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Originally Posted by deep_
रवि जी, यह सुत्र मुझे अत्यंत प्रभावित कर गया । असल में अगर हम सब ये त्रूटियां सुधार लें तो भारतीय अर्थतंत्र काफी हद तक बहेतर हो सकता है। यहां विज्ञापनो की एसी झड़ी सी बरसती रहेती है । ज्यादातर विज्ञापन एसे ही होतें हो मानो उनकी वस्तु अगर हम न खरीदें तो हम छोटे हो गए, बेवकुफ बन गए, हमनें कोई भारी भुल कर दी, हमें हमारे बच्चो एवं परिवार की केयर नहिं करते... इस प्रकार की हीनता भरी अनुभुती हमें यह विज्ञपन करवातें है।
ज्यादातर कंपनी विदेशी भी होती है जो यहां मानों एक लघु उध्योग चला रही हो। भारत के बहोत से लधु एवं गृह उध्योगो को ईन्होंने खत्म कर दिया है। हम प्रोडक्ट के नाम पर से यह अंदाजाभी नहिं लगा सकते की यह कंपनी भारतीय है या विदेशी । यह कंपनी अपना फायदा कमा कर अपने अपने देशो में क्या उत्पाद करतीं है यह भी हमारे लिये गोपनीय है।
एक आम भारतीय का दोष यह होता है की वह विदेशी ब्रांड से आकर्षित हो जाता है, स्वदेशी ब्रांड की गुणवत्ता पर सदैव संदेह ही रखता है। चाईनीझ प्रोडक्ट खरीदने वालों को यह पता नहि होता की चाईना ईसका मुनाफा कहां कहां ईस्तमाल करनेवाला है। आगे क्या कहुं? हम सब समझदार है ही!
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आपके विचार हर व्यक्ति को सोचने पर मजबूर करेंगे. विज्ञापन का मनोविज्ञान टार्गेट ग्रुप को प्रभावित करने का ही काम करता है जिसमे बड़े और बच्चे, महिलायें और पुरुष, उच्च वर्ग और माध्यम वर्ग सभी शामिल हैं. दूसरे, प्रतिस्पर्धा से प्रेरित होने वाले बाजार को पहिये या पंख लगाने का काम यही विज्ञापन करते हैं. सफल विज्ञापन का काम है आपको बिना जरुरत के चीजें खरीदने पर आमादा करना.