14-06-2011, 08:44 PM | #21 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
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27-06-2011, 06:05 AM | #22 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
अति उत्तम! साथ में व्याख्या देकर तो और भी मज़ा बाँध दिया!
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10-07-2011, 05:38 PM | #23 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
धन्यवाद दोस्तों ...
स्व घोषित प्रतिबन्ध की अवधि खत्म हो चुकी है और मै वापस आ गया हूँ अतः इस सूत्र पर जल्द ही दृष्टिपात करता हूँ |
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ये दिल तो किसी और ही देश का परिंदा है दोस्तों ...सीने में रहता है , मगर बस में नहीं ...
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13-07-2011, 12:23 AM | #24 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
मैं उन्हे छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मै पिये होते क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो काश के तुम मेरे लिये होते मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था दिल भी या रब कई दिये होते आ ही जाता वो राह पर 'ग़ालिब' कोई दिन और भी जिये होते
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14-07-2011, 06:21 PM | #25 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
...जियो शेर ...
हमें बहुत ही पसंद है ग़ालिब जी को सुनना ... |
14-07-2011, 06:42 PM | #26 | |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
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15-07-2011, 12:31 AM | #27 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
हर एक मकान को है मकीं से शरफ असद मजनूं जो मर गया है ,वो जंगल उदास है अर्थ - हर मकान अपने रहने वालों की जगह से मशहूर होता है |मजनूं का घर चूँकि जंगल ही था इसीलिए अब उसके बगैर जंगल भी उदास हो गया |
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15-07-2011, 01:01 AM | #28 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त ओ बाजू को यह लोग क्यूँ गिरे जख्मे जिगर को देखते हैं अर्थ - लोग मेरे जिगर के जख्मो को क्यूँ देखते हैं | कहीं उस हाथ को नज़र न लग जाए क्यूंकि यह जख्म उसी ने डाला है |
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19-08-2011, 11:29 PM | #29 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
तू मुझे भूल गया हो तो पता बतला दूँ
कभी फ़ितराक में तेरे कोई नख़्चीर भी था अर्थ - ऐसा लगता है तू मेरा पता भूल गया है। याद कर कभी तूने मेरा शिकार किया था और उसे अपने नख़्चीर (शिकार रखने का झोला) में रखा था। मैं वही शिकार हूँ जिसे तूने शिकार किया था। यानी एक ज़माना था जब हमारे रिश्ते बहुत अच्छे और क़रीबी थे। |
19-08-2011, 11:31 PM | #30 |
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Re: ग़ालिब की रचनाएं ...
तुम से बेजा है मुझे अपनी तबाही का गिला
उसमें कुछ शाएबा-ए-ख़ूबिए-तक़दीर भी था अर्थ -तुमसे मैं जो अपनी तबाही का शिकवा कर रहा हूँ, वो ठीक नहीं है। मेरी तबाही में मेरी तक़दीर का भी तो हाथ हो सकता है। |
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