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Old 26-11-2012, 09:21 PM   #21
ALEX
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Ab agali kahani ka title nahi bataunga...warna wo bhi post ho jayegi
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Old 26-11-2012, 09:33 PM   #22
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ab agali kahani ka title nahi bataunga...warna wo bhi post ho jayegi:d
अलेक्स जी .......क्या मैंने कुछ गलत कर दिया है ........?
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Old 26-11-2012, 10:03 PM   #23
ALEX
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अलेक्स जी .......क्या मैंने कुछ गलत कर दिया है ........?
nahi aisi koyi baat nahi hain thanks
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Old 27-11-2012, 08:17 PM   #24
ALEX
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4..पाप की पराजय........
घने हरे कानन केहृदय में पहाड़ी नदी झिर-झिर करती बह रही है। गाँव से दूर, बन्दूक लिये हुए शिकारी के वेश में, घनश्याम दूर बैठा है। एक निरीह शशक मारकर प्रसन्नता से पतली-पतली लकड़ियों में उसका जलना देखता हुआ प्रकृति की कमनीयता के साथ वहबड़ा अन्याय कर रहा है। किन्तु उसे दायित्व-विहीन विचारपति की तरह बेपरवाही है। जंगली जीवन काआज उसे बड़ा अभिमान है। अपनी सफलता पर आप ही मुग्ध होकर मानव-समाज की शैशवावस्था की पुनरावृत्ति करता हुआ निर्दय घनश्याम उस अधजले जन्तु से उदर भरनेलगा। तृप्त होने पर वन की सुधि आई। चकित होकर देखने लगा कि यह कैसा रमणीय देश है। थोड़ी देर में तन्द्रा ने उसे दबा दिया। वह कोमलवृत्ति विलीन हो गयी। स्वप्न ने उसे फिर उद्वेलित किया। निर्मल जल-धारा से धुले हुए पत्तों का घनाकानन, स्थान-स्थानपर कुसुमित कुञ्ज,आन्तरिक और स्वाभाविक आलोक में उन कुञ्जों कीकोमल छाया, हृदय-स्पर्शकारी शीतल पवन का सञ्चार, अस्फुट आलेख्य के समान उसके सामने स्फुरित होने लगे।
घनश्याम को सुदूर से मधुर झंकार-सी सुनाई पड़ने लगी। उसने अपने को व्याकुल पाया। देखा तो एक अद्*भुत दृश्य! इन्द्रनील की पुतली फूलों से सजी हुई झरने के उस पार पहाड़ी से उतर कर बैठी है। उसके सहज-कुञ्चित केश से वन्य कुरुवक कलियाँ कूद-कूद कर जल-लहरियों से क्रीड़ा कर रही हैं। घनश्याम को वह वनदेवी-सी प्रतीत हुई। यद्यपि उसका रंग कंचन के समान नहीं, फिर भी गठन साँचे में ढला हुआहै। आकर्ण विस्तृत नेत्र नहीं, तो भी उनमें एक स्वाभाविक राग है। यह कवि की कल्पना-सी कोई स्वर्गीया आकृति नहीं, प्रत्युत एकभिल्लिनी है। तब भी इसमें सौन्दर्य नहीं है,यह कोई साहस के साथ नहीं कह सकता।घनश्याम ने तन्द्रा से चौंककर उस सहज सौन्दर्य को देखा और विषम समस्या में पड़कर यह सोचनेलगा-‘‘क्या सौन्दर्य उपासना की ही वस्तु है, उपभोग की नहीं?’’ इस प्रश्न को हल करने के लिए उसने हण्टिंग कोट के पाकेट का सहारा लिया। क्लान्तिहारिणी का पान करने पर उसकी आँखों पर रंगीन चश्मा चढ़ गया। उसकी तन्द्रा का यह काल्पनिक स्वर्ग धीरे-धीरे विलास-मन्दिर में परिणत होने लगा। घनश्याम ने देखा कि अदभुत रूप, यौवन की चरम सीमा और स्वास्थ्य का मनोहर संस्करण, रंग बदलकर पाप ही सामने आया।
पाप का यह रूप, जब वह वासना को फाँस कर अपनी ओर मिला चुकता है, बड़ा कोमल अथच कठोर एवं भयानक होता है और तब पाप का मुख कितना सुन्दर होता है! सुन्दर ही नहीं, आकर्षक भी, वह भी कितना प्रलोभन-पूर्ण और कितना शक्तिशाली, जो अनुभव में नहीं आ सकता। उसमें विजय का दर्प भरा रहता है। वह अपने एक मृदु मुस्कान से सुदृढ़ विवेक की अवहेलना करता है। घनश्याम ने धोखा खाया और क्षण भर में वह सरल सुषमा विलुप्त होकर उद्दीपन का अभिनय करने लगी। यौवन नेभी उस समय काम से मित्रता कर ली। पाप की सेना और उसका आक्रमण प्रबल हो चला। विचलित होते ही घनश्याम को पराजित होना पड़ा। वह आवेश मेंबाँहें फैलाकर झरने को पार करने लगा।
नील की पुतली नेउस ओर देखा भी नहीं। युवक की मांसल पीन भुजायें उसे आलिंगन किया ही चाहती थीं कि ऊपर पहाड़ी पर से शब्दसुनाई पड़ा-‘‘क्यों नीला, कब तक यहीं बैठी रहेगी? मुझे देर हो रही है। चल, घर चलें।’’
घनश्याम ने सिर उठा कर देखा तो ज्योतिर्मयी दिव्य मूर्ति रमणी सुलभ पवित्रता का ज्वलन्त प्रमाण, केवल यौवन से ही नहीं, बल्कि कला की दृष्टि से भी, दृष्टिगत हुई। किन्तु आत्म-गौरव का दुर्ग किसी की सहज पाप-वासना को वहाँ फटकने नहीं देता था। शिकारी घनश्याम लज्जित तो हुआ ही, पर वह भयभीत भी था। पुण्य-प्रतिमा के सामने पाप की पराजय हुई। नीला ने घबराकर कहा-‘‘रानी जी, आती हूँ। जरा मैं थक गयी थी।’’ रानी और नीला दोनों चली गयीं। अबकी बार घनश्याम ने फिर सोचने का प्रयास किया-क्या सौन्दर्य उपभोग के लिये नहीं, केवल उपासना के लिए है?’’ खिन्न होकर वह घर लौटा। किन्तु बार-बार वहघटना याद आती रही।घनश्याम कई बार उसझरने पर क्षमा माँगने गया। किन्तु वहाँ उसे कोई न मिला।
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Old 27-11-2012, 09:52 PM   #25
bhavna singh
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Old 28-11-2012, 07:26 AM   #26
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Old 28-11-2012, 11:28 AM   #27
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Old 28-11-2012, 08:45 PM   #28
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जो कठोर सत्य है, जो प्रत्यक्ष है, जिसकी प्रचण्डलपट अभी नदी में प्रतिभाषित हो रही है, जिसकी गर्मी इस शीतल रात्रि में भी अंकमें अनुभूत हो रहीहै, उसे असत्य या उसे कल्पना कह कर उड़ा देने के लिए घनश्याम का मन हठ कर रहा है।
थोड़ी देर पहले जब (नदी पर से मुक्त आकाश में एकटुकड़ा बादल का उठआया था) चिता लग चुकी थी, घनश्याम आग लगाने को उपस्थित था। उसकी स्त्री चिता पर अतीत निद्रा में निमग्न थी,। निठुरहिन्दू-शास्त्र की कठोर आज्ञा से जब वह विद्रोह करने लगा था, उसी समय घनश्याम को सान्त्वना हुई, उसने अचानक मूर्खता से अग्नि लगा दी। उसे ध्यानहुआ कि बादल बरस कर निर्दय चिता कोबुझा देंगे, उसे जलने न देंगे। किन्तु व्यर्थ? चिता ठंडी होकर औरभी ठहर-ठहर कर सुलगने लगी, क्षण भर में जल कर राख न होने पायी।
घनश्याम ने हृदय में सोचा कि यदि हम मुसलमान याईसाई होते तो? आह! फूलों से मिली हुईमुलायम मिट्टी में इसे सुला देते, सुन्दर समाधि बनाते, आजीवन प्रति सन्ध्या को दीप जलाते, फूल चढ़ाते, कविता पढ़ते, रोते, आँसू बहाते, किसी तरह दिन बीत जाते। किन्तु यहाँ कुछ भी नहीं। हत्यारा समाज! कठोर धर्म! कुत्सित व्यवस्था! इनसे क्या आशा? चिता जलने लगी।
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Old 28-11-2012, 08:47 PM   #29
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श्मशान से लौटते समय घनश्याम ने साथियों को छोड़कर जंगल की ओर पैर बढ़ाया। जहाँ प्राय: शिकार खेलने जाया करता, वहीं जाकर बैठ गया। आज वह बहुत दिनों पर इधर आया है। कुछ ही दूरी पर देखा कि साखू के वृक्ष की छाया में एक सुकुमार शरीर पड़ा है। सिरहाने तकिया का काम हाथ दे रहा है। घनश्याम ने अभी कड़ी चोट खायीहै। करुण-कमल का उसके आद्र्र मानस में विकास हो गया था। उसने समीप जाकर देखा कि वह रमणी और कोई नहीं है, वह रानी है, जिसे उसने बहुत दिन हुए एक अनोखे ढंग में देखा था। घनश्याम की आहट पाते ही रानी उठ बैठी। घनश्याम ने पूछा-‘‘आप कौन हैं? क्यों यहाँ पड़ी हैं?’’
रानी-‘‘मैं केतकी-वन की रानी हूँ।’’
‘‘तब ऐसे क्यों?’’
‘‘समय की प्रतीक्षा में पड़ी हूँ।’’
‘‘कैसा समय?’’
‘‘आप से क्या काम?’’ क्या शिकार खेलने आये हैं?’’
‘‘नहीं देवी! आज स्वयं शिकार हो गया हूँ?’’
‘‘तब तो आप शीघ्र ही शहर की ओर पलटेंगे। क्या किसी भिल्लनी के नयन-बाण लगे हैं? किन्तु नहीं, मैं भूल कर रही हूँ। उन बेचारियों को क्षुधा-ज्वाला ने जला रक्खा है। ओह, वह गढ़े में धँसी हुई आँखें अब किसीको आकर्षित करने का सामथ्र्य नहीं रखतीं। हे भगवान, मैं किसलिए पहाड़ी से उतर कर आयी हूँ।’’
‘‘देवी! आपका अभिप्राय क्या है,मैं समझ न सका। क्या ऊपर अकाल है, दुर्भिक्ष है?’’
‘‘नहीं-नहीं, ईश्वर का प्रकोप है, पवित्रता का अभिशाप है, करुणा की वीभत्स मूर्ति का दर्शन है।’’
‘‘तब आपकी क्या इच्छा है?’’
‘‘मैं वहाँ की रानी हूँ। मेरे वस्त्र-आभूषण-भण्डार में जो कुछथा, सब बेच कर तीन महीने किसी प्रकार उन्हें खिला सकी, अब मेरे पास केवल इस वस्त्र को छोड़कर और कुछ नहीं रहा कि विक्रय करके एकभी क्षुधित पेट कीज्वाला बुझाती, इसलिए ....।’’
‘‘क्या?’’
‘‘शहर चलूँगी। सुना है कि वहाँ रूप का भी दाम मिलता है। यदि कुछमिल सके ..’’
‘‘तब?’’
‘‘तो इसे भी बेच दूँगी। अनाथ बालकों को इससे कुछ तो सहायता पहुँच सकेगी। क्यों, क्या मेरा रूप बिकने योग्य नहीं है?’’
युवक घनश्याम इसका उत्तर देने में असमर्थ था। कुछ दिन पहले वह अपना सर्वस्व देकर भी ऐसा रूप क्रय करने को प्रस्तुत हो जाता। आज वह अपनी स्त्री के वियोग में बड़ा ही सीधा, धार्मिक, निरीह एवं परोपकारी हो गया था। आर्त मुमुक्षु की तरह उसे न जाने किस वस्तु की खोज थी।
घनश्याम ने कहा-‘‘मैं क्या उत्तर दूँ?’’
‘‘क्यों? क्या दाम न लगेगा? हाँ तुम भी आज किस वेश में हो? क्या सोचते हो? बोलते क्यों नहीं?
‘‘मेरी स्त्री का शरीरान्त हो गया।’’
‘‘तब तो अच्छा हुआ, तुम नगर के धनी हो। तुम्हें तो रूप की आवश्यकता होती होगी। क्या इसे क्रय करोगे?’’
घनश्याम ने हाथ जोड़कर सिर नीचा करलिया। तब उस रानी ने कहा-‘‘उस दिन तो एक भिल्लनी के रूपपर मरते थे। क्यों, आज क्या हुआ?’’
‘‘देवी, मेरा साहस नहीं है-वह पाप का वेग था।’’
‘‘छि: पाप के लिए साहस था और पुण्य के लिए नहीं?’’
घनश्याम रो पड़ा और बोला-‘‘क्षमा कीजिएगा। पुण्य किस प्रकार सम्पादित होता है,मुझे नहीं मालूम। किन्तु इसे पुण्य कहने में..।’’
‘‘संकोच होता है। क्यों?’’
इसी समय दो-तीन बालक, चार-पाँच स्त्रियाँ और छ:-सात भील अनाहार-क्लिष्ट शीर्ण कलेवर पवन के बल से हिलते-डुलते रानी के सामने आकरखड़े हो गये।
रानी ने कहा-‘‘क्यों अब पाप की परिभाषा करोगे?’’
घनश्याम ने काँप कर कहा-‘‘नहीं,प्रायश्चित करूँगा, उस दिन के पाप का प्रायश्चित।’’
युवक घनश्याम वेग से उठ खड़ा हुआ, बोला-‘‘बहिन, तुमने मेरे जीवन को अवलम्ब दिया है। मैं निरुद्देश्य हो रहा था, कर्तव्य नहीं सूझ पड़ता था। आपको क्रय-विक्रय न करना पड़ेगा। देवी! मैं सन्ध्यातक आ जाऊँगा।’’
‘‘सन्ध्या तक?’’
‘‘और भी पहले।’’
बालक रोने लगे-‘‘रानी माँ, अब नहीं रह जाता।’’ घनश्याम से भी नहीं रहा गया, वह भागा।
घनश्याम की पापभूमि, देखते-देखते गाड़ी और छकड़ों से भर गयी, बाजार लग गया, रानी के प्रबन्ध में घनश्याम ने वहीं पर अकाल पीड़ितों की सेवा आरम्भ कर दी।
जो घटना उसे बार-बार स्मरण होती थी, उसी का यह प्रायश्चित था। घनश्याम ने उसी भिल्लनी को प्रधान प्रबन्ध करनेवाली देख कर आश्चर्य किया। उसे न जाने क्यों हर्ष और उत्साह दोनों हुए।
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Old 28-11-2012, 08:54 PM   #30
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1.गुंडा(समाप्त)
2. सिकंदर की शपथ(समाप्त)
3.अशोक(समाप्त)
4.पाप की पराजय..(समाप्त)
5. पत्थर की पुकार(जल्द ही )
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