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![]() इस बीच, डाक वितरण के लिए बाहर निकलने से पहले तक, डाकिया बाबू काउंटर पर अपने नियत स्थान पर मिल जाते थे. हमारे इलाके के डाकिया बाबू लगभग 40 वर्ष के थे, लम्बे लम्बे बाल और दाड़ी रखते थे. रोज मिलते रहने के कारण वह मुझे पहचानते थे. जैसे ही मैं उनके सामने पहुँचता, वे डाक के बण्डल में से हमारी डाक निकाल कर मुझे पकड़ा दिया करते थे. मुझे नहीं पता कि वे आज कहाँ पर होंगे और किस हाल में होंगे ? जीवित भी हैं या नहीं ? मुझे उनका नाम तक याद नहीं है लेकिन आज भी उनका चेहरा मेरी आँखों के सामने आ जाता है तो उनके प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है.
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'फोटो कर्म अधिकारस्ते मा छपेषु कदाचन्'
लेखक- डॉ. सत्यनारायण गोयल 'छविरत्न' मैं साहित्यिक व्यक्ति तो नहीं हूँ जीवन में कॉमर्शियल आर्ट का कार्यकर्ता रहा हूँ, जो कालांतर में धीरे-धीरे फोटोग्राफी का रूप ले गया। 1955 से लेकर 1959 के मध्य मैं सबसे पहले केंद्रीय हिंदी संस्थान के संपर्क में तब आया, जब मैं बेलनगंज स्थित आगरा टिन फैक्ट्री में आर्टिस्ट के रूप में काम करता था। वहाँ सरसों के तेल को भरने के लिए कनस्तर बनते व प्रिंट होते थे। सरसों का तेल आगरा से बंगाल एवं उड़ीसा प्रदेशों में अधिक निर्यात किया जाता था। कनस्तर के चारों ओर उन प्रदेशों की भाषा व लिपि में तेल से संबंधित प्रचार हेतु वाक्य लिखने होते थे, जो मैं नहीं लिख पाता था। मुझे ज्ञात हुआ कि आगरा में केंद्रीय हिंदी संस्थान के नाम से गाँधी नगर में एक विद्यालय चलता है। मैं ढूँढ़ता हुआ गाँधी नगर पहुँचा। वहाँ डॉ. विनय मोहन जी, निदेशक के दर्शन हुए। वहाँ बंगला व उड़िया के छात्र मिल गए। दोनों भाषाओं से मुझे बहुत योगदान प्राप्त हुआ। मेरी समस्या का निदान हो गया। >>>
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'फोटो कर्म अधिकारस्ते मा छपेषु कदाचन्'
और फिर पुन: केंद्रीय हिंदी संस्थान से विधिवत फोटोग्राफी हेतु जुड़ गया, जो लगभग 1990 तक चला। मुझे अपने ऊपर तरस आ रहा है कि मैं देश और विदेश के महान विद्वानों के सम्पर्क में फोटोग्राफी हेतु तो आया, परंतु साहित्यिक रूचि होते हुए भी उनके भाषणों व साहित्यिक वार्ता के मध्य रहते हुए भी बहुत अधिक साहित्यिक लाभ न उठा पाया। कारण कि मेरा सारा ध्यान चिड़िया की आंख की भांति अपने मुख्य लक्ष्य फोटोग्राफी में ही लगा रहता था। श्री वी. कृष्ण स्वामी अय्यंगार संस्था में अपने दायित्व बड़ी निष्ठा से निभाते थे और बड़ी चुटीली भाषा में बोलते थे। मुझे याद आता है कि वे बताते थे जैसे विद्यालय जहाँ विद्या का लय हो, विद्यार्थी वह जो विद्या की अर्थी निकाले। इस प्रकार के व्यंग्यात्मक भाषण में डॉ. अय्यंगार को सुनकर बड़ा आनंद आता था। मुझे डॉ. वी. कृष्णास्वामी अय्यंगार जी की एक बात बहुत याद आती है। मैंने उनसे कहा था कि गीता में श्लोक है- 'कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन्' - तो मैंने उनसे निवेदन किया था कि मैं प्रेस फोटोग्राफर हूँ, फोटो खींचने का अधिकारी हूँ। छापने का मेरा अधिकार नहीं है तो उन्होंने मुझे गीता वाली भाषा में बताया कि 'फोटो कर्म अधिकारस्ते मा छपेषु कदाचन्' - और यह मेरे जीवन का लक्ष्य बन गया और मुझे उससे बहुत शांति प्राप्त हुई।
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सिकंदर महान की अंतिम ख्वाहिशें
अपनी मृत्यु शैया पर लेटे सिकंदर ने अपमे सेनापतियों को बुलवाया और उन्हें अपनी तीन अंतिम ख्वाहिशों के बारे में बताया: 1. उसके शव को केवल सर्वोत्तम चिकित्सक ही उठाएंगे 2. उसके द्वारा जो भी संपत्ति (धन-दौलत, सोना-चाँदी, हीरे-जवाहरात आदि) जोड़ी गई है, उसके कब्रिस्तान तक जाने वाले जलूस के रास्ते में बिखरा दिये जायें. 3. उसके हाथों को ताबूत के बाहर लटकने दिया जाये ताकि लोग यह सब देख सकें. उसके एक जनरल ने, जो सिकंदर की इन अंतिम इच्छाओं को सुनकर बहुत हैरान हो रहा था, उससे ऐसा करने का कारण पूछा. इस पर सिकंदर ने कहा: 1. मैं अपना ताबूत सर्वोत्तम चिकित्सकों के द्वारा उठवा कर इसलिए ले जाना चाहता हूँ ताकि लोग जान सकें कि मृत्यु के समय अच्छे से अच्छा चिकित्सक भी आपको उससे बचा नहीं सकता. 2. मेरी शवयात्रा के रास्ते में संपत्ति को बिखराने के पीछे मेरा उद्देश्य यह बताना है कि लोग जान सकें कि जो संपत्ति हम अन्यान्य तरीकों से धरती पर अर्जित करते हैं, वह धरती पर ही रह जायेगी. 3. मैं चाहता हूँ कि मेरी मैय्यत ले जाते समय मेरे खाली हाथ ताबूत से बाहर लटके रहें ताकि सब लोग देख सकें कि अपना सबसे कीमती खजाना यानी “समय” का उपभोग करने के बाद भी व्यक्ति ऐसे ही खाली हाथ दुनिया से रुखसत हो जाता है जैसे खाली हाथ वह दुनिया में आया था. उपरोक्त प्रसंग का एक निहित संदेश यह भी है कि हम अपनी धन-संपत्ति को बढ़ा सकते हैं लेकिन अपने समय और जीवन की मियाद को नहीं बढ़ा सकते. जब हम किसी को अपना समय देते हैं तो यह समझना चाहिए कि हम उसे अपने जीवन का एक हिस्सा दे रहे हैं. सबसे बड़ी भेंट या उपहार समय ही हो सकता है. ईश्वर आप सबको ढेर सा समय दे ताकि आप इसे अन्य लोगों में बुद्धिमत्तापूर्वक बाँट सकें और अपने अंतिम क्षण तक अर्थपूर्ण तरीके से जीवित रह सकें, प्यार कर सकें और चैन से मर सकें. मित्रो, जीवन बहुत छोटा है. हमें चाहिए कि इसे बहुत अच्छे से व्यतीत करें. हर मनुष्य के जीवन की एक एक्सपायरी डेट भी होती है. अतः यह ज़रूरी है कि हम इसकी कीमत को समझें. ईश्वर हम सब पर अपनी कृपा बनाए रखे.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 28-10-2014 at 10:50 AM. |
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सच्ची दौलत
आप सब उर्दू के प्रख्यात शायर मीर तक़ी मीर के नाम तथा शायरी से अवश्य परिचित होंगे. उन्होंने अपनी आत्मकथा “ज़िक्र-ए-मीर” में दर्ज अपनी वसीयत में निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखी हैं जो ध्यान देने योग्य हैं. इनमें उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उन्हें दुनिया के ऐश-ओ-आराम और धन-दौलत की कभी परवाह नहीं रही. उन्होंने लिखा है कि :-- "बेटा, हमारे पास दुनिया के धन-दौलत में से तो कोई चीज़ नहीं है जो आगे चलकर तुम्हारे काम आये, लेकिन हमारी सबसे बड़ी पूंजी, जिस पर हमें गर्व है, क़ानून-ए-ज़बान (भाषा के सिद्धान्त) है, जिस पर हमारा जीवन और मान निर्भर रहा, जिसने हमें अपमान के खड्डे में से निकाल कर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचा दिया. इस दौलत के आगे हम विश्व की हुकूमत को भी तुच्छ समझते रहे. तुम को भी अपने तरके (पैतृक सम्पत्ति) में से यही दौलत देते हैं"
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 07-11-2014 at 09:42 PM. |
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पशु प्रेम की कीमत कितनी?
(27 जुलाई 2014 की अखबारी रिपोर्ट पर आधारित) यह पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले की बात है. वहां पर एक व्यक्ति को अपनी शराफत और कुत्तों के प्रति अपने प्यार की कीमत अपनी जान दे कर चुकानी पड़ी. वह कुत्तों से इतना प्यार करता था कि वे उसके पड़ौस व पड़ौसियों के लिए खतरा बन गए थे. इस 50 वर्षीय कुत्ता-प्रेमी सज्जन का नाम था बानेश्वर शान. इनके पड़ौस में ही शम्भुनाथ बाग नामक व्यक्ति रहते थे. शान का कसूर इतना ही था कि अपने घर के आसपास घूमते आवारा कुत्तों को खाने के लिए रोटी पानी देता रहता था और उनकी देखभाल भी करता था. इस सब से पड़ौसियों को परेशानी हो रही थी. उन्होंने उसे इस सब से बाज आने का मशविरा भी दिया लेकिन बानेश्वर शान अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं था. एक दिन क्रोध में आ कर शम्भुनाथ ने बानेश्वर का खून कर दिया. इसके बाद स्थानीय लोगों ने इस खून के खिलाफ़ ज़ोरदार प्रदर्शन किया. अपने पशु प्रेम के लिए बानेश्वर को अपनी जान देनी पड़ी. मेरा प्रश्न है कि क्या बेज़ुबान पशुओं से मुहब्बत करने की कीमत बानेश्वर जैसे सीधे साधे व्यक्तियों को हमेशा अपनी ज़िन्दगी दे कर चुकानी पड़ेगी ??
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पशुओं के मित्र और शत्रु
(4 अगस्त 2014 की रिपोर्ट) यह घटना 29 जुलाई 2014 की है. दक्षिणी दिल्ली में स्थित बस्ती निजामुद्दीन में चार व्यक्तियों ने एक आदमी की इस वजह से बुरी तरह ठुकाई कर दी कि उसने उन चारों लोगों को एक आवारा कुत्ते की पिटाई करने से रोका था. इस बात से दोनों पक्षों के बीच कहासुनी हो गयी जो बढ़ते बढ़ते मारधाड़ तक पहुँच गई. उन चारों लोगों ने उदय विज नामक इस व्यक्ति से निर्दयतापूर्वक मारपीट की. उदय विज हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर अमूमन आते रहते थे. आज भी वहां से ग़रीब बच्चों को मिठाई बाँट कर वापिस अपने घर फरीदाबाद के लिए चलने वाले थे कि कुत्ते के प्रति उन लोगों का हिंसात्मक रवैया देख कर वह खुद पर काबू न रख सके.
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आवारा कुत्तों की ट्रेनिंग
दोस्तों, आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि अब आपकी कॉलोनी की सुरक्षा गलियों के आवारा कुत्तों को हाथों सौंप दी जायेगी. एक योजना के अनुसार दिल्ली में जल्द ही आवारा कुत्तों को ट्रेनिंग दी जाने वाली है. Ndmc यानी न्यू दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन ने इस कार्य के लिये ठोस इंतज़ाम किये हैं. उन्होंने श्री एल.आर. यादव नामक व्यक्ति को इस काम के लिये नियुक्त किया है जिन्हें कुत्तों को ट्रेनिंग देने का 30 वर्षों से अधिक का अनुभव है. अब तक वह पुलिस विभाग के कुत्तों को ट्रेनिंग देते रहे हैं. इन कुत्तों को तीन-चार महीने की ट्रेनिंग दी जायेगी. ट्रेनिंग के बाद वो गलियों, पार्कों और बागों की सुरक्षा को मजबूत करेंगे. ट्रेनिंग से पहले यानि शुरुआत में इन कुत्तों को विशेष टीके लगाये जायेंगे ताकि इनके काटे का असर न हो. देखिये कब तक इस प्रकार की व्यवस्था लागू होती है. कुत्तों को हमारी शुभकामनाएं और नागरिकों को दुआएं.
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भलाई का बदला
साभार: बीबीसी / निशांत उस युवक का नाम फ्लेमिंग था और वह एक गरीब स्कॉटिश किसान था. एक दिन, जब वह जंगल में कुछ खाने का सामान ढूंढ रहा था तभी उसे कहीं से किसी लड़के के चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी. अपना सामान उधर ही पटक कर वह आवाज़ की दिशा में दौड़ा. अलेक्सेंडर फ्लेमिंग और विंस्टन चर्चिल उसने देखा कि एक दलदली गड्ढे में एक लड़का छाती तक फंसा हुआ है और बचने के लिए छटपटा रहा है. फ्लेमिंग ने किसी तरह लकडी आदि की सहायता से उसे खींचकर बाहर निकाला. ज़रा सी देर और हो जाती तो वह लड़का उस दलदल में समा जाता. अगले दिन फ्लेमिंग की गरीब बस्ती में एक लकदक बग्घी आकर रुकी. एक कुलीन सज्जन उसमें से उतरे और उन्होंने फ्लेमिंग को बताया कि वे उस लड़के के पिता थे जिसकी जान फ्लेमिंग ने बचाई थी.
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“मैं आपको कुछ देना चाहता हूँ” – उन्होंने फ्लेमिंग से कहा – “आपने मेरे पुत्र की जान बचाई है”.
“नहीं, माफ़ करें लेकिन मैं इसके लिए आपसे कुछ नहीं ले सकता” – फ्लेमिंग ने कहा. इसी बीच उनकी बातचीत सुनकर फ्लेमिंग का छोटा बेटा झोपड़ी से बाहर आ गया. “क्या ये तुम्हारा बेटा है?” – कुलीन सज्जन ने फ्लेमिंग से पूछा. फ्लेमिंग ने गर्व से कहा – “हाँ, वह बहुत होनहार है”. “मैं चाहता हूँ कि मैं उसकी शिक्षा-दीक्षा का खर्च वहन करूँ. यदि वह भी अपने पिता की ही भांति है तो एक दिन उसपर सभी गर्व करेंगे” – कुलीन सज्जन ने कहा.
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