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Old 15-01-2013, 11:36 PM   #21
jai_bhardwaj
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Default Re: कबिरा खडा बाज़ार में ...........(हास्य-व्यंग्य)

चलते फिरते विज्ञापन

रेल में बैठकर ताक-झाँक करना मेरा शौक भी है और मेरी मजबूरी भी, शौक इसलिए कि मेरा बचपन ऐसे गाँव में

बीता है जहाँ से रेलवे स्टेशन इतनी दूर था कि रेल देख पाने का तो सवाल ही नहीं था - हाँ, गर्मी की दोपहरी के सन्नाटे

में कभी-कभी रेल की आवाज़ सुनाई पड़ जाने पर मैं अपने मकान की छत पर चढ़ जाता था और उसके सारे आसमाँ

को घेर लेने वाले धुएँ की झलक पाकर मेरा मन बाग-बाग हो जाता था और मजबूरी इसलिए कि लगातार चुपचाप घंटों

तक एक जगह पर बैठे रहना मेरी फ़ितरत और कुव्वत दोनों से बाहर की चीज़ है। आज साठ की उम्र पार करने के बाद

भी मैं रेल के सफ़र के दौरान बीच-बीच में ए.सी.कोच में बाहर गैलरी में आकर दरवाज़ा खोलकर पीछे को भागते खेत-

खलिहान और चाँद सितारे देखा करता हूँ - और कभी-कभी इतनी देर तक खड़ा रहता हूँ कि कोच अटेंडेंट मुझे शक की

नज़र से देखने लगता है कि बूढ़ा कहीं किसी क्रॉनिक बीमारी से तंग आकर रेल से कूदकर जान देने की हिम्मत तो नहीं

जुटा रहा है।



मेरा निजी ख़याल है कि जिसने रेल के सफ़र में गेट पर खड़े होकर तेज़ी से बदलते नज़ारों को नहीं देखा, उसने ज़िंदगी

में तो बहुत कुछ खोया ही - साथ में टिकट के कीमती पैसे भी बरबाद किए। ये नज़ारे सिर्फ़ पेड़-पौधे, जंगल-पहाड़ के

ही नहीं होते हैं बल्कि आदमी की ज़िंदगी की मजबूरियों, उसके दिमाग़ के फ़ितूरों, कारस्तानियों और करामातों के भी

होते हैं। अब अगर आप रेलगाड़ी में सबेरे-सबेरे खिड़की पर खड़े होकर उगते सूरज की लालिमा पर फ़िदा हो रहे हैं और

तभी किसी कस्बे का स्टेशन आने वाला होता है तो सामने किसी खेत में दस-ग्यारह आदमी एक साथ ऐसे फ़ारिग होते

हुए दिखाई पड़ जाएँगे जैसे उनमें किसी को पता ही न हो कि उसी खेत में नौ-दस और लोग उसी नाजुक हालत में बैठे

हुए हैं। मैं समझता हूँ कि इस मामले में औरतें ज़्यादा सामाजिक होतीं हैं क्योंकि वे इस सामूहिक काम के लिए रेल की

पटरी के किनारे उगी झाड़ियों के पास एक दूसरे के ज़्यादा पास-पास बैठतीं हैं और उस वक्त उनके चेहरे को देखने से

ऐसा लगता है कि वे रेलगाड़ी के आ जाने से रुक गई आपसी बातचीत फिर से शुरू कर देने के लिए सिर्फ़ रेलगाड़ी के

गुज़र जाने का इंतज़ार कर रहीं हैं।



शहरों और कस्बों के किनारे के खेतों के अलावा वहाँ बने मकानों की दीवालों का मंज़र भी अपने में अनोखा होता है।

इनका कितना कारगर, मुफ़ीद और दिलकश इस्तेमाल विज्ञापन एजेंसियों द्वारा किया जाता है इसको बिना दमड़ी ख़र्च

किए, कम वक्त में, इत्मीनान से देखने-समझने का मौका मिलता है सिर्फ़ रेलगाड़ी की खिड़की पर खड़े होकर मुआइना

करने पर। ये मकान अक्सर छुटभैय्यों के होते हैं जो न तो इनकी दीवालों पर प्लास्टर करवाने की हैसियत रखते हैं और

न इन्हें रंगवाने पुतवाने की, इसलिए जब विज्ञापन की एजेंसियाँ इन पर बड़े-बड़े लाल नीले हरूफ़ों में 'दनादन

दंतमंजन', 'अनासिन' की दर्दनिवारक गोलियाँ, बवासीर के शर्तिया इलाज, 'मुर्गा' छाप यूरिया खाद, 'चाँद' छाप बीड़ी या

'एस्कोर्टस' ट्रैक्टर का विज्ञापन पेंट करती हैं तो मकान मालिक सोचता है कि चलो मुफ़्त में दीवाल की खूबसूरती में

चार-चाँद लग गए और विज्ञापन एजेंसियाँ सोचती हैं कि हींग लगी न फिटकरी और विज्ञापन का स्थान मिल गया

चोखा। इसके अलावा मुझ जैसे रेलगाड़ी की खिड़की से नज़ारा देखने वालों को गंदी दीवालों की जगह दिलकश पेंटिंग तो

देखने को मिलती ही है, साथ में इस मुल्क में उपलब्ध नए-नए प्रोडक्टस की जानकारी भी बिना कोई ज़हमत उठाए

हासिल होती रहती है।
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परमारथ के कारनै, साधुन धरा शरीर ।।
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Old 15-01-2013, 11:38 PM   #22
jai_bhardwaj
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Default Re: कबिरा खडा बाज़ार में ...........(हास्य-व्यंग्य)

मैं जानता हूँ कि यह मेरा दिमाग़ी फ़ितूर ही होगा, पर मुझे लगता है कि विज्ञापन एजेंसियों को जैसे मुझसे खुसूसी

उन्सियत रही है, क्योंकि वे मेरे बचपन से जवानी और फिर बुढ़ापे तक मेरी उम्र के हिसाब से दिलकश या फ़ायदेमंद

विज्ञापन इन दीवालों में पेंट करते रहे हैं। मैं जब हाई स्कूल-इंटरमीडियेट में पढ़ने रेलवे लाइन के किनारे बसे एक कस्बे

में पहुँचा, तो उन दिनों कस्बे के किनारे की दीवालों पर जेमिनी सर्कस, गुलाबबाई की नौटंकी, बीना राय की अनारकली,

कैमिल इंक, जी-निब, बंदरछाप मंजन आदि के विज्ञापन अधिक दिखाई देते थे, जो मेरे जैसे गँवार लड़के को प्रभावित

एवं आकर्षित करने के लिए पूरी तरह मौजूँ थे। फिर जब मैं यूनिवर्सिटी में पहुँचा और जवानी की दहलीज़ पर कदम

रख चुका था तो जगह-जगह शादी के मतलब वाले 'रिश्ते ही रिश्ते - हर तरह की लड़की लड़के के लिए श्री अरोरा, 28,

रैगरपुरा, दिल्ली से मिलें' विज्ञापनों ने रेलवे लाइन के किनारे की आधी से ज़्यादा दीवालों पर कब्ज़ा ज़मा लिया।

हालाँकि मेरी शादी के लिए अरोरा साहब का सहारा मेरे माँ-बाप ने नहीं लिया, फिर भी उन दिनों रेल के सफ़र के दौरान

ये विज्ञापन इतनी बार मेरे ज़हन में गुदगुदी पैदा कर जाते थे कि आज तक उनका एक-एक हरूफ़ और नुक्ता मुझे वैसा

ही साफ़ साफ़ याद है जैसा मैं तब देखा करता था।





ख़ैर मेरी शादी हो गई और खुदा के करम से बिना किसी हारी-बीमारी के ठीकठाक चलने भी लगी, पर उन्हीं दिनों

मुरादाबाद जिले के संभल, अमरोहा आदि कस्बों के कुछ ख़ानदानी हकीमों को पता नहीं क्या सूझी कि उन्हें हिंदुस्तान

के सारे मर्दों में मर्दाना कमज़ोरी और गोनोरिहा, सिफलिस जैसी गुप्त बीमारियाँ नज़र आने लगीं और औरतों में बाँझपन

नज़र आने लगा; मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इन हकीमों के इस ग्रेट न्यू आइडिया में मेरा कोई कंट्रीब्यूशन नहीं था

क्योंकि मैंने अपने को कभी इस मामले में उन्हें दिखाया ही नहीं था। मैं तो इसे हिंदुस्तान में बल्क-मेडिकल-सर्विस

हेतु हाईटेक आइडियाज़ की शुरुआत कहूँगा। अब चूँकि बीमार अनगिनत थे और इन सब को सेहत अता करना उन

हकीमों का हकीमी फ़र्ज़ बनता था, इसलिए इन हकीमों ने अपने लड़के-दामाद, नाती-पोते, दोस्त-मुलाकाती, और

ज़रूरत पड़ने पर कुत्ते-बिल्ली को भी हकीम बना दिया। बल्क-सर्विस में कामयाबी हासिल करने हेतु बल्क-प्रपोगंडा की

ज़रूरत होना लाज़मी है, इसलिए हकीमों ने दिल्ली को मरकज़ बनाकर हर रेल-लाइन के किनारे पर बने मकानों की

दीवालों का मुफ़्त-सौंदर्यीकरण अभियान चालू करवा दिया - पहले दौर में दिल्ली से बरेली और दिल्ली से आगरा तक

के मकान लिए गए। शायद इसलिए कि आगरा और बरेली ग़ैर-मामूल-दिमाग़ के लोगों के पनाहगाह होने के लिए

मशहूर हैं और हकीम लोग जानते थे कि ग़ैर-मामूल-दिमाग़ वाले लोग ही उनके बिछाए जाल में पहले फँसेंगे।




हमारे रूहानी इल्म की ऊँचाइयों वाले मुल्क में सेक्स जैसी दुनियावी चीज़ के बारे में बात करना बेअदबी, बत्तमीज़ी,

बदसलूकी, बदइल्मी और बदगुमानी समझा जाता है, इसलिए लगभग सौ फ़ीसदी जवाँ लोग कभी न कभी इस शक में

ज़रूर मुब्तिला होते हैं कि हो न हो उन्हें कोई गुप्त रोग है - और कुछ तो हमारे इन वैद्य-हकीमों की बदनियती की वजह

से ताज़िंदगी इस शक को पाले रहते हैं। इन वजूहात से आगरा और बरेली वाले रूटों पर इन हक़ीम साहिबान की

पौपुलैरिटी बढ़ने में वक्त नहीं लगा, और फिर उन्होंने बिना वक्त जाया किए दिल्ली-पटना, दिल्ली-अजमेर, दिल्ली-

सहारनपुर, दिल्ली-भोपाल और दिल्ली-पठानकोट वाले रूटों को भी कवर कर लिया। इस जाल को बढ़ाने में उन ज़िलों

का ख़ास ख़याल रखा गया जिनमें हक़ीमों के अपने मज़हब के लोग ज़्यादा तादाद में बसे हुए हैं, क्योंकि एक तो उनमें

शिक्षा की कमी की वजह से गुप्त-रोगों का शक ज़्यादा होता है और दूसरे हमारे मुल्क के तमाम लोगों की तरह हक़ीम

साहिबान भी 'चैरिटी बिगिन्स ऐट होम' की जगह 'ठगी बिगिन्स ऐट होम' में ज़्यादा यकीन रखते हैं।
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Old 15-01-2013, 11:39 PM   #23
jai_bhardwaj
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Default Re: कबिरा खडा बाज़ार में ...........(हास्य-व्यंग्य)

आज आलम यह है कि खुदा-न-ख़ास्ता आप को कभी ग़मगीन माहौल में कहीं जाने के लिए रेलगाड़ी पर सफ़र करना

पड़े और इस दौरान आप गुप्त रोगों के इन हकीमी विज्ञापनों को देखने से बचना चाहें, तो आप के पास एक ही रास्ता

बचता है कि किसी सुनसान जंगल के आते ही रेलगाड़ी से छलाँग लगा दें। अगर आप लखनऊ से कानपुर होते हुए

दिल्ली जाने वाला रूट पकड़ें तो इन विज्ञापनों में आप पाएँगे कि हकीम रहमानी अगर कानपुर में गुप्त रोगियों पर

इतवार को नज़रे इनायत अता कर रहे हैं तो इटावा में सोमवार को, शिकोहाबाद में मंगल को, फ़िरोज़ाबाद में बुध को,

अलीगढ़ में जुमेरात को, खुर्जा में जुमा को और गाज़ियाबाद में शनिचर को। अगर आप मुरादाबाद वाला रूट पकडें तो

हक़ीम उस्मानी गुप्त रोगियों से इतवार को लखनऊ में, सोमवार को शाहजहाँपुर में, मंगल को बरेली में, बुध को रामपुर

में, जुमेरात को मुरादाबाद में, जुमा को गजरौला में और शनिवार को हापुड़ में मिलने को बेकरार होंगे। इस तरह उत्तर

और मध्य भारत के सभी शहर और कस्बों में हफ़्ते में कम से कम एक दिन हक़ीम रहमानी, उस्मानी, सुलेमानी,

लुकमानी, नुसर, हुसर आदि में किसी न किसी की खुसर-पुसर सेवा आप को बिला नागा मिल जाएगी - यह बात

अलग है कि यह सेवा पाकर आपका हशर न जाने क्या हो।


जहाँ गुड़ होता है वहाँ चींटे भी आते हैं - यह खुसर-पुसर धंधा दिन दूना-रात चौगुना बढ़ता देखकर अब तमाम नए

खिलाड़ी भी इस मैदान में कूद पड़े हैं। इनमें से कइयों ने सोचा कि हक़ीमों से बाज़ी मारने का एक तरीका है अपने को

डाक्टर डिक्लेयर कर देना और इन दिनों हक़ीम लुकमानी, किरमानी आदि के विज्ञापनों के अलावा गुप्त-रोगियों को

डा.अरोरा, डा.खन्ना या लेडी डॉ. फातिमा मसीह जैसी 'मशहूर' हस्तियों से मिलने की सलाह भी पढ़ने को मिलती है। ये

डाक्टर एम.बी.बी.एस (मियाँ बीवी बच्चे सहित) से लेकर आर.एम.पी(रजिस्टर्ड महापागल) तक कुछ भी हो सकते हैं।

अब भई कोई गुप्त रोगी डा. साहब से उनकी डिग्री दिखाने की माँग करने की हिमाक़त तो करेगा नहीं और अगर कोई

कर भी बैठे तो डिग्रियाँ तो भागलपुर में मूँगफली के भाव बिकतीं हैं।



अब चूँकि खुला ज़माना आ गया है, इसलिए रेल लाइन के किनारे की दीवालों पर ज़्यादातर विज्ञापन 'कामसूत्र',

'मस्ती', 'कोहिनूर' या 'घोड़ा छाप क्रीम' के होते हैं - मुझे लगता है कि विज्ञापन एजेंसियों ने मेरी उम्र का ख़याल करके

ही अपने प्रोडक्टस में ज़रूरी तब्दीली की है।
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Old 15-01-2013, 11:40 PM   #24
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अल्फाज़ मेरे,
लब तेरे ,
आँखें तेरी ,
जुगनू मेरे,
इतनी ख्वाहिश बस |

दिल मेरा ,
धड़कन तेरी ,
मन तेरा ,
उमंग मेरी ,
इतनी ख्वाहिश बस |

कदम मेरे ,
आहट तेरी ,
नींदे तेरी,
ख़्वाब मेरे ,
इतनी ख्वाहिश बस |

तबस्सुम तेरी ,
ख्याल मेरे ,
अश्क तेरे ,
प्यास मेरी ,
इतनी ख्वाहिश बस |

चाहत तेरी ,
हसरत मेरी ,
फ़िदा मै ,
कबूल तुम ,
इतनी ख्वाहिश बस |


मतलब देखिये कवि के पास इत्ते इफ़रात ख्बाब हैं कि दूसरे की नींद में धर देना चाहता है। अगले की नींद न हो गयी कोई स्विस बैंक हो गयी। इनके ख्बाब न हुये इफ़रात पैसा हो गया जिसे कहीं धर देना है।
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Old 15-01-2013, 11:44 PM   #25
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ध्यान की अवस्था

सुनो, उस दिन बिंदी वो वाली लगाना , गीली वाली , अरे, जिसमें खुशबू होती है | मैं हर बार नाम भूल जाता हूँ , पर तुम समझ तो जाती हो न | हाँ ! वो कुमकुम वाली , जो पतली तीली से लगाती हो न माथे पे , वही | अच्छा, मंदिर के लिए गेंदे के फूलों की लड़ी लाऊँगा तब बेले के फूल भी लेता आऊंगा तुम्हारे बालों के लिए | अच्छे लगते हैं |



"आपको तो पूजा / व्रत में आस्था है नहीं , फिर इस बार इतना क्यों याद रख रहे हैं ", श्रीमती जी ने पूछा |

मैंने कहा ," मुझे वो सारे उपक्रम बहुत अच्छे लगते हैं जो तुम पूजा / व्रत की तैयारी में करती हो | पूरा घर सुगन्धित हो उठता है और पूजा के बाद मन भी |


रही बात 'करवा चौथ' के व्रत की , तो वह तुम करो ,न करो ज्यादा फरक नहीं पड़ता | व्रत तो तुमने उसी दिन रख लिया था ,जीवन भर के लिए , जब तुम अपना प्यार भरा मायका छोड़ , एक अनजान परिवार में कल्पनाओं का संसार लिए चली आई थीं | तुम्हारा व्रत तो मुझे रोज़ दिखता है अपनी ज़िन्दगी में | ऑफिस में टिफिन भी खोलता हूँ जब , तब करीने से रखी कटोरियाँ , फ्वाएल में लपेटे अचार और मिठाई में तुम्हारा ही एहसास होता है |



तुमने कई बार कहा है , "मेरे बारे में मत लिखा करिए " | पर मन करता है कभी कभी मन उड़ेलने के लिए | अतः फिर गुस्ताखी कर रहा हूँ | इस बार पूजा में तुम मुझे डाटना मत , जब मैं सामने देखने के बजाय तुम्हारे डिम्पल निहारता मिलूं | मेरा मानना है ,पूजा करते समय ध्यान की अवस्था होनी चाहिए बस, और मैं तो हमेशा तुम्हारे ध्यान की अवस्था में ही रहता हूँ , फिर दोष कैसा |



तुम्हारे जीवन में हमेशा सुगंध भर सकूँ ,बस इतना ही अनुरोध है तुम्हारे उस भगवान् से जिसे तुम ज्यादा मानती हो

और मैं तनिक कम |
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Old 16-01-2013, 11:25 PM   #26
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काशी - पण्डे - भूत

धन्य हो प्रभु, काशी के पंडो का जवाब नही. मुझे याद है मेरे दादाजी कहा करते थे, जो पंडो के चक्कर मे पड़ता है, अपनी धोती भी से भी हाथ धो बैठता है.ये पंडे आपके सामने ऐसी परिस्थिति पैदा कर देते है कि आप अपनी जेब ढीली करने के लिये तैयार रहते है.

भोली भाली जनता को तो गुमराह करने मे ये सबसे आगे रहते है.अभी इनका नया कारनामा है कि ये भूत भगाने का शर्तिया दावा करते है, और तो और एक रूपये के स्टाम्प पेपर पर इकरारनामा भी कर देते है.सचमुच धोखाधड़ी का यह नायाब नमूना है.

होता यह है कि जो व्यक्ति भूत प्रेत से प्रताड़ित है उसको इन पंडा महाराज से सम्पर्क करके भूत का नाम,पता, पोस्ट, तहसील सब बताना पड़ता है, पंडा महाराज अपनी दक्षिणा लेकर भूत भगाने का काम शुरू करते है, पीड़ित पक्ष को पूरी तरह से संतुष्ट करने के लिये बाकायदा एक रूपये के स्टाम्प पेपर पर इकरारनामा तैयार होता है, इसमे तीनो पक्षो ( पीड़ित,पंडा और भूत ) का उल्लेख होता है.

इस तरह से अविश्वास का तो कोई प्रश्न ही नही उठता.अगर भूत भाग गया तो कोई बात नही, नही तो पंडा महाराज तो है ही नया नुस्खा बताने वाले.इस बात से मेरे को एक नेताजी की बात याद आ गयी,ये नेताजी बड़े प्रसिद्द नेता थे,उनके पास अपने काम करवाने वालो की भीड़ लगी रहती थी, नेताजी सबसे बड़े प्यार से मिलते और काम करवाने का पक्का आश्वासन देते, विश्वास दिलाने के लिये,उसके सामने ही, डायरी मे उनका नाम,दिन,पता और काम का विषय भी नोट कर लेते.बन्दा तो गदगद हो जाता और संतुष्ट होकर अपने घर चला जाता. मैने एक दिन नेताजी से पूछा भई, ये सब कैसे कर लेते है, इतने लोगो का काम कैसे करवा लेते है, नेताजी का जवाब चौंकाने वाला था, उन्होने बोला एक राज की बात बताऊ, मै तो कुछ करता ही नही, बस डायरी मे लिख लेता हूँ,बाद मे डायरी कभी खोल कर देखता भी नही, जिसका काम हो जाता है, वो फलो की टोकरी लेकर आता है, जिसका काम नही होता, वो कभी लौट कर ही नही आता, या जब कभी आता है तो मै फिर डायरी मे नोट कर लेता हूँ, मेरा क्या जाता है, एक डायरी और पैन, वो भी किसी काम करवाने वाले का ही दिया हुआ होता है. मै सुनकर भौचक्का रह गया….

इसी तरह से ये पंडे महाराज है, ये भी कुछ नही करते बस लिखापड़ी करते है, ठीक नेताजी की तरह से.इस इकरारनामे मे पंडा महाराज अपने एग्जिट आप्शन हमेशा तैयार रखते है.और जनता सोचती है पंडा महाराज को अपने काम पर पूरा विश्वास है इसलिये वो इकरारनामे पर भी तैयार है.बेचारी भोली भाली जनता अपना घर बार बेचकर भी भूत भगाने का खर्च करने को तैयार रहती है.

आखिर कब तक? कब तक हम इन पंडो,तान्त्रिको और ओझाओ के चन्गुल मे जकड़े रहेंगे.वैसे ही क्या राजनीतिज्ञ कम है लूटने के लिये.
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Old 17-01-2013, 12:13 AM   #27
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मर्दानगी के लक्षण

आप सच्चे मर्द हैं यदि :---



1 आप शॉपिंग माल में चुपचाप पैसे देकर आ जाते हैं, लेकिन रिक्शे वाले से अठन्नी के लिए झगड़ा करते हैं।

2 आप बिना मांगे और बेवजह अपनी राय देते हैं। खासकर, जब कभी आप ट्रेन में सफर कर रहे हों।

3 आपके शब्दकोश में गालियों का भंडार है।

4 आप स्कूटर और दूसरे दो पहिया वाहन पर कभी भी हेलमेट लगाकर नहीं चलते और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

5 आपको अपने मोहल्ले के दादा, थानेदार, सड़क छाप नेता और विधायक का नाम रट्टा मार कर रखे हुए हैं। गाहे बगाहे आप इनको अपना रिश्तेदार बताकर मतलब निकलते हैं।

6 आपने किसी मीडिया वाले मित्र को कहकर, अपना मीडिया वाला परिचयपत्र जरूर बनवाया हो।


7 आपने अपनी गाड़ी के पीछे न्याय विभाग जरूर लिखवाया हो, भले ही आपके खानदान में कभी कोई वकील न हुआ हो।

8 आपको ईश्वर पर विश्वास हो ना हो, लेकिन आपको जुगाड़ पर पक्का विश्वास है।

9 पान मसाला से आपका दिन शुरू होता है और गुटखे के रास्ते पर आप चल निकलें हो।

10 आप फिल्म देखते समय आप ये बताना नहीं भूलते कि ये सीन कहाँ फिल्माया गया है, और आप वहाँ पर कितनी बार गए हो। भले ही बगल वाला, मन ही मन आपको गालियां देता रहे।

11 आप कभी भी किसी लाइन ने नहीं लगते, पूरा शहर आपका अपना है।

12 गाड़ी चलते समय आप हमेशा शॉर्ट-कट लेते हो, लेकिन यदि दूसरे करें तो आप गलियाँ देने से नहीं चूकोगे।

13 शहर के हर गली नुक्कड़ के गढ़हों के बारे में आपने पी-एच-डी कर रखा होगा, लेकिन आपकी गाड़ी आपके घर के

नुक्कड़ वाले गड्डे में फँसने पर आप बोलोगे, “अरे ये कब हो गया?”

14 आपका कोई न कोई रिश्तेदार मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री में जरूर होगा और आप शूटिंग देखने की ढींग जरूर हाँकते होंगे।

15 पनवाड़ी और नाई की दुकान पर आपकी दूसरे लोगों से राजनीतिक और क्रिकेट के मसले पर बहस जरूर होती होगी।

16 आप “शहर बर्बाद हो गया है “ का नारा बुलंद करते हैं, लेकिन कभी भी शहर को ठीक करने या छोड़कर जाने की नहीं सोचते।

17 ड्राइविंग करते समय आप अपने से कमशक्ति वाले वाहन (कार चलते समय, स्कूटर वालों, स्कूटर चलते समय साइकल वालों और साइकल चलते समय पैदल) चलाने वालों को ही ट्रैफिक जाम का जिम्मेदार ठहराते हैं।

18 पत्नी का टीवी सीरियल देखना आपको टाइम वेस्ट लगता है, लेकिन अँग्रेज़ी फिल्मों के चैनल में ‘उस’ इकलौते सीन के लिए घंटे टीवी पर टकटकी लगाकर उल्लुओं की तरह जागना आपको सही लगता है।

19 आप मोहल्ले के सब्ज़ीवाले, जमादार, ठेले वाले और दुकानदार से कम से कम एक बार जरूर भिड़े हों।

20 बॉस के कमरे से डांट खाकर निकलते हुए भी आप अपनी रौबीली चाल में कोई कमी नहीं आने देते।

21 आपको अपनी बीबी फिजूलखर्च दिखती है, लेकिन आप अपने मसाला/पान/बीड़ी/सिगरेट के खर्चों पर कभी कोई बात बर्दाश्त नहीं कर सकते।

22 आपको शहर चाहे जितना भी गंदा दिखे, नाले के किनारे ठेले वाले से सामान लेकर खाना आपको पूरी तरह से हायजनिक लगता है।

23 शादी बारात में आप धक्का मुक्की करके, खाने कि प्लेट जुगाड़ ही लेते हैं।

24 बच्चे के स्कूल की पेरेंट टीचर मीटिंग में आपका ध्यान (महिला) टीचर के सरकते दुपट्टे पर ही अटका रहता है।

25 बिना हैडलाइट वाली गाड़ी चलते हुए, एक्सिडेंट होने पर मोहल्ले के खंबे को ही दोष देंगे।

26 बच्चो के गणित के सवाल हल न कर पाने की दशा में, आप किताब को ही दोष देते हो।

27 टाइम पास करने के लिए आप रोंग नंबर डायल करते हो।

28 सामने वाले के धाराप्रवाह अँग्रेजी बोलने पर आप होंठ सी कर, येस येस करते हो।

29 पड़ोसी के घर में क्या हो रहा है, उसके बारे में आप, पड़ोसी से ज्यादा जानकारी रखते हैं।

30 आप हर दूसरे वाक्य में चूतिया शब्द का प्रयोग करते हैं।

आपको सच्चे मर्द के यदि और भी कोई लक्षण दिखाई देते हैं तो जरूर बताइएगा।
__________________
तरुवर फल नहि खात है, नदी न संचय नीर ।
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मेरी माँ निरक्षर थी । एकदम अंगूठा छाप । लेकिन जिन्दगी की पाठशाला में जो पढ़ाई उसने की वह किसी भी यूनिवर्सिटी की पी.एचडी.को बौना तथा बेकार साबित करती थी । खेती पर निर्भर हमारे परिवार की देख भाल में दिन भर खटने के बाद थकी हारी सोने से पहले वह हमें कहानी सुनाना कभी नहीं चूकी । यह तो हम बहुत बाद में समझ पाए कि अपने बच्चों को खिलौने न दिला पाने की अपनी कसक को दूर करने के लिए वह कहानियों का सहारा ले कर खुद को ही समझाती थी । किस्से कहानियां तो हर बार अलग अलग हुआ करते किन्तु कुछ बातें अधिकांश में समान रूप से आती थीं । ये बातें कहानी का हिस्सा नहीं होती थीं लेकिन पता नहीं क्यों कैसे आती थीं ! अब समझ आ रहा है कि वे तमाम बातें हमारे लिए चेतावनियां थी ताकि जब भी वे बातें धरती पर होती नजर आएं तो हम या तो सतर्क हो जाएं या फिर दम हो तो उन्हें न होने दें । गए दिनों जब मैं ने अखबारों में अपने प्रधानमन्त्रीजी की नसीहतें पढीं तब से मुझे मेरी माँ की वे बातें याद आ रही हैं । माँ कहती थी कि जब बेटियों को पैदा होने से पहले ही मार दिया जाने लगे तथा पानी बिकने लगे तो समझ लेना कि "बुरा बखत (वक्त)" शुरू हो गया है । राजा रानी के किस्सों के समापन में वह कहती कि राजा जब हरकत में आने के बजाय प्रजा को नसीहतें देने लगे तथा खुद कोई कार्रवाई करने से बचने लगे तो समझो "बुरा बखत" आ गया है । क्या मेरी माँ को पता था कि हमारे प्रधानमन्त्रीजी उसकी बातों को सच साबित करेंगे ? भारतीय उद्योग परिसंघ याने सी आई आई की एक बैठक में हमारे प्रधानमन्त्रीजी ने उद्योगपतियों को सलाह दी कि वे धन के भोंडे प्रदर्शन से बचें क्योंकि यह प्रदर्शन गरीबों की बेइज्जती करता है जो सामाजिक अशान्ति का कारण बन सकता है । प्रधानमन्त्रीजी ने इन धनवानों से यह आग्रह भी किया कि वे ज्यादा मुनाफा कमाने के लोभ पर लगाम लगाएं । सी आई आई के इस जलसे में हमारे वित्त मन्त्रीजी भी मौजूद थे । उन्होंने मंजूर किया कि मूल्य तय करने की ताकत उद्योगपतियों के हाथों में में आ गई है जिसका पूरा पूरा उपयोग वे कर भी रहे हैं । लेकिन इस ताकत का मनमाना इस्तेमाल कर रहे इन उद्योगपतियों को चेतावनी देने या "राज भय" से वाकिफ कराने की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी निभाने के बजाय,अपने प्रधानमन्त्री के सुर में सुर मिलाते हुए,एक आदर्श मन्त्री की तरह बरताव करते हुए उन्होंने इन उद्योगपतियों से आग्रह किया कि वे मनमाने ढंग से कीमतें बढाने से बचें । प्रधामन्त्री से बडा राजा कौन ? वित्त मन्त्री कौन से राजा से कम ? उद्योगपति इनसे डरें या ये दोनों उद्योगपतियों से ? लेकिन दोनों ही राज धर्म की जिम्मेदारी निभाने से साफ साफ मुंह चुरा रहे हैं । दोनों इस तरह व्यवहार कर रहे है। मानो कोई वेतनभोगी कर्मचारी अपने नियोक्ता से रियायतें मांग रहा हो । मेरी माँ ने तो राजा द्वारा नसीहतें देने की बात कही थी लेकिन यहाँ तो मेरा राजा उससे भी नीचे उतर कर गिडगिडा रहा है । क्या बुरे से भी बुरा बखत आ गया है ? बडी बडी बातें करना मुझे नहीं आता । मैं तो एक छोटा सा कारखाना कर्मचारी हूँ, मुझे छोटे लोगों से ज्यादा मिलना पडता है सो मेरे पास तो उन्हीं लोगों की वैसी ही बातें हैं । ये तमाम छोटे लोग कहते हैं कि पता नहीं हमारा राजा किस दुनिया में रह रहा है । तम्बाकू गुटका पाउच खाने के कारण मुँह के कैंसर के रोगियों की तादाद दिन ब दिन बढ रही है । तम्बाकू सेवन के खिलाफ प्रचार अभियान में सरकार करोडों रूपये खर्च कर रही है । क्यों नहीं तम्बाकू पाउचों के कारखाने बन्द कर देती ? जिन नागरिकों की जीवन रक्षा हमारे राजा की बुनियादी जिम्मेदारी है, पहले तो उन्हीं नागरिकों को मौत के मुंह में धकेला जा रहा है, उद्योगपितयों को मुनाफा कमाने के लिए नागरिकों को केंसर का मरीज बनाया जा रहा है तथा खुद को शरीफ साबित करने के लिए तम्बाकू विराधी अभियान भी चलाया जा रहा है । हमारा राजा चाहता क्या है ?

राजा खुद ढोल पीट पीट कर कहता है कि पतले पोलीथीन की थैलियां जानवरों के लिए तथा पानी के बहाव के लिए बेहद नुकसानदायक हैं । पूरे देश में लाखों गाएं ये पोलीथिन की थैलियां खाकर मर चुकी हैं । पोलीथिन खाकर मरी गायों की तस्वीरें, आंचलिक अखबारों में आये दिनों छपती रहती हैं । पोलीथिन के कारण चोक हुई नालियों से उपजी सडांध सारे देश में फैली हुई है । इस पोलीथिन से परहेज करने की अपील करने वाले मंहगे सरकारी विज्ञापनों से अखबार पटे रहते हैं, पतले पोलीथिन की थैलियां बेचने वाले छोटे बडे व्यापारियों के यहां छापे पडते हैं, चालान बनते हैं, मुकदमे दर्ज होते हैं । याने कि पूरा निजाम इन कामों में लगा रहता है लेकिन राजा से यह नहीं होता कि एक फरमान निकाल कर इन पोलीथिन की थैलियों का उत्पादन बन्द करा दे । याने उद्योगपतियों को मुनाफा कमाने के लिए तथा लगातार कमाते रहने के लिए जानवरों का तथा नागरिकों का मरना जरूरी है । हमारा राजा यही जिम्मेदारी निभाता हुआ नजर आ रहा है ।

कोला तथा बोतलबन्द पानी : ये दोनों उद्योग सबसे ज्यादा मुनाफे वाले हैं । कोला में कोई भी पोषक तत्व नहीं होता तथा इनके बिना जिन्दगी आसानी से कटती है । भारत जैसे गरीब मुल्क में तो इसकी कोई जरूरज ही नहीं है । फिर, अब तो यह भी साबित हो गया है कि इन ठण्डी बोतलों में जानलेवा रासायनकि खाद भी मिलाया जा रहा है । इन दोनों उद्योगों में जितना पानी बिकने के लिए बाजार में आता है, उससे कई गुना पानी, इन्हें "फिनिश्ड प्रोडक्ट" बनाने के लिए बहाया जाता है । आम आदमी को पेय जल उपलब्ध कराना आज भी तमाम राज्य सरकारों के लिए सबसे बडी चुनौती है । इन दोनों उद्योगों वाले लोग न केवल हमारे लोगों के मुंह से पानी छीन रहे हैं बल्कि हमारे पानी से अकूत दौलत अपने मुल्कों में भेज रहे हैं । हम प्यासे मरे जा रहे हैं, इन्हें खट्टी डकारें आ रही हैं लेकिन हमारा राजा है कि इनके सामने गिडगिडा रहा है ! इन्हीं उद्योगपतियों से जब राजा अपने लालच पर लगाम लगाने की बात कहता है तो लगता है मानो चील से कहा जा रहा है कि अपने घोंसले में रखे मांस को खाने में संयम बरते ।

जिन लोगों पर राज दण्ड का प्रखर प्रहार होना चाहिए उन लोगों के सामने मेरा राजा, "राज धर्म" निभाने की जगह गिडिगडा रहा है । मुझे मेरी माँ की बातें बार बार याद आ रही हैं । क्या सचमुच में मेरे मुल्क का "बुरा बखत" आ गया है ? यदि आ ही गया है तो मुझे क्या करना है ?
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ये चाय मामूली चाय नहीं है। यह ठंढ़ी होने की वजह से केस स्टडी बन चुकी है। यह अपने आप में कॉरपोरेट जगत के महान सिद्धांतो को समेटे हुए है। कटवारिया सराय के मकान नंबर xyz के फोर्थ फ्लोर पर सैमसंग का एक सिस्टम है, जिसके सामने यह चाय रखी हुई है।

'कॉरपोरेट कुली' 10 बजे उठता है। उठते ही ऑफ़िस के बकाया कामों को निपटाने के लिए ‘सिस्टम’ से जा चिपकता है। बीच में लड़कियों के फ़ोन...न्यू ईयर विश, बर्थ डे की बधाईयां...। चाय ठंढ़ी हो गई है। मलाई तैरने लगी है।

44 रूपए किलो चीनी और 60 रू के लिप्टन के पैक से निकली चाय पत्ती...हमारे उदीयमान अर्थशास्त्री इस चाय की क़ीमत 3रु 45 पैसा कूतते हैं। चूंकि ये ठंढी हो गई है, इसलिए देश की जीडीपी साढ़े तीन रूपए घाटे में जा रही है। लेकिन इसी के साथ एक रिवाइवल पैकेज भी है जो
सत्यम के रिवायवल पैकेज से कम नहीं है।

सवाल यह है कि हमारा Objective क्या है?
“PRIMARY OBJECTIVE” – To re-instate the position of एक कप चाय without diluting the BRAND VALUE of same without un-altering the positioning. (कड़क चाय)

Secondary:- To increase the frequency of Tea drinkers (चाय पियक्कड़) and to have a positive rub off for our brands( फिर से कड़क) with increased category penetration.( एक बट्टा दो कप)

“MISSION” – To protect and promote the interests of tea drinkers while serving the needs of its members. (चाय की तलब)

“VISION” – To strive for highest possible standards in day to day life and quality of products.

"GOAL" - To be on the top of the mind recall for every tea users, thus we need to be on every household. ( ताकि लोगों को ये एहसास रहे कि ये बर्बादी है और बिना किसी ग्लानि वोध के ऐसा सभी लोग करें)

इस प्रोजेक्ट रिपोर्ट में बहुत कम निवेश का जिक्र है-मसलन..चाय को फिर गर्म करने में लगा खर्च-30 पैसा और उसे एक बेहतरीन कप में बेहतरीन रोमांटिक गाना गुनगुनाते हुए पेश करना। इसे आप आपर्चुनिटी कोस्ट (यानी ऐसा काम जो आपने किया बिल्कुल नहीं है लेकिन अफसोस इस बात का कर रहे हैं कि अगर करते तो इतना फायदा होता) कह सकते हैं जो आपकी बीवी द्वारा चाय को फिर से बनाने की सूरत में 0 रुपया है जबकि रामपाल द्वारा बनाए जाने की सूरत में 7 पैसा प्रति कप बैठता है। प्रोजेक्ट रिपोर्ट तैयार करने में कंपनी के बेहतरनी एक्जक्यूटिव का लगा वक्त और उसका ह्यूमेन रिसोर्स प्रति कप 3 पैसा बैठता है और अगर इस तरह के 5 करोड़ कप चाय को रिवाईव किया जाता है तो मुनाफा तकरीबन 18 करोड़ रुपये का है।

तो लीजिए तैयार है गरम चाय और इसका क़ॉरपोरेट रिवाईवल प्लान।
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नरेंद्र मोदी की बढ़ती लोकप्रियता से परेशान कांग्रेस अब उनके खिलाफ छिछली राजनीति पर उतर आई है। केरल के सूर्यनेल्ली दुष्कर्म कांड को लेकर मुश्किल में फंसे राज्यसभा के उप सभापति पीजे कुरियन के बचाव में बोलने के लिए उतरीं कांग्रेस प्रवक्ता रेणुका चौधरी ने नरेंद्र मोदी को महिला विरोधी करार दिया। वह यहां तक कह गईं कि जब नरेंद्र मोदी अपनी पत्नी का सम्मान नहीं करते तो दूसरे की पत्नी को आदर कैसे देंगे? बकौल रेणुका, मोदी महिलाओं का सम्मान नहीं करते और यहां तक कि वह सम्मान शब्द का मतलब भी नहीं जानते।

दरअसल, रेणुका चौधरी गुजरात के मुख्यमंत्री के बारे में सवाल उठते ही भड़क गईं और फिर वह कुरियन का बचाव करना छोड़कर मोदी के पीछे पड़ गईं। यूरोपीय यूनियन के प्रतिनिधियों के साथ मोदी की हाल की मुलाकात के सवाल पर उन्होंने नाराजगी भरे सुर में कहा कि इस संगठन को जल्द ही पता चल जाएगा कि मोदी का महिलाओं के प्रति क्या रवैया है? कांग्रेसी नेता नरेंद्र मोदी की कथित पत्नी का सवाल इसके पहले गुजरात चुनाव के दौरान भी उठा चुके हैं। यह सवाल तब भी उठा था जब हिमाचल की एक चुनावी सभा में मोदी ने केंद्रीय मंत्री शशि थरूर की पत्नी को लेकर कहा था कि कभी देखी है 50 लाख की गर्लफ्रेंड। कुरियन की सफाई में रेणुका ने कहा कि कांग्रेस किसी का बचाव नहीं कर रही। कुरियन को उच्च न्यायिक प्राधिकरणों ने क्लीन चिट दी है और वे इस पर सवाल नहीं उठा सकते।
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