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Old 01-12-2012, 10:15 AM   #261
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परन्तु फुरने अफुरने में ब्रह्म ज्योंका त्यों है | जैसे स्पन्द और निस्पन्द में वायु ज्यों की त्यों है और सब पदार्थ जो भासते हैं सो ब्रह्मस्वरूप हैं | जैसे स्वप्ने में अपना ही अनुभव पहाड़, वृक्ष आदिक नाना प्रकार का जगत् हो भासता है तैसे ही ब्रह्मसत्ता ही जाग्रत् जगत््रूप भासती है और वही कहीं अन्तवाहक कहीं आधिभौतिक, कहीं ईश्वर और कहीं जीव आदि हो भासता है इससे आदि लेकर शब्द अर्थसंयुक्त जो जीव फुरता गया है सो ब्रह्मसत्ता ही इस प्रकार स्थित हुई है | जैसे थम्भे में पुतलियाँ थम्भरूप होती हैं, तैसे ही आत्माकाश में जगत् आत्मरूप है-आत्मा से भिन्न कुछ नहीं | जैसे उसमें जगत् आभास है, तैसे ही स्मृति अनुभव भी आभास है |
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है।
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Old 01-12-2012, 10:15 AM   #262
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स्मृति जो संस्कार है उससे जगत् की उत्पत्ति तब कहिये जब स्मृति आभास न हो सो स्मृति संस्कार भी आभास है यह जगत् का कारण कैसे हो? स्मृति भी तब होती है जब प्रथम जगत् होता है सो जगत् नहीं तो स्मृति कैसे हो? इससे आभासमात्र है और इसका कारण कोई नहीं | हे रामजी! स्मृति संस्कार जगत् का कारण तब हो जब कुछ जगत् आगे हुआ हो सो तो कुछ हुआ नहीं और अनुभव उसका होता है जो पदार्थ भासता है सो तो इस जगत् के आदि कुछ जगत् का अंश न था फिर अनुभव कैसे कहूँ? जो अनुभव ही न हुआ तो स्मृति किसको हो और जब स्मृति ही न हुई हो तो उससे जगत् कैसे कहूँ? इसलिये हे रामजी! आदि जगत् अकारण अकस्मात् फुरा है |
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Old 01-12-2012, 10:16 AM   #263
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की लाट होती है तैसे ही जगत् है और पीछे से कारण कार्यरूप भासता है | इससे हे रामजी! जिसका कारण कोई न हो उसे जानिये कि उपजा नहीं जिसमें भासता है वही रूप है अधिष्ठान से भिन्न कुछ नहीं | सब जगत् ब्रह्मस्वरूप है, स्मृति भी भ्रम में आभास फुरा है और अनु भव भी आभास है सो ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं और आभास भी कुछ फुरा नहीं, आभास की नाईं जगत् भासता है- आत्मसत्ता अद्वैत है जिसमें आभास, स्मृति,अनुभव, जाग्रत् और स्वप्न कल्पना कुछ नहीं तो क्या है? ब्रह्म ही है फुरना जो कुछ कहते हैं सो कुछ वस्तु नहीं | जैसे थम्भे में शिल्पी पुतलियाँ कल्पता है, तैसे ही स्पन्द चैतन्य आत्मा में जगत् कल्पती है | शिल्पी तो आप भिन्न होकर कल्पता है और यह चित्सत्ता ऐसी है कि अपने ही स्वरूप में कल्पती है और जगत््रूपी पुतलियाँ देखती है | आत्मा आकाशरूपी थम्भ है उसमें जगत् भी आकाशरूपी पुतलियाँ हैं |
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Old 01-12-2012, 10:18 AM   #264
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जैसे आकाश अपने आकाशभाव में स्थित है, तैसे ही ब्रह्म अपने ब्रह्मत्व भाव में स्थित है | जगत् भिन्न भी दृष्टि आता है परन्तु अचैत चिन्मात्रस्वरूप है भेदभाव को नहीं प्राप्त हुआ और विकारवान् भी दृष्टि आता है परन्तु विकार नहीं हुआ | जैसे स्वप्ने में आपही सब स्पष्ट भासते हैं, तैसे ही यह जगत् अपने आपमें भासता है परन्तु कुछ नहीं है | हे रामजी! यही आश्चर्य है कि मैंने अपने अनुभव को प्रकट करके उपदेश किया है, जीव आप भी जानते हैं स्वप्ने में नित्य देखते हैं और सुनते भी है परन्तु निश्चय करके जान नहीं सकते और स्वप्ने के पदार्थों को मूर्खता से त्याग नहीं सकते |
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Old 01-12-2012, 10:18 AM   #265
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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जो पुरुष इन्द्रियों के इष्ट विषयों को पाकर सुख नहीं मानता और अनिष्ट विषयों को पाकर दुःख नहीं मानता , इनके भ्रम से मुक्त है और बड़े भोग प्राप्त हों तो भी अपने स्वरूप से चलायमान नहीं होता उसको जीवन्मुक्त जानो | हे रामजी! सर्वशब्द अर्थ जिसको द्वैतरूप नहीं भासते उसे तुम जीवन्मुक्त जानो | जिस अविद्यारूपी जाग्रत् में अज्ञानी जागते हैं उसमें ज्ञानवान् सो रहे हैं और परमार्थ रूपी जाग्रत् में अज्ञानी सो रहे हैं वे नहीं जानते कि परमार्थ क्या हैं? परन्तु उसमें जीवन्मुक्त स्थित है इस कारण ज्ञानवान् अनिष्ट विषयों को पाकर सुखी और दुःखी नहीं होते उनका चित्त सदा आत्मपद में स्थित है | रामजी ने पूछा, हे भगवन्! जो पुरुष सुख पाकर सुखी नहीं होता और दुःख से दुःखी नहीं होता सो तो जड़ हुआ, चैतन्य तो न हुआ?
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Old 01-12-2012, 10:35 AM   #266
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जीवन्मुक्त लक्षणवर्णन
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Old 01-12-2012, 11:38 AM   #267
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वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा विपश्चित् समुद्र के पार जा पहुँचा तब उसके साथ जो मन्त्री पहुँचे थे उन्होंने राजा को सब स्थान दिखाये जो बड़े गम्भीर थे बड़े गम्भीर समुद्र जो पृथ्वी के चहुँ फेर वेष्टित थे वह भी दिखाये और बड़े-बड़े तमालवृक्ष, बावलियाँ, पर्वतों की कन्दरा, तालाब और नाना प्रकार के स्थान दिखाये | ऐसे स्थान राजा को मन्त्री ने दिखाकर कहा, हे राजन्! तीन पदार्थ बड़े अनर्थ और परम सार के कारण हैं-एक तो लक्ष्मी, दूसरा आरोग्य देह और तीसरा यौवनावस्था |
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Old 01-12-2012, 11:38 AM   #268
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जो पापी जीव हैं वे लक्ष्मी को पाप में लगाते हैं, देह आरोग्यता से विषय सेवते हैं और यौवन अवस्था में भी सुकृत नहीं करते, पाप ही करते हैं और जो पुण्यवान् हैं वे मोक्ष में लगाते हैं अर्थात् लक्ष्मी से यज्ञादिक शुभकर्म और आरोग्य से परमार्थ साधते हैं और यौवन अवस्था में भी शुभकर्म करते हैं-पाप नहीं करते | हे रामजी! जैसे समुद्र और पर्वत के किसी ठौर में रत्न होते हैं और किसी ठौर में दर्दुर होते हैं, तैसे ही संसाररूपी समुद्र में कहीं रत्नों की नाईं ज्ञानवान् होते हैं और कहीं अज्ञाननरूपी दर्दुर होते हैं | हे राजन्! यह समुद्र मानो जीवन्मुक्त है क्योंकि जल से भी मर्यादा नहीं छोड़ता और रागद्वेष से रहित है |
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किसी स्थान में दैत्य रहते हैं, कहीं पंखोंसंयुक्त पर्वत, कहीं बड़वाग्नि और कहीं रत्न हैं परन्तु समुद्र को न किसी स्थान में राग है, न द्वेष हे | जैसे ज्ञानवान् को किसी में रागद्वेष नहीं होता परन्तु सबमें ज्ञानवान् कोई बिरला होता है | जैसे जिस सीपी और बाँस से मोती निकलते हैं सो बिरले ही होते हैं, तैसे ही तत्त्वदर्शी ज्ञानवान् कोई बिरला होता है हे रामजी! सम्पूर्ण रचना यहाँ की देखो कि कैसे पर्वत हैं जिनके किसी स्थान में पक्षी रहते हैं, किसी स्थान में विद्याधर रहते हैं, कहीं देवियाँ विलास करती हैं,
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Old 01-12-2012, 11:38 AM   #270
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कहीं योगी रहते हैं और कहीं ऋषीश्वर, मुनीश्वर, कहीं ब्रह्मचारी, वैरागी आदिक पुरुष रहते हैं | यह द्वीप है और सात समुद्र हैं जिनके बड़े तरंग उछलते हैं और पर्वत का कौतुक और आकाश, चन्द्रमा, सूर्य, तारे, ऋषि, मुनि, को देखो और देखो कि सबको आकाश ठौर दे रहा है पर महापुरुष कि नाईं आप सदा असंग रहता है और शुभ-अशुभ दोनों में तुल्य है | स्वर्गादिक शुभस्थान हैं और चाण्डाल पापी नरकस्थान और अपवित्र है परन्तु आकाश दोनों में तुल्य है- असंगता से निर्विकार है |
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