19-04-2011, 10:30 AM | #21 |
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Re: धर्म और देबता!!~
जटाटवीग लज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्*। डमड्डमड्डमड्डम न्निनादवड्डमर्वयं चकार चंडतांडवं तनोतु नः शिवः शिवम ॥1॥ जटा कटा हसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी । विलोलवी चिवल्लरी विराजमानमूर्धनि । धगद्धगद्ध गज्ज्वलल्ललाट पट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥2॥ धरा धरेंद्र नंदिनी विलाधुवंधुर- स्फुरदृगंत संतति प्रमोद मानमानसे । कृपाकटा क्षधारणी निरुद्धदुर्धरापदि कवचिद्विगम्बरे मनो विनोदमेतु वस्तुनि ॥3॥ जटा भुजं गपिंगल स्फुरत्फणामणिप्रभा- कदंबकुंकुम द्रवप्रलिप्त दिग्वधूमुखे । मदांध सिंधु रस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनो विनोदद्भुतं बिंभर्तु भूतभर्तरि ॥4॥ सहस्र लोचन प्रभृत्य शेषलेखशेखर- प्रसून धूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः । भुजंगराज मालया निबद्धजाटजूटकः श्रिये चिराय जायतां चकोर बंधुशेखरः ॥5॥ ललाट चत्वरज्वलद्धनंजयस्फुरिगभा- निपीतपंचसायकं निमन्निलिंपनायम्* । सुधा मयुख लेखया विराजमानशेखरं महा कपालि संपदे शिरोजयालमस्तू नः ॥6॥ कराल भाल पट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल- द्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके । धराधरेंद्र नंदिनी कुचाग्रचित्रपत्रक- प्रकल्पनैकशिल्पिनि त्रिलोचने मतिर्मम ॥7॥ नवीन मेघ मंडली निरुद्धदुर्धरस्फुर- त्कुहु निशीथिनीतमः प्रबंधबंधुकंधरः । निलिम्पनिर्झरि धरस्तनोतु कृत्ति सिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥8॥ प्रफुल्ल नील पंकज प्रपंचकालिमच्छटा- विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्* स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥9॥ अगर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी- रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्* । स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥10॥ जयत्वदभ्रविभ्रम भ्रमद्भुजंगमस्फुर- द्धगद्धगद्वि निर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्- धिमिद्धिमिद्धिमि नन्मृदंगतुंगमंगल- ध्वनिक्रमप्रवर्तित प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥11॥ दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंग मौक्तिकमस्रजो- र्गरिष्ठरत्नलोष्टयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः । तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥12॥ कदा निलिंपनिर्झरी निकुजकोटरे वसन्* विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्* । विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्* कदा सुखी भवाम्यहम्* ॥13॥ निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका- निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः । तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥14॥ प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना । विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्* ॥15॥ इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्* ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्* । हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नांयथा गतिं विमोहनं हि देहना तु शंकरस्य चिंतनम ॥16॥ पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनमिदं पठति प्रदोषे । तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥17॥ |
19-04-2011, 10:31 AM | #22 |
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Re: धर्म और देबता!!~
बहुत अच्छी जानकारी हैँ अभय
मनु स्मृति के बारे मेँ हो सके तो और बताऐ
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दोस्ती करना तो ऐसे करना जैसे इबादत करना वर्ना बेकार हैँ रिश्तोँ का तिजारत करना |
19-04-2011, 11:53 AM | #23 |
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Re: धर्म और देबता!!~
बहुत अच्छी जानकारी हैँ ..?
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19-04-2011, 02:30 PM | #24 |
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Re: धर्म और देबता!!~
विष्णु हिन्दू धर्म के अनुसार विष्णु ईश्वर के तीन मुख्य रुपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति विष्णु को विश्व का पालनहार माना जाता है। त्रिमूर्ति के अन्य दो भगवान शिव और ब्रह्मा को माना जाता है। जहाँ ब्रह्मा को विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है वहीं शिव को संहारक माना गया है।विष्णु की पत्नी लक्ष्मी है। भगवान् विष्णु के अवतार भगवान् विष्णु के दस मुख्य अवतार मान्यता प्राप्त हैं। यह् अवतार क्रमशः प्रस्तुत हैं : १) मत्स्य अवतार : मत्स्य (मछ्ली) के अवतार में भगवान विष्णु ने एक ऋषि को सब प्रकार के जीव-जन्तु एकत्रित करने के लिये कहा और पृथ्वी जब जल में डूब रही थी, तब मत्स्य अवतार में भगवान ने उस ऋषि की नांव की रक्षा की थी। इसके पश्चात ब्रह्मा ने पुनः जीवन का निर्माण किया। एक दूसरी मन्यता के अनुसार एक राक्षस ने जब वेदों को चुरा कर सागर में छुपा दिया, तब भगवान विष्णु ने मत्स्य रूप धारण करके वेदों को प्राप्त किया और उन्हें पुनः स्थापित किया। २) कूर्म अवतार : कूर्म के अवतार में भगवान विष्णु ने क्षीरसागर के समुन्द्रमंथन के समय मंदर पर्वत को अपने कवच पर संभाला था। इस प्रकार भगवान विष्णु, मंदर पर्वत और वासुकि नामक सर्प की सहायता से देवों एंव असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्नोंकी प्राप्ती की। (इस समय भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप भी धारण किया था।) |
19-04-2011, 02:32 PM | #25 |
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Re: धर्म और देबता!!~
३) वराहावतार : वराह के अवतार में भगवान विष्णु ने महासागर में जाकर भूमि देवी कि रक्षा की थी, जो महासागर की तह में पँहुच गयीं थीं। एक मान्यता के अनुसार इस रूप में भगवान ने हिरन्याक्ष नाम के राक्षस का वध भी किया था।
४) नरसिंहावतार : नरसिंह रूप में भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा की थी और प्रहलाद के पिता हिरण्यकश्यप का वध किया था। इस अवतार से भगवान के निर्गुण होने की विद्या प्राप्त होती है। ५) वामन् अवतार : इसमें विष्णु जी वामन् (बौने) के रूप में प्रकट हुए। bakt prahlad ke paotra ashurraj raja bali se devtao ki raksha ke liye vaman avtar liya. ६) परशुराम अवतार: इसमें विष्णु जी ने परशुराम के रूप में असुरों का संहार किया। ७) राम अवतार: राम ने रावण का वध किया जो रामायण में वर्णित है। ८) कृष्णावतार : भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप मे देवकी और वसुदेव के घर मे जन्म लिया था। उनका लालन पालन यशोदा और नंद ने किया था। इस अवतार का विस्तृत वर्णन श्रीमद्भागवत पुराण मे मिलता है। ९) बुद्ध अवतार: इसमें विष्णु जी बुद्ध के रूप में असुरों को वेद की शिक्षा के लिये तैयार करने के लिये प्रकट हुए। १०) कल्कि अवतार: इसमें विष्णु जी भविष्य में कलियुग के अन्त में आयेंगे। |
19-04-2011, 02:34 PM | #26 |
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Re: धर्म और देबता!!~
विष्णु के नाम
विष्णु, नारायण, कृष्ण, बैकुण्ठ, विष्टरश्रवस्, दामोदर, हृषीकेश, केशव, माधव, स्वभू, दैत्यारि, पुण्डरीकाक्ष, गोविन्द, गरुड़ध्वज, पीताम्बर, अच्युत, शाङ्गी, विष्वक्सेन, जनार्दन, उपेन्द्र, इन्द्रावरज, चक्रपाणि, चतुर्भुज, पद्मनाभ, मधुरिपु, वासुदेव, त्रिविक्रम, देवकीनन्दन, शौरि, श्रीपति, पुरुषोत्तम, वनमाली, बलिध्वंसी, कंसाराति, अधोक्षज, विश्वम्भर, कैटभजित्, विधु और श्रवस्तलाञ्छन ये 39 विष्णु के नाम हैं। विष्णु के शंख का नाम 'पाञ्चजन्य' चक्र का नाम 'सुदर्शन' गदा का नाम 'कौमोदकी' खङ्ग (तलवार) का नाम 'नन्दक' और मणि का नाम 'कौस्तुभ' है। |
19-04-2011, 02:42 PM | #28 |
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Re: धर्म और देबता!!~
सूर्य देवता * सूर्य आत्मा जगत्स्तथुषश्च - ऋग्वेद* ज्योतिषां रविरंशुमान - गीता वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है.समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है.सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है,यह आज एक सर्वमान्य सत्य है.वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे.सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक,सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है.ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है.यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है.छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है.ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है.प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है.सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है.और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है.सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है.सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं.अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है.पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी.बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ.भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है.अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है,कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी.प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे.उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं.वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद,ज्योतिष,हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है. |
19-04-2011, 02:45 PM | #29 |
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Re: धर्म और देबता!!~
खगोलीय विज्ञान में सूर्य
खगोल की द्रिष्टि से सूर्य पृथ्वी के सर्वाधिक निकट एक स्वयं प्रकाशित तारा है.सूर्य एक गैस पिण्ड है.स्वयं के प्रकाश से प्रकाशवान है.अन्य ग्रह जैसे चन्द्र पृथ्वी उसी से प्रकाशित हैं.इस द्रष्टि से सूर्य तारा हुआ लेकिन फ़लित ज्योतिष में उसे तारा न मानकर ग्रह माना गया है. पृथ्वी से दूरी सूर्य की पथ्वी के मध्य की दूरी ९२९५७२०९ मील है.उसका व्यास ८६५००० मील है.पृथ्वी से सूर्य का आयतन तेरह लाख गुणा तथा परिमाण तीन लाख तेतीस हजार गुणा है.सूर्य का नाभिकीय तापमान ४००००००० फ़ैरनहीट अंश है. हिन्दू धर्मानुसार सूर्य की स्थिति श्रीमदभागवत पुराण में श्री शुकदेव जी के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है। |
19-04-2011, 02:46 PM | #30 |
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Re: धर्म और देबता!!~
सूर्य के पास
"हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है। सूर्य की चाल सूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।" सूर्य का रथ इस रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है, और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है। |
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