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#21 |
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![]() ![]() मुझे बन जाने दो, या बिखर जाने दो, या मिट जाने दो, या निखर जाने दो। होगा एतबार ईस नशेमन पर भी, एक तुफान यहां से गुज़र जाने दो। बहुत राह देखी, तब समझा हूं मैं... नहीं लौटता वक्त, अगर जाने दो! बेईन्तहा रहा है, बेईन्तहा सहा है, अगर ईश्क नशा है, उतर जाने दो! मुझे जाल में ईतना न उलझाओ, झुल्फें संवारो दो, या बिखर जाने दो। सपनें दिखा दिखा, पागल किया मुझे, चोट भी दे दी, अब सुधर जाने दो! (दीप १.४.१५)
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#22 |
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बहुत ही शानदार ,दीप जी आप वाकई बहुत ही अच्छा लिखते हैं। आपकी सारी कवितायेँ लाजवाब हैं।
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#23 |
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आपकी कविताओं में भावनाओं की अच्छी अभिव्यक्ति हुयी है. इन्हें पढ़ना एक सुखद अनुभव से गुज़रने के समान है. धन्यवाद, दीप जी.
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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#24 | |
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रजनीश जी, आपकी टिप्पणी हंमेशा प्रेरणादायक रही है। ईसके लिए धन्यवाद!
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#25 |
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![]() ![]() तु दुर रहे चाहे पास रहे, मिलने की झुठी आस रहे। तेरे आने की ना तमन्ना हो, तेरी राह में हम क्यूं उदास रहे? तेरा नाम लबों पे आए नहीं, मुझे ईतना होश-ओ-हवास रहे। मेरे होने से बढ कर है की, तेरे होने का एहसास रहे। वो हंस दे कभी तो क्या होगा? जिसे ग़म ही हंमेशा रास रहे। खुशीयों के पल बीतें है मगर... जितने भी रहे, वो खास रहे। दीप (७.४.१५) अभी अभी रात २.०० बजे गज़ल पुरी की है!
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Last edited by Deep_; 07-04-2015 at 03:25 PM. |
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#26 |
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एहसान
![]() बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए । मुझे भी कुछ होने का गुमान हो जाए । सदियों से शायद तुम्हे जानता हुं मैं, तुम्हे भी मेरी कुछ पहेचान हो जाए । जो दुनिया आज मुजे अनदेखा करती है, तुम्हे देख मेरे साथ, वो भी हैरान हो जाए ! तुम जिसे दो कदम चलना कहती हो, हो सकता है वह मेरी उडान हो जाए । पाना तुम्हें कभी मुमकीन ही नही, यह समज़ना ओर भी आसान हो जाए। फिर चाहे बाद में हम अन्जान हो जाएं, बस एक मुलाकात का एहसान हो जाए । दीप (4.5.15)
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#27 |
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[QUOTE=Deep_;550925]एहसान
बेहतरीन .....बहुत ही बढिया लिखा है आपने दीप जी....... ![]()
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It's Nice to be Important but It's more Important to be Nice |
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#28 |
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वाह दीप बाबू ! आप तो शायरे-आज़म निकले।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
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#29 |
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गज़ल
![]() कागज़-कलम उठाए, तो गज़ल बन गई, फिर कुछ लिख ना पाए, तो गज़ल बन गई! हमने तुम को मांगा और तुम मुस्कुराए, कुछ ख्वाब ऍसे आए, तो गज़ल बन गई! मुलाकातों में अक्सर खामोश ही रहे हम, तनहा दो पल बिताए, तो गज़ल बन गई! चिंगारी जैसी यादें सीने में उठ रही थी, जब शोले लपलपाए, तो गज़ल बन गई! भेजने से जिनको कोई फर्क भी न पड़ता, ख़त सारे वो जलाए, तो गज़ल बन गई! दर्द-ओ-ग़म, ग़म-ए-शाम और शाम-ए-तनहाई, सीने से जब लगाए, तो गज़ल बन गई! (दीप ९.६.१५) 'गज़ल' बस ऍसे ही बन गई है, शायद आपको पीछली रचनाओं के मुकाबले थोडी फिकी लगे। शब्दों की त्रुटियां तो खैर रजनीश जी सुधरवा ही देंगे, बाकी टीका-टिप्पणी आवकार्य है! Last edited by Deep_; 13-06-2015 at 12:56 AM. |
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#30 | |
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शाम-ए-ग़म सरल थी न आसाँ शब-ए-फ़िराक़ दोनों से ज़ख्म खाये, तो ग़ज़ल बन गई !! (शब-ए-फ़िराक = विरह की रात)
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) Last edited by rajnish manga; 14-06-2015 at 09:43 AM. |
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