16-09-2013, 01:34 PM | #271 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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16-09-2013, 08:15 PM | #272 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
प्रिय संत जी आपकी पाठशाला के छोटे छोटे रूपक तो जीवन में उत्साह भरने वाले बेहतरीन पाठ हैं...............
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21-09-2013, 10:08 AM | #273 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सावित्री ने ठान लिया
यह घटना सन् 1853 ई. की है। उस समय लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता था। परिवार में अगर लड़की होती थी तो यही माना जाता था कि उसे पढ़ाने से क्या फायदा होगा क्योंकि जब वह बड़ी होगी तो उसकी शादी कर उसे दूसरे घर भेजना पड़ेगा । ऐसे में उसे पढ़ाने का कोई मतलब या सार्थकता ही नहीं है। वह पढ़ाई हमारे तो काम ही नहीं आ पाएगी। इस मानसिकता के कारण उस समय लड़कियां पढ़ ही नहीं पाती थी और घर की चाहर दीवारी में कैद होकर अपना जीवन गुजारती रहती थी। इसी बीच तीन जुलाई 1853 को पूना में ज्योतिबा फूले ने लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से एक स्कूल खोला ताकि वहां आकर ज्यादा से ज्यादा लड़किया शिक्षा प्राप्त कर सकें। लेकिन समस्या यह थी कि बालिकाओं को पढ़ाने के लिए स्कूल में शिक्षिका होनी चाहिए वह नहीं थी। उस समय शिक्षिका तलाश करना अत्यंत चुनौतीपूर्ण काम था। जो लड़कियां थोड़ा-बहुत पढ़ी-लिखी भी थीं वे भी घर के अंदर ही रहती थीं। ज्योतिबा फूले को जब शिक्षिका के रूप में कोई महिला नहीं मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्री बाई फूले को इस काम के लिए राजी कर लिया। ऐसे समय में जब लड़कियों को पढ़ाना ही गलत समझा जाता था,सावित्री बाई ने शिक्षिका बनने का फैसला कर अपने लिए मुसीबतें खड़ी कर लीं। पूरा समाज सावित्री के इस निर्णय से हिल गया। अपने को समाज का ठेकेदार मानने वालों ने उनकी बहुत निंदा की। उन्हें धमकी तक दी गई। जब वह स्कूल जाने के लिए निकलतीं तो लोग उन पर टीका-टिप्पणी करते, उन्हें तरह-तरह से परेशान करते, उन पर पत्थर फेंकते। लेकिन सावित्री बाई इन घटनाओं से बिल्कुल नहीं घबराईं। वह नियमित रूप से स्कूल जाती रहीं और आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाईं। आज उन्हें देश की प्रथम शिक्षिका के रूप में जाना जाता है।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
21-09-2013, 10:09 AM | #274 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
नकारात्मक भावना त्यागें
एक स्वर्णकार गहना तैयार कर रहा था। अचानक उसे किसी के रोने की आवाज आयी। उसने ध्यान दिया कि यह आवाज उसके सोने में से आ रही है। उसने सोने से उसके दुख की वजह पूछी। सोने ने कहा, हे स्वर्णकार मुझे इस बात का दुख नहीं होता कि तुम मुझे तैयार करते समय ठोकते-पीटते हो, मुझे इस बात का भी दुख नहीं होता कि मुझे आग में तपाया जाता है। मुझे दुख तब होता है जब तुम मुझे लोहे के बाट के साथ रखकर तौलते हो। मुझे रोना आता है कि लोहे के बाट के वजन के साथ मेरे वजन का माप होता है। स्वर्णकार सोने की बात सुनकर हंसने लगा। सोने को चिढ़ लगी। वह स्वर्णकार से बोला तुम्हें मुझ पर हंसी आ रही है। स्वर्णकार बोला, हां तुम नाहक परेशान हो रहे हो। इतनी कीमती धातु होने के बावजूद तुम अपनी तुलना लोहे से कर रहे हो। क्या तुम्हें अपनी कीमत और लोहे की कीमत का अंतर नहीं पता? लोहे के साथ एक ही तराजू में रखे होने के बावजूद लोहे को कोई सोना नहीं कहता और न ही तुम्हारे वजन के बराबर हो जाने पर भी लोह को कोई सोने के भाव खरीदता है। इससे सीख यही मिलती है कि कार्यस्थल पर एक ही छत के नीचे विभिन्न आयु, पद और योग्यता वाले लोग मिलकर एक लक्ष्य के लिए कार्य करते हैं। जहां हर व्यक्ति की अपनी अलग उपयोगिता होती है। उनकी अलग स्किल्स, शैक्षिक और प्रोफेशनल क्वालिफिकेशन और उपयोगिता के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाता है और कार्य सौंपा जाता है। ये जानते-समझते हुए भी कई ऐसे लोग मिल जाते हैं जो अपने महत्व को न समझते हुए अपनी तुलना दूसरे लोगों से करते हैं, अपने मन में दूसरों के प्रति अनजाने ही पक्षपात का आरोप लगाते हैं। कुल मिलाकर अपने मन में किसी भी तरह की नकारात्मक भावना को बढ़ने देने से पहले ये अवश्य देख लें कि आप जिससे तुलना कर रहे हैं उससे तुलना करने की वाकई जरूरत है भी या नहीं। मतलब नकारात्मकता की भावना त्याग दें।
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21-09-2013, 11:04 AM | #275 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
सावित्री बाई फुले ने तमान सामाजिक दुश्वारियों और विषमताओं के बावजूद अपने पति का साथ देते हुये लड़कियों की शिक्षा के उद्देश्य से तत्कालीन रूढ़ीवादी समाज से लोहा लिया और व्यक्तिगत आघातों को अपने रास्ते का रोड़ा नहीं बनने दिया. और इन्हीं समाजसेवी विदुषी की आत्म-कथा पढ़ते हुये हमें उनका आत्मबल, मानवप्रेम और अपने उद्देष्यों के प्रति पूरा समर्पण-भाव दिखाई देता है.
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21-06-2014, 05:36 PM | #276 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
Sahi baat ..
Nice one. . . |
04-11-2014, 04:21 PM | #277 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
डार्क संत की पाठशाला ... के लेखक जी से एक निवेदन है मेरा आप इतना अच्छा - अच्छा लिखते हो फिर आपने आपना display pictur इतना भयंकर क्यों रखा है जब रत की शांति में मै कुछ लिखती हु और भूल से भी आपके इस display pictur पर नजर चली जाती तब सच बेहडी डर लगता है कृपया आप इसे बदलने का कष्ट करेंगे ? प्लीज ...
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04-11-2014, 07:58 PM | #278 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
आप बिलकुल न घबराइए, सोनी पुष्पा जी.. मैं हूँ न इधर. बस आप नीचे दिए चित्र को अपने प्रोफाइल पिक्चर में लगाकर बिना डरे हनुमान चालीसा पढ़िए.
मैं अपना मन्त्र फूँककर देखता हूँ- ओम् ह्रीं क्लीं.. फूँ.. फूँ.. फूँ.. ओम् ह्रीं क्लीं.. फूँ.. फूँ.. फूँ.. ओम् ह्रीं क्लीं.. फूँ.. फूँ.. फूँ.. ओम् ह्रीं क्लीं.. फूँ.. फूँ.. फूँ.. ओम् ह्रीं क्लीं.. फूँ.. फूँ.. फूँ.. माफ़ कीजिये, आज मन्त्र असर नहीं कर रहा है. मैं चलता हूँ. आप भी एस्केप होइए. उल्टा फूँक दिया तो लेने के देने पड़ जाएँगे!
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05-04-2015, 10:44 PM | #279 |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
एक महान लेखक अपने लेखन कक्ष में बैठा हुआ लिख रहा था।
**पिछले साल मेरा आपरेशन हुआ और मेरा गाल ब्लाडर निकाल दिया गया। इस आपरेशन के कारण बहुत लंबे समय तक बिस्तर पर रहना पड़ा। **इसी साल मैं 60 वर्ष का हुआ और मेरी पसंदीदा नौकरी चली गयी। जब मैंने उस प्रकाशन संस्था को छोड़ा तब 30 साल हो गए थे मिझे उस कम्पनी में काम करते हुए। **इसी साल मुझे अपने पिता की मृत्यु का दुःख भी झेलना पड़ा। **और इसी साल मेरा बेटा कार एक्सिडेंट हो जाने के कारण मेडिकल की परिक्षा में फेल हो गया क्योंकि उसे बहुत दिनों तक अस्पताल में रहना पड़ा। कार की टूट फुट का नुकसान अलग हुआ। अंत में लेखक ने लिखा, **वह बहुत ही बुरा साल था। जब लेखक की पत्नी लेखन कक्ष में आई तो उसने देखा कि, उसका पति बहुत दुखी लग रहा है और अपने ही विचारों में खोया हुआ है।अपने पति की कुर्सी के पीछे खड़े होकर उसने देखा और पढ़ा कि वो क्या लिख रहा था। वह चुपचाप कक्ष से बाहर गई और थोड़ी देर बाद एक दुसरे कागज़ के साथ वापस लौटी और वह कागज़ उसने अपने पति के लिखे हुए कागज़ के बगल में रख दिया। लेखक ने पत्नी के रखे कागज़ पर देखा तो उसे कुछ लिखा हुआ नजर आया, उसने पढ़ा। **पिछले साल आखिर मुझे उस गाल ब्लाडर से छुटकारा मिल गया जिसके कारण मैं कई सालों से दर्द से परेशान था। **इसी साल मैं 60 वर्ष का होकर स्वस्थ दुरस्त अपनी प्रकाशन कम्पनी की नौकरी से सेवानिवृत्त हुआ। अब मैं पूरा ध्यान लगाकर शान्ति के साथ अपने समय का उपयोग और बढ़िया लिखने के लिए कर पाउँगा। **इसी साल मेरे 95 वर्ष के पिता बगैर किसी पर आश्रित हुए और बिना गंभीर बीमार हुए परमात्मा के पास चले गए। **इसी साल भगवान् ने एक्सिडेंट में मेरे बेटे की रक्षा की। कार टूट फुट गई लेकिन मेरे बच्चे की जिंदगी बच गई। उसे नई जिंदगी तो मिली ही और हाँथ पाँव भी सही सलामत हैं। अंत में उसकी पत्नी ने लिखा था, **इस साल भगवान की हम पर बहुत कृपा रही, साल अच्छा बीता। तो देखा आपने, सोचने का नजरिया बदलने पर कितना कुछ बदल जाता है और हम अपने बनाने वाले का शुक्रिया अदा कर सकते हैं।
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अब माई हिंदी फोरम, फेसबुक पर भी है. https://www.facebook.com/hindiforum |
05-06-2015, 11:46 PM | #280 | |
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Re: डार्क सेंट की पाठशाला
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