24-03-2015, 08:01 PM | #21 |
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Re: गुरुदेव कौ अंग
राग सनेही, ऊबरे, बिषई खाये झारि॥1॥ काँमणि मीनीं पाँणि की, जे छेड़ौं तौ खाइ। जे हरि चरणाँ राचियाँ, तिनके निकटि न जाइ॥2॥ परनारी राता फिरै, चोरी बिढता खाँहिं। दिवस चारि सरसा रहै, अंति समूला जाँहिं॥3॥ पर नारी पर सुंदरी बिरला बंचै कोइ। खाताँ मीठी खाँड सी, अंति कालि विष होइ॥4॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे ये दोहे हैं- जहाँ जलाई सुंदरी, तहाँ तूँ जिनि जाइ कबीर। भसमी ह्नै करि जासिसी, सो मैं सवा सरीर॥5॥ नारी नाहीं नाहेरी, करै नैन की चोट। कोई एक हरिजन ऊबरै पारब्रह्म की ओट॥6॥ पर नारी कै राचणै, औगुण है गुण नाँहि। षीर समंद मैं मंझला, केता बहि बहि जाँहि॥5॥ पर नारी को राचणौं, जिसी ल्हसण की पाँनि। पूणैं बैसि रषाइए परगट होइ दिवानि॥6॥ टिप्पणी: क-प्रगट होइ निदानि। नर नारी सब नरक है, जब लग देह सकाम। कहै कबीर ते राँम के, जे सुमिरै निहकाम॥7॥ नारी सेती नेह, बुधि बबेक सबही हरै। काँढ गमावै देह, कारिज कोई नाँ सरै॥8॥ नाना भोजन स्वाद सुख, नारी सेती रंग। बेगि छाँड़ि पछताइगा, ह्नै है मूरति भंग॥9॥ नारि नसावै तीनि सुख, जा नर पासैं होइ। भगति मुकति निज ग्यान मैं, पैसि न सकई कोइ॥10॥ एक कनक अरु काँमनी, विष फल कीएउ पाइ। देखै ही थे विष चढ़े, खायै सूँ मरि जाइ॥11॥ एक कनक अरु काँमनी दोऊ अंगनि की झाल। देखें ही तन प्रजलै, परस्याँ ह्नै पैमाल॥12॥ कबीर भग की प्रीतड़ी, केते गए गड़ंत। केते अजहूँ जायसी, नरकि हसंत हसंत॥13॥ टिप्पणी: ख-गरकि हसंत हसंत। जोरू जूठणि जगत की, भले बुरे का बीच। उत्यम ते अलगे रहै, निकटि रहै तैं नीच॥14॥ नारी कुण्ड नरक का, बिरला थंभै बाग। कोई साधू जन ऊबरै, सब जग मूँवा लाग॥15॥ सुंदरि थे सूली भली, बिरला बचै कोय। लोह निहाला अगनि मैं, जलि बलि कोइला होय॥16॥ अंधा नर चैते नहीं, कटै ने संसे सूल। और गुनह हरि बकससी, काँमी डाल न मूल॥17॥ भगति बिगाड़ी काँमियाँ, इंद्री केरै स्वादि। हीरा खोया हाथ थैं, जनम गँवाया बादि॥18॥ कामी अमीं न भावई, विषई कौं ले सोधि। कुबधि न जाई जीव की, भावै स्यंभ रहो प्रमोधि॥19॥ विषै विलंबी आत्माँ, मजकण खाया सोधि। ग्याँन अंकूर न ऊगई, भावै निज प्रमोध॥20॥ विषै कर्म की कंचुली, पहरि हुआ नर नाग। सिर फोड़ै, सूझै नहीं, को आगिला अभाग॥21॥ कामी कदे न हरि भजै, जपै न कैसो जाप। राम कह्याँ थैं जलि मरे, को पूरिबला पाप॥22॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है- राम कहंता जे खिजै, कोढ़ी ह्नै गलि जाँहि। सूकर होइ करि औतरै, नाक बूड़ंते खाँहि॥25॥ काँमी लज्जा ना करै, मन माँहें अहिलाद। नीद न माँगैं साँथरा, भूष न माँगै स्वाद॥23॥ टिप्पणी: ख में इसके आगे यह दोहा है- कामी थैं कुतो भलौ, खोलें एक जू काछ। राम नाम जाणै नहीं, बाँबी जेही बाच॥27॥ नारि पराई आपणीं, भुगत्या नरकहिं जाइ। आगि आगि सबरो कहै, तामै हाथ न बाहि॥24॥ कबीर कहता जात हौं, चेतै नहीं गँवार। बैरागी गिरही कहा, काँमी वार न पार॥25॥ ग्यानी तो नींडर भया, माँने नाँही संक। इंद्री केरे बसि पड़ा, भूंचै विषै निसंक॥26॥ ग्याँनी मूल गँवाइया, आपण भये करंता। ताथै संसारी भला, मन मैं रहे डरंता॥27॥404॥ टिप्पणी: ख प्रति में इसके आगे यह दोहा है- काँम काँम सबको कहैं, काँम न चीन्हें कोइ। जेती मन में कामना, काम कहीजै सोइ॥32॥
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