09-12-2010, 02:18 PM | #21 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
चूहों में खुसर-पुसर हुई। वे सियार के निकट आकर खडे हो गए। चूहों के सरदार ने कहा “हे महान सियार, हमें अपने बारे में कुछ बताइए।” सियार ने ढोंग रचा “मैने सैकडों वर्ष हिमालय पर्वत पर एक टांग पर खडे होकर तपस्या की। मेरी तपस्या समाप्त होने पर एक टांग पर खडे होकर तपस्या की। मेरी तपस्या समाप्त होने पर सभी देवताओं ने मुझ पर फूलों की वर्षा की। भगवान ने प्रकट होकर कहा कि मेरे तप से मेरा भार इतना हो गया हैं कि मैं चारों पैर धरती पर रखूं तो धरती गिरती हुई ब्रह्मांड को फोडकर दूसरी ओर निकल जाएगी। धरती मेरी कॄपा पार ही टिकी रहेगी। तबसे मैं एक टांग पर ही खडा हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण दूसरे जीवों को कष्ट हो।” सारे चूहों का समूह महातपस्वी सियार के सामने हाथ जोडकर खडा हो गया। एक चूहे ने पूछा “तपस्वी मामा, आपने अपना मुंह सूरज की ओर क्यों कर रखा हैं?” सियार ने उत्तर दिया “सूर्य की पूजा के लिए।” “और आपका मुंह क्यों खुला हैं?” दूसरे चूहे ने कहा।
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09-12-2010, 02:18 PM | #22 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
“हवा खाने के लिए! मैं केवल हवा खाकर जिंदा रहता हूं। मुझे खाना खाने की जरुरत नहीं पडती। मेरे तप का बल हवा को ही पेट में भांति-भांति के पकवानों में बदल देता हैं।” सियार बोला।
उसकी इस बात को सुनकर चूहों पर जबरदस्त प्रभाव पडा। अब सियार की ओर से उनका सारा भय जाता रहा। वे उसके और निकट आ गए। अपनी बात का असर चूहों पर होता देख मक्कार सियार दिल ही दिल में खूब हंसा। अब चूहे महातपस्वी सियार के भक्त बन गए। सियार एक टांग पर खडा रहता और चूहे उसके चारों ओर बैठकर ढोलक, मजीरे, खडताल और चिमटे लेकर उसके भजन गाते। सियार सियारम् भजनम् भजनम। भजन किर्तन समाप्त होने के बाद चूहों की टोलियां भक्ति रस में डूबकर अपने बिलों में घुसने लगती तो सियार सबसे बाद के तीन-चार चूहों को दबोचकर खा जाता। फिर रात भर आराम करता, सोता और डकारें लेता। सुबह होते ही फिर वह चूहों के बिलों के पास आकर एक टांग पर खडा हो जाता और अपना नाटक चालू रखता। धी चूहों की संख्या कम होने लगी। चूहों के सरदार की नजर से यह बात छिपी नहीं रही। एक दिन सरदार ने सियार से पूछ ही लिया “हे महात्मा सियार, मेरी टोली के चूहे मुझे कम होते नजर आ रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा हैं?” सियार ने आर्शीवाद की मुद्रा में हाथ उठाया “हे चतुर मूषक, यह तो होना ही था। जो सच्चे मन से मेरी भक्ति लरेगा, वह सशरीर बैकुण्ठ को जाएगा। बहुत से चूहे भक्ति का फल पा रहे हैं।” चूहो के सरदार ने देखा कि सियार मोटा हो गया हैं। कहीं उसका पेट ही तो वह बैकुण्ठ लोक नहीं हैं, जहां चूहे जा रहे हैं? चूहों के सरदार ने बाकी बचे चूहों को चेताया और स्वयं उसने दूसरे दिन सबसे बाद में बिल में घुसने का निश्चय किया। भजन समाप्त होने के बाद चूहे बिलों में घुसे। सियार ने सबसे अंत के चूहे को दबोचना चाहा। चूहों का सरदार पहले ही चौकन्ना था। वह दांव मारकर सियार का पंजा बचा गया। असलियत का पता चलते ही वह उछलकर सियार की गर्दन पर चढ गया और उसने बाकी चूहों को हमला करने के लिए कहा। साथ ही उसने अपने दांत सियार की गर्दन में गढा दिए। बाकी चूहे भी सियार पर झपटे और सबने कुछ ही देर में महात्मा सियार को कंकाल सियार बना दिया। केवल उसकी हड्डियों का पिंजर बचा रह गया। सीखः ढोंग कुछ ही दिन चलता हैं, फिर ढोंगी को अपनी करनी का फल मिलता ही हैं।
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09-12-2010, 02:19 PM | #23 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
ढोल की पोल
एक बार एक जंगल के निकटदो राजाओं के बीच घोर युद्ध हुआ। एक जीता दूसरा हारा। सेनाएं अपने नगरों को लौट गई। बस, सेना का एक ढोल पीछे रह गया। उस ढोल को बजा-बजाकर सेना के साथ गए भांड व चारण रात को वीरता की कहानियां सुनाते थे। युद्ध के बाद एक दिन आंधी आई। आंधी के जोर में वह ढोल लुढकता-पुढकता एक सूखे पेड के पास जाकर टिक गया। उस पेड की सूखी टहनियां ढोल से इस तरह से सट गई थी कि तेज हवा चलते ही ढोल पर टकरा जाती थी और ढमाढम ढमाढम की गुंजायमान आवाज होती। एक सियार उस क्षेत्र में घूमता था। उसने ढोल की आवाज सुनी। वह बडा भयभीत हुआ। ऐसी अजीब आवाज बोलते पहले उसने किसी जानवर को नहीं सुना था। वह सोचने लगा कि यह कैसा जानवर हैं, जो ऐसी जोरदार बोली बोलता हैं’ढमाढम’। सियार छिपकर ढोल को देखता रहता, यह जानने के लिए कि यह जीव उडने वाला हैं या चार टांगो पर दौडने वाला। एक दिन सियार झाडी के पीछे छुप कर ढोल पर नजर रखे था। तभी पेड से नीचे उतरती हुई एक गिलहरी कूदकर ढोल पर उतरी। हलकी-सी ढम की आवाज भी हुई। गिलहरी ढोल पर बैठी दाना कुतरती रही। सियार बडबडाया “ओह! तो यह कोई हिंसक जीव नहीं हैं। मुझे भी डरना नहीं चाहिए।”
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09-12-2010, 02:19 PM | #24 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
सियार फूंक-फूंककर कदम रखता ढोल के निकट गया। उसे सूंघा। ढोल का उसे न कहीं सिर नजर आया और न पैर। तभी हवा के झुंके से टहनियां ढोल से टकराईं। ढम की आवाज हुई और सियार उछलकर पीछे जा गिरा।
“अब समझ आया।” सियार उढने की कोशिश करता हुआ बोला “यह तो बाहर का खोल हैं।जीव इस खोल के अंदर हैं। आवाज बता रही हैं कि जो कोई जीव इस खोल के भीतर रहता हैं, वह मोटा-ताजा होना चाहिए। चर्बी से भरा शरीर। तभी ये ढम=ढम की जोरदार बोली बोलता हैं।” अपनी मांद में घुसते ही सियार बोला “ओ सियारी! दावत खाने के लिए तैयार हो जा। एक मोटे-ताजे शिकार का पता लगाकर आया हूं।” सियारी पूछने लगी “तुम उसे मारकर क्यों नहीं लाए?” सियार ने उसे झिडकी दी “क्योंकि मैं तेरी तरह मूर्ख नहीं हूं। वह एक खोल के भीतर छिपा बैठा हैं। खोल ऐसा हैं कि उसमें दो तरफ सूखी चमडी के दरवाजे हैं।मैं एक तरफ से हाथ डाल उसे पकडने की कोशिश करता तो वह दूसरे दरवाजे से न भाग जाता?” चांद निकलने पर दोनों ढोल की ओर गए। जब वह् निकट पहुंच ही रहे थे कि फिर हवा से टहनियां ढोल पर टकराईं और ढम-ढम की आवाज निकली। सियार सियारी के कान में बोला “सुनी उसकी आवाज्? जरा सोच जिसकी आवाज ऐसी गहरी हैं, वह खुद कितना मोटा ताजा होगा।” दोनों ढोल को सीधा कर उसके दोनों ओर बैठे और लगे दांतो से ढोल के दोनों चमडी वाले भाग के किनारे फाडने। जैसे ही चमडियां कटने लगी, सियार बोला “होशियार रहना। एक साथ हाथ अंदर डाल शिकार को दबोचना हैं।” दोनों ने ‘हूं’ की आवाज के साथ हाथ ढोल के भीतर डाले और अंदर टटोलने लगे। अदंर कुछ नहीं था। एक दूसरे के हाथ ही पकड में आए। दोंनो चिल्लाए “हैं! यहां तो कुछ नहीं हैं।” और वे माथा पीटकर रह गए। सीखः शेखी मारने वाले ढोल की तरह ही अंदर से खोखले होते हैं।
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09-12-2010, 02:20 PM | #25 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
तीन मछलियां
एक नदी के किनारे उसी नदी से जुडा एक बडा जलाशय था। जलाशय में पानी गहरा होता हैं, इसलिए उसमें काई तथा मछलियों का प्रिय भोजन जलीय सूक्ष्म पौधे उगते हैं। ऐसे स्थान मछलियों को बहुत रास आते हैं। उस जलाशय में भी नदी से बहुत-सी मछलियां आकर रहती थी। अंडे देने के लिए तो सभी मछलियां उस जलाशय में आती थी। वह जलाशय लम्बी घास व झाडियों द्वारा घिरा होने के कारण आसानी से नजर नहीं आता था। उसी मे तीन मछलियों का झुंड रहता था। उनके स्वभाव भिन्न थे। अन्ना संकट आने के लक्षण मिलते ही संकट टालने का उपाय करने में विश्वास रखती थी। प्रत्यु कहती थी कि संकट आने पर ही उससे बचने का यत्न करो। यद्दी का सोचना था कि संकट को टालने या उससे बचने की बात बेकार हैं करने कराने से कुछ नहीं होता जो किस्मत में लिखा है, वह होकर रहेगा। एक दिन शाम को मछुआरे नदी में मछलियां पकडकर घर जा रहे थे। बहुत कम मछलियां उनके जालों में फंसी थी। अतः उनके चेहरे उदास थे। तभी उन्हें झाडियों के ऊपर मछलीखोर पक्षियों का झुंड जाता दिकाई दिया। सबकी चोंच में मछलियां दबी थी। वे चौंके ।
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09-12-2010, 02:21 PM | #26 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
एक ने अनुमान लगाया “दोस्तो! लगता हैं झाडियों के पीछे नदी से जुडा जलाशय हैं, जहां इतनी सारी मछलियां पल रही हैं।”
मछुआरे पुलकित होकर झाडियों में से होकर जलाशय के तट पर आ निकले और ललचाई नजर से मछलियों को देखने लगे। एक मछुआरा बोला “अहा! इस जलाशय में तो मछलियां भरी पडी हैं। आज तक हमें इसका पता ही नहीं लगा।” “यहां हमें ढेर सारी मछलियां मिलेंगी।” दूसरा बोला। तीसरे ने कहा “आज तो शाम घिरने वाली हैं। कल सुबह ही आकर यहां जाल डालेंगे।” इस प्रकार मछुआरे दूसरे दिन का कार्यक्रम तय करके चले गए। तीनों मछ्लियों ने मछुआरे की बात सुन ला थी। अन्ना मछली ने कहा “साथियो! तुमने मछुआरे की बात सुन ली। अब हमारा यहां रहना खतरे से खाली नहीं हैं। खतरे की सूचना हमें मिल गई हैं। समय रहते अपनी जान बचाने का उपाय करना चाहिए। मैं तो अभी ही इस जलाशय को छोडकर नहर के रास्ते नदी में जा रही हूं। उसके बाद मछुआरे सुबह आएं, जाल फेंके, मेरी बला से। तब तक मैं तो बहुत दूर अटखेलियां कर रही हो-ऊंगी।’ प्रत्यु मछली बोली “तुम्हें जाना हैं तो जाओ, मैं तो नहीं आ रही। अभी खतरा आया कहां हैं, जो इतना घबराने की जरुरत हैं हो सकता है संकट आए ही न। उन मछुआरों का यहां आने का कार्यक्रम रद्द हो सकता है, हो सकता हैं रात को उनके जाल चूहे कुतर जाएं, हो सकता है। उनकी बस्ती में आग लग जाए। भूचाल आकर उनके गांव को नष्ट कर सकता हैं या रात को मूसलाधार वर्षा आ सकती हैं और बाढ में उनका गांव बह सकता हैं। इसलिए उनका आना निश्चित नहीं हैं। जब वह आएंगे, तब की तब सोचेंगे। हो सकता हैं मैं उनके जाल में ही न फंसूं।”
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09-12-2010, 02:21 PM | #27 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
यद्दी ने अपनी भाग्यवादी बात कही “भागने से कुछ नहीं होने का। मछुआरों को आना हैं तो वह आएंगे। हमें जाल में फंसना हैं तो हम फंसेंगे। किस्मत में मरना ही लिखा हैं तो क्या किया जा सकता हैं?”
इस प्रकार अन्ना तो उसी समय वहां से चली गई। प्रत्यु और यद्दी जलाशय में ही रही। भोर हुई तो मछुआरे अपने जाल को लेकर आए और लगे जलाशय में जाल फेंकने और मछलियां पकडने । प्रत्यु ने संकट को आए देखा तो लगी जान बचाने के उपाय सोचने । उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा। आस-पास छिपने के लिए कोई खोखली जगह भी नहीं थी। तभी उसे याद आया कि उस जलाशय में काफी दिनों से एक मरे हुए ऊदबिलाव की लाश तैरती रही हैं। वह उसके बचाव के काम आ सकती हैं। जल्दी ही उसे वह लाश मिल गई। लाश सडने लगी थी। प्रत्यु लाश के पेट में घुस गई और सडती लाश की सडांध अपने ऊपर लपेटकर बाहर निकली। कुछ ही देर में मछुआरे के जाल में प्रत्यु फंस गई। मछुआरे ने अपना जाल खींचा और मछलियों को किनारे पर जाल से उलट दिया। बाकी मछलियां तो तडपने लगीं, परन्तु प्रत्यु दम साधकर मरी हुई मछली की तरह पडी रही। मचुआरे को सडांध का भभका लगा तो मछलियों को देखने लगा। उसने निश्चल पडी प्रत्यु को उठाया और सूंघा “आक! यह तो कई दिनों की मरी मछली हैं। सड चुकी हैं।” ऐसे बडबडाकर बुरा-सा मुंह बनाकर उस मछुआरे ने प्रत्यु को जलाशय में फेंक दिया। प्रत्यु अपनी बुद्धि का प्रयोग कर संकट से बच निकलने में सफल हो गई थी। पानी में गिरते ही उसने गोता लगाया और सुरक्षित गहराई में पहुंचकर जान की खैर मनाई। यद्दी भी दूसरे मछुआरे के जाल में फंस गई थी और एक टोकरे में डाल दी गई थी। भाग्य के भरोसे बैठी रहने वाली यद्दी ने उसी टोकरी में अन्य मछलियों की तरह तडप-तडपकर प्राण त्याग दिए। सीखः भाग्य के भरोसे हाथ पर हाथ धरकर बैठे रहने वाले का विनाश निश्चित हैं।
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09-12-2010, 02:22 PM | #28 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
दुश्मन का स्वार्थ
एक पर्वत के समीप बिल में मंदविष नामक एक बूढा सांप रहता था। अपनी जवानी में वह बडा रौबीला सांप था। जब वह लहराकर चलता तो बिजली-सी कौंध जाती थी पर बुढापा तो बडे-बडों का तेज हर लेता हैं।बुढापे की मार से मंदविष का शरीर कमजोर पड गया था। उसके विषदंत हिलने लगेथे और फुफकारते हुए दम फूल जाता था। जो चूहे उसके साए से भी दूर भागते थे, वे अब उसके शरीर को फांदकर उसे चिढाते हुए निकल जाते। पेट भरने के लिए चूहों के भी लाले पड गए थे। मंदविष इसी उधेडबुन में लगा रहता कि किस प्रकार आराम से भोजन का स्थाई प्रबंध किया जाए। एक दिन उसे एक उपाय सूझा और उसे आजमाने के लिए वह दादुर सरोवर के किनारे जा पहुंचा। दादुर सरोवर में मेढकों की भरमार थी। वहां उन्हीं का राज था। मंदविष वहां इधर-उधर घूमने लगा। तभी उसे एक पत्थर पर मेढकों का राजा बैठा नजर आया। मंदविष ने उसे नमस्कार किया “महाराज की जय हो।” मेढकराज चौंका “तुम! तुम तो हमारे बैरी हो। मेरी जय का नारा क्यों लगा रहे हो?” मंदविष विनम्र स्वर में बोला “राजन, वे पुरानी बातें हैं। अब तो मैं आप मेढकों की सेवा करके पापों को धोना चाहता हूं। श्राप से मुक्ति चाहता हूं। ऐसा ही मेरे नागगुरु का आदेश हैं।” मेढकराज ने पूछा “उन्होंने ऐसा विचित्र आदेश क्यों दिया?”
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09-12-2010, 02:23 PM | #29 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
मंदविष ने मनगढंत कहानी सुनाई “राजन्, एक दिन मैं एक उद्यान में घूम रहा था। वहां कुछ मानव बच्चे खेल रहे थे। गलती से एक बच्चे का पैर मुझ पर पड गया और बचाव स्वाभववश मैंने उसे काटा और वह बच्चा मर गया। मुझे सपने में भगवान श्रीकॄष्ण नजर आए और श्राप दिया कि मैं वर्ष समाप्त होते ही पत्थर का हो जाऊंगा। मेरे गुरुदेव ने कहा कि बालक की मॄत्यु का कारण बन मैंने कॄष्णजी को रुष्ट कर दिया हैं,क्योंकि बालक कॄष्ण का ही रुप होते हैं। बहुत गिडगिडाने पर गुरुजी ने श्राप मुक्ति का उपाय बताया। उपाय यह हैं कि मैं वर्ष के अंत तक मेढकों को पीठ पर बैठाकर सैर कराऊं।”
मंदविष कि बात सुनकर मेढकराज चकित रह गया। सांप की पीठ पर सवारी करने का आज तक किस मेढक को श्रैय प्राप्त हुआ? उसने सोचा कि यह तो एक अनोखा काम होगा। मेढकराज सरोवर में कूद गया और सारे मेढकों को इकट्ठा कर मंदविष की बात सुनाई। सभी मेढक भौंचक्के रह गए। एक बूढा मेढक बोला “मेढक एक सर्प की सवारे करें। यह एक अदभुत बात होगी। हम लोग संसार में सबसे श्रेष्ठ मेढक माने जाएंगे।” एक सांप की पीठ पर बैठकर सैर करने के लालच ने सभी मेढकों की अक्ल पर पर्दा डाल दिया था। सभी ने ‘हां’ में ‘हां’ मिलाई। मेढकराज ने बाहर आकर मंदविष से कहा “सर्प, हम तुम्हारी सहायता करने के लिए तैयार हैं।” बस फिर क्या था। आठ-दस मेढक मंदविष की पीठ पर सवार हो गए और निकली सवारी। सबसे आगे राजा बैठा था। मंदविष ने इधर-उधर सैर कराकर उन्हेण् सरोवर तट पर उतार दिया। मेढक मंदविष के कहने पर उसके सिर पर से होते हुए आगे उतरे। मंदविष सबसे पीछे वाले मेढक को गप्प खा गया। अब तो रोज यही क्रम चलने लगा। रोज मंदविष की पीठ पर मेढकों की सवारी निकलती और सबसे पीछे उतरने वाले को वह खा जाता।
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09-12-2010, 02:23 PM | #30 |
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Re: पंचतंत्र कहानिया व अन्य कथाये
एक दिन एक दूसरे सर्प ने मंदविष को मेढकों को ढोते द्ख लिया। बाद में उसने मंदविष को बहुत धिक्कारा “अरे!क्यों सर्प जाति की नाक कटवा रहा हैं?”
मंदविष ने उत्तर दिया “समय पडने पर नीति से काम लेना पडता हैं। अच्छे-बुरे का मेरे सामने सवाल नहीं हैं। कहते हैं कि मुसीबत के समय गधे को भी बाप बनाना पडे तो बनाओ।” मंदविष के दिन मजे से कटने लगे। वह पीछे वाले वाले मेढक को इस सफाईसे खा जाता कि किसी को पता न लगता। मेढक अपनी गिनती करना तो जानते नहीं थे, जो गिनती द्वारा माजरा समझ लेते। एक दिन मेढकराज बोला “मुझे ऐसा लग र्हा हैं कि सरोवर में मेढक पहले से कम हो गए हैं। पता नहीं क्या बात हैं?” मंदविष ने कहा “हे राजन, सर्प की सवारी करने वाले महान मेढक राजा के रुप में आपकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंच रही हैं। यहां के बहुत से मेढक आपका यश फैलाने दूसरे सरोवरों, तलों व झीलों में जा रहे हैं।” मेढकराज की गर्व से छाती फूल गई। अब उसे सरोवर में मेढकों के कम होने का भी गम नहीं था। जितने मेढक कम होते जाते, वह यह सोचकर उतना ही प्रसन्न होता कि सारे संसार में उसका झंडा गड रहा हैं। आखिर वह दिन भी आया, जब सारे मेढक समाप्त हो गए। केवल मेढकराज अकेला रह गया। उसने स्वयं को अकेले मंदविष की पीठ पर बैठा पाया तो उसने मंदविष से पूछा “लगता हैं सरोवर में मैं अकेला रह गया हूं। मैं अकेला कैसे रहूंगा?” मंदविष मुस्कुराया “राजन, आप चिन्ता न करें। मैं आपका अकेलापन भी दूर कर दूंगा।” ऐसा कहते हुए मंदविष ने मेढकराज को भी गप्प से निगल लिया और वहीं भेजा जहां सरोवर के सारे मेढक पहुंचा दिए गए थे। सीखः शत्रु की बातों पर विश्वास करना अपनी मौत को दावत देना हैं।
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