12-05-2013, 05:00 AM | #281 |
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Re: पथ के दावेदार
भारती ने कहा, “तुम्हारे हाथ पडूंगी, इसमें फिर डर कैसा?” डॉक्टर ने शशि की ओर देखते हुए कहा, “सुन लो कवि! भविष्य में अगर इन्कार करे तो तुम्हें गवाही देनी होगी।” भारती बोली, “किसी को गवाही नहीं देनी पड़ेगी भैया। मैं शपथ लेकर इन्कार नहीं करूंगी। केवल तुम्हारी स्वीकृति से काम बन जाएगा।” डॉक्टर ने कहा, “अच्छा, तब देख लूंगा।' “देख लेना”, भारती हंसकर बोली, “भैया, क्या मैं और सुमित्रा! स्वर्ग के इंद्रदेव भी अगर उर्वशी, मेनका और रम्भा को बुलाकर कहते कि उस प्राचीन युग के ऋषि-मुनियों के बदले तुम्हें इस युग के सव्यसाची की तपस्या भंग करनी होगी तो मैं निश्चित रूप से कहती हूं भैया कि उन्हें मुंह पर स्याही पोतकर वापस चले जाना पड़ता। रक्त-मांस का हृदय जीता जा सकता है लेकिन पत्थर के साथ क्या लड़ाई चल सकती है? पराधीनता के आग में जलकर तुम्हारा हृदय पत्थर बन गया है।” डॉक्टर मुस्कराने लगे। भारती की दोनों आंखें श्रध्दा और स्नेह से भर आईं। बोली, “इतना विश्वास न रहने पर क्या मैं इस तरह तुम्हारे सामने आत्म-समर्पण कर सकती थी? मैं नवतारा नहीं हूं। मैं जानती हूं कि मुझसे बड़ी भारी गलती हो गई है। लेकिन इस जीवन में उसके सुधार का कोई दूसरा मार्ग भी नहीं है। एक दिन के लिए भी जिसे मन-ही-मन.....?”
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12-05-2013, 05:01 AM | #282 |
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Re: पथ के दावेदार
भारती की आंखों से फिर आंसू बहने लगे। झटपट हाथ से उन्हें पोंछकर हंसने की चेष्टा करती हुई बोली, “भैया, क्या लौटने का समय अभी नहीं हुआ? भाटा आने में अभी कितनी देर है?”
डॉक्टर ने दीवार घड़ी की ओर देखकर कहा, “अभी देर है बहिन?' फिर दायां हाथ भारती के सिर पर रखते हुए कहा, “आश्चर्य है, इतनी दुर्दशा में भी बंगाल का यह अमूल्य रत्न अब तक नष्ट नहीं हुआ! जाने दो नवतारों को। भारती तो हम लोगों की है। शशि सारी पृथ्वी पर इसकी जोड़ी नहीं मिलेगी। हजारों सव्यसाचियों में भी शक्ति नहीं है कि एक तुच्छ अपूर्व को ओट करके खड़े हो जाए। अच्छी बात है शशि, तुम्हारी शराब की बोतल कहां है?” शशि लज्जित होकर बोला, “खरीदी नहीं। मैं अब नहीं पीऊंगा।” भारती बोली, “तुम्हें याद नहीं, नवतारा ने प्रतिज्ञा कराई थी।” शशि ने उसकी बात का समर्थन करते हुए कहा, “सचमुच ही नवतारा के सामने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मैं अब शराब नहीं पीऊंगा। उस प्रतिज्ञा को अब नहीं तोडूंगा डॉक्टर।” डॉक्टर हंसकर बोले, “शराब गई, नवतारा गई। सर्वस्व बेचकर जो रुपए मिले थे वह भी चले गए। एक साथ इतना कैसे सहा जाएगा?” शशि का चेहरा देखकर भारती को दु:ख हुआ। बोली, “मजाक करना सहज है भैया। सोचकर तो देखो।”
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12-05-2013, 05:02 AM | #283 |
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Re: पथ के दावेदार
डॉक्टर बोले, “सोच-विचार करके ही कह रहा हूं भारती।” इन रुपयों पर शशि की कितनी आशा-आकांक्षाएं थीं, यह बात मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। उसके परिचितों में ऐसा भी कोई नहीं है जिसने यह बात न सुनी हो। उसके बाद आई नवतारा। छ:-सात महीने तक थी। उसका ज्ञान-ध्यान था। और शराब-वह तो शशि के सुख-दु:ख की एकमात्र संगिनी है। कल सब कुछ था। लेकिन आज उसके जीवन का जो कुछ आनंद था, जो कुछ सांत्वना थी, वह सब एक ही दिन में एकाएक जैसे षडयंत्र करके उसे छोड़कर चली गई। फिर भी किसी के विरुध्द उसके मन में कोई विद्वेष नहीं। शिकायत नहीं, यहां तक कि आकाश की ओर देखकर एक बार भी आंसू भरी आंखों से यह न कह सका कि हे भगवान, मैंने किसी का अनिष्ट चिंतन नहीं किया। अगर भगवान वास्तव में हो तो इसका विचार करना।”
भारती लम्बी सांस लेकर बोली, “इसीलिए इन पर तुम्हारा इतना स्नेह है?” डॉक्टर बोले, “केवल स्नेह ही नहीं श्रध्दा भी है। शशि साधु पुरुष है। इसका संपूर्ण हृदय गंगा जल के समान शुद्व और निर्मल है। मेरे जाने के बाद भारती, जरा इसकी देखभाल रखना। यह स्वयं दु:ख भोगेगा लेकिन किसी दूसरे को दु:ख नहीं देगा। शशि का चेहरा लज्जा और संकोच से लाल हो उठा। इसके बाद कुछ देर तक शायद बात के अभाव से ही तीनों चुप बैठे रहे। डॉक्टर ने पूछा, “अब तुम क्या करोगे कवि? तुम्हारे पास तो केवल बेहला ही बचा है। पहले की तरह फिर देश-देश में बजाते फिरोगे?” शशि ने हंसते हुए कहा, “अपने काम में आप मुझे भर्ती कर लीजिए। मैं सचमुच अब शराब नहीं पीऊंगा।”
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12-05-2013, 05:02 AM | #284 |
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Re: पथ के दावेदार
उसकी बात और कहने का अंदाज देखकर भारती हंस पड़ी।
डॉक्टर भी हंसने लगे। फिर स्नेह से भीगे स्वर में बोले, “नहीं कवि, इसमें तुम्हें भर्ती होने की आवश्यकता नहीं है। तुम मेरी इस बहिन के पास रहो, इसी में मेरा बहुत काम हो जाएगा।” शशि ने पलभर मौन रहकर संकोच के साथ कहा, “पहले मैं कविता लिखा करता था डॉक्टर, शायद अब भी लिख सकता हूं।” डॉक्टर ने खुश होकर कहा, “इसमें मेरा बहुत काम बन जाएगा।” “मैं फिर आरम्भ करूंगा। अब केवल किसान-मजदूरों के लिए लिखूंगा।” “लेकिन वह लोग तो पढ़ना जानते नहीं कवि?” फिर बोले, 'यह काम अस्वाभाविक होगा। और कोई भी अस्वाभाविक चीज टिकती नहीं है। अनपढ़ों के लिए अन्य क्षेत्र खोला जा सकता है। क्योंकि उन्हें भूख का ज्ञान है। लेकिन उनके सामने साहित्य नहीं परोसा जा सकता। उनके सुख-दु:ख का वर्णन करने को साहित्य नहीं कहते। किसी दिन अगर सम्भव हुआ तो अपने साहित्य की वह स्वयं ही रचना कर लेंगे। नहीं तो तुम्हारे कंठ से निकले गीत हलधारों के लिए गीत काव्य नहीं हो सकते। यह असम्भव प्रयास तुम मत करना कवि।” “तो मैं क्या करूं?” “तुम विप्लव के गीत गाना। जहां तुमने जन्म लिया है, जहां जाति आदमी बने हो, केवल उन्हीं के लिए। केवल शिक्षित और भद्र के लिए।”
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29-06-2013, 09:32 AM | #285 |
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Re: पथ के दावेदार
भारती विस्मित होने के साथ व्यथित भी हुई। बोली, “भैया तुम भी जाति मानते हो? तुम्हारा ध्यान भी केवल भद्र जाति की ओर ही है।”
डॉक्टर बोले, “मैंने वर्णाश्रम की बात तो कही नहीं भारती। उस बलपूर्वक बने जाति भेद की चर्चा मैंने नहीं की। यह वैषम्य मुझमें नहीं है। लेकिन शिक्षित का जाति भेद माने बिना तो मैं रह नहीं सकता। यही तो सच्ची जाति है, यही तो भगवान के हाथ की बनी हुई सृष्टि है। ईसाई होने के कारण मैं तुम्हें ठेलकर क्या अलग रख सका हूं बहिन? तुम्हारी बराबरी का मुझे अपना कहने के लिए ओर कौन है?” भारती ने श्रध्दा भरी नजरों से उनकी ओर देखते हुए कहा, “लेकिन तुम्हारा विप्लव गान तो शशि बाबू के मुंह से शोभा नहीं देगा भैया। तुम्हारे विप्लव का गीत, तुम्हारी गुप्त समिति का....” डॉक्टर ने उसे बीच में ही रोककर कहा, “नहीं, मेरी गुप्त समिति का भार मेरे ही ऊपर रहने दो बहिन। उस बोझ को ढोने योग्य शक्ति.... नहीं, नहीं, उसे रहने दो.... वह केवल मेरे लिए है।”तुम से तो मैं कह चुका हूं भारती विप्लव का अर्थ केवल खून-खराबा नहीं है। विप्लव का अर्थ है-अत्यधिक तीव्रता से आमूल परिवर्तन। राजनीतिक विप्लव नहीं.... वह तो मेरा ही है। कवि, तुम दिल खोलकर सामाजिक विप्लव के गीत गाने शुरू कर दो। जो कुछ सनातन है, जो कुछ प्राचीन है, जीर्ण और पुराना है-धर्म, समाज, संस्कार-सब टूट-फूटकर ध्वंस हो जाए, और कुछ न कर सको शशि तो केवल इस महासत्य का ही मुक्त कंठ से प्रचार करो कि इससे बढ़कर बड़ा शत्रु भारत का और कोई नहीं है। उसके बाद देश की स्वाधीनता का भार मुझ पर रहने दो।” सीढ़ी पर किसी की आहट सुनाई दी।
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29-06-2013, 09:33 AM | #286 |
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Re: पथ के दावेदार
“कौन है?” शशि ने पूछा।
डॉक्टर पलक झपकते ही तेज चाल से बारमदे में चले गए। फिर तुरंत ही वापस आकर बोल, “भारती, सुमित्रा आ रही है।” उस गहन रात्रि में सुमित्रा के आने का समाचार जैसा अप्रत्याशित था वैसा ही अप्रीतिकर भी था। भारती व्यथित और त्रस्त हो उठी। पलभर बाद सुमित्रा के आने पर डॉक्टर ने स्वाभाविक स्वर में स्वागत करते हुए कहा, “बैठो, क्या अकेली ही आई हो?” सुमित्रा ने कहा, “हां।” फिर उसने भारती से पूछा, “अच्छी तरह हो न?” इस एक ही मिनट में भारती ने न जाने क्या-क्या सोच डाला, इसका ठिकाना नहीं। उस दिन की तरह आज भी सुमित्रा उसकी कोई परवाह नहीं करेगी, यह वह निश्चित रूप से जानती थी। लेकिन इस कुशल प्रश्न से नहीं बल्कि उसकी आवाज में स्निग्ध कोमलता देखकर भारती मानो सहसा अपने हाथों में चंद्रमा को पा गई। बोली, 'अच्छी तरह हूं जीजी, आप तो अच्छी तरह हैं न?” “हां, अच्छी तरह हूं। कहकर सुमित्रा एक ओर बैठ गई। डॉक्टर बोले, “शशि के मुंह से मैंने सुना कि तुम बहुत ही बड़ी सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होकर जावा जा रही हो?” “हां, मुझे ले जाने के लिए आदमी आया है।” “कब जाओगी?”
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29-06-2013, 09:33 AM | #287 |
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Re: पथ के दावेदार
“शनिवार को पहले स्टीमर से।”
“अब तो तुम बड़ी धनवान हो।” “हां, सब मिल गया तो बन जाऊंगी।” डॉक्टर बोले, “मिल ही जाएगा। एटॉर्नी की राय के बिना कोई काम मत करना। सावधान रहना। जो तुम्हें ले जाने के लिए आए हैं वह परिचित तो हैं न?” सुमित्रा बोली, “हां, भरोसे के आदमी हैं। मैं पहचानती हूं।” “तब कोई बात नहीं।” अचानक शशि बोल उठा, “यह तो बहुत बुरी बात हुई डॉक्टर। जिन तीन बंगाली महिलाओं को आपने लिया था-नवतारा गई, स्वयं प्रेसीडेंट जाने को तैयार हैं। केवल भारती....।” डॉक्टर हंसते हुए बोले, “चिंता मत करो। भारती भी महाजनों के पंथ का अनुसरण करेगी-यह एक प्रकार से निश्चित हो चुका है।” भारती ने गुस्से से देखा।
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29-06-2013, 09:34 AM | #288 |
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Re: पथ के दावेदार
डॉक्टर के परिहास में छिपी व्यथा का अनुमान करके शशि ने कहा, “आपको जल्दी ही चला जाना पड़ेगा। अब तो आप देखिए कि आपके 'पथ के दावेदारों' की एक्टिविटी कम-से-कम बर्मा में तो समाप्त हो गई। इसे अब कौन चलाएगा?”
वह उसी तरह हंसते हुए बोले, “यह कैसी बात कह रहे हो कवि? इतने समय से इतना देख-सुनकर भी अंत में सव्यसाची के लिए तुम्हारे ही मुंह से यह सर्टिफिकेट? तीन महिलाएं चली जाएंगी, क्या इसीलिए 'पथ के दावेदार' समाप्त हो जाएगा? शराब छोड़ देने का क्या यही फल हुआ है? इससे तो अच्छा है कि फिर पीना शुरू कर दो।” बात मजाक-सी सुनाई पड़ने पर भी मजाक नहीं है, यह समझ लेने पर भी भारती ठीक-ठीक नहीं समझ सकी। कनखियों से उसने बड़े ध्यान से देखा, सुमित्रा आंखें झुकाए चुपचाप बैठी है। उसने मुंह उठाकर डॉक्टर के चेहरे पर नजरें टिकाए रखकर कहा, “भैया, समझने के लिए मुझे तो शराब शुरू करने की जरूरत नहीं है, लेकिन फिर भी मैं कुछ नहीं समझ पाई। नवतारा कुछ भी नहीं है। और मैं तो उससे भी तुच्छ हूं। लेकिन सुमित्रा जीजी-जिन्हें तुमने प्रेसीडेंट का आसन दिया है, उनके चले जाने पर क्या तुम्हारे पथ के दावेदार को चोट नहीं पहुंचेगी, सच बताओ भैया, केवल किसी को लांछित करने के लिए ही नाराज होकर मत कहना।” सुमित्रा जिस तरह मुंह झुकाए बैठी थी, उसी तरह चुपचाप नीचा मुंह किए मूर्ति की भांति बैठी रही। डॉक्टर पल भर मौन रहे उसके बाद धीरे-धीरे बोले, “भारती, मैंने क्रोध में यह बात नहीं कही है। सुमित्रा अवहेलना की वस्तु नहीं है। तुम शायद नहीं जानती, लेकिन सुमित्रा स्वयं अच्छी तरह जानती है कि इन मामलों में अपनी हानि की गणना नहीं करनी चाहिए। इसके लिए किसके प्राण फालतू हैं? प्राणों का मूल्य किस चीज से निश्चित किया जा सकता है? बताओ तो। मनुष्य तो जाएगा ही। वह चाहे जितना भी बड़ा क्यों न हो, किसी के अभाव को ही हमें सर्वनाश नहीं समझ लेना चाहिए। जल के स्रोत के समान, एक का स्थान दूसरा स्वच्छंदता से और बिल्कुल अनायास ही पूरा कर सकता है, यही शिक्षा हमारी पहली और प्रधान शिक्षा है भारती।”
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29-06-2013, 09:34 AM | #289 |
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Re: पथ के दावेदार
भारती बोली, “लेकिन ऐसा तो संसार में होता नहीं। उदाहरण के रूप में तुम्हीं को मान लिया जाए। तुम्हारा अभाव कोई किसी दिन पूरा कर सकता है-यह बात मैं सोच भी नहीं सकती भैया।”
डॉक्टर बोले, “तुम्हारी विचारधारा अलग ही है भारती और जिस दिन मुझे इसका पता चला, उसी दिन से मैं तुम्हें फिर से इस दल में खींच लाने में असमर्थ हो गया। मेरे मन में बार-बार यही विचार आया है कि संसार में तुम्हारे लिए यह नहीं, दूसरा काम है।” भारती बोली, “और मुझे भी बराबर यही खयाल आता रहा है कि तुम मुझे अयोग्य समझ कर दूर हटा देना चाहते हो। अगर मेरे लिए दूसरा काम हो तो मैं उसी के लिए अभी से निकल पडूंगी। लेकिन मेरे प्रश्न का तो यह उत्तर नहीं है भैया। वास्तविक बात ही तुच्छ हो गई है। तुम्हारा अभाव जल के स्रोत के समान पूरा हो सकता है या नहीं? तुम कह रहे हो कि हो सकता है। और मैं कह रही हूं कि नहीं हो सकता। मैं जानती हूं कि नहीं हो सकता....मैं जानती हूं कि मनुष्य केवल जल का स्रोत नहीं है....तुम तो अवश्य ही नहीं हो।” पल भर मौन रहकर उसने फिर कहा, “केवल इसी बात को जानने के लिए मैं तुम्हें परेशान न करती। लेकिन जो नहीं है। जिसे तुम स्वयं जानते हो कि वह सत्य नहीं है-मुझे उसी से फुसलाना चाहते हो?” भारती ही ने फिर कहा, “इस देश में अब तुम्हारा ठहरना नहीं हो सकता। तुम जाने को बैठे हो। फिर तुम्हें वापस पाना कितना अनिश्चित है-यह सोचते ही हृदय में ज्वाला धधक उठती है। इसी से उसका सोच नहीं करती। फिर भी सत्य को प्रतिक्षण अनुभव किए बिना नहीं रह सकती। इस व्यथा की सीमा नहीं है। लेकिन इससे भी बढ़कर मेरी व्यथा यह है कि तुमको इस तरह पाकर भी मैं नहीं पा सकी। आज मुझे कितने प्रश्न याद आ रहे हैं भैया। लेकिन मैंने जब भी उन प्रश्नों को पूछा है-तुमने सच भी कहा है और झूठ भी कहा है। सच और झूठ मिलाकर भी कहा है। लेकिन किसी भी तरह मुझे सत्य क्या है, यह जानने नहीं दिया। तुम्हारे पथ के दावेदार की मैं सेक्रेटरी हूं फिर भी तुम्हारे कार्य-पध्दति में मेरी बिल्कुल श्रध्दा नहीं है। मैंने यह बात कभी नहीं छिपाई। तुम नाराज नहीं हुए। न अविश्वास ही किया। मुस्कराते हुए केवल मुझे अलग कर देना चाहा है। अपूर्व बाबू के जीवन-दान की बात भी मैं भूली नहीं हूं। मालूम होता है-मेरे छोटे से जीवन का कल्याण केवल तुम्हीं निर्देशित कर सकते हो। भैया, जाते समय अब अपने आपको छिपाकर मत जाओ। तुम्हारा, मेरा, सभी का जो परम सत्य है-उसे ही आज कपट छोड़कर स्पष्ट प्रकट कर दो।”
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29-06-2013, 09:35 AM | #290 |
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Re: पथ के दावेदार
इस अनोखी प्रार्थना का अर्थ न समझ पाने के कारण शशि और सुमित्रा दोनों ही आश्चर्यचकित होकर ताकते रह गए और उनकी आंखों पर नजर डालकर भारती ने अपनी व्याकुलता से स्वयं ही लज्जित हो उठी। यह लज्जा डॉक्टर की नजरों से छिपी न रह सकी। उन्होंने हंसते हुए कहा, “सच, झूठ और सफेद झूठ-एक में मिलाकर तो सभी बोलते हैं भारती। इसमें मेरा विशेष दोष क्या है? इसके अतिरिक्त यदि किसी के लिए यह बात लज्जा करने की हो तो वह मेरे ही लिए है। लेकिन लज्जित तुम हो रही हो।”
भारती मुंह झुकाए बैठी रही। सुमित्रा ने इसका उत्तर देते हुए कहा, “लेकिन अगर डॉक्टर, तुम्हारे पास लज्जा हो ही नहीं-तब? लेकिन स्त्रियां तो मुंह पर सच बात भी स्पष्ट रूप से कहने में लज्जा का अनुभव करती हैं। कोई-कोई तो कह ही नहीं सकती।” यह बात किसको लक्ष्य करके किसलिए कही गई, यह किसी से छिपी नहीं रही लेकिन जो श्रध्दा और सम्मान उनके लिए सहज प्राप्य मालूम होते हैं उन्होंने ही सबको निरुत्तर कर दिया। दो-तीन मिनट इसी तरह चुपचाप बीत जाने पर डॉक्टर ने भारती की ओर देखते हुए कहा, “भारती, सुमित्रा ने कहा है कि मुझ में लज्जा नहीं है। तुमने यह आरोप लगाया है कि मैं सुविधानुसार सच-झूठ दोनों ही बोला करता हूं। आज भी उसी तरह कुछ कहकर इस प्रसंग को मैं समाप्त कर सकता था। यदि इसके साथ मेरे पथ के दावेदार का कोई संबंध न होता। इसकी भलाई-बुराई से ही मेरा सच-झूठ निर्धारित होता है। यही मेरा नीति शास्त्र है। यही मेरी अकपट मूर्ति है।” भारती अवाक् होकर बोली, “यह क्या कहते हो भैया। यही तुम्हारी नीति है? यही तुम्हारी अकपट मूर्ति है?” सुमित्रा बोल उठी, “हां, ठीक यही है। यही इनका यथार्थ स्वरूप है। दया नहीं, ममता नहीं, धर्म नहीं-इस पत्थर की मूर्ति को मैं पहचानती हूं।”
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