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Old 31-05-2012, 11:19 PM   #21
Dark Saint Alaick
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

रास्ते का पत्थर

मनुष्य को हमेशा अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचना चाहिए। उसे यह जरूर देखना चाहिए कि जिन-जिन वजहों से उसे कष्ट होता है, वही वजह दूसरों के लिए भी कष्टकारी हो सकती है। अपना भला तो सभी चाहते हैं, लेकिन वास्तव में सज्जन पुरूष वही होता है, जो दूसरों की भी भलाई चाहे। निस्संदेह इसमें कभी कभार कष्ट भी उठाना पड़ता है, लेकिन उस कष्ट का आनंद ही कुछ और है, जो दूसरों के लिए उठाया जाए। लौह पुरूष सरदार वल्लभ भाई पटेल का बचपन गांव में बीता था। वह जिस गांव में रहते थे, वहां कोई अंग्रेजी स्कूल नहीं था, इसलिए गांव के बच्चे रोज दस-ग्यारह किलोमीटर पैदल चलकर दूसरे गांव पढ़ने जाया करते थे। गर्मियों में स्कूल में पढ़ाई सुबह सात बजे से ही शुरू हो जाती थी, इसलिए गांव के बच्चों को सूर्योदय से पहले ही निकलना पड़ता था। एक दिन छात्रों की टोली स्कूल जाने के लिए निकली, तो उन्होंने पाया कि उनकी टोली में से एक छात्र कम है। दरअसल वल्लभ भाई पटेल पीछे रह गए थे। लड़कों ने मुड़कर देखा, तो पाया कि वल्लभ भाई एक खेत की मेड़ पर किसी चीज से जोर आजमाइश कर रहे हैं। साथियों ने दूर से ही आवाज दी - क्या हुआ? तुम रुक क्यों गए? वल्लभ भाई ने वहीं से चिल्लाकर कहा - जरा यह पत्थर हटा लूं, उसके बाद आता हूं। तुम लोग आगे चलो। साथियों को ध्यान में आया कि खेत की मेड़ पर एक नुकीला सा पत्थर लगा था, जिससे कई बार उन्हें ठोकर लग चुकी थी, पर आज तक किसी को उसे हटाने का ख्याल नहीं आया। साथी वहीं खड़े वल्लभ भाई का इंतजार करने लगे। वल्लभ भाई ने जब पत्थर हटा लिया, तो साथियों के पास पहुंच गए और फिर चलते हुए बोले - रास्ते के इस पत्थर से अक्सर बाधा पड़ती थी। अंधेरे में न जाने कितनों को इससे ठोकर लगती होगी और वे गिर भी जाते होंगे। ऐसी चीज को हटा ही देना चाहिए। इसलिए आज घर से तय करके ही चला था कि उस पत्थर को हटा कर ही दम लूंगा। सारे बच्चे आश्चर्य से वल्लभ भाई को देख रहे थे। दूसरों के हित के लिए कष्ट उठाने की भावना उनमें बचपन से ही आ गई थी। धीरे-धीरे यह भावना और बढ़ती गई। यही वह सबसे बड़ी वज़ह भी है, जिसने उन्हें नेतृत्व के शिखर तक पहुंचाया।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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Old 01-06-2012, 10:18 PM   #22
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

दूसरों के लिए आदर्श बनें

कई लोगों की दिनचर्या अस्त-व्यस्त होती है। वे कई प्रकार के रोगों को शरीर में स्थान दे देते हैं। मानसिक रोग भी इसका कारण हो सकता है। व्यर्थ के तनाव से चिड़चिड़ापन पैदा होता है, मानसिक उलझनें रोग का रूप ले लेती हैं। समय पर भोजन न करना, जब मन चाहा, तभी कुछ खा लिया। न समय पर शौच, न समय पर स्नान। न समय पर काम करना। ये सब अव्यवस्थित कार्य हैं और यह एक बड़ी वज़ह है, जो कई रोगों को आमंत्रित करती है। अपने अव्यवस्थित क्रियाकलाप द्वारा आप खुद रोगों को निमंत्रण दे देते हैं। इसमें किसी का क्या दोष? इस अव्यवस्था का सबसे अधिक प्रभाव तो कार्य-व्यवसाय पर पड़ता है। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि जो कुछ भी शारीरिक व्यथा या आर्थिक हानि होती है या सम्मान में कमी होती है, तो उसके लिए हम खुद ही जिम्मेदार हैं। जब इस प्रकार की स्थिति आती है, तो आप उसके कारणों पर ध्यान दें। यदि आप ईमानदारी से विवेचना करेंगे, तो उसके लिए आप अपने आपको ही जिम्मेदार पाएंगे। आप ऐसी स्थिति आने ही क्यों देते हैं ? अपना सारा काम निश्चित समय पर तथा व्यवस्थित ढंग से करने पर शायद ही आपके सामने कोई समस्या आए। सब कुछ व्यवस्थित होने पर भी समस्या आएगी, तो तत्काल उसका हल भी निकल आएगा। समस्या सुलझ जाएगी। आपको किसी खास परेशानी का सामना भी नहीं करना पड़ेगा। जो व्यक्ति अपने जीवन में सफल हैं, उनको देखिए। आपको उनका सब कुछ व्यवस्थित नजर आएगा। महात्मा गांधी का जीवन बहुत ही सादा, पर अत्यंत व्यवस्थित था। उनका हर काम एक व्यवस्था के साथ होता था। उनकी व्यवस्था एक आदर्श थी। उनके आदर्श पर चलें और फिर खुद आप भी दूसरों के लिए आदर्श बनें। घर परिवार से लेकर अपने बाह्य जगत में भी आप अपने आपको व्यवस्थित रखें। जब आप ऐसा करेंगे, तो आपको इसका एक अलग ही आनंद प्राप्त होगा। आपकी कार्यक्षमता भी बढ़ जाएगी। आपका समय व्यर्थ नहीं जाएगा। आपका हर काम ठीक समय पर होगा। आपका जीवन सादा हो या भड़कीला, बिना व्यवस्था के काम करने से सारा मजा ही किरकिरा हो जाता है।
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Old 01-06-2012, 10:24 PM   #23
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

राजा के सवाल

कभी-कभी मनुष्य के सामने यह यक्ष प्रश्न खड़ा हो जाता है कि वह जो कुछ कर रहा है, वह सही भी है या नहीं। आम तौर पर इंसान ऐसे सवालों का जवाब खुद ढूंढ ही नहीं पाता, क्योंकि उसे ऐेसा ही लगता है कि वह जो कह या कर रहा है, वह उचित ही है। ऐसे में इंसान को चाहिए कि वह किसी के जरिए इसे जानने का प्रयास करे। इसके लिए उसे कोई योग्य पात्र भी ढूंढना पड़ेगा। योग्य पात्र मिलने पर उस इंसान को अपने सवाल का जवाब जरूर मिल जाएगा। किसी जमाने में एक राजा अपने पास आने वाले सभी लोगों से तीन प्रश्न पूछता। पहला - व्यक्तियों में सर्वश्रेष्ठ कौन है? दूसरा - सर्वोत्तम समय कौन सा है? तीसरा - सर्वश्रेष्ठ कर्म क्या है? अनेक लोग अपने तरीके से उत्तर देते, पर वह संतुष्ट नहीं होता था। एक दिन राजा जंगल में इधर-उधर भटकता हुआ एक कुटिया में पहुंचा। वहां एक साधु पौधों में पानी डाल रहा था। राजा पर नजर पड़ते ही साधु अपना काम छोड़कर राजा के लिए ठंडा पानी और फल लेकर आ गया। उसी समय एक घायल व्यक्ति भी वहां आ पहुंचा। अब साधु राजा को छोड़ कर उस व्यक्ति की सेवा में लग गया। उसने उसके घाव धोए और उस पर जड़ी-बूटी का लेप किया। जब उस आदमी को थोड़ा आराम मिला, तो राजा ने वही तीनों सवाल साधु से पूछे। साधु ने कहा - आपने अभी-अभी मेरा जो व्यवहार देखा, उसी में इन प्रश्नों के उत्तर मौजूद हैं। राजा ने पूछा-कैसे? साधु ने समझाया - जब आप कुटिया में आए, तो मैं पौधों को सींच रहा था, जो मेरा कर्तव्य था, लेकिन आप आ गए, तो मैं अतिथि के स्वागत में लग गया। जब मैं आपकी भूख-प्यास शांत कर रहा था, तब यह घायल व्यक्ति आ गया। मैं अतिथि सेवा का कर्तव्य त्याग कर इसकी चिकित्सा में लग गया। जो भी आपकी सेवा प्राप्त करने आए, उस समय वही सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है। उसकी जो सेवा हम करते हैं, वही सर्वोत्तम कर्म है और कोई भी कार्य करने के लिए वर्तमान ही सर्वोत्तम समय है। उसके अलावा कोई और समय नहीं है। राजा को साधु से अपने तीनों सवालों का सही जवाब मिल गया। वह साधु को प्रणाम कर वापस अपने राज्य को चला गया।
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Old 04-06-2012, 11:05 AM   #24
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

अवसर को लपक लें

हर काम योजना बना कर करें - दीर्घकालीन भी और अल्पकालीन भी, लेकिन कुछ पल ऐेसे भी आते हैं, जब योजनाओं को खिड़की से बाहर फैंक देना चाहिए। इन पलों को ही अवसर कहा जाता है। मेरा एक परिचित युवक था। वह अपनी प्रमोशन योजनाओं में ज्यादा तरक्की नहीं कर पा रहा था। एक दिन उसने ट्रेन के एक कम्पार्टमेन्ट में खुद को अपने चेयरमैन के साथ अकेला पाया। यह सुनहरा मौका था। वह गलत बातें बोल सकता था, खुद को बेवकूफ भी साबित कर सकता था, बहुत संकोच भी कर सकता था या घबरा सकता था। इस सबका परिणाम यह होता कि वह मौके का फायदा नहीं उठा पाता, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। उसने आदर्श तरीके से अपनी बात चेयरमैन के सामने रखी। उसने औपचारिक रूप से बातचीत की, लेकिन चेयरमैन को पूरा सम्मान भी दिया। उसने बातचीत में कंपनी के इतिहास, मिशन, स्टेटमेंट और आम लक्ष्यों पर अपनी मजबूत पकड़ साबित कर दी। वह असरदार, स्मार्ट और बोलने में निपुण था। उसने अपनी हर बात स्पष्ट और असरदार अंदाज में रखी और सबसे महत्वपूर्ण बात, उसने नाजायज फायदा उठाने की स्पष्ट कोशिश भी नहीं की। वह जानता था कि कब मुंह बंद रखना है और पीछे हटना है। इससे यकीनन मदद मिली। नतीजा क्या हुआ? चेयरमैन ने उसके विभाग प्रमुख से कहा कि उसके विभाग में एक स्मार्ट युवक है, उसे आगे बढ़ाओ। अब विभाग प्रमुख के पास उसे तरक्की देने के अलावा क्या चारा था? इसे कहते हैं, अवसर को लपकना। आप इसे अपनी योजना में शामिल नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे पल अचानक आते हैं। जब वे आएं, तो आपको उन्हें पहचानना होगा। इनका अच्छी तरह से फायदा उठाना होगा। बेहतरीन और शालीन दिखना होगा। अवसर को गेंद की तरह देखना सीखें। अगर कोई गेंद आपकी ओर फैंकी जाती है, तो आपके पास उसे पकड़ने के लिए पल भर का समय होता है। सवाल पूछने, पलटकर देखने, सकारात्मक व नकारात्मक बातों को तौलने या फॉक्स ट्रॉट डांस करने के लिए आपके पास जरा भी वक्त नहीं होता। आप या तो गेंद लपक लेते हैं या फिर नहीं लपक पाते।
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Old 04-06-2012, 11:09 AM   #25
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

पानी की तरह झुकना सीखो

कहते हैं कि अभिमान इंसान को पथ भ्रष्ट कर देता है। मनुष्य कितना भी बड़ा हो जाए या कितना भी ज्ञानी हो जाए, उसे कभी भी अपने बड़प्पन पर इतराना या घमंड नहीं करना चाहिए। हो सकता है कि कुछ समय के लिए ऐसा करके वह खुद को श्रेष्ठ साबित करने में कामयाब हो जाए, लेकिन वक्त के साथ-साथ उसकी कीमत निश्चित रूप से गिरने लगती है। स्वामी श्रद्धानंद के एक शिष्य थे सदानंद। स्वामी के सान्निध्य में रह कर सदानंद ने काफी मेहनत की और विभिन्न विषयों का भरपूर ज्ञान प्राप्त किया था, लेकिन ज्यों-ज्यों समय गुजरने लगा, सदानंद को अपने ज्ञान पर अहंकार होता चला गया। अहंकार बढ़ने के कारण धीरे-धीरे उनके व्यवहार में भी बदलाव आता दिखने लगा। वह हर किसी को हेय दृष्टि से देखने लगे। यहां तक कि वह अपने साथ शिक्षा ग्रहण कर रहे अपने मित्रों से भी दूरी बनाकर रहने लगे। वह जब भी चलते तनकर ही चलते। उनके बढ़ते अहंकार की बात स्वामी श्रद्धानंद तक भी पहुंची। पहले तो उन्हें लगा कि सदानंद के साथी शायद ऐसे ही कह रहे हैं। हो सकता है सदानंद के किसी आचरण से इन्हें ठेस पहुंची हो, लेकिन एक दिन स्वामी श्रद्धानंद उनके सामने से गुजरे, तो सदानंद ने उन्हें अनदेखा कर दिया और उनका अभिवादन तक नहीं किया। स्वामी श्रद्धानंद समझ गए कि इन्हें अहंकार ने पूरी तरह जकड़ लिया है। इनका अहंकार तोड़ना आवश्यक है, अन्यथा भविष्य में इन्हें दुर्दिन देखने पड़ सकते हैं। उन्होंने उसी समय सदानंद को टोकते हुए उन्हें अगले दिन अपने साथ घूमने जाने के लिए तैयार कर लिया। अगली सुबह स्वामी श्रद्धानंद उन्हें वन में एक झरने के पास ले गए और पूछा - पुत्र, सामने क्या देख रहे हो ? सदानंद ने जवाब दिया - गुरुजी, पानी जोरों से नीचे बह रहा है और गिर कर फिर दोगुने वेग से ऊंचा उठ रहा है। स्वामी श्रद्धानंद ने कहा - पुत्र, मैं तुम्हें यहां एक विशेष उद्देश्य से लाया था। जीवन में अगर ऊंचा उठकर आसमान छूना चाहते हो, तो थोड़ा इस पानी की तरह झुकना भी सीख लो। सदानंद अपने गुरु का आशय समझ गए। उन्होंने उनसे अपने व्यवहार के लिए क्षमा मांगी और भविष्य में अहंकार कदापि नहीं करने का वचन दिया।
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Old 06-06-2012, 02:36 AM   #26
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परिवार सबसे पहले

सफलता सिर्फ धन, समृद्धि और नाम से नहीं मापी जाती। यह भी महत्व रखता है कि जिन लोगों ने आपको उस मुकाम तक पहुंचाने में आपका साथ दिया, उनके लिए आपने क्या किया? क्या आप अपने बच्चों को उचित संस्कार देने के लिए समय निकाल पाए? क्या सुख-दुख में आप अपनी पत्नी के साथ रह पाते हैं ? पिछली बार आप कब अपनी मां की गोद में सिर रख कर सोए? कब आपने पूछा कि पापा आपको किस चीज की जरूरत है? इंसान की तरक्की, सुख-सुविधा, क्लब, लेट नाइट पार्टी आदि के बीच कुछ छूट रहा है, तो वह है परिवार। कई शहरों के कई घरों के बच्चे विदेशों में ऊंचे पदों पर हैं और माता-पिता बुढ़ापे में एक-दूसरे के सहारे समय काट रहे हैं। कुछ बच्चे अपने माता-पिता को अपने साथ ले जाना नहीं चाहते, तो कुछ घरों में माता-पिता ही इस उम्र में पराए देश में जाने की इच्छा नहीं रखते। आज बच्चे युवा होते ही जनरेशन गैप के नाम पर अपने माता-पिता का अपमान करते हैं। शादी होते ही चन्द दिनों में उन्हें अकेला छोड़ जाते हैं। उन्हें सोचने की जरूरत है, क्योंकि ऐसा ही एक दिन उनके साथ भी घटेगा। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपका ख्याल रखें, तो आज से ही आप अपने माता-पिता का ख्याल रखिए। बच्चे बहुत ग्रहणशील होते हैं। उनकी आंखें हर चीज देखती हैं। उनके कान हर बात सुनते हैं। उनका दिमाग हर वक्त उन्हें मिलने वाले संदेशों को समझने और नतीजे निकालने में लगा रहता है। अगर वे देखेंगे कि हम परिवार के सदस्यों के लिए घर में धैर्यपूर्वक सुखद माहौल बनाते हैं, तो वे जीवन भर इस नजरिए को अपनाएंगे। अपने माता-पिता, पुराने मित्रों और परिजन के साथ सदैव आदर और विनम्रता से पेश आइए। आपकी कामयाबी में, आपकी ऊंचाइयों में, आपके व्यक्तित्व में वे गुण भरने में, संस्कार पैदा करने में संसार में सबसे ज्यादा योगदान माता-पिता और इष्टजन का होता है। माता-पिता के काम का कोई भी मोल नहीं चुका सकता। विनम्रता, आदर, शिष्टाचार, कृतज्ञता जैसे गुण किसी युग में पुराने नहीं होंगे, बासी नहीं होंगे। यदि ये चले जाएंगे, तो सारे संसार में जंगल राज हो जाएगा। इसलिए परिवार सबसे पहले है।
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Old 06-06-2012, 02:40 AM   #27
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नियम का सम्मान

इन्सान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, उसे कानून का पालन तो करना ही चाहिए। ऐसा इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि बड़े ही नियम तोड़ेंगे, तो फिर अन्य लोग उसका अनुसरण करने लगेंगे। काफी पहले मद्रास (आज का चेन्नई) में एक शानदार मछली घर बनाया गया था। इसकी चर्चा दूर-दूर तक फैल गई। बड़ी संख्या में लोग इसे देखने आने लगे। उसकी देखभाल बड़ी कक्षा के विद्यार्थी किया करते थे। मछलीघर देखने के लिए प्रवेश शुल्क निर्धारित था। हर किसी को टिकट लेना पड़ता था। एक दिन हैदराबाद के निजाम सपरिवार आए। निजाम को लगा कि देश के शासक वर्ग से जुड़े होने के कारण वे खास व्यक्ति हैं। उन्हें टिकट लेने की क्या जरूरत। वह बिना टिकट लिए आगे बढ़ने लगे, तो मछली घर के व्यवस्थापकों व कर्मचारियों ने सोचा कि ये इतने बड़े आदमी हैं। इनका आना ही बड़ी बात है। अब इनसे क्या शुल्क लिया जाए। यह सोचकर सब अपने-अपने काम में मशगूल रहे। किसी ने उनसे टिकट लेने को नहीं कहा। जब निजाम आगे बढ़े, तो बुद्धिमान व परिश्रमी छात्र माधवराव ने उनके सामने आकर कहा - महोदय, यहां प्रवेश शुल्क निर्धारित है। बिना पैसे दिए मछली घर के अंदर जाना मना है। यह सुनते ही निजाम कुछ शर्मिंदा होकर अपने निजी सचिव की ओर देखने लगे। सचिव ने इशारा पाते ही सभी के लिए टिकट खरीदे। उनके जाने के बाद अधिकारीगण चिंतित हुए। एक बोला - यदि हम उनसे रुपए नहीं लेते, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ता? दूसरा बोला - हां, ऐसा भी नहीं था कि उनसे प्रवेश शुल्क नहीं न लेने से हमें भारी आर्थिक हानि होती। सभी अपनी-अपनी राय देते रहे। कुछ देर बाद माधवराव बोले - प्रश्न रुपए लेने का नहीं है। प्रश्न तो नियम के पालन का है। नियम का पालन सभी के लिए जरूरी है। बड़े व्यक्तियों का तो विशेष फर्ज बनता है कि वे नियम का सम्मान करने में आगे रहें, ताकि सामान्य जन भी उनका अनुकरण करें। अगर विशिष्ट लोग ही नियम तोड़ेंगे, तो आम आदमी से उनके पालन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? माधवराव का जवाब सुनकर सभी चुप हो गए।
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Old 08-06-2012, 08:09 AM   #28
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

लोगों की निगाह में रहें

ऑफिस की जिंदगी बहुत भागदौड़ भरी और व्यस्त होती है। ऐसे में यह बहुत स्वाभाविक है कि लोग आपके काम को नजरअंदाज कर दें। आप दिन रात कोल्हू के बैल की तरह मेहनत करते हैं। हो सकता है, इस चक्कर में आप यह महत्वपूर्ण बात भूल जाएं कि आपको अपना ओहदा बढ़ाने और अपने काम की धाक जमाने की जरूरत है। अगर आप प्रमोशन चाहते हैं, तो आपको अपने काम की और अपनी अलग पहचान बनानी होगी, ताकि आप और लोगों से अलग हटकर दिखें। इसका सबसे अच्छा तरीका है कि आप अपनी सामान्य कामकाजी दिनचर्या से बाहर निकलें। अगर हर दिन आपको निश्चित चीजें प्रोसेस करनी हैं, तो उससे ज्यादा चीजें प्रोसेस करने से आपको खास फायदा नहीं होगा, लेकिन अगर आप अपने बॉस को यह रिपोर्ट बना कर दें कि किस तरह हर कर्मचारी और ज्यादा चीजें प्रोसेस करके दे सकता है, तो आप उसकी निगाह में आ जाएंगे। यह बिन मांगी रिपोर्ट भीड़ से अलग दिखने का एक बेहतरीन तरीका है। इससे यह पता चलता है कि आप मौलिक चिंतन कर रहे हैं और अपनी पहल-शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन इसका इस्तेमाल जरूरत से ज्यादा भी नहीं करना चाहिए। अगर आप अपने बॉस को बिन मांगी रिपोर्ट्स की बाढ़ में डुबो देंगे, तो वे आप पर गौर तो करेंगे, लेकिन नकारात्मक अंदाज में। ऐसी रिपोर्ट कभी-कभार ही पेश करें। यह भी सुनिश्चित करें कि आपकी रिपोर्ट कारगर हो। इससे कंपनी का फायदा होगा। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करें कि इसमें आपका नाम अच्छी तरह से उभर कर सामने आए। वह रिपोर्ट न केवल बॉस देखे, बल्कि उसका बॉस भी देखे। जरूरी नहीं कि वह रिपोर्ट ही हो। यह कंपनी के न्यूजलेटर का लेख भी हो सकता है। जाहिर है, अपने काम को निगाह में लाने का सबसे अच्छा तरीका उस काम में बहुत अच्छा बनना है और अपने काम में अच्छा बनने का सर्वश्रेष्ठ तरीका उसके प्रति पूरी तरह से समर्पित होना और बाक़ी हर चीज को नजरअंदाज करना है। काम के नाम पर बहुत सारी राजनीति, गपशप, खेल, समय की बर्बादी और सामाजिक जनसंपर्क चलता रहता है, लेकिन यह काम नहीं है।
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ईश्वर से कहो

बतायो नाम का एक फकीर हुआ था। एक बार राह चलते हुए उसके पांव में फांस पड़ गई। तब वह जोर से चीखने लगा। रास्ते में इधर-उधर लोग खड़े थे। वे फकीर की चिल्लाहट सुनकर उसके पास इकट्ठे हो गए। उन्होंने फकीर से पूछा कि क्या हो गया है आपको? तो फकीर ने अपना पांव उनके सामने फैला दिया और कहा कि मेरे पांव में कुछ लग गया है। भीड़ में से एक व्यक्ति नीचे झुका। उसने देखा कि फकीर के पांव में फांस चुभी हुई है। उस व्यक्ति ने फकीर के पांव में लगी फांस को निकाल दिया। पास में ही एक दूसरा व्यक्ति जो खड़ा था। उसने देखा कि पैर में छोटी सी ही फांस लगी थी, लेकिन यह संत हैं और इस मामूली फांस के कारण इतनी जोर से चीख रहे हैं। आखिर इसका कारण क्या है? उससे रहा नहीं गया। उसने फकीर से पूछा - इतनी सी बात पर इतनी जोर से क्यों चीखे? बतायो ने कहा कि देखो - वह जो ऊपर वाला है, इसका स्वभाव विचित्र है। फकीर का संकेत ईश्वर से था। उन्होंने कहा, आदमी ज्यों-ज्यों सहता जाता है, ईश्वर उसे और अधिक कष्ट देता जाता है। मैं यदि यह तकलीफ सह लूंगा, तो संभव है कि कल वह मेरे पांव में भाला चुभो दे। बतायो के कहने का मतलब यह था कि कष्ट से परेशान होकर मैं नहीं चीख रहा हूं। मैं सजग हूं। जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह अनजाने में घटित नहीं हो रहा है। एक फांस भी यदि मेरे पांव में लगती है, तो उसका मुझे अनुभव होता है। हम यह नहीं मानते कि ईश्वर किसी को कष्ट देता है। और व्यक्ति सहन कर लेता है, तो फिर उसे दोगुना-चौगुना कष्ट देता है। दुखों का सीधा सम्बंध व्यक्ति के अपने कर्म से है, लेकिन यह निश्चित है कि जो अपने जीवन के हर क्षण के प्रति जागरूक रहता है, उसके कष्ट स्वयं कम हो जाते हैं। जितने भी कष्ट आते हैं, हमारी जागरूकता की कमी से आते हैं। मनुष्य जहां-जहां प्रमाद में जाता है, वहां - वहां उसकी कष्टानुभूति तीव्र हो जाती है। प्रमाद जितना कम होता है और जागरूकता बढ़ती है, कष्ट की उपस्थिति उतनी कम हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि कोई भी मनुष्य विशिष्टता के क्षेत्र में प्रवेश करने से पहले अपने जीवन की छोटी-छोटी बातों के प्रति जागरूक बने।
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Default Re: डार्क सेंट की पाठशाला

वादे छोटे, परिणाम बड़े

अगर आप जानते हैं कि आप कोई काम बुधवार तक कर सकते हैं, तो हमेशा शुक्रवार तक का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि आपके विभाग को एक हफ्ते का समय लगेगा, तो दो हफ्ते का समय मांगें। अगर आप जानते हैं कि किसी मशीन को इंस्टॉल करने और चालू करने के लिए दो अतिरिक्त कर्मचारियों की जरूरत पड़ेगी, तो तीन मांगें। यह बेईमानी नहीं समझदारी है; लेकिन अगर यह राज खुल जाए और सबको पता लग जाए कि आप ऐसा करते हैं, तब क्या करें? बस, सहजता से और ईमानदारी के साथ इसे स्वीकार कर लें। कहें कि आप अनुमान लगाते समय हमेशा आपातकालीन स्थितियों को भी शामिल करते हैं। इसके लिए वे आपको फांसी पर नहीं लटका सकते। यह पहली चीज है। छोटे वादे करें। अगर आपने शुक्रवार या दो हफ्ते या जो भी कहा है, तो इसका यह मतलब नहीं कि आप इस अतिरिक्त अवधि में मजे कर सकते हैं और गप्पे लड़ा सकते हैं। कतई नहीं। आपको तो यह सुनिश्चित करना है कि आप बड़े परिणाम दें, निर्धारित बजट में दें और वादे से बेहतर दें। यह दूसरा हिस्सा है। परिणाम ज्यादा दें। इसका मतलब है कि अगर आपने सोमवार तक रिपोर्ट देने का वादा किया है, तो यह उस वक्त तक न केवल पूरी हो जाए, बल्कि उसमें कुछ अतिरिक्त भी जुड़ा हो। यह न सिर्फ एक रिपोर्ट हो, बल्कि इसमें एक नई इमारत के लिए पूरी अमली योजनाएं भी शामिल की गई हों। अगर आपने कहा हो कि आप रविवार तक अपने स्टाफ के दो अतिरिक्त सदस्यों के साथ प्रदर्शनी लगाएंगे, तो न सिर्फ ऐसा करें; बल्कि अपने प्रमुख प्रतिस्पर्धी को शो से बाहर निकालने की व्यवस्था भी कर डालें। जब आप वादे छोटे करते हैं और परिणाम बड़े देते हैं, तो आपका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। नियमों के खिलाड़ी के रूप में आपका लक्ष्य सिर्फ यह होना चाहिए कि आप कभी परिणाम देर से नहीं देंगे या कम नहीं देंगे। अगर आपको सारी रात खून-पसीना एक करना पड़े तो करें। बाद में ज्यादा देर लगाने और सामने वाले को निराश करने के बजाय पहले ही ज्यादा समय मांगना हमेशा और हर मामले में बेहतर होता है। वाहवाही लूटने के चक्कर में कभी उतावलापन नहीं करना चाहिए।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु
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dark saint ki pathshala, hindi stories, inspirational stories, short hindi stories


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