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Old 06-10-2011, 11:04 AM   #21
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

यह बात-बात पर झल्लाना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।


यह थकी देह पर कर्मभार

इसको खाँसी, उसको बुखार

जितना वेतन, उतना उधार

नन्हें-मुन्नों को गुस्से में

हर बार, मारकार पछताना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।


इतने धंधे। यह क्षीणकाय-

ढोती ही रहती विवश हाय

ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय

आने पर किसी अतिथि जन के

दुख में भी सहसा हँस जाना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
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आजकल लोग रिश्तों को भूलते जा रहे हैं....!
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Old 08-10-2011, 10:59 AM   #22
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

बर्तन की यह उठका-पटकी

यह बात-बात पर झल्लाना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।


यह थकी देह पर कर्मभार

इसको खाँसी, उसको बुखार

जितना वेतन, उतना उधार

नन्हें-मुन्नों को गुस्से में

हर बार, मारकार पछताना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।


इतने धंधे। यह क्षीणकाय-

ढोती ही रहती विवश हाय

ख़ुद ही उलझन, खुद ही उपाय

आने पर किसी अतिथि जन के

दुख में भी सहसा हँस जाना

चिट्ठी है किसी दुखी मन की।
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Old 08-10-2011, 11:00 AM   #23
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

अगर तुम एक पल भी

ध्यान देकर सुन सको तो,

तुम्हें मालूम यह होगा

कि चीजें बोलती हैं।


तुम्हारे कक्ष की तस्वीर

तुमसे कह रही है

बहुत दिन हो गए तुमने मुझे देखा नहीं है

तुम्हारे द्वार पर यूँ ही पड़े

मासूम ख़त पर

तुम्हारे चुंबनों की एक भी रेखा नहीं है


अगर तुम बंद पलकों में

सपन कुछ बुन सको तो

तुम्हें मालूम यह होगा

कि वे दृग खोलती हैं।


वो रामायण

कि जिसकी ज़िल्द पर जाले पुरे हैं

तुम्हें ममता-भरे स्वर में अभी भी टेरती है।

वो खूँटी पर टँगे

जर्जर पुराने कोट की छवि

तुम्हें अब भी बड़ी मीठी नज़र से हेरती है।


अगर तुम भाव की कलियाँ

हृदय से चुन सको तो

तुम्हें मालूम यह होगा

कि वे मधु घोलती हैं।
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Old 13-10-2011, 05:01 PM   #24
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

कैसी विडंबना है

जिस दिन ठिठुर रही थी

कुहरे-भरी नदी, माँ की उदास काया।

लानी थी गर्म चादर; मैं मेज़पोश लाया।


कैसा नशा चढ़ा है

यह आज़ टाइयों पर

आँखे तरेरती हैं

अपनी सुराहियों पर

मन से ना बाँध पाई रिश्तें गुलाब जैसे

ये राखियाँ बँधी हैं केवल कलाइयों पर


कैसी विडंबना है

जिस दिन मुझे पिता ने,

बैसाखियाँ हटाकर; बेटा कहा, बुलाया।

मैं अर्थ ढूँढ़ने को तब शब्दकोश लाया।


तहज़ीब की दवा को

जो रोग लग गया है

इंसान तक अभी तो

दो-चार डग गया है

जाने किसे-किसे यह अब राख में बदल दे

जो बर्फ़ को नदी में चंदन सुलग गया है


कैसी विडंबना है

इस सभ्यता-शिखर पर

मन में जमी बरफ़ ने इतना धुँआ उड़ाया।

लपटें न दी दिखाई; सारा शहर जलाया।
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Old 13-10-2011, 05:04 PM   #25
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

चोटों पे चोट देते ही जाने का शुक्रिया
पत्थर को बुत की शक्ल में लाने का शुक्रिया

जागा रहा तो मैंने नए काम कर लिए
ऐ नींद आज तेरे न आने का शुक्रिया

सूखा पुराना ज़ख्म नए को जगह मिली
स्वागत नए का और पुराने का शुक्रिया

आतीं न तुम तो क्यों मैं बनाता ये सीढ़ियाँ
दीवारों, मेरी राह में आने का शुक्रिया

आँसू-सा माँ की गोद में आकर सिमट गया
नज़रों से अपनी मुझको गिराने का शुक्रिया

अब यह हुआ कि दुनिया ही लगती है मुझको घर
यूँ मेरे घर में आग लगाने का शुक्रिया

ग़म मिलते हैं तो और निखरती है शायरी
यह बात है तो सारे ज़माने का शुक्रिया

अब मुझको आ गए हैं मनाने के सब हुनर
यूँ मुझसे `कुँअर' रूठ के जाने का शुक्रिया
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Old 16-10-2011, 06:56 PM   #26
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

दुख ने तो सीख लिया आगे-आगे बढ़ना ही

और सुख सीख रहे पीछे-पीछे हटना

सपनों ने सीख लिया टूटने का ढंग और

सीख लिया आँसुओं ने आँखों में सिमटना

पलकों ने पल-पल चुभने की बात सीखी

बार-बार सीख लिया नींद ने उचटना

दिन और रात की पटरियों पे कटती है

ज़िन्दगी नहीं है, ये है रेल-दुर्घटना।
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Old 16-10-2011, 06:58 PM   #27
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

ज़िन्दगी यूँ ही चली यूँ ही चली मीलो तक
चन्दनी चार कदम, धूप चली मीलों तक

प्यार का दाँव अजब दाँव है जिसमे अक्सर
कत्ल होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक

घर से निकला तो चली साथ मे बिटिया भी हँसी
खुशबू इन से ही जी रही नन्ही कली

मन के आँचल मे जो सिमटी तो घुमड़ कर बरसी
मेरी पलको पे जो एक पीर पली मीलों तक
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Old 17-10-2011, 01:12 AM   #28
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

कुंअर बेचैन ने कुछ अनुपम गज़लें कही हैं, जिन्हें हिन्दी ग़ज़ल का आधार कहा जाता है ! यदि कहा जाए कि शमशेर बहादुर सिंह और दुष्यंत कुमार के बाद एक वे ही समर्थ हिन्दी ग़ज़लगो हैं, तो संभवतः अतिशयोक्ति नहीं होगी ! एक अच्छे सूत्र के निर्माण के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 24-10-2011, 07:41 PM   #29
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Originally Posted by Dark Saint Alaick View Post
कुंअर बेचैन ने कुछ अनुपम गज़लें कही हैं, जिन्हें हिन्दी ग़ज़ल का आधार कहा जाता है ! यदि कहा जाए कि शमशेर बहादुर सिंह और दुष्यंत कुमार के बाद एक वे ही समर्थ हिन्दी ग़ज़लगो हैं, तो संभवतः अतिशयोक्ति नहीं होगी ! एक अच्छे सूत्र के निर्माण के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें !


अलैक जी सूत्र भ्रमण के लिए हार्दिक आभार .............!
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Old 24-10-2011, 07:48 PM   #30
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Default Re: कुंवर बेचैन की रचनाएँ

मिलना और बिछुड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।

शाखों से फूलों की बिछुड़न
फूलों से पंखुड़ियों की
आँखों से आँसू की बिछुड़न
होंठों से बाँसुरियों की
तट से नव लहरों की बिछुड़न
पनघट से गागरियों की
सागर से बादल की बिछुड़न
बादल से बीजुरियों की
जंगल जंगल भटकेगा ही
जिस मृग पर कस्तूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।

सुबह हुए तो मिले रात-दिन
माना रोज बिछुड़ते हैं
धरती पर आते हैं पंछी
चाहे ऊँचा उड़ते हैं
सीधे सादे रस्ते भी तो
कहीं कहीं पर मुड़ते हैं
अगर हृदय में प्यार रहे तो
टूट टूटकर जुड़ते हैं
हमने देखा है बिछुड़ों को
मिलना बहुत जरूरी है।
उतने ही हम पास रहेंगे,
जितनी हममें दूरी है।
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