![]() |
#261 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]() डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में कहा, “इसका कारण यह है कि इस समस्या पर पहले ही विचार हो चुका है भारती, जिस दिन से मैंने क्रांतिकारी कामों में भाग लिया है। अब मुझे कुछ सोचना भी नहीं है, शिकायत भी नहीं है। मैं जानता हूं कि मुझे हाथ में पाकर भी जो राजशक्ति मुझे छोड़ देती है, वह तो असमर्थ है या फिर उनके पास फांसी देने के लिए रस्सी नहीं है।” भारती बोली, “इसीलिए तो मैं तुम्हारे साथ रहना चाहती हूं, भैया। मेरे होते हुए तुम्हारे प्राण ले सके, ऐसी शक्ति संसार में कोई भी नहीं है। यह मैं किसी भी तरह नहीं होने दूंगी।”-कहते-कहते उसकी आवाज भारी हो उठी। डॉक्टर को इसका पता चल गया। चुपचाप लम्बी सांस लेकर वह बोले, “नाव पर अब ज्वार लग रहा है भारती। अब हमें पहुंचने में देर नहीं होगी।” भारती बोली, “हटाओ। जाने दो। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा।” दो मिनट के बाद उसने पूछा, “इतनी बड़ी राजशक्ति को तुम लोग शारीरिक शक्ति से हिलाकर गिरा सकते हो-इस बात में क्या तुम सचमुच ही विश्वास करते हो भैया?” डॉक्टर बोले, “करता हूं और पूरे हृदय से करता हूं। इतना बड़ा विश्वास न रहता तो मेरा इतना बड़ा व्रत बहुत दिन पहले ही भंग हो गया होता।” भारती बोली, “लेकिन शायद धीरे-धीरे अपने कामों में से तुम मुझे निकालते जा रहे हो। ठीक है न भैया?” डॉक्टर मुस्कराते हुए बोले, “नहीं ऐसी बात नहीं है भारती, लेकिन विश्वास ही तो शक्ति है। विश्वास न रहने से तो संदेह के कारण तुम्हारा कर्त्तव्य कदम-कदम पर बोझ-सा हो उठेगा। संसार में तुम्हारे लिए दूसरे काम हैं बहिन। कल्याणकारी शांतिपूर्ण मार्ग हैं जिस पर तुम अपने सम्पूर्ण हृदय से विश्वास करती हो उसी काम को तुम करो।”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#262 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
अगाध स्नेह के कारण ही यह व्यक्ति अपने अत्यंत संकटपूर्ण विप्लव के मार्ग से दूर हटा देना चाहता है। इसका भली-भांति अनुभव करके भारती की सजल आंखों से आंसू उमड़ पडे। छिपाकर अंधेरे में धीरे-धीरे आंसू पोंछकर बोली, “भैया, मेरी बात सुनकर नाराज मत होना। इतनी बड़ी राज-शक्ति, कितनी बड़ी सैन्य-शक्ति, कितने उपकरण, युध्द का कितना विचित्र और भयानक आयोजन- इनके सामने तुम्हारा क्रांतिकारी दल कितना-सा है? समुद्र के सामने तुम गोबरैले से भी तो छोटे हो। उसके साथ तुम अपनी शक्ति की परीक्षा किस प्रकार करना चाहते हो? प्राण देना चाहते हो तो जाकर दे दो। लेकिन इससे बड़ा पागलपन मुझे और कोई दिखाई नहीं देता। तुम कहोगे, तब क्या देश का उध्दार नहीं होगा? प्राणों के भय से क्या अलग हटकर खड़ा हो जाऊं? लेकिन मैं यह नहीं कह रही हूं, तुम्हारे पास रहकर तुम्हारे चरित्र से मैं यह जान गई हूं-कि जननी जन्म-भूमि क्या चीज है। उसके चरणों से सर्वस्व अर्पण कर सकने से बढ़कर सार्थकता मनुष्य के लिए और नहीं हो सकती। यह बात भी अगर तुमको देखकर मैं न सीख सकी होऊं तो मुझसे बढ़कर किसी अधम नारी ने जन्म ही नहीं लिया, यह मानना पड़ेगा। लेकिन केवल आत्म-हत्या करके ही कब कौन देश स्वतंत्र हुआ है। तुम्हारी भारती किसी तरह केवल जीवित रहना चाहती है। इतनी बड़ी गलत धारणा मेरे संबंध में कभी मत रखना, भैया।”
डॉक्टर बोले, “ऐसी ही बात है।” “ऐसी ही बात क्या?” “तुम्हारे संबंध में गलती तो हुई ही है,” यह कहकर कुछ देर के लिए डॉक्टर मौन हो गए। फिर बोले, “भारती, विप्लव का अर्थ है- अत्यंत शीघ्रता से आमूल परिवर्तन। सैन्य बल, विराट युध्द के उपकरण, यह सब मैं जानता हूं। लेकिन शक्ति-परीक्षा तो हम लोगों का लक्ष्य नहीं है। आज जो लोग हमारे शत्रु हैं कल वह ही लोग मित्र भी हो सकते हैं। नीलकांत शक्ति परीक्षण के लिए नहीं गया था, उसने मित्र बनाने के लिए प्राण दिए थे। हाय रे नीलकांत! आज कोई उसका नाम तक नहीं जानता।” अंधकार के बीच भी भारती ने स्पष्ट रूप से समझ लिया कि देश के बाहर, देश के काम में जिस लड़के ने लोगों की नजरों से बचकर चुपचाप प्राण दे दिए उसे याद करके इस निर्विकार अत्यधिक-संयत व्यक्ति का गम्भीर हृदय पल भर के लिए आलोड़ित हो उठा है। अचानक वह सीधे होकर बैठ गए। बोले, “क्या कह रही थी भारती, गोबरैला? ऐसा ही हो शायद। लेकिन आग की जो चिनगारी गांव-नगर जलाकर भस्म कर देती है वह आकार में कितनी बड़ी होती है? जानती हो? शहर जब जलता है तब वह अपना ईंधन आप ही इकट्ठा करके भस्म होता रहता है। उसके राख होने की सामग्री उसी के अंदर संचित रहती है। विश्व-विध्न के इस नियम का कोई भी राज-शक्ति कभी भी व्यतिक्रम नहीं कर सकती।”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#263 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
भारती बोली, “भैया तुम्हारी बात सुनने से शरीर कांपने लगता है। जिस राज-शक्ति को तुम जला देना चाहते हो, उसका ईंधन तो हमारे देश के लोग हैं। इतने बड़े लंका कांड की कल्पना करते हुए क्या तुम्हारे मन में करुणा नहीं जागती?”
डॉक्टर ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “नहीं। प्रायश्चित शब्द क्या केवल मुंह से कहने के लिए ही है? हमारे पूर्वज-पितामहों के युगों से संचित किए गए पापों को अपरिमेय स्तूप कैसे समाप्त होगा-बता सकती हो? करुणा की अपेक्षा न्याय-धर्म बहुत बड़ी चीज है भारती।” भारती बोली, “यहां तुम्हारी पुरानी बात है भैया। भारत की स्वतंत्रता के संबंध में रक्तपात के अतिरिक्त और कुछ जैसे तुम्हारे मन में आ ही नहीं सकता, रक्तपात का उत्तर क्या रक्तपात ही हो सकता है? और उसके उत्तर में भी तो रक्तपात के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। यह प्रश्नोत्तार तो आदम काल से ही होता चला आ रहा है। तब क्या मानव सभ्यता इससे बड़ा उत्तर किसी दिन दे नहीं सकेगी? देश चला गया। लेकिन उससे भी बड़ा जो मनुष्य है वह तो आज भी मौजूद है। मनुष्य-मनुष्य के साथ आपस में लड़ाई-झगड़ा न करके क्या किसी तरह रह नहीं सकते?” डॉक्टर बोले, “एक अंग्रेज कवि ने कहा है कि पश्चिम और पूर्व किसी दिन भी नहीं मिल सकते।” भारती बोली, “मूर्ख है वह कवि। कहने दो उसे। तुम ज्ञानी हो। तुमसे मैंने अनेक बार पूछा है, आज भी पूछा रही हूं। होने दो उन्हें पश्चिम या योरोप का मनुष्य। लेकिन है तो वह मनुष्य ही? मनुष्य के साथ मनुष्य क्या किसी प्रकार भी मित्रता नहीं कर सकता। भैया, मैं ईसाई हूं। अंग्रेजों की ऋणी हूं। उनके अनेक सद्गुण मैंने देखे हैं। उन लोगों को इतना बुरा सोचने पर मेरी छाती में शूल-सा बिंध जाता है। लेकिन मुझे गलत मत समझना भैया। मैं बंगाली लड़की हूं। तुम्हारी बहिन हूं। बंगाल की मिट्टी और बंगाल के मनुष्यों को अपने प्राणों से बढ़कर प्यार करती हूं। कौन जानता है, तुमने जिस जीवन को चुन लिया है, उसे देखते हुए शायद आज ही हम लोगों की अंतिम भेंट हो। शांत मन से आज उत्तर देते जाओ जिससे उसी ओर दृष्टि रखकर जीवन भर नजर उठाकर सीधी चल सकूं,” कहते-कहते उसका गला रुंध गया। डॉक्टर चुपचाप नाव खेते रहे। विलम्ब देखकर भारती के मन में यह विचार आया कि शायद वह इसका उत्तर नहीं देना चाहते। उसने हाथ बढ़ाकर नदी के पानी से मुंह धो डाला। अपने आंचल से अच्छी तरह पोंछकर फिर न मालूम वह क्या प्रश्न करने जा रही थी कि डॉक्टर बोल उठे, “एक तरह के ऐसे सांप होते हैं भारती, जो सांप खाकर ही जीते हैं। तुमने देखे हैं?”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#264 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
भारती ने कहा, “नहीं, देखे नहीं। केवल सुना है।”
डॉक्टर बोले, “पशुशाला में हैं। एक बार कलकत्ते जाकर अपूर्व को आदेश देना, वह दिखा देगा।” “मजाक मत करो भैया, अच्छा नहीं होगा।” “अच्छा नहीं होगा, मैं भी यही कह रहा हूं। उनका पास-पास रहना ठीक नहीं होता, लेकिन विश्वास न हो तो चिड़िया घर के इंचार्ज से पूछ लेना।” भारती चुप ही रही। डॉक्टर बोले, “तुम उन लोगों के धर्म को मानती हो। उनकी ऋणी हो। उनके अनेक सद्गुण तुमने अपनी आंखों से देखे हैं। लेकिन क्या तुमने देखा है उनकी विश्व को हड़प लेने वाली विराट भूल का परिणाम?” वह लोग इस देश के स्वामी हैं। आज ब्रिटिश सम्पत्ति की तुलना नहीं की जा सकती। कितने जहाज, कितने कल-कारखाने, कितनी हजारों-लाखों इमारतें। मनुष्यों को मार डालने के उपकरणों और आयोजनों का अंत नहीं है। अपने समस्त अभावों और हर प्रकार की आवश्यकताओं को मिटाकर भी अंग्रेजों ने सन् 1910 से लेकर सत्रह वर्षों तक बाहरी देशों को ऋण दिया था-तीन हजार करोड़ रुपए। जानती हो, इस विराट वैभव का उद्गम कहां है? अपने को तुम बंग देश की लड़की बता रही थी न? बंगाल की मिट्टी, बंगाल की जलवायु, बंगाल के मनुष्य, तुम्हारे लिए प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं न? इसी बंगाल की दस लाख नर-नारी प्रति वर्ष मलेरिया से मर जाते हैं। एक युध्दपोत का मूल्य कितना होता है-जानती हो? उनमें से केवल एक के ही खर्च से कम-से-कम दस लाख माताओं के आंसू पोंछे जा सकते हैं। कभी तुमने इस बात पर भी विचार किया है? शिल्प गया, व्यापार गया, धर्म गया, ज्ञान गया-नदियों की छाती सूखकर मरुस्थल बनती जा रही है। किसान को भर पेट खाने को अन्न नहीं मिलता। शिल्पकार विदेशियों के द्वार पर मजदूरी करता है। देश में जल नहीं, अन्न नहीं। गृहस्थ की सर्वोत्तम सम्पदा गोधन भी नहीं। दूध के अभाव में उनके बच्चों को मरते देखा है भारती?” भारती ने चीखकर उन्हें रोकना चाहा, लेकिन उसके गले से एक अस्फुट शब्द के अतिरिक्त और कुछ नहीं निकला।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#265 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
सव्यसाची का वह धीमा संयत कंठ स्वर पहले ही कभी अंतर्हित हो चुका था। बोला, “तुम ईसाई हो। तुम्हें याद है, एक दिन कौतूहल वश तुमने यूरोप की ईसाई सभ्यता का स्वरूप जानना चाहा था। उस दिन व्यथा पहुंचने के भय से मैंने नहीं बताया था। लेकिन आज बताता हूं। तुम लोगों की पुस्तक में क्या है, मैं नहीं जानता। सुना है, अच्छी बातें बहुत हैं। लेकिन बहुत दिनों तक एक साथ रहने से उनका वास्तविक स्वरूप मुझसे छिपा नहीं है। लज्जाहीन, नग्न स्वार्थ और पाशविक शक्ति की प्रधानता ही उसका मूलमंत्र है। सभ्यता के नाम पर दुर्बलों और असमर्थों के विरुध्द मनुष्य की बुध्दि ने इससे पहले इतने भयंकर और घातक मूसल का आविष्कार नहीं किया था। पृथ्वी के मानचित्र की ओर आंख उठाकर देखो, यूरोप की विश्व-ग्रासी भूख से कोई भी दुर्बल जाति अपनी रक्षा नहीं कर पाती। देश की मिट्टी, देश की सम्पदा से देश की संतान किस अपराध से वंचित हुई? तुम जानती हो भारती, एक मात्र शक्ति-हीनता के अपराध से। फिर भी न्याय धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है और विजित जाति के अशेष कल्याण के लिए ही अधीनता की जंजीर उसके पैरों में डालकर उस पंगु का हर प्रकार का उत्तरदायित्व ढोते रहना ही योरोपियन सभ्यता का परम कर्त्तव्य है। इस परम असत्य का लेखों, भाषणों, मिशनरियों के धर्म-प्रचार में, लड़कों की पाठय-पुस्तकों के द्वारा प्रचार करना ही तुम लोगों की अपनी सभ्यता की राजनीति है।
भारती मिशनरियों के बीच ही इतनी बड़ी हुई है। अनेक महान चरित्र उसने वास्तव में अपनी आंखों से देखे हैं। विशेष रूप से अपने धार्मिक विश्वास पर इस प्रकार से अकारण आक्रमण से व्यथित होकर बोली, “भैया, जिस धर्म का प्रचार करने के लिए जो लोग इस देश में आए हैं, उन लोगों के संबंध में मैं तुमसे बहुत अधिक जानती हूं। उन लोगों के प्रति आज तुम निरपेक्ष भाव से विचार नहीं कर पा रहे हो। योरोपियन सभ्यता ने क्या तुम लोगों की भलाई नहीं की? सती-दाह की प्रथा, गंगा सागर में संतान विसर्जन....।” डॉक्टर बीच में ही रोककर बोल उठे, “चड़क पूजा के समय पीठ छेदना, संन्यासियों की तलवार पर उछल-कूद मचाना, डकैती, ठगी, विद्रोहियों का उपद्रव, गोड़ा और खासियों की आषाढ़ में नरबलि और भी बहुत से काम हैं जिनकी याद नहीं आ रही भारती।” भारती ने एक शब्द भी नहीं कहा। डॉक्टर बोले, “ठहरो, और भी दो बातें याद आ गईं। बादशाहों के जमाने में गृहस्थ लोग बहू-बेटियों और दासियों को अपने घरों में नहीं रख सकते थे। नवाब लोग स्त्रियों के पेट चीरकर बच्चों को देखा करते थे। हाय रे हाय, इसी तरह विदेशियों के लिखे इतिहास ने साधारण और तुच्छ बातों को विपुल और विराट बनाकर देश के प्रति देशवासियों के मन को विमुख कर दिया। मुझे याद है, अपने बचपन में स्कूल की पाठय-पुस्तक में मैंने पढ़ा था-विलायत में बैठकर केवल हम लोगों के कल्याण की चिंता में लगे रहकर राज्य मंत्री की आंखों की नींद और मुंह का अन्न नीरस हो गया है। यह असत्य लड़कों को रटना पड़ता है और पेट के लिए शिक्षकों को जबानी याद कराना पड़ता है और सभ्य राजतंत्र की यही राजनीति है भारती। आज अपूर्व को दोष देना व्यर्थ है।”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#266 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
अपूर्व की लांछना से भारती मन-ही-मन लज्जित ही नहीं हुई, क्रुध्द भी हो उठी। उसने कहा, “तुमने जो कुछ कहा है सत्य हो सकता है। सम्भव है किसी अत्यंत राजभक्त कर्मचारी ने ऐसा ही किया हो। लेकिन इतने बड़े साम्राज्य की मूल नीति कभी असत्य नहीं हो सकती। उसके ऊपर नींव रखकर इतनी बड़ी विशाल संस्था एक दिन भी टिकी नहीं रह सकती। तुम कहोगे कि अनंत काल की तुलना में वह दिन कितने होते हैं? ऐसे ही साम्राज्य तो इससे पहले भी थे। क्या वह चिरस्थायी हुए? तुम्हारा कहना अगर सत्य भी हो, तो वह भी चिरस्थायी नहीं होगा। लेकिन यह श्रृंखलाबध्द, सुनियंत्रित राज्य है। तुम चाहे कितनी निंदा क्यों न करो, इसकी एकता, इसकी शांति से क्या कोई शुभ लाभ हुआ ही नहीं? पश्चिमी सभ्यता के प्रति कृतज्ञ होने का क्या कोई भी कारण तुम्हें नहीं मिला? अपनी स्वाधीनता तो तुम लोग बहुत दिनों से खो चुके हो और इस बीच राज-शक्ति का परिवर्तन तो अवश्य ही हुआ है। लेकिन तुम्हारे भाग्य का परिवर्तन नहीं हुआ। ईसाई होने के कारण मुझे गलत मत समझ लेना भैया। अपने सभी अपराध विदेशियों के मत्थे मढ़कर ग्लानि में डूबे रहना ही अगर तुम्हारे देश-प्रेम का आदर्श हो तो तुम्हारे उस आदर्श को मैं नहीं अपना सकूंगी। हृदय में इतना विद्वेष भरकर तुम शायद अंग्रेजों की कुछ हानि कर सको, लेकिन उससे भारतवासियों का कुछ भी कल्याण नहीं होगा। इस सत्य को निश्चित रूप से जान लेना।”
भारती के शब्दों के कानों में पहुंचते ही सव्यसाची चौंक पड़े। भारती का यह रूप अपरिचित था। यह भावनाएं अप्रत्याशित थीं। जिस धार्मिक विश्वास और सभ्यता के गहरे प्रभाव के बीच पलकर वह बड़ी हुई है उसी के ऊपर आघात होने से उत्तेजित और असहिष्णु होकर जो यह निर्भीक प्रतिवाद कर बैठी वह भले ही कितना ही कठोर और प्रतिकूल क्यों न हो-सव्यसाची की दृष्टि में उसने मानो उसे नई मर्यादा दे डाली। उसे निरुत्तर देखकर भारती बोली, “तुमने कोई उत्तर नहीं दिया भैया? हिंसा की इतनी बड़ी आग को अपने हृदय में जलाकर तुम और चाहे जो कुछ भी करो, देश की भलाई नहीं कर सकोगे।” डॉक्टर बोले, “तुमसे तो मैंने अनेक बार कहा है कि जो लोग देश की भलाई करने वाले हैं, वे चंदा इकट्ठा करके अनाथ आश्रम, ब्रह्मचर्याश्रम, वेदांत आश्रम, दरिद्र भंडार आदि तरह-तरह के लोक हितकारी कार्य कर रहे हैं। महान् पुरुष हैं वे। मैं उनकी भक्ति करता हूं। लेकिन मैंने देश की भलाई करने का भार नहीं लिया है, मैंने उसे स्वतंत्र कराने का भार लिया है। मेरे हृदय की आग केवल दो बातों से बुझ सकती है। एक तो अपनी चिता भस्म से, या फिर जिस दिन यह सुन लूंगा कि यूरोप का धर्म, उसकी सभ्यता, नीति, सागर के अतल गर्भ में डूब गई है।” भारती स्तब्ध रह गई।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#267 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वह कहने लगे, “इस विषकुंड का भरपूर सौदा लेकर यूरोप जब समुद्र पार करके पहले पहल व्यापार करने आया था तब उसे केवल जापान पहचान सका था। इसी से आज उसका इतना सौभाग्य है। इसी से आज वह यूरोप के समकक्ष सभ्रांत मित्र बना हुआ है। लेकिन चीन और भारत उसे नहीं पहचान सके। उन दिनों स्पेन का राज्य सारी पृथ्वी पर फैला हुआ था। एक छोटे से जापानी ने स्पेन के एक नाविक से पूछा, “तुम लोगों को इतना अधिक राज्य कैसे मिला?” नाविक ने उत्तर दिया, “बड़ी आसानी से। हम जिस देश को हड़पना चाहते हैं वहां हम पहले बेचने के लिए माल ले जाते हैं। हाथ-पैर जोड़कर उस देश के राजा से मांग लेते हैं थोड़ी-सी जमीन। उसके बाद ले आते हैं पादरी। वह लोग जितने लोगों को ईसाई नहीं बना पाते उससे कहीं अधिक उस देश के प्रचलित धर्म को गाली-गलौज देते हैं। तब लोग बिगड़कर पागल हो जाते हैं और दो-एक को मार डालते हैं। तब हम मंगा लेते हैं अपनी तोप-बंदूकें और सेना। और तत्काल यह प्रमाणित कर देते हैं कि हमारे सभ्य देश के मानव-संहारकारी यंत्र असभ्य देश की अपेक्षा कितने श्रेष्ठ हैं।”-यह कहकर उन्हें विदा करके जापान ने अपने देश में कानून जारी कर दिया कि जब तक सूर्य और चंद्रमा उदित रहेंगे तब तक ईसाई उनके देश में कदम नहीं रखने पाएंगे। रखेंगे तो उन्हें प्राण-दंड दिया जाएगा।
अपने धर्म और धर्म-प्रचारकों के प्रति किए गए इन तीखे आक्षेप से दु:खी होकर भारती बोली, “यह बात मैं पहले भी सुन चुकी हूं। लेकिन जिन जापानियों के प्रति तुम भक्ति रखते हो वह कैसे हैं?” डॉक्टर बोले, “यह झूठ है कि भक्ति रखता हूं। मैं उनसे घृणा करता हूं। कोरियावासियों को बार-बार बंधक और अभय देकर भी बिना दोष के झूठे बहाने गढ़कर उनके राजा को कैद करके सन् 1910 में जब जापान ने कोरिया राज्य हड़प लिया, मैं शंघाई में था। उस दिन के वह सब अमानुषिक अत्याचार भूल जाने के योग्य नहीं हैं। अभय क्या केवल जापान ने ही दिया था भारती? यूरोप ने भी दिया था। लेकिन शक्तिशाली जापान के विरुध्द अंग्रेजों ने भी मुंह नहीं खोला। उसने कहा, हम लोग एंग्लो-जापानी संधि सूत्र में बंधे हुए हैं और यही बात संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के राष्ट्रपति ने भी अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कह दी कि वचन देने से क्या हुआ? जो असमर्थ और शक्तिहीन राष्ट्र अपनी रक्षा नहीं कर सकता तो उसका राज्य नहीं जाएगा तो किसका जाएगा। ठीक ही हुआ। अब हम लोग जाएंगे उनका उध्दार करने? असम्भव है पागलपन है।” यह कहकर सव्यसाची ने एक पल चुप रहकर कहा-” मैं भी कहता हूं भारती कि यह असम्भव है, असंगत है, पागलपन है। दुर्बल का धन शक्तिशाली क्यों नहीं छीन लेगा? इस बात को सभ्य यूरोप की नैतिक बुध्दि सोच भी नहीं सकती।” भारती अवाक् ही रही।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#268 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
वह कहने लगे, अठारहवीं शताब्दी के अंतिम भाग में ब्रिटेन का दूत लार्ड मैकार्टनी गया चीनी दरबार में-व्यापर की थोड़ी-सी सुविधा प्राप्त करने के लिए। मंचू नरेश शिनलुंग उन दिनों समस्त चीन के सम्राट थे। वह अत्यंत दयालु थे। दूत की विनीत प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा, “देखो भैया, हमारे स्वर्ग जैसे साम्राज्य में किसी भी वस्तु का अभाव नहीं है, लेकिन तुम आए हो बहुत दूर से, अनेक कष्ट सहकर। जाओ, केंटन शहर में जाकर व्यापार करो। स्थान देता हूं। तुम सब लोगों का भला होगा।” राजा का यह आशीर्वाद निष्फल नहीं हुआ पचास वर्ष भी नहीं बीतने पाए कि चीन के साथ अंग्रेजों का प्रथम युध्द छिड़ गया।”
भारती ने आश्चर्य में पड़कर पूछा, “क्यों भैया?” डॉक्टर बोले, “यह चीन का अन्याय था-सम्राट सहसा बोल उठा,” अफीम खाते-खाते हमारी आंखें बंद होती जा रही हैं। बुध्दि-शुध्दि अब नहीं रही, कृपा करके इस चीज का आयात रोक दो।” “इसके बाद?” “इसके बाद का इतिहास बहुत ही संक्षिप्त-सा है। दो ही वर्ष के अंदर अफीम खाने को राजी होकर और भी पांच बंदरगाहों में केवल पांच रुपए प्रतिशत टैक्स पर व्यापार करने की स्वीकृति देकर और अंत में हांगकांग बंदरगाह दक्षिण में देकर सन् 42 में यह युध्द समाप्त हुआ। ठीक ही हुआ। इतनी सस्ती अफीम पा कर जो मूर्ख खाने में आपत्ति करता है उसका ऐसा प्रायश्चित उचित ही तो था। भारती बोली, “यह तुम्हारी मनगढ़ंत कहानी है।” डॉक्टर बोले, “होने दो। कहानी सुनने में है तो अच्छी। और यही देखकर फ्रांसीसी सभ्यता ने कहा था-”मेरे पास अफीम तो नहीं लेकिन इन्सानों की हत्या करने के लिए अच्छे-से-अच्छे यंत्र अवश्य हैं। इसलिए युध्द हुआ। फ्रांसीसियों ने चीन साम्राज्य का अनाम प्रांत छीन लिया और युध्द का खर्च अधिक-से-अधिक व्यापारिक सुविधाएं, ट्रीटी-पोर्ट आदि- ये सब तुच्छ कहानियां हैं। इन्हें रहने दो।” भारती बोली, “लेकिन भैया, ताली एक ही हाथ से बजती है? चीन का क्या कुछ भी अन्याय नहीं है?”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#269 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
डॉक्टर बोले, “हो सकता है। लेकिन तमाशा तो यह है कि योरोपियन सभ्यता का अन्याय-बोध दूसरों के घरों पर चढ़ाई करने के लिए ही होता है। उनके अपने देश में ऐसी घटना दिखाई नहीं पड़ती।”
“उसके बाद?” “बता रहा हूं। जर्मन सभ्यता ने देखा-वाह रे वाह!-यह तो बड़ी मजेदार बात है। हम तो घाटे में ही रह गए....और उसने भी एक जहाज में पादरी भरकर उनके बीच लगा दिया। सन् 1697 में जब वे लोग प्रभु ईसा की महिमा, शांति और न्याय-धर्म का प्रचार कर रहे थे तब चीनियों का एक दल पागल हो उठा और उसने दो परम धार्मिक प्रचारकों के सिर काट डाले....अन्याय....चीन का ही अन्याय था। इसलिए शनटुंग प्रांत जर्मनी के पेट में चला गया। उसके बाद केंटन में विद्रोह हुआ। यूरोप की सभी सभ्यताओं ने एक होकर उसका जो बदला लिया शायद कहीं भी उसकी तुलना नहीं मिल सकती। उस हर्जाने का अपरिमित ऋण चीनी लोग कितने दिनों तक चुकाते रहेंगे यह बात ईसा प्रभु ही जानते हैं। इस बीच ब्रिटिश सिंह, जार के भालू, जापान के सूर्य देव-लेकिन अब नहीं बहिन, मेरा गला सूखता जा रहा है। दु:ख की तुलना में अकेले हम लोगों के सिवा शायद उन लोगों का और कोई साथी नहीं है सम्राट शिनटुंग निर्वाण को प्राप्त हो, उनके आशीर्वाद की बड़ी महिमा है।” भारती एक बहुत लम्बी सांस खींचकर चुप हो रही। “भारती।” “क्या है भैया?” “चुप क्यों हो?” “तुम्हारी कहानी की ही बात सोच रही हूं। अच्छा भैया, इसीलिए क्या चीन में तुमने अपना कार्य-क्षेत्र चुना है? जो लोग सैकड़ों अत्याचारों से जर्जरित हैं उनको उत्तेजित कर देना कठिन नहीं है। लेकिन एक बात और है। इस पर क्या तुमने विचार किया है? उन सब निरीह अज्ञानी किसान-मजदूरों का दु:ख तो यों ही यथेष्ट है। उस पर फिर मार-काट, खून-खराबी, शुरू कर देने से तो उनके दु:खों की सीमा नहीं रहेगी।”
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
#270 |
Super Moderator
![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() Join Date: Nov 2010
Location: Sherman Oaks (LA-CA-USA)
Posts: 51,823
Rep Power: 182 ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() |
![]()
डॉक्टर बोले, “निरीह किसान-मजदूरों के लिए दुश्चिन्ता में पड़ने की तुम्हें जरूरत नहीं है भारती। किसी भी देश में वह स्वाधीनता के काम में भाग नहीं लेते, बल्कि बाधा ही डालते हैं। उन लोगों को उत्तेजित करने के लिए, व्यर्थ परिश्रम करने का समय मेरे पास नहीं है। मेरा कारोबार शिक्षित, मध्यवित्त और भद्र लोगों को लेकर ही चलता है। यदि किसी दिन मेरे काम में शामिल होना चाहो भारती तो इस बात को मत भूलना। आइडियल या आदर्श के लिए प्राण दे सकने योग्य मनोबल की आशा, शांति प्रिय, निर्विरोध, निरीह किसानों से करना बेकार है। वह स्वतंत्रता नहीं चाहते, शांति चाहते हैं। जो शांति असमर्थ-अशक्त लोगों की है....।”
भारती व्याकुल होकर बोली, “मैं भी यही चाहती हूं भैया। बल्कि तुम मुझे इसी जड़ता के काम में नियुक्त कर दो। तुम्हारे 'पथ के दावेदार' के सिध्दांत से मेरी सांस रुकती चली जा रही है।” सव्यसाची ने हंसकर कहा, “अच्छा।” भारती रुक न सकी। उसी तरह व्यग्र उच्छवास से बोली, “अच्छा शब्द का उच्चारण कर देने के अतिरिक्त क्या कुछ भी कहने को शब्द तुम्हारे पास नहीं हैं भैया?” “हम लोग आ पहुंचे हैं भारती। सावधानी से बैठ जाओ। चोट न लग जाए।” यह कहकर डॉक्टर ने तेजी से धक्का लगाकर छोटी-सी नाव को अंधेरे में नदी के किनारे लगा दिया। भारती को उतारते हुए उन्होंने कहा, “पानी या कीचड़ नहीं है बहिन, तख्ता बिछा है, उसी पर से चली आओ।” अंधेरे में नीचे पैर रखकर तृप्ति की सांस लेते हुए भारती बोली, “भैया, तुम्हारे हाथों से आत्म-समर्पण करने के समान निर्विघ्न शांति और कहीं नहीं है।” लेकिन दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं आया। अंधेरे में दोनों के कुछ दूर आगे बढ़ने पर डॉक्टर ने आश्चर्य भरे स्वर में कहा, “लेकिन बात क्या है? बताओ तो? यह क्या विवाहोत्सव का मकान है, न तो बत्तियों की रोशनी है, न कोई हल्ला-गुल्ला ही है। बेहले का सुर भी नहीं। कहीं चले गए हैं क्या यह लोग?” दोनों सीढ़ी से चढ़कर चुपचाप ज्यों ही ऊपर पहुंचे, खुले द्वार दिखाई दिया शशि-जो बडे ध्यान से अखबार पढ़ रहा था।
__________________
दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
![]() |
![]() |
![]() |
Bookmarks |
|
|