10-11-2012, 12:01 AM | #21 |
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Re: पूस की रात (मुंशी प्रेमचंद)
जबरा फिर भूँक उठा । जानवर खेत चर रहे थें । फसल तैयार हैं । कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते है। हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा कस ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा ।
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
10-11-2012, 12:01 AM | #22 |
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Re: पूस की रात (मुंशी प्रेमचंद)
जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नील गाये खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था । अकर्मण्यता ने रस्सियों की भॉति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था।
उसी राख के पस गर्म जमीन परद वही चादर ओढ़ कर सो गया । सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैली गई थी और मुन्नी की रही थी-क्या आज सोते ही रहोगें ? तुम यहॉ आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया ।
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10-11-2012, 12:02 AM | #23 |
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Re: पूस की रात (मुंशी प्रेमचंद)
हल्कू न उठकर कहा-क्या तू खेत से होकर आ रही है ?
मुन्नी बोली-हॉँ, सारे खेत कासत्यनाश हो गया । भला, ऐसा भी कोई सोता है। तुम्हारे यहॉ मँड़ैया डालने से क्या हुआ ? हल्कू ने बहाना किया-मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी हैं। पेट में ऐसा दरद हुआ, ऐसा दरद हुआ कि मै नहीं जानता हूँ !
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10-11-2012, 12:02 AM | #24 |
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Re: पूस की रात (मुंशी प्रेमचंद)
दोनों फिर खेत के डॉँड पर आयें । देखा सारा खेत रौदां पड़ा हुआ है और जबरा मॅड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों ।
दोनों खेत की दशा देख रहे थें । मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था । मुन्नी ने चिंतित होकर कहा-अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी। हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा-रात को ठंड में यहॉ सोना तो न पड़ेगा।
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10-11-2012, 12:05 AM | #25 |
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Re: पूस की रात (मुंशी प्रेमचंद)
अहा, रविजी ! आपने तो वाकई जान निकल ली ! वास्तव में यहां अभी से इतनी सर्दी है कि लगता है, इस बार खूब बर्फ पड़ेगी ! पूस की रात याद कर सिहरने के अलावा और क्या कर सकता हूं ?
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