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![]() भारत प्रेमी फादर कामिल बुल्के के सम्मान में श्रीयुत हरिवंश राय बच्चन के उदगार फादर बुल्के तुम्हें प्रणाम !
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 29-09-2014 at 02:37 PM. |
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इमरजेंसी में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारनामे
सोशल नेटवर्किंग साइट्स की पहुँच बिजली की रफ़्तार से बढ़ी है. कई व्यक्तियों, संस्थाओं व सरकारों ने इसके दुरुपयोग के विरुद्ध समय समय पर आवाज उठाई है और अदालतों का दरवाजा भी खटकाया है. लेकिन फेसबुक से जुड़ी कुछ घटनायें ऐसी हैं जिनके बारे में पढ़ने के बाद हम इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स की उपयोगिता के बारे में सोचने के लिए मजबूर हो जायेंगे. हम अपने दोस्तों को एक आश्चर्यजनक घटना के बारे में बताना चाहते हैं. घटना 2009 की है और ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड नामक स्थान की है. घटना इस प्रकार है. सन 2009 में स्कूल के एक विद्यार्थी ने खुदकुशी का प्रयास किया था. खुदकुशी से ऐन पहले उसने अपने फेसबुक अकाउंट पर लिखा – मैं बहुत दूर जा रहा हूँ. लोग मेरी खोज करेंगे.
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इमरजेंसी में सोशल नेटवर्किंग साइट्स के कारनामे
अमरीका में रहने वाली उसकी ऑनलाइन फ्रेंड ने उसके इस सन्देश को पढ़ा. उसे नहीं पता था कि उसका यह मित्र ब्रिटेन में कहाँ रहता है. उस लड़की ने अपनी माँ को इस बारे में सूचित किया. माँ ने मेरीलैंड स्थित पुलिस विभाग को सूचित किया. यहाँ की पुलिस ने व्हाइट हाउस के स्पेशल एजेंट से संपर्क किया. उसने वाशिंगटन स्थित ब्रिटिश दूतावास से बात की. उन्होंने ब्रिटेन की मेट्रोपोलिटन पुलिस से संपर्क किया जिसने उस छात्र के घर का पता लगाया और टेम्ज़ वैली जगह के पुलिस अधिकारी उसके घर पहुँच गए. उस लड़के ने नींद की काफी गोलियाँ खा ली थीं. पुलिस ने उसे अविलंब अस्पताल पहुंचाया जहाँ उसकी जान बच गई. इसी प्रकार की एक घटना भारत में भी सामने आयी. यहाँ मुंबई में डोम्बिवली में रहने वाले माधव करंदीकर के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. करंदीकर स्कूल के रिटायर्ड चौकीदार थे जिनका एक्सीडेंट हो गया था. वह सीढ़ियों से फिसल गए और उनके दोनों पैरों में फ्रेक्चर हो गया. डॉक्टरों ने इलाज के लिए लगभग दो लाख का खर्चाबताया. उन्हें कुल 4000 रूपए मासिक पेंशन मिलती थी. अब क्या किया जाये. उनके स्कूल के छात्रों को पता चला तो वे सहायता के लिए सामने आये. उन्होंने अपने करंदीकर काका की सहायता के लिए इलाज की रकम जुटाने के लिए फेसबुक पर सहायता की अपील जारी की. 15 दिन के अन्दर ही आवश्यक राशि जमा हो गयी और माधव करन्जीकर का इलाज संभव हो सका. इसके अलावा, प्राकृतिक आपदाओं के समय भी हर प्रकार की सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने उल्लेखनीय काम किया है जिसके बारे में समय समय पर मीडिया में पढने सुनने को मिलता रहता है. **
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फेसबुक का पॉजिटिव ,एक बेहतरीन जानकारी
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सोशल नेटवर्किंग साइट्स के पॉजिटिव पक्ष की चर्चा होनी भी जरुरी है. धन्यवाद, रफीक जी.
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मन्नू भंडारी > पहली कहानी का थ्रिल व रोमाँच
वरिष्ठ कथाकार मन्नू भंडारी
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![]() मन्नू भंडारी तथा उनकी कहानी पर आधारित फिल्म 'रजनीगंधा' का एक दृष्य श्री मोहन सिंह सेंगर उस समय “नया समाज” का सम्पादन कर रहे थे और सप्ताह में तीन-चार दिन शाम को बहन जी-जीजा जी के यहाँ आते थे. फिर ये लोग बाहर जा कर शाम साथ ही गुजारते थे. लेकिन जाने कैसा संकोच और दुविधा थी कि इस पर कभी बात करने की हिम्मत ही नहीं हुयी. लेकिन लिखी हुयी कहानी चैन भी नहीं लेने दे रही थी. आखिर सारे संकोच को दूर कर के मैंने उसे “कहानी” पत्रिका में भेज दिया श्यामू सन्यासी के पास. काफी दिनों बाद भैरव प्रसाद गुप्त की प्रशंसा में लिपटी स्वीकृति मिली. पत्रिका में छपी अपनी पहली कहानी को देखना भीतर तक थरथरा देने वाले रोमांचक अनुभव से गुज़रना था. वैसा थ्रिल, वैसा रोमांच तो उसके बाद मैंने कभी महसूस ही नहीं किया, जबकि कहीं बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण अवसर आये.
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![]() अपनी कहानी पर बनी पहली फिल्म “रजनीगंधा”, उसके ‘सिल्वर जुबली’ समारोह में शिरकत ... ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप से छपते समय उपन्यास “आपका बंटी” पर पाठकों की गुदगुदाती व्यापक प्रतिक्रियाएं ... “महाभोज” का अविस्मरणीय मंचन और सभी अखबारों में उसकी रिव्यूज़ ... लेकिन नहीं, वैसा अनुभव फिर कभी नहीं हुआ. आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है की कैसे कहानी जब तक पन्नों पर लिखी रही थी, न जाने कितने अगर-मगर, दुविधा-संकोच,झिझक मन को घेरे रहे थे ... विश्वास ही नहीं होता था कि जो कुछ लिखा है, वह किसी लायक भी है, लेकिन छाप कर आते ही मन आत्म-विश्वास से भर उठा. मुझे लगने लगा जैसे मेरी कहानी ही नहीं, मैं स्वीकृत हुई हूँ, मेरा अपना वजूद स्वीकृत हुआ है – अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान बनाता हुआ वजूद.
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हमारे डाकिया बाबू
चित्र गूगल के सौजन्य से यह सन 1963 - 64 के आसपास की बात है. उस समय मैं करीब 12 -13 साल का था. उन दिनों हम उत्तर प्रदेश, जिला बिजनौर के नजीबाबाद (NAJIBABAD) नामक स्थान में रहते थे. गर्मियों की छुट्टियों के दौरान मेरा एक खब्त होता था पोस्ट ऑफिस जा कर अपने घर की डाक ले कर आना. उन दिनों चिट्ठियों का आदान प्रदान भी काफी हुआ करता था. शायद ही कोई दिन ऐसा गुज़रता होगा कि जब हमारी कोई चिट्ठी पत्री नहीं आती थी. सो, उन दिनों मेरा रूटीन यह होता था कि सुबह तैयार हो कर 10 बजे के लगभग मैं GPO (मुख्य डाकघर) चला जाता था. पोस्ट ऑफिस हमारे घर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर था और मैं वहां पैदल ही जाया करता था. सुबह के उस समय तक पोस्ट ऑफिस में डाक को छांट लिया जाता था और वितरण के लिये सम्बंधित डाकिये को सौंप दिया जाता था.
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हमारे डाकिया बाबू
डाकिया बाबू उस डाक को अपने रूट के हिसाब से व्यवस्थित कर लेते थे ताकि सबसे नज़दीक के मकान में जो चिट्ठी देनी है वह सबसे ऊपर रखी हुई मिल जाये. इसी प्रकार जितनी दूर मकान होता था चिट्ठियों के बंडल में उतनी ही नीचे उसमें वितरित की जाने वाली चिट्ठी रखी जाती थी. हर जगह और लगभग हर पोस्ट ऑफिस में यही नियम अपनाया जाता था, बल्कि आजतक यही व्यवस्था जारी है. इस बीच, डाक वितरण के लिए बाहर निकलने से पहले तक, डाकिया बाबू काउंटर पर अपने नियत स्थान पर मिल जाते थे. हमारे इलाके के डाकिया बाबू लगभग 40 वर्ष के थे, लम्बे लम्बे बाल और दाड़ी रखते थे. रोज मिलते रहने के कारण वह मुझे पहचानते थे. जैसे ही मैं उनके सामने पहुँचता, वे डाक के बण्डल में से हमारी डाक निकाल कर मुझे पकड़ा दिया करते थे. मुझे नहीं पता कि वे आज कहाँ पर होंगे और किस हाल में होंगे ? जीवित भी हैं या नहीं ? मुझे उनका नाम तक याद नहीं है लेकिन आज भी उनका चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है तो उनके प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है.
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