24-09-2011, 09:38 PM | #21 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
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26-09-2011, 04:43 PM | #22 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मत कहो
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं बात इतनी है कि कोई पुल बना है रक्त वर्षों से नसों में खौलता है आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था शौक से डूबे जिसे भी डूबना है दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है आजकल नेपथ्य में संभावना है |
27-09-2011, 07:22 PM | #23 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
मापदन्ड बदलो
मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम, जुए के पत्ते-सा मैं अभी अनिश्चित हूँ । मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं, कोपलें उग रही हैं, पत्तियाँ झड़ रही हैं, मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ, लड़ता हुआ नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ । अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं, मेरे बाज़ू टूट गए, मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए, मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया, या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं, तो मुझे पराजित मत मानना, समझना – तब और भी बड़े पैमाने पर मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा, मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ एक बार और शक्ति आज़माने को धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को मचल रही होंगी । एक और अवसर की प्रतीक्षा में मन की क़न्दीलें जल रही होंगी । ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं ये मुझको उकसाते हैं । पिण्डलियों की उभरी हुई नसें मुझ पर व्यंग्य करती हैं । मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ क़सम देती हैं । कुछ हो अब, तय है – मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है, पत्थरों के सीने में प्रतिध्वनि जगाते हुए परिचित उन राहों में एक बार विजय-गीत गाते हुए जाना है – जिनमें मैं हार चुका हूँ । मेरी प्रगति या अगति का यह मापदण्ड बदलो तुम मैं अभी अनिश्चित हूँ । |
17-10-2011, 01:07 AM | #24 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
सूत्र को निरंतर रखें, मित्र ! दुष्यंतजी ने बहुत कुछ रचा है और वह सभी पढ़ने योग्य है ! एक बेहतरीन सूत्र के लिए आपका धन्यवाद !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
20-10-2011, 03:36 PM | #25 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
सूर्य का स्वागत
परदे हटाकर करीने से रोशनदान खोलकर कमरे का फर्नीचर सजाकर और स्वागत के शब्दों को तोलकर टक टकी बांधकर बाहर देखता हूं और देखता रहता हूं मैं ! सड़कों पर धूप चिलचिलाती है चिड़िया तक दिखाई नही देती पिघले तारकोल में हवा तक चिपक जाती है बहती बहती, किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से एक शब्द नही कहता हूं मैं ! सिर्फ कल्पनाओं से सूखी और बंजर जमीन को खरोंचता हूं जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में उनके बारे में सोचता हूं कितनी अजीब बात है कि आज भी प्रतीक्षा सहता हूं !
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20-10-2011, 03:40 PM | #26 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं
बाढ़ की संभावनाएं सामने हैं, और नदियों के किनारे घर बने हैं । चीड़-वन में आंधियों की बात मत कर, इन दरख्तों के बहुत नाज़ुक तने हैं । इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं । आपके क़ालीन देखेंगे किसी दिन, इस समय तो पांव कीचड़ में सने हैं । जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं । अब तड़पती-सी ग़ज़ल कोई सुनाए, हमसफ़र ऊंघे हुए हैं, अनमने हैं ।
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20-10-2011, 03:43 PM | #27 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
तुलना
गडरिये कितने सुखी हैं । न वे ऊँचे दावे करते हैं न उनको ले कर एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं। जबकि जनता की सेवा करने के भूखे सारे दल भेडियों से टूटते हैं। ऐसी-ऐसी बातें और ऐसे शब्द सामने रखते हैं जैसे कुछ नहीं हुआ है और सब कुछ हो जाएगा । जबकि सारे दल पानी की तरह धन बहाते हैं, गडरिये मेडों पर बैठे मुस्कुराते हैं – भेडों को बाड में करने के लिए न सभाएँ आयोजित करते हैं न रैलियाँ, न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ, न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं, स्वेच्छा से जिधर चाहते हैं, उधर भेडों को हाँके लिए जाते हैं । गडरिये कितने सुखी हैं ।
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09-11-2011, 07:28 PM | #28 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
दो पोज
सद्यस्नात[१] तुम जब आती हो मुख कुन्तलों[२] से ढँका रहता है बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब राहू से चाँद ग्रसा रहता है । पर जब तुम केश झटक देती हो अनायास तारों-सी बूँदें बिखर जाती हैं आसपास मुक्त हो जाता है चाँद तब बहुत भला लगता है । शब्दार्थ: [१] इसी समय नहाई हुई, तुरन्त नहाकर आना [२] केश, बाल |
09-11-2011, 07:29 PM | #29 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
इनसे मिलिए
पाँवों से सिर तक जैसे एक जनून बेतरतीबी से बढ़े हुए नाख़ून कुछ टेढ़े-मेढ़े बैंगे दाग़िल पाँव जैसे कोई एटम से उजड़ा गाँव टखने ज्यों मिले हुए रक्खे हों बाँस पिण्डलियाँ कि जैसे हिलती-डुलती काँस कुछ ऐसे लगते हैं घुटनों के जोड़ जैसे ऊबड़-खाबड़ राहों के मोड़ गट्टों-सी जंघाएँ निष्प्राण मलीन कटि, रीतिकाल की सुधियों से भी क्षीण छाती के नाम महज़ हड्डी दस-बीस जिस पर गिन-चुन कर बाल खड़े इक्कीस पुट्ठे हों जैसे सूख गए अमरूद चुकता करते-करते जीवन का सूद बाँहें ढीली-ढाली ज्यों टूटी डाल अँगुलियाँ जैसे सूखी हुई पुआल छोटी-सी गरदन रंग बेहद बदरंग हरवक़्त पसीने का बदबू का संग पिचकी अमियों से गाल लटे से कान आँखें जैसे तरकश के खुट्टल बान माथे पर चिन्ताओं का एक समूह भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल विद्युत परिचालित मखनातीसी चाल बैठे तो फिर घण्टों जाते हैं बीत सोचते प्यार की रीत भविष्य अतीत कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार इनसे मिलिए ये हैं दुष्यन्त कुमार । |
16-01-2012, 11:16 PM | #30 |
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Re: दुश्यन्त कुमार की कविताएँ
वह बचपन के दिन क्यों ढूँढता है दिल
वह पुरानी यादें क्यों ताज़ा करता है दिल वो गर्मी की छुट्टियों में नानी का घर स्कूल का आखरी दिन, वो ट्रेन का सफर वो पतली सी गली में आखरी आलीशान मकान वो गरम गरम समोसे , वो हलवाई की दूकान घर में मामा , मौसी और बहन भाईयों की चहल पहल छुपन छुपैयाँ , पिट्हू , बस दिन भर खूब खेल दीवार फर्लांग के मैदान में खेलें पकड़म पकड़ी भाई मिल के खेलें क्रिकेट, बहनें खेलें लंगडी खेलते हुए कभी हो गई खूब जम के लड़ाई फिर कुछ रोना रुलाना , बाद में भाई भाई रात में छत पर अन्ताक्षरी , होता गाना बजाना वही बिस्तर लगाकर ठंडी हवा में तारे गिनना वह बचपन के दिन क्यों ढूँढता है दिल वह पुरानी यादें क्यों ताज़ा करता है दिल |
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