते हो भैया, आदमी से भूल-चूल होती ही है। कहाँ रहा इतने दिन? हीरा कातर स्वर में बोला — कहाँ बताऊँ दादा! बस यही समझ लो कि तुम्हारे दर्शन बदे थे, बच गया। हत्या सिर पर सवार थी। ऐसा लगता था कि वह गऊ मेरे सामने खड़ी है; हरदम, सोते-जागते, कभी आँखों से ओझल न होती। मैं पागल हो गया और पाँच साल पागल-खाने में रहा। आज वहाँ से निकले छः महीने हुए। माँगता-खाता फिरता रहा। यहाँ आने की हिम्मत न पड़ती थी। संसार को कौन मुँह दिखाऊँगा। आख़िर जी न माना। कलेजा मज़बूत करके चला आया। तुमने बाल-बच्चों को..। होरी ने बात काटी — तुम नाहक़ भागे। अरे, दारोग़ा को दस-पाँच देकर मामला रफ़े-दफ़े करा दिया जाता और होता क्या?
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Old 11-01-2011, 07:38 AM   #265
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तुमसे जीते-जी उरिन न हूँगा दादा। ‘

‘ मैं कोई ग़ैर थोड़े हूँ भैया। ‘

होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट, सारी निराशाएँ मानो उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता है जीवन संग्राम में वह हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुलक क्या हार के लक्षण हैं! इन्हीं हारों में उसकी विजय है। उसके टूटे-फूटे अस्त्र उसकी विजय-पताकाएँ हैं। उसकी छाती फूल उठी हैं, मुख पर तेज आ गया है। हीरा की कृतज्ञता में उसके जीवन की सारी सफलता मूर्तिमान हो गयी है। उसके बखार में सौ-दो-सौ मन अनाज भरा होता, उसकी हाँड़ी में हज़ार-पाँच सौ गड़े होते, पर उससे यह स्वर्ग का सुख क्या मिल सकता था? हीरा ने उसे सिर से पाँव तक देखकर कहा — तुम भी तो बहुत दुबले हो गये दादा! होरी ने हँसकर कहा — तो क्या यह मेरे मोटे होने के दिन हैं? मोटे वह होते हैं, जिन्हें न रिन की सोच होता है, न इज़्ज़त का। इस ज़माने में मोटा होना बेहयाई है। सौ को दुबला करके तब एक मोटा होता है। ऐसे मोटेपन में क्या सुख? सुख तो जब है, कि सभी मोटे हों। सोभा से भेंट हुई?

‘ उससे तो रात को भेंट हो गयी थी। तुमने तो अपनों को भी पाला, जो तुमसे बैर करते थे, उनको भी पाला और अपना मरजाद बनाये बैठे हो। उसने तो खेत-बारी सब बेच-बाच डाली और अब भगवान् ही जाने उसका निबाह कैसे होगा? ‘ आज होरी खुदाई करने चला, तो देह भारी थी। रात की थकान दूर न हो पाई थी; पर उसके क़दम तेज़ थे और चाल में निर्द्वंद्वता की अकड़ थी। आज दस बजे ही से लू चलने लगी और दोपहर होते-होते तो आग बरस रही थी। होरी कंकड़ के झौवे उठा-उठाकर खदान से सड़क पर लाता था और गाड़ी पर लादता था। जब दोपहर की छुट्टी हुई, तो वह बेदम हो गया था। ऐसी थकन उसे कभी न हुई थी। उसके पाँव तक न उठते थे। देह भीतर से झुलसी जा रही थी। उसने न स्नान ही किया, न चबेना। उसी थकन में अपना अँगोछा बिछाकर एक पेड़ के नीचे सो रहा; मगर प्यास के मारे कंठ सूखा जाता है। ख़ाली पेट पानी पीना ठीक नहीं। उसने प्यास को रोकने की चेष्टा की; लेकिन प्रतिक्षण भीतर की दाह बढ़ती जाती थी। न रहा गया। एक मज़दूर ने बाल्टी भर रखी थी और चबेना कर रहा था। होरी ने उठकर एक लोटा पानी खींचकर पिया और फिर आकर लेट रहा; मगर आधा घंटे में उसे क़ै हो गयी और चेहरे पर मुर्दनी-सी छा गयी। उस मज़दूर ने कहा — कैसा जी है होरी भैया? होरी के सिर में चक्कर आ रहा था। बोला — कुछ नहीं, अच्छा हूँ। यह कहते-कहते उसे फिर क़ै हुई और हाथ-पाँव ठंडे होने लगे। यह सिर में चक्कर क्यों आ रहा है? आँखों के सामने जैसे अँधेरा छाया जाता है। उसकी आँखें बन्द हो गयीं और जीवन की सारी स्मृतियाँ सजीव होरूहोकर हृदय-पट पर आने लगीं; लेकिन बेक्रम, आगे की पीछे, पीछे की आगे, स्वप्न-चित्रों की भाँति बेमेल, विकृत और असम्बद्ध। वह सुखद बालपन आया जब वह गुल्लियाँ खेलता था और माँ की गोद में सोता था। फिर देखा, जैसे गोबर आया है और उसके पैरों पर गिर रहा है। फिर दृश्य बदला, धनिया दुलहिन बनी हुई, लाल चुँदरी पहने उसको भोजन करा रही थी। फिर एक गाय का चित्र सामने आया, बिलकुल कामधेनु-सी। उसने उसका दूध दुहा और मंगल को पिला रहा था कि गाय एक देवी बन गयी और ..। उसी मज़दूर ने फिर पुकारा — दोपहरी ढल गयी होरी, चलो झौवा उठाओ। होरी कुछ न बोला। उसके प्राण तो न जाने किस-किस लोक में उड़ रहे थे। उसकी देह जल रही थी, हाथ-पाँव ठंडे हो रहे थे। लू लग गयी थी। उसके घर आदमी दौड़ाया गया। एक घंटा में धनिया दौड़ी हुई आ पहुँची। शोभा और हीरा पीछे-पीछे खटोले की डोली बनाकर ला रहे थे। धनिया ने होरी की देह छुई, तो उसका कलेजा सन से हो गया। मुख काँतिहीन हो गया
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था। काँपती हुई आवाज़ से बोली — कैसा जी है तुम्हारा? होरी ने अस्थिर आँखों से देखा और बोला — तुम आ गये गोबर? मैंने मंगल के लिये गाय ले ली है। वह खड़ी है, देखो। धनिया ने मौत की सूरत देखी थी। उसे पहचानती थी। उसे दबे पाँव आते भी देखा था, आँधी की तरह भी देखा था। उसके सामने सास मरी, ससुर मरा, अपने दो बालक मरे, गाँव के पचासों आदमी मरे। प्राण में एक धक्का-सा लगा। वह आधार जिस पर जीवन टिका हुआ था, जैसे खिसका जा रहा था, लेकिन नहीं यह धैर्य का समय है, उसकी शंका निमूर्ल है, लू लग गयी है, उसी से अचेत हो गये हैं। उमड़ते हुए आँसुओं को रोककर बोली — मेरी ओर देखो, मैं हूँ, क्या मुझे नहीं पहचानते, होरी की चेतना लौटी। मृत्यु समीप आ गयी थी; आग दहकनेवाली थी। धुँआँ शान्त हो गया था। धनिया को दीन आँखों से देखा, दोनों कोनों से आँसू की दो बूँदें ढुलक पड़ी। क्षीण स्वर में बोला — मेरा कहा सुना माफ़ करना धनियाँ! अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गयी। अब तो यहाँ के रुपए क्रिया-करम में जायँगे। रो मत धनिया, अब कब तक जिलायेगी? सब दुर्दशा तो हो गयी। अब मरने दे। और उसकी आँखें फिर बन्द हो गयीं। उसी वक़्त हीरा और शोभा डोली लेकर पहुँच गये। होरी को उठाकर डोली में लिटाया और गाँव की ओर चले। गाँव में यह ख़बर हवा की तरह फैल गयी। सारा गाँव जमा हो गया। होरी खाट पर पड़ा शायद सब कुछ देखता था, सब कुछ समझता था; पर ज़बान बन्द हो गयी थी। हाँ, उसकी आँखों से बहते हुए आँसू बतला रहे थे कि मोह का बन्धन तोड़ना कितना कठिन हो रहा है। जो कुछ अपने से नहीं बन पड़ा, उसी के दुःख का नाम तो मोह है। पाले हुए कर्तव्य और निपटाये हुए कामों का क्या मोह! मोह तो उन अनाथों को छोड़ जाने में है, जिनके साथ हम अपना कर्तव्य न निभा सके; उन अधूरे मंसूबों में है, जिन्हें हम न पूरा कर सके। मगर सब कुछ समझकर भी धनिया आशा की मिटती हुई छाया को पकड़े हुए थी। आँखों से आँसू गिर रहे थे, मगर यन्त्र की भाँति दौड़-दौड़कर कभी आम भूनकर पना बनाती, कभी होरी की देह में गेहूँ की भूसी की मालिश करती। क्या करे, पैसे नहीं हैं, नहीं किसी को भेजकर डाक्टर बुलाती। हीरा ने रोते हुए कहा — भाभी, दिल कड़ा करो, गो-दान करा दो, दादा चले। धनिया ने उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देखा। अब वह दिल को और कितना कठोर करे? अपने पति के प्रति उसका जो कर्म है, क्या वह उसको बताना पड़ेगा? जो जीवन का संगी था उसके नाम को रोना ही क्या उसका धर्म है? और कई आवाज़ें आयीं — हाँ गो-दान करा दो, अब यही समय है। धनिया यन्त्र की भाँति उठी, आज जो सुतली बेची थी उसके बीस आने पैसे लायी और पति के ठंडे हाथ में रखकर सामने खड़े दातादीन से बोली — महराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गो-दान है। और पछाड़ खाकर गिर पड़ी।
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Old 11-01-2011, 07:40 AM   #267
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~!!समाप्त!!~
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