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Old 26-05-2014, 04:11 PM   #21
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बहुत जगहसे यह दीवार ध्वस्त हो चुकी है। लेकिन बारह दरवाज़े या उनके निशान आज भी माण्डू कीसुरक्षा के लिए किए गए इंतज़ामों का बयान हैं। सबसे प्रमुख है दिल्ली दरवाज़ा। दिल्लीदरवाज़ा। शायद ही कोई ऐसा मुग़लकालीन शहर हो, जिसमें दिल्ली दरवाज़ा न हो। दिल्ली कामहत्त्व सदियों से बना हुआ है और आज भी दिल्ली ही भारत के केन्द्र में है। हम एकदरवाज़े के सामने जा कर रुक जाते हैं, रुकना पड़ता है। सामने भेड़ों का बहुत बड़ा रेवड़चला आ रहा है।

दरवाज़े के दाएँ-बाएँ या तो पहाड़ी है या खाई। हमारा ड्राइवर विनोदबताता है कि यह भंगी दरवाज़ा है। भेड़ों का रेवड़ छोटे-बड़े झुण्डों में धीरे-धीरे निकलरहा है। मेरे मन को यह प्रश्न मथे जा रहा है कि इस दरवाज़े का नाम भंगी दरवाज़ा क्योंहै? बाद में कहीं और पढ़ता हूँ कि इसका असली नाम भांगी दरवाज़ा है। क्या अर्थ है इसशब्द का। नहीं जानता। कोई बताता भी नहीं। लोक-मानस और इतिहास की किताबों में यहभंगी दरवाज़ा ही है। अपने समाज की जातिगत बुनावट को देखते हुए मुझे यही लगता है किहज़ार साल पहले शायद यही नाम रहा होगा इस दरवाज़े का।

इतनी भेड़ें? शशि बोल उठती है – “बक़रीद क़रीब हैशायद क़ुर्बानी के लिए ही कहीं ले जाई जा रही हैंमैं अपने को उससेसहमत पाता हूँ। थोड़ी ही देर बाद हम फ़िर चल पड़ते हैं और पहुँचते हैं मालवा रिसार्टमें। इसे मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग ने ही विकसित किया है। यूँ तो होटलों में हमकमरों में ही रहते हैं लेकिन यहाँ हमने एक टैंट बुक किया हुआ है। टैंट में रहने कायह हमारा पहला अनुभव था। टैंट में प्रवेश करते ही माण्डू की रोमानी गंध तेज़ी से जकड़लेती है। बहुत सुरुचिपूर्ण तरीक़े से पारंपरिक शैली में सजाया, सहेजा गया है टैंटको। टैंट के अंदर सारी आधुनिक सुविधाएँ मौजूद हैं। परंपरा और आधुनिकता का अदभुतसंगम नज़र आता है वहाँ।
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Old 26-05-2014, 04:12 PM   #22
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इस रिसार्टका पूरा परिसर ही काव्यमय है। दो छोरों से पानी से घिरा हुआ। नए पुराने पेड़, जल मेंउगे श्वेत और रक्ताभ वर्णी कमल। तालाब पर बने हुए लकड़ी के रास्ते और पुल। एक ओररेस्तरां और बार। कुछ और कमरे। बाहर खुली पार्किंग यानी ऐश्वर्य की माडेस्टव्याख्या करता हुआ लग रहा था यह रिसार्ट्। शाम ढलने को है, लेकिन हमारे मन काउत्साह नहीं। हम जल्दी से जल्दी बाजबहादुर और रूपमती की प्रेम-गाथा के बारे मेंजानना चाहते हैं। कुछ बातें इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं और कुछ लोगों के ज़हनोंमें। कुल मिला कर इस प्रेम-कहानी का स्वरूप कुछ इस तरह से बनता है। सन 1542 मेंशेरशाह ने मालवा पर हमला किया और अपनी जीत के बाद शुजात खाँ को वहाँ का गवर्नरनियुक्त किया। शुजात खाँ ने मृत्यु पर्यंत मालवा पर एक स्वतंत्र शासक की तरह से हीराज किया।

1554 में शुजात खाँ की मृत्यु हो गई और उसके तीन पुत्रों में से ही एकपुत्र मलिक ब्याजीद ने अपने आप को बाज बहादुर के रूप में माण्डू का शासक घोषित करदिया। शुरू में तो बाज बहादुर ने उत्साह से राज-काज संभाला लेकिन एक युद्ध में रानीदुर्गावती से मिली शिकस्त के बाद वह पूरी तरह से संगीत की ओर मुड़ गया। कहा जाता हैकि एक बार नामी-गिरामी संगीतकार यदुराय के यहाँ एक संगीत-सम्मेलन में जाने का अवसरबाज बहादुर को भी मिला। वहीं उसकी मुलाक़ात रूपमती से हुई। रूपमती भी संगीत मेंनिष्णात थी और इस तरह से दोनों के प्रेम सागर में संगीतमय हिलोरें उठने लगीं। यहीरूपमती बाद में बाज बहादुर की प्रेमिका और पत्नि बनी। बाज बहादुर ने रूपमती से विवाह किया था या नहीं, इस बारे में दो तरह की राय प्रचलित है लेकिन दोनों की प्रेम-कहानी के बारे में सभी एकमत हैं कि दोनों का प्रेम आज भी प्रेम की एक अप्रतिभ मिसाल है।
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Old 26-05-2014, 04:15 PM   #23
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यह सुर-संगीत भरा प्रेम अपने यौवन पर ही था कि 1561 में आदम खाँने मालवा पर हमला कर दिया और बाज बहादुर तथा रूपमती को सारंगपुर के पास जा कर पकड़लिया। बाज बहादुर जैसे तैसे भाग निकला लेकिन रूपमती दुश्मन के कब्ज़े में आ गई।वस्तुत: आदम खाँ उस अप्रतिम सुंदरी को हासिल करना चाहता था और उसने अपने प्रेम काप्रस्ताव भी रूपमती के सामने रखा। लेकिन रूपमती ने आदम खाँ के पास जाने के बजायआत्महत्या करना बेहतर समझा। वहीं सारंगपुर में ही रूपमती को दफ़ना दिया गया और अन्तमें बाज बहादुर ने भी रूपमती की क़ब्र पर ही दम तोड़ा। इस कहानी में संभवत: इतिहास कमऔर कल्पना ज़्यादा है लेकिन प्रेम कथाओं का संसार भी इतिहास से कम और कल्पना सेज़्यादा चलता है। हम आज कथा के क़रीब तो थे ही, रूपमती और बाज बहादुर के महल के भीबहुत करीब थे।


सो हम जल्दी ही रूपमती के महल पहुँचते हैं। एक ढलवाँ पहाड़ी पर बनाहुआ यह वही महल है जहाँ से रूपमती एक ओर तो नर्मदा के और दूसरी ओर अपने प्रिय बाजबहादुर के दर्शन कर सकती थी। हम महल के सबसे ऊपरी हिस्से पर बनी छतरी के अंदर दाखिलहो जाते हैं। हवा की एक हिलोर इधर से आए, उधर को जाए और एक हिलोर उधर से आए, इधर कोजाए। प्रदूषण के हिसाब से ज़ीरो टालरेन्स ज़ोन। इस हवा को ज़रा ध्यान से महसूस कीजिए, जैसे संगीत की स्वर-लहरियाँ आपके मन में घुले-मिले प्रेम के भरोसे ही आपके अंदरप्रवेश कर रही हैं। वहाँ थोड़ी देर खड़े रह कर उन हवाओं को छूना और उस परिवेश को जीनाउस दुनिया में प्रवेश करना है, जहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम है। यहाँ कुछ देर खड़ेहोना अपने से साक्षात्कार करना है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों स्तरों पर एक साथजीना है। वहाँ से हम नर्मदा देखने की कोशिश करते हैं, लेकिन हलकी-झीनीं धुंध केचलते कुछ भी साफ से दिखाई नहीं देता। वैसे भी समय के साथ नर्मदा का पाट कुछ छोटाहोकर महल से दूर हट गया दिखता है।
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Old 26-05-2014, 04:18 PM   #24
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सांझ उतर आई है। हम छतरी से उतर कर महल की छत पर आजाते हैं। और थोड़ी ही देर बाद महल से बाहर। रात खाना खाने के बाद रेस्तरां से बाहरनिकले तो संगीत की कुछ ध्वनियाँ सुनाई दीं। आती हुई ध्वनियों की दिशा में देखा, रौशनी भी दिखी। पाँव उसी ओर बढ़ा दिए। वहाँ कुछ बच्चे नवरात्र का उत्सव मना रहे थे।सन्नाटे में यह आवाज़ काफ़ी गूँज रही थी। हम लोग आसपास घूमते रहे। आसमान साफ था।तारों से भरा हुआ। चाँद नदारद था।

यह तीन अक्तूबर का दिन था। सुबह सवेरे ही हम लोगसबसे पहले जहाज़ महल की ओर रवाना हुए। जहाज़ महल के बाहर सन्नाटा था। अभी पर्यटक आनेशुरू नहीं हुए थे। टिकिट खिड़की के साथ ही बने हुए जहाज़ महल के नक़्शे से गाइड नेहमें समझाना शुरू किया। सभी की तरह से मेरे मन में भी यह जिज्ञासा थी कि इस इमारतका नाम जहाज़ महल क्यों है। जहाज़ की आकृति की बनी यह इमारत 120 मीटर लंबी है। और यहदो कृत्रिम तालाबों- मुंज तालाब और कपूर तालाब से घिरी हुई है।

दो मंज़िलों मेंतामीर किया गया यह महल संभवत: गयासुद्दीन ख़िलजी ने बनवाया था। कहते हैं कि सुल्तानगयासुद्दीन ख़िलजी ने इस महल का निर्माण अपने विशाल हरम के लिए करवाया था। कहते हैंकि गयासुद्दीन के इस हरम में 1600 रानियाँ थीं। इनमें से देश-विदेश की कुछविदुषियाँ भी शामिल थीं। इस तथ्य में कितनी सच्चाई है और कितनी कल्पना, यह कहनामुश्किल है। महल के अंदर ही स्थित है दिलावर खाँ की मस्जिद। अफ़गानी और भारतीयस्थापत्य का मिला-जुला रूप यहाँ मौजूद है। भारत की यह ऐसी पहली मस्जिद मानी जाती हैजहाँ औरतें भी नमाज़ अदा कर सकती थीं।
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Old 26-05-2014, 04:23 PM   #25
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जहाज़ महल का पूरा परिसर बहुत विशाल है। इसमें पानीकी व्यवस्था उजली बावड़ी और अंधेरी बावड़ी के माध्यम से की गई है। नहाने के लिएआधुनिक जकूज़ी जैसी व्यवस्था, लंबी (अब बंद) सुरंगे जहाज़ महल के महत्त्व का बखानकरती हैं। जहाज़ महल के ऊपर पहुँचकर हम चारों ओर पानी से घिरे जहाज़ महल का पूरानज़ारा लेते हैं और मुक्त हवाओं में सांस लेते हुए आगे बढ़ते हैं। एक ओर बना हुआ हैहिंडोला महल। झूले की आकृति के कारण ही इसे हिंडोला महल की संज्ञा दी गई लगती है।यह गयासुद्दीन ख़िलजी के शासन का एक सभा भवन है। अपनी ढलानदार दीवारों के कारण यहझूलता हुआ दिखता है और शायद हिड़ोला प्रतीक है इस बात का भी कि शासन कोई भी हो औरचाहे किसी का भी हो, वह हिंडोले की तरह से ही इधर से उधर और उधर से इधर झूलता हीरहता है। हिंडोला महल के पश्चिम की ओर अनेक ऐसी इमारतें हैं जो अपने पुरातन वैभव, भव्यता और ऐश्वर्य का बयान दर्ज कर रही हैं। इन्हीं इमारतों के बीचों-बीच हैखूबसूरत चंपा बावड़ी जहाँ कुछ पर्यटक परिंदे अपने पंख फटकारते नज़र आते हैं।

हाथी पोल यानी जहाँ हाथियों को बाँधा जाता था औरतवेली महल यानी अस्तबल या तबेला देखने के बाद हम पारंपरिक रूप से दसवीं शताब्दी मेंबनवाई हुई एक नाट्यशाला में प्रवेश करते हैं। इस नाट्यशाला की कल्पना अवश्य हीनाट्यशास्त्र के अनुसार की गई लगती है। इसमें आधुनिक तरीके का रंगमंच न होकररंगभूमि की तर्ज़ पर बना हुआ मंच है। हालाँकि दर्शकों के बैठने की व्यवस्था मंच केइर्द-गिर्द न हो कर मंच के सामने है लेकिन मंच और दर्शकों के बैठने के स्थान कीऊँचाई लगभग एक समान है। मंच को दो प्रस्तर शिलाओं को खड़ा करके इस तरह से बाँटा गयाहै कि वहाँ संगीत सभाएँ और शायरी-कविता के दौर भी एक साथ चलते होंगे और शायद नाटकके दृश्यों का संयोजन अलग-अलग हिस्सों में किया जाता होगा। जहाज़ महल की भव्यता कावर्णन जहाँगीर ने अपने संस्मरणों में भी किया है। इससे यह प्रमाणित होता है किजहाँगीर ने भी अपने प्रेयसी पत्नि नूरजहाँ के साथ कुछ समय यहाँ राजसी वैभव मेंबिताया है।
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Old 26-05-2014, 04:24 PM   #26
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कुछ वक़्त नाट्यशाला में विभिन्न कार्यक्रमों की कल्पना करते हुएहम जहाज़ महल के परिसर में थोड़ा हट कर बने हुए गदाशाह के महल की ओर चलते हैं। गदाशाहका यह महल दो हिस्सों में बना हुआ है और दोनों ही भवन हिन्दू वास्तुशिल्प के भव्यनमूने हैं। कहा जाता है कि सुल्तान महमूद द्वितीय के एक कर्मचारी मेदिनी राय का नामही गदाशाह था जो कुछ समय तक राज्य का स्वामी भी बना। यह युग ऐसा रहा है जब सुल्तानऔर बादशाह अपना राजकाज चलाने के लिए कई बार बड़े बड़े शाहों से पैसा कर्ज़ पर लियाकरते थे। इससे उन शाहों का शाही परिवार और राज्य पर प्रभाव तो रहता ही था। दुकानरूपी भवन दीवाने-आम का काम भी करता था, क्योंकि हिंडोला महल दीवाने-ख़ास ही था।गदाशाह की इस सुपर बाज़ार नुमाँ दुकान पर देशी विदेशी सामान आसानी से मिल जाता था।

गदाशाह का महल एक दो मंज़िला भवन है। भूतल पर मेहराबदार द्वार और पार्श्व में दोकमरे हैं तथा प्रथम तल पर एक बड़ा हाल और वहाँ भी दो पार्श्व कमरे हैं। गदाशाह का यहमहल अब भग्नावस्था में खड़ा हुआ अपने अतीत के झरोखों से वर्तमान को झाँकता हुआ नज़रआता है। गदाशाह के महल तथा जहाज़ महल में प्राप्त बहुत सी सामग्री अब थोड़ी ही दूरहटकर बने हुए एक अजायबघर में रखी हुई है। लेकिन वहाँ बैठे सभी कर्मचारी बहुत हीनिस्पृह तरीके से आने-जाने वालों को देखते रहते हैं। उन्हें भी उस सामग्री के बारेमें कोई विशेष जानकारी नहीं है, सो हम भी घूम-फ़िर कर लौट आते हैं। अभी हमें औरस्मारक भी तो देखने हैं।
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Old 26-05-2014, 04:26 PM   #27
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हम जामी मस्जिद की ओर रूख़ करते हैं। जामी मस्जिद कीभव्यता बाहर से ही नज़र आने लगती है। मस्जिद के सामने कुछ रेहड़ी वाले और कुछ खोखालगा कर ज़रूरत का सामान बेच रहे हैं। सबसे ज़्यादा भरमार नज़र आती है शरीफ़ों औरख़ुरासानी इमली की। शशि को शरीफ़ा बहुत पसंद है। दिल्ली में अच्छा शरीफ़ा दौ से अढ़ाईसौ रूपए किलो मिलता है। हम शरीफ़े का भाव पूछते हैं, वह उसे सीताफल कहता है। यही नामहै माण्डू में शरीफ़े का। भाव सुनकर हम परेशान हो जाते हैं। बढ़िया शरीफ़ा (सीताफल)तीस रूपए किलो। वहीं तुलवा कर खाने लगते हैं। एकदम मीठा। बिना मसाले के पका हुआ।पेट में जितना समा सकता है, हम खा लेते हैं और फ़िर खुरासानी इमली का स्वाद लेतेहैं।

खुरासानी इमली, सीताफ़ल और खिरनी की वजह से भी माण्डू जाना जाता है। खिरनी तोवहाँ नज़र नहीं आती। शायद उसका मौसम जा चुका है। कहते हैं कि खुरासानी इमली का बीजईरान के नगर खुरासान का बादशाह माण्डू लाया था और उसे माण्डू की आबो-हवा इतनी मुफ़ीदसाबित हुई कि वह वहाँ खूब फलने-फूलने लगा। हम दोनों ने खुरासानी इमली को अपने मुँहमें डाला। खट्टा-मीठा स्वाद लगा, लेकिन हमें वह पसंद नहीं आई। हम लोग तो शरबत सेमीठे शरीफ़ों पर टूटे-पड़े थे।

शरीफ़ों के स्वाद से तृप्त होकर हमने जामीमस्जिद की ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ऊँचे प्रवेश-द्वार से प्रवेश किया। जामीमस्जिद की गणना देश की अन्य बड़ी मस्जिदों में होती है। कहा जाता है कि इसका निर्माणदमिश्क में बनी मस्जिद की ही शैली में किया गया है, लेकिन इसमें कुछ हिन्दूस्थापत्य का भी मिश्रण हो गया है। इसे बनवाना शुरू तो होशंगशाह ने किया था लेकिनइसका निर्माण 1454 ईस्वी में महमूद ख़िलजी ने पूरा किया। मस्जिद के अंदर बना हुआविशाल आसन और कुछ अन्य तत्त्व भी कई लोगों को इस भ्रम में डाल देते हैं कि वस्तुत:इसका रूप इस तरह क्यों बनाया गया है। यह कहीं कोई पुराना मंदिर तो नहीं, जिसकापरिसंस्कार करके इसे मस्जिद का रूप दिया गया है। इसके स्थापत्य की अफ़गान और भारतीय, दोनों व्याख्याएँ संभव हैं।
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सत्य क्या है, यह तो इतिहासकार ही जानें, हम लोग तो उसभवन की भव्यता का आनंद ही ले रहे थे। जामी मस्जिद के अंदर ही बना होशंगशाह का मक़बराभारत की सबसे पहली संगमरमर की इमारत मानी जाती है और इसी की तर्ज़ पर बाद में ताजमहल का निर्माण करवाया गया है। जामी मस्जिद के सामने ही है अशरफ़ी महल। अशरफ़ी महल कीसीढ़ियों पर खड़े हो कर जामी मस्जिद की भव्यता का पूरा जायज़ा लिया जा सकता है। अशरफ़ीमहल कभी मदरसा हुआ करता था और कभी शायद वहाँ संस्कृत विद्यापीठ थी। यह भीइतिहासकारों के लिए गवेषणा का विषय है। अशरफ़ी महल से हम अपने रिसार्ट की ओर लौटतेहैं। अपराह्न दो बज चुके हैं और खूब भूख लगी हुई। अपनी आदत के मुताबिक़ हम खाना खाकरअपने टैंट में थोड़ा विश्राम करते हैं।

शाम की चायके बाद हमारी यात्रा फ़िर शुरू होती है और हम अपने रिसार्ट के बहुत क़रीब ईको पाइंटकी ओर चलते हैं। ईको पाइंट पर ही दाई का वह महल स्थित है, जिसे रूपमती की सेवा मेंरत दाई के लिए बनवाया गया था, लेकिन यह सिर्फ़ दाई का महल नहीं है, यह उस समय कीसंचार व्यवस्था का अदभुत नमूना है, जब न टेलीफ़ोन की सुविधा थी और नाही मोबाइल की।थोड़ी-थोड़ी दूरी पर चैक पोस्ट बनी हुई हैं और एक चैक पोस्ट से दूसरी चैक पोस्ट तकव्यक्ति की ताली की आवाज़ आसानी से पहुँच जाती है और यही ताली की संख्या ही संदेश काकोड होती थीं। यह सिलसिला दाई महल से शुरू होकर बाज बहादुर के महल से होता हुआरूपमती के महल तक पहुँचता है। इस तरह के या इससे मिलते-जुलते ईको पाइंट लगभग हरपहाड़ी इलाके में मिल जाते हैं और ऐसे कई ईको पाइंट हमने देखे भी हैं।
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संचार की यहध्वनि-व्यवस्था पुराने किलों में भी होती थी, लेकिन यहाँ की संचार व्यवस्था कादायरा थोड़ा बड़ा था। हमने कई ध्वनियाँ हवा में फ़ैंकी और वे ईको करती हुई हम तक लौटआईं, आगे तो पहुँची ही होगी। दाई के महल के पास ही छोटी दाई का महल देखने के बाद हमएक बार फ़िर रूपमती के महल की ओर चलते हैं और एक बार फ़िर वहाँ के वातावरण को जी भरकर जीते हैं। हम वहाँ इतने मस्त हो जाते हैं कि लौटते हुए बाज बहादुर का महल बंद होजाता है। अगली सुबह। आज हमें माण्डू से उज्जैन की ओर रवाना होना है। लेकिन बाजबहादुर का महल देखे बिना कैसे लौटें? तो सबसे पहले हम वहीं जाते हैं और सुबह केअल-मस्त माहौल में बाज बहादुर के संगीत को सुनते हुए थोड़ा वक़्त वहीं गुज़ारते हैं।वक़्त फ़िसलता हुआ महसूस होता है।




महल के सामने रेवा कुंड का पानी महल की जल-व्यवस्था का प्रमाण देता हुआ आज भी अपनी सत्ता का अहसास दिलाता है। बाज बहादुरके महल से हम रूपमती के महल की ओर देख कर कल्पना करने लगते हैं कि कैसे रूपमती औरबाज बहादुर अपने-अपने महल की छतरियों में खड़े हुए एक-दूसरे को निहारते होंगे! कैसेरूपमती के महल से संगीत की स्वर-लहरियाँ बाज बहादुर के महल तक पहुँचती होंगी! औरकैसे उन दोनों के बीच प्रणय का संसार अपनी खुशबू बिखेरता होगा। उन दोनों के प्रेमके कारण ही आज माण्डू गयासुद्दीन ख़िलजी, महमूद ख़िलजी या और किसी सुलतान, राजा, नवाबया दरवेश की वजह से याद नहीं किया जाता, बल्कि माण्डू याद किया जाता है रूपमती औरबाज बहादुर के प्रेम के कारण। इससे यह तो साबित हो ही जाता है कि सभी भावों, रूपोंऔर सत्ताओं से सबसे बड़ी सत्ता प्रेम की है। इसलिए माण्डू आज तक प्रेम का पर्याय बनाहुआ है। हम इसी पर्याय को लिए वहाँ से लौट रहे हैं।

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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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jabalpur & indore (m.p.)


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