03-11-2011, 10:20 PM | #21 |
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Re: कतरनें
-अनूप शुक्ला दुनिया में यह अफ़वाह लोगों ने सच सी मान ली है कि इश्क जवानों का चोंचला है। बुढ़ापे में इश्क नहीं होता। बुजुर्ग लोग केवल जवानों की हरकतें देखकर आह भरते हैं। इस अफ़वाह को फ़ैलाने में आलसी कवियों का हाथ-पैर भी रहा जिन्होंने भीड़- भावना से केवल जवानों के प्रेम का चित्रण किया। हालांकि इसके खिलाफ़ भी लोगों ने लिखा। एक शेर जो हमें जो याद हैं वे ठेले-खिदमत हैं जो अक्सर शिवओम अम्बरजी सुनाते हैं: कौन कहता है बुढ़ापे में इश्क का सिलसिला नहीं होता, आम तब तक मजा नहीं देता जब तक पिलपिला नहीं होता। ब्लाग-जगत में हमारे सबसे बड़े-बुजुर्गों में भैया लक्ष्मीनारायण गुप्त कानपुर के ही हैं। हमारे ही स्कूल बी.एन.एस.डी. इंटर कालेज के उत्पाद हैं। आजकल अमेरिकियों को गणित पढ़ाते हैं। प्रेम पर जित्ती बोल्ड कवितायें उन्होंने लिखीं हैं उत्ती शायद किसी तथाकथित नौजवान ने भी न लिखी होंगी। लक्ष्मीजी ने एक पोस्ट लिखी थी जिसमें आल्हा छंद का किस्सा था। उसको और कुछ कविताओं को लेकर हमने भी आल्हा छंद में प्रेम-कथा लिखी थी। हालांकि इसमें नाम लक्ष्मीजी का है लेकिन जो कोई भी इसे अपनी कथा मानना चाहे तो बाशौक मान सकता है। हमें कौनौ एतराज न होगा। हां, मानने से पहले अपने ’बेटर-हाफ़’ से अनुमति ले लेगा तो अच्छा रहेगा। आम तौर पर माना जाता है कि प्रेम के बारे में लिखने के लिये अंदाज मुलायम होना चाहिये। इसी बात को गलत ठहराने के लिये हमने यहां वीररस का प्रयोग किया है। आप मुलाहिजा फ़र्मायें, इश्क के दरिया में डूब जायें। यह रिठेल केवल उन लोगों के लिये है जिन्होंने इसे पहले बांचा नहीं। लोग दुबारा पढ़ना चाहे तो उसके लिये भी कोई रोक नहीं है। वीर रस में प्रेम पचीसी हमारे पिछली पोस्ट पर समीरजी ने टिप्पणी की :- मजाक का लहज़ा, और इतनी गहराई के साथ अभिव्यक्ति, मान गये आपकी लेखनी का लोहा, कुछ तो उधार दे दो, अनूप भाई, ब्याज चाहे जो ले लो. सच में हम पढ़कर बहुत शरमाये। लाल से हो गये। सच्चाई तो यह है कि हर लेख को पोस्ट करने के पहले तथा बाद तमाम कमियां नज़र आतीं हैं। लेकिन पोस्ट करने की हड़बड़ी तथा बाद में आलस्य के चलते किसी सुधार की कोई संभावना नहीं बन पाती। अपनी हर पोस्ट लिखने के पहले (डर के मारे प्रार्थना करते हुये)मैं नंदनजी का शेर दोहराता हूं:- मैं कोई बात तो कह लूं कभी करीने से खुदारा मेरे मुकद्दर में वो हुनर कर दे। जबसे रविरतलामीजी ने बताया कि हम सब लोग कूडा़ परोसते हैं तबसे यह डर ‘अउर’ बढ़ गया। हालांकि रविजी ने पिछली पोस्ट की एक लाइन की तारीफ की थी लेकिन वह हमारी नहीं थी लिहाजा हम उनकी तारीफ के गुनहगार नहीं हुये। बहुत दिनों से ई-कविता तथा ब्लागजगत में कविता की खेती देखकर हमारे मन में भी कुछ कविता की फसलें कुलबुला रहीं थीं। यह सोचा भी था कि हिंदी ब्लाग जगत तथा ई-कविता की भावभूमि,विषय-वस्तु पर कुछ लेख लिखा जाय ।सोचा तो यह भी था कि ब्लागरों की मन:स्थिति का जायजा लिया जाय कि कौन सी ऐसी स्थितियां हैं कि ब्लागजगत में विद्रोह का परचम लहराने वाले साथी यूँ तो सीधा खडा हुआ हूँ, पर भीतर से डरा हुआ हूँ. तुमको क्या बतलाऊँ यारो, जिन्दा हूँ, पर मरा हुआ हूँ. जैसी, निराशावादी मूड की, कवितायें लिख रहे हैं। लेकिन फिर यह सोचकर कि शायद इतनी काबिलियत तथा कूवत नहीं है मुझमे मैंने अपने पांव वापस खींच लिये क्रीज में। यह भी सोचा कि किसी के विद्रोही तेवर का जायजा लेने का हमें क्या अधिकार है! इसके अलावा दो लोगों की नकल करने का मुझे मन किया। एक तो लक्ष्मी गुप्त जी की कविता पढ़कर आल्हा लिखने का मन किया । दूसरे समीरलाल जी की कुंडलिया पढ़कर कुछ कुंडलियों पर हाथ साफ करने का मन किया। बहरहाल,आज सोचा कि पहले पहली चीज पर ही हाथ साफ किया जाय। सो आल्हा छंद की ऐसी तैसी कर रहा हूं। बात लक्ष्मीजी के बहाने कह रहा हूं क्योंकि इस खुराफात की जड़ में उनका ही हाथ है। इसके अलावा बाकी सब काल्पनिक तथा मौजार्थ है। कुछ लगे तो लिखियेगा जरूर। सुमिरन करके लक्ष्मीजी को सब मित्रन का ध्यान लगाय, लिखौं कहानी प्रेम युद्ध की यारों पढ़ियो आंख दबाय। पढ़िकै रगड़ा लक्ष्मीजी का भौजी गयीं सनाका खाय, आंख तरेरी,मुंह बिचकाया नैनन लीन्ह कटारी काढ़। इकतिस बरस लौं चूल्हा फूंका कबहूं देखा न दिन रात जो-जो मागेव वहै खवाया तिस पर ऐसन भीतरघात। हम तौ तरसेन तारीफन का मुंह ते बोल सुना ना कान उनकी मठरी,पान,चाय का इतना विकट करेव गुनगान। तुमहि पियारी उनकी मठरी उनका तुम्हें रचा है पान हमरा चोला बहुत दुखी है सुन तो सैंया कान लगाय। करैं बहाना लक्ष्मी भैया, भौजी एक दिहिन न कान, उइ तौ हमरे परम मित्र हैं यहिते उनका किया बखान। नमक हमैं उइ रहैं खवाइन यहिते भवा तारीफाचार वर्ना तुम सम को बनवइया, तुम सम कउन इहां हुशियार। सुनि हुशियारी अपने अंदर भौजी बोली फिर इठलाय, हमतौ बोलिबे तबही तुमते जब तुम लिखौ प्रेम का भाव। भइया अइठें वाहवाही में अपना सीना लिया फुलाय लिखबे अइसा प्रेमकांड हम सबकी हवा, हवा हुइ जाय। भौजी हंसिके मौज लिहिन तब अइसा हमें लगत न भाय, तुम बस ताकत हौ चातक सा तुमते और किया न जाय। भैया गर्जे ,क्या कहती हो ‘इलू ‘अस्त्र हम देब चलाय, भौजी हंसी, कहते क्या हो,तुरत नमूना देव दिखाय। बातन बातन बतझड़ हुइगै औ बातन मां बाढ़ि गय रार बहुतै बातैं तुम मारत हो कहिके आज दिखाओ प्यार। उचकि के बैठे लैपटाप पर बत्ती सारी लिहिन बुझाय, मैसेंजर पर ‘बिजी’ लगाया,आंखिन ऐनक लीन लगाय। सुमिरन करके मातु शारदे ,पानी भौजी से मंगवाय खटखट-खटखट टीपन लागे उनसे कहूं रुका ना जाय। सब कुछ हमका नहीं दिखाइन बहुतै थ्वारा दीन्ह दिखाय, जो हम देखा आपहु द्याखौ अपनी आप बतावौ राय। बड़े-बड़े मजनू हमने देखे,देखे बड़े-बड़े फरहाद लैला देखीं लाखों हमने कइयों शीरी की है याद। याद हमें है प्रेमयुद्ध की सुनलो भइया कान लगाय, बात रसीली कुछ कहते हैं,जोगी-साधू सब भग जांय। आंख मूंद कर हमने देखा कितना मचा हुआ घमसान प्रेमयुद्ध में कितने खपिगे,कितनेन के निकल गये थे प्रान। भवा मुकाबिला जब प्रेमिन का वर्णन कछू किया ना जाय, फिर भी कोशिश हम करते हैं, मातु शारदे होव सहाय। चुंबन के संग चुंबन भिरिगे औ नैनन ते नयन के तीर सांसैं जूझी सांसन के संग चलने लगे अनंग के तीर। नयन नदी में नयना डूबे,दिल सागर में उठिगा ज्वार बतरस की तब चली सिरोही,घायल का सुख कहा न जाय। तारीफन के गोला छूटैं, झूठ की बमबारी दई कराय न कोऊ हारा न कोऊ जीता,दोनों सीना रहे फुलाय। इनकी बातैं इनपै छ्वाड़व अब कमरौ का सुनौ हवाल, कोना-कोना चहकन लागा,सबके हाल भये बेहाल। सर-सर,सर-सर पंखा चलता परदा फहर-फहर फहराय, चदरा गुंथिगे चदरन के संग,तकिया तकियन का लिहिन दबाय। चुरमुर, चुरमुर खटिया ब्वालै मच्छर ब्लागरन अस भन्नाय दिव्य कहानी दिव्य प्रेम की जो कोई सुनै इसे तर जाय । आंक मूंद कै कान बंद कइ द्*याखब सारा कारोबार जहां पसीना गिरिहै इनका तंह दै देब रक्त की धार। सुनिकै भनभन मच्छरजी की चूहन के भी लगि गय आग तुरतै चुहियन का बुलवाइन अउर कबड्डी ख्यालन लाग। किट-किट दांत बजि रहे ,पूछैं झण्डा अस फहराय म्वाछैं फरकैं जीतू जैसी ,बदन पसीना रहे बहाय। दबा-दबउल भीषण हुइगै फिर तौ हाल कहा न जाय, गैस का गोला बम अस फूटा,खटमल गिरे तुरत गस खाय। तब बजा नगाड़ा प्रेमयुद्ध का चारों ओर भवा गुलज़ार खुशियां जीतीं धकापेल तब,मनहूसन की हुइगै हार। हरा-हरा सब मौसम हुइगा,फिर तौ सबके लगिगै आग अंग-अंग फरकैं,सब रंग बरसैं,लगे विधातौ ख्यालन फाग। इहां की बातैं हियनै छ्वाड़व आगे लिखब मुनासिब नाय बच्चा जो कोऊ पढ़ि ल्याहै तो हमका तुरत लेहै दौराय। भैया बोले हंसि के ब्वालौ कैसा लिखा प्यार का हाल अब तौ मानेव हमहूं है सरस्वती के सच्चे लाल। भौजी बोलीं तुमसा बौढ़म हमें दिखा ना दूजा भाय, हमतौ सोचा ‘इलू’ कहोगे ,आजौ तरस गये ये कान। चलौ सुनावौ अब कुछ दुसरा, देवरन का भी कहौ हवाल कइसे लफड़ा करत हैं लरिका नयी उमर का का है हाल? भैया बोले मुस्का के तब नयी उमर की अजबै चाल बीच सड़क पर कन्या डांटति छत पर कान करति है लाल। डांटि-डांटि के सुनै पहाडा़, मुर्गौ कबहूं देय बनाय सिर झटकावै,मुंह बिचकावै, कबहूं तनिक देय मुस्काय। बाल हिलावै,ऐंठ दिखावै , नखरा ढेर देय बिखराय, छत पर आवै ,मुंहौ फुलावै लेय मनौना सब करवाय। इतनेव पर बस करै इशारा, इनका गूंगा देय बनाय दिल धड़कावै,हवा सरकावै ,पैंटौ ढीली देय कराय। कुछ दिन मौका देकर देखा ,प्रेमी पूरा बौड़म आय, पकड़ के पहुंची रतलामै तब,अपना घर भी लिया बसाय। भउजी की मुसकान देखि के भइया के भी बढ़ि गै भाव बूढ़े देवर को छोडो़ अब सुन लो क्वारन के भी हाल। ये है तुम्हरे बबुआ देवर चिरक्वारें और चिर बेताब बने हिमालय से ठहरे हैं ,कन्या इनके लिये दोआब। दूर भागतीं इनसे जाती ,लिये सागर से मिलने की ताब जो टकराती सहम भागती ,जैसे बोझिल कोई किताब। नखरे किसके चाहें उठाना ,वो धरता सैंडिल की नोक जो मिलने की रखे तमन्ना, उसे दूर ये देते फेंक। ये हैं धरती के सच्चे प्रतिनिधि तंबू पोल पर लिया लगाय, कन्या रखी विपरीत पोल पर, गड़बड़ गति हो न जाय। सुनिके देवर की अल्हड़ता भौजी मंद-मंद मुस्कांय, भैया समझे तुरत इशारा सबको कीन्हा फौरन बाय।
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
03-11-2011, 11:52 PM | #22 |
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Re: कतरनें
क्योंकि शकीरा के पुट्ठे झूठ नहीं बोलते !
ये हिंदुस्तान को क्या हो रेला है भई? इन्डिया से शादीशुदा बालबच्चेदार मित्र चैटिया रहे हैं. शकीरा अपने इंडिया मे आ रेली बाबा! उसका वो गाना देखाना है “हिप्स डोंट लाई!” अर्थात नितंब असत्य नहीं बोलते. हम बोले - अबे आती है तो आने दे तेरे को क्या? अबे पता है एक टिकट कित्ते की? कित्ते की? ३६५० रुपये की! क्या? चरया गया है क्या साईं? बंदा ज्यादा बकझक करने के बज़ाए कडी थमा देता है - देख ले भई! अबे रुक. मैं दनाक से केल्कुलेटर खोल के ४३.९३ आजकल के कंवर्जन रेट से भाग दे कर देखता हूं ताकी मामला अपनी डिफ़ाल्ट करंसी मे समझ में आए - अबे ८३ डालर!! हव्व कौन जाएगा देखने? जनता जाएगी देसी जनता? हव्व! इत्ता पैसा है उनके कने? हव्व! क्या बोल रिया है बे? सही बोल रिया हूं यार!! शकीरा मेरी फ़ेवरेट पॉप कलाकार हैं, लेकिन इस भाव में तो मैं उनका कंसर्ट कतई ना देखूं! *-*-* कल अंतर्यामिणी बता रही थीं की शहर में ‘लायन किंग’ कंसर्ट हाल में शो करने आएंगे. शायद दफ़्तर वालों की कंसर्ट हाल को दी जाने वाली कार्पोरेट स्पांसरशिप के चलते मिलने वाली मुफ़्त टिकटें पाने का मौका हाथ लगे तो देख आएं. पत्नी: और अगर टिकटें ना मिलें तो? स्वामी: हमऊं खरीद के देख लेंगे! पत्नी: हे हे पता है एक टिकट कितने की है? स्वामी: कित्ते की? पत्नी: ८० डालर स्वामी: रहने दे भई, ये ज़रा महंगी है. हम बिना लायन किंग के ही भले. भईये अपने इंडिया की महंगाई देख कर तो यहां बैठ के पसीना आ जाता है उससे ज्यादा वहां का उपभोक्तावाद देख कर. मेरे हाई थिंकिंग सिंपल लिविंग वाले इंडिया को अमरीका की हवा लग गई है. लगता है ये नव-भोक्ता चलते दुनिया को पीछे छोड देंगे! *-*-* मैं अपने से जरा दूर वाले दफ़्तर में बैठी अमरीकी महिला से पूछता हूं – औसत कंसर्ट का टिकट कितने का होता है? वो बोली “५०-६०.. लेकिन मैं काफ़ी समय से किसी कंसर्ट में नही गई!” मैं मुस्कुरा देता हूं – मैं भी नहीं गया! लेकिन मेरे भारतीय मित्र शकीरा के कंसर्ट में जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं भारत में – अस्सी डालर का टिकट ले कर! पागल हो गए हैं क्या? वो पूछती है! उन्हें प्रत्यक्ष कंफ़र्म करना है की शकीरा के ’हिप्स डोंट लाई’! इस भाव में? हां! सचमुच पागल हो गए हैं – इस प्रकार के कंसर्ट पर यहां वो बच्चे पैसा खर्च करते हैं जो खुद कमाते हैं फ़िर भी माता-पिता के साथ उनके घर में रहते हैं और अपनी कमाई से ऐश करते हैं वहां कौन करेगा ऐसी चीज़ पर पैसा खर्च? भारत की जनता करेगी! इतना पैसा है जनता के पास? पता नहीं! मुझे समझ नहीं आया हां बोलू या ना! अभी भी पशोपेश में हूँ! (ई-स्वामी से साभार)
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04-11-2011, 12:01 AM | #23 |
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Re: कतरनें
तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?
एक बहुत करीबी मित्र से फोन पर बात हो रही थी. वो बोला की उसका साला अपनी पडोसन से प्रेम विवाह कर रहा है. घर वाले राजी खुशी मान गए हैं. ये वो ही घर वाले हैं, जिन्होंने मित्र की साली की शादी उसकी पसंद लडके से नहीं होनें दी थी और जबरदस्ती कहीं और कर दी थी. जब कन्या के प्रेम का ज़िक्र हमारे सामने किया गया था तब – ‘टांका भिड गया है’, ‘ईलू-ईलू का चक्कर है’, ‘लफ़डा चल रहा है’, ‘नैन-मटक्का हो गया है’ जैसे वाक्यांशों से उसके प्रेम में पड जाने का दबी ज़बान से इशारा किया गया था. कन्या की शादी कहीं और कर दी गई! आज उसकी गोद में एक पप्पू खेलता है. जबकि वहीं इन साले महाराज के प्रेम प्रकरण की परिणीति विवाह में हो रही है! लडका इकलौता है, उसने पिता का काम काज संभाल लिया है. पिता को डर होगा कहीं फ़िल्मी स्टाईल में बाग़ी ना हो जाए – जो दबाव बेटी पर चल गया बेटे पर ना चला. मैं सोचता हूं की क्या वो बहन अपने भाई (और पिता) से कभी पूछेगी कि जी “तुम्हारा प्यार, प्यार और हमारा प्यार लफ़डा?” शायद वो नहीं पूछेगी क्योंकि वो भी उसे एक लफ़डा मान कर भुला देने में ही समझदारी मानती होगी/दर्शाती होगी! यही होता है. कमाऊ पुत्र का प्यार, प्यार हो गया! निरीह पुत्री का प्यार लफ़डा कह कर खारिज कर दिया गया! पुत्री का प्यार इसलिये खारिज कर दिया गया की उसे जो लडका पसंद था उसका सामाजिक स्तर यानी आर्थिक आधार कमजोर था. घटनाओं को परिपेक्ष्य विशेष में देखने की कोशिश करता हूं और एक लाठी से सबको हांकने से भी बचता हूं लेकिन बहुत हद तक क्या उपरोक्त घटना हमारे समाज के चलन की तरफ़ इशारा नहीं करती? मैंने कहीं व्यंग्य किया था की “प्रेम के नुस्खे, नियम पत्र-पत्रिकाओं में उपलब्ध हैं. प्रेम के हर चरण में किए जाने वाले कार्य एक पूर्वनिर्धारित नीति के तहत किए जाने होते हैं. प्रेम अंधा नही होता, बाकायदा सोच-समझ कर उगता और ढलता है.” विलुप्तप्राय:वस्था को प्राप्त हो चुका प्रेम इतना लाचार है की उसके अस्तित्व तो क्या उसकी भावनात्मक अस्मिता को भी घर/समाज वालों की स्वीकृत पर आश्रित होना होता है! अन्यथा वो बेचारा लफ़डा/चक्कर/टांका हो के रह जाता है! यदी कहीं अपवादस्वरूप दो लोग सचमुच प्रेम कर बैठें जो बाकयदा सोच-समझ कर उगाया गया तथाकथित प्रेम ना हो, तो उनके प्रेम को अधिक सक्षम ‘पार्टी’ द्वारा ‘लफ़डा’ करार दे दिया जाना आम है! ये प्रेम का लफ़डा या चक्कर करार दिया जाना बिल्कुल वैसा ही विसंगत है जैसा देवी की पूजा करने वाले समाज में कन्या भ्रूण-हत्याएं होना. ये दुष्कर्म इतना आम है की अखबारों और न्यूज़ पोर्टल्स की, रोज़मर्रा की भाषा में है! आज ही का वेबदुनिया के लेख की भाषा पर गौर कीजिये जो हाल में सुर्खियों में आए किन्ही “दयानन्द पाण्डे” के बारे में है - सुधाकर के नजदीकी लोगों की मानें तो शुरुआत से ही उसे बेहिसाब धन कमाने का भूत सवार था। उसके पिता उदयभानधर द्विवेदी पुलिस के सबइंस्पेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुए। जब सुधाकर के पिता नवाबगंज में तैनात थे, उस समय सुधाकर का पड़ोस में रहने वाली एक लड़की दीपा के साथ चक्कर चल पड़ा। कहा जाता है कि गैर बिरादरी की होने के कारण दीपा को सुधाकर के परिवार वालों ने स्वीकार नहीं किया। कुछ जानकार लोगों का कहना है कि इसी लड़की के साथ सुधाकर ने आर्य समाज विधि से शादी भी की, लेकिन उसके विवाह को परिवार वालों ने स्वीकृति नहीं दी। – वेबदुनिया याद दिला दूं की यहां मैं दयानन्द पाण्डे के निजी जीवन की बात नहीं कर रहा. वेबदुनिया की भाषा पर ध्यान दिलवा रहा हूं जो हमारे समाज की सोच और मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है. ये वो ही समाज है जहां दुनिया में सर्वाधिक प्रेम कथाओं वाली फ़िल्में और गाने बनते हैं- “पलभर के लिये कोई हमें प्यार कर ले.. झूठा ही सही”! हमारी आम भाषा से हमारी आम सोच का पता चलता है. अभी हम अपने आस-पास प्रेम पनपने दे सकने जैसे समाज नहीं बने – भयावह है, नहीं क्या? (ई-स्वामी से साभार)
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04-11-2011, 12:09 AM | #24 |
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Re: कतरनें
एक देसी, एक बीयर…एक किस्सा !
सुरक्षा पडताल से दरवाजा नंबर ४२ तक की सामान खींच कदमताल काफ़ी लंबी थी. मुझे डर हुआ की मेरे डीओ की परतों के नीचे से पसीना अपनी उपस्थिती ज़ाहिर ना करने लगे. गर्मी लग रही थी, शरीर का तापमान कम करने के अलावा आगे लंबी दूरी की उडान के लिये खुद को तैयार करना था. मैं बैठा कुछ देर तक प्रथम श्रेणी सीट की आरामदायक चौडाई महसूस करता रहा. “मैं इस आराम से अनुकूलित हो सकता हूं!” मैंनें सोचा. मेरी मां ने एकबार पूछा था – “तू शराब पीता है?” ”धरती पर आम तौर पे छूता नहीं और आसमान में आम तौर पे छोडता नहीं” ..ये जवाव सुन कर मां मुस्कुराईं तो नहीं, पर वो निश्चिंत हो गईं थीं! जब २२ घंटे की उडान के बाद मुझसे मिलने पहली बार भारत से यहां आईं तो बोलीं ‘इतनी लंबी और पकाऊ फ़्लाईट में तो कोई भी पीने लगे.. सारे पीने वाले जल्दी ही खर्राटे लेने लगे थे!’ हजारों मील हवाई धक्के खा चुकने के बाद, एयरलाईन्स वालों नें आज वफ़ादारी का सिला दिया, कोच श्रेणी में यात्रा करने वाले को मुफ़्त का प्रथम श्रेणी उच्चत्व प्राप्त हुआ था.. आम तौर पर सूफ़ी में रहने वाले नाचीज़ का फ़ील गुड एक ग्लास बीयर पी लेने के बाद और भी सेट होने लगा .. ये चिट्ठा लिखने के लिये आदर्श समय था. मैं मिल्लर कंपनी की बीयर पी रहा था.. इसकी डिस्टिलरी मिलवॉकी,विस्कॉंसिन में मेरे दफ़्तर के रास्ते में पडती थी. वहां यह बीयर पहली बार पिलाते हुए मित्र नें मुझे एक मजेदार किस्सा भी सुनाया था ..मित्र कहने लगा की उसके दफ़्तर की सच्ची घटना है.. भरोसा नहीं हुआ था.. लेकिन बीयर पी कर सुना गया किस्सा बीयर पी कर दोहराया भी तो जा सकता है – सो झेलें - अप्पा पिल्लई नामक साफ़्टवेयर इंजीनियर h1 वीसा पर अमरीका मित्र की कंपनी में पधारा. गूढ दक्षिण भारतीय होने की वजह से जब वो अंग्रेजी बोलता तब भी यूं लगता जैसे कोई दक्षिण भारतीय भाषा ही बोल रहा है. अप्पा कोई भी बात सीधे नहीं कहता था. अप्पा एक बार अपने बॉस हैरी के पास गया और बोला “हैरी आर यूं एंग्री?” हैरी ने जवाब दिया “नो अप्पा .. आई ऐम नाट ऐंग्री!” अप्पा फ़िर बोला ..”इट्स १२:३० .. यू आर नाट ऐंग्री?” हैरी संयत हो कर बोला “नो अप्पा.. व्हाई वुड आई बी ऐंग्री?” अप्पा नें झल्ला कर मूंह की तरफ़ हाथ से खाने का इशारा करते हुए बोला “ऐंग्री?.. ऐंग्री??” “ओह .. हंग्री यू मीन?” .. हैरी के पल्ले पडा! दफ़्तर के लोग साथ में एक रेस्टोरंट जाने का कार्यक्रम बना रहे थे और अप्पा नें सोचा की हैरी को भी साथ लें लें! हैरी मस्त किस्म का बॉस था, आते शुक्रवार वो सबको यूं भी अपने साथ खाने पर ले जाने वाला था.. बोला अगर सारे अपना काम खत्म कर लें तो शुक्रवार को खाने के बाद सप्ताहांत के लिये चंपत हो जाएं ..उसे कोई समस्या नहीं होगी! तो अब अप्पा नें खुशी-खुशी दफ़्तर में ही पित्जा मंगवा कर काम खत्म करने आईडिया उछाला! अप्पा स्पीकर फ़ोन पर पित्ज़ा का ऑर्डर दे रहा है .. ताकी सब अपनी फ़रमाईशें बता सकें .. अप्पा: “हैल्लो .. एस .. आई वान्डू औऊडर पी जा!” पीज्जा वाली भैन जी: “से यू वान्ट टू पाऊडर व्हाट?” अप्पा: “पी जा ..पी जा.. पी एझ इन पैरोट.. आई एझ इन इडिओट..झेड एझ इन झेब्रा.. अनादर झेड एझ इन अनादर झेब्रा.. ए एझ इन अप्पा.. पीजा ” पीज्जा वाली भैन जी: “ओह पित्ज़ा.. मे आई हैव यूअर नेम प्लीज़!” अप्पा: “येस .. इस्ट अप्पा पिल्लई!” पीज्जा वाली भैन जी: “एप्पा.. कैन यू स्पैल इट फ़ार मी?” अप्पा: “सिंपिल .. सी अप्पा पिल्लई..Appa .. A एझ इन अप्पा, P एझ इन पिल्लई, अनादर P एझ इन अनादर पिलाई, आनादर A एझ इन अनादर अप्पा .. नऊ माई सरनेम.. P एझ इन पिल्लई ..” पीज्जा वाली भैन जी: “ओह माई गाड .. कैन यू होल्ड फ़ार ए सेकेंड ..” दूसरी ओर से कुछ देर तक संगीत बजता रहा ..फ़िर पिज्जा वाली ने फोन काट दिया! … दफ़्तर में सभी का हंस हंस के बुरा हाल था… फ़िर किसी और मित्र नें पिज्जा का ऑर्डर पूरा किया! टेक ऑफ़ के लिये विमान तैयार है .. अगली पोस्ट, कोई और किस्सा ऐसे ही कहीं से समय चुरा कर! (ई-स्वामी से साभार)
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04-11-2011, 12:12 AM | #25 |
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Re: कतरनें
वो बोली, “इट्स ओके !”
वो कार्पोरेट सेल्स के काम से जुडी हुई औरत थी. प्रोफ़ाईल गढूं? किसी गोरी महिला के हिसाब से औसत से कम ऊंचाई, लगभग पांच फ़ुट पांच इंच. इकहरी से कुछ औंस उपर. आंखें चमकीली, कत्थई और शरारती. करीने से किये गए मेक-अप में छुपाए साल जोड कर उम्र मुझसे ज़रा अधिक. बातचीत का सिलसिला उसी ने शुरु किया, वर्ना जैसा की अक्सर होता आया, पूरी फ़्लाईट के दौरान मेरा हैडफ़ोनग्रस्त सिर पुस्तक में ही घुसा रहता. कुछ आधारभूत नीयम हैं जो लंबे अनुभव के बाद बनाए हैं - सहयात्री अगर भारतीय महिला है, चाहे जितनी पढी लिखी या आधूनिक दिखे, एकदम दरकिनार कर दो. बातचीत का सिलसिला शुरु करना तो दूर, यदि हम अभिवादन भी कर देंगे तो वो असहज हो जाएगी या एटिट्यूड देगी. जो भी करेगी, जाहिर कर देगी की उसकी निगाह में हम प्रेम चोपडा या शक्ति कपूर की श्रेणी के जीव हैं, और ”आऊऽऽ..शीलाऽऽ या जमीलाऽऽ” टाईप कुछ कह कर उस पे कूदने वाले हैं! तो इतराने मौका ही नहीं देने का, कुढ़ जाए अच्छा! बाकी महिलाओं के केस में निर्भर करता है की वे कितनी अधिक यात्राएं करती रही हैं. अनुभवी और सहज सहयात्री अलग से दिख जाती हैं. व्यवसाय का असर भी आता है – मसलन मार्केटिंग जैसे सेवा क्षेत्रों से जुडी महिलाएं अधिक सहज होती हैं. फ़िर भी अपना अंगूठा टेक नीयम ये है की हैडफ़ोन लगा और मस्त में किताब पढ! साथ बैठी महिला अगर सुंदर है तो सीट पर बैठते वक्त एक हल्की पडताल ले, और ज्यादा ही सुंदर है तो प्लेन से उतरते वक्त दूसरी – इस से ज्यादा भाव देना नहीं बनता. पर ये वाली अलग थी, पास बैठी हाथ मिला कर अपना नाम बताया और भीड भरी फ़्लाईट पर एक टिप्पणी की. मेरे हाथ में जो पुस्तक थी उसका शीर्षक देखा, पूछा कैसी पुस्तक है आदी. ‘ह्म्म चतरी! ये जाते जाते अपना कार्ड देगी, बायोडाटा मांग सकती है, किसी रिक्रूटिंग कंपनी से जुडी हो सकती है.’ मैं उसे प्रोफ़ाईल में फ़िट करने लगा. हुआ भी वही! ‘सटीक रे सटीक.. पता सी मैन्नू’ चल कोई नी, साथ बैठी है तो मार ले गप्पें. दो ग्लास वाईन पी चुकने के बाद बडे आराम से बतिया रही थी. उसे चढी-वढी नहीं थी, बता सकता था वो अभ्यस्त पियक्कड थी. “मेरी मां मेरे यहां रहने आई हुई है.. मेरे पीछे से मेरी चड्डियों के ड्रॉअर तक की झडती ले चुकी है!” “तुम्हें कैसे पता?” ”टोकती है मैं इतनी छोटी और झीनी चड्डियां क्यूं पहनती हूं!.. फ़िर पूछा तो बताने लगी की मेरे कपडों के खाने में देखा उसने.” मैं मुस्कुरा दिया, वो भी! “तुम हमेशा हैडफ़ोन लगाए किताब पढते हो यात्रा करते समय? ” “हाँ- ये मेरा सिग्नल है की मैं अभी बातचीत नहीं करना चाहता!” “तो क्या तुम मुझसे भी बातचीत करना नहीं चाहते थे? मैं तो अपने सहयात्रियों से बात कर लेती हूं!” “तुम सुंदर औरत हो, नियंत्रण तुम्हारे हाथ में है, चाहो तो बात करो, चाहो तो ना करो!” “सच है!” वो हंसी. “और फ़िर सांक्खिकी के हिसाब से तुम जैसी सहयात्री मिलना मुश्किल है, तो फ़ोकट मुस्कुराहटें क्यूं ज़ाया करूं?” “फ़िर तो तुम नेटवर्किंग कर ही नहीं सकते!.. देखो ये मछली पकडने के जैसा है.. संख्या के कोई माईने नहीं हैं, कोशिश करते रहने के हैं. मैं कोशिश करती हूं कभी सफ़ल होती हूं और कभी असफ़ल!” मैने मन ही मन सोचा (पट्ठी तेरा एक व्यवसायिक ध्येय है, तुम सफ़र में भी काम कर रही हो. दिलचस्पी तुम्हे इस सहयात्री में नहीं है अपने काम में है! वर्ना तुम भी बात नहीं करतीं- वक्त काटने के लिये भी नहीं!) लेकिन प्रत्यक्ष में कहा “आजकल लोग वक्त काटने के लिये भी अब किसी से बात करना पसंद नहीं करते.. देखो ना अपनी निजता, सुरक्षा के अलावा ऐसे ही व्यव्हारिक कारण हैं की लोग सार्वजनिक स्थानों पर अपने अपने मोबाईल, आई-पाड, लैपटाप में खोए रहने का जतन करते हैं चाहे काम से थके हुए ही क्यों ना हों.. होते सारे अकेले हैं लेकिन अहं के चलते स्वीकारें कैसे.. बेहतर है खुद को व्यस्त दिखाएं!” “लेकिन इस बनावटी बर्ताव में भी कई जगह सेंधमारी की जा सकती है. तुम्हें बताऊं नेटवर्किंग करने की एक अच्छी ट्रिक?.. वो है व्यक्तिगत स्पर्श!” “कैसे?” “जब भी तुम्हें कहीं कभी अच्छी सेवा मिले. कोई अपना काम ठीक से करता हुआ मिले तो ऐसे व्यक्ति के अधिकारी को एक हस्तलिखित संदेश भेजो. ई-मेल भेज दोगे तो वो असर नहीं आएगा. एक अच्छा ईमानदार हस्तलिखित संदेश भेजने के बाद तुम देखोगे की अधिकारी और वो व्यक्ति दोनों तुम्हारे बेहतर सहयोगी बन गए हैं!” “ये तो बढिया है! .. थेंक्यू नोट!” ”मुझे तुम पुरुषों पर कई बार तरस आता है.. आम तौर पर तो हमारा मुस्कुराना भर काफ़ी है, अगर हम किसी पुरुष को कोई निवेदन करते हुए जरा आत्मियता से कंधे पर थपथपा दें; ना भी चाह रहे हों, तब भी वो हमारा काम कर देते हैं. पर तुम लोग स्त्रीयों को अक्सर ऐसा वाला व्यक्तिगत स्पर्श नहीं दे सकते!” “अरे यहां तो मुस्कुराने पर भी खलनायक हो चुकने का आभास दिया जाता है!” वो हंसने लगी – “यस वी हैव द पावर..लेकिन पता है एक बार मैं एक ऐसे ग्रुप में फ़ंस गई थी जहां पर मैं अकेली महिला थी और समूह के पुरुष मुझे अपनी गैंग में स्वीकारने को तैयार ही नहीं थे, ये कंधा थपथपाने वाली आत्मीय स्पर्श भी तब काम नहीं किया! ” “फ़िर क्या किया तुमनें?” “मैनें अपने ब्वायफ़्रैंड से बात की और उसने एक लाजवाब ट्रिक बताई!” “क्या?” “जब मैं अपने समूह के मर्दों के साथ एक बडी टेबल पर बैठी काम कर रही थी और मुझे हवा सरकानी थी, मैंने बडे आत्मविश्वास से एक ओर झुक कर पूरे जोरदार ध्वन्यात्मक तरीके से काम सरेआम संपन्न किया.. सारे मर्द पहले तो चौंके और फ़िर क्या हंसे!.. गैंग ने तुरंत काम खत्म होने के बाद मुझे अपने साथ खाने पर आने की दावत दे दी!.. तुम पुरुष लोग कितने जंगली और ज़ाहिल होते हो – तुम्हारा बाण्डिंग का तरीका है ये?!” “ये है खूबसूरत होने का फ़ायदा..अरे ये सोचो की हम कितने फ़रागदिल होते हैं!.. यही काम कोई पुरुष किसी महिलाओं के समूह में कर दे तो बेचारे का क्या हाल हो!” “देखो डबल स्टैंडर्डज़ तो दोनो तरफ़ हैं!” मैने गौर से उसकी तरफ़ देखा जैसे शिकायती लहज़े में कह रहा होऊं “चल झूट्ठी, अभी दो मिनट पहले तो हम पे तरस खा रही थी…हर कहीं तो तुम्हें ज्यादा एडवांटेज मिलता है! हद्द है!!” उसने मेरे चेहरे पर भाव पढे, बडे ही इत्मिनान से मुस्कुराई, बहुत अश्वस्त हो के मेरा कंधा थपथपाया और बोली “इट्स ओके!“ “ओके” मानो लाचार भाव से मैने कहा! हवाईज़हाज ज़मीन से लगा, उसने संपर्क में रहने की हिदायत समेत अपना कार्ड दिया और हम अपने रास्ते हो लिये. (तो दोहरे मापदंडों की हकीकत चाहे जो है, “इट्स ओके!”… सही है ना!) (ई-स्वामी से साभार)
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04-11-2011, 10:21 PM | #26 |
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Re: कतरनें
कार्पोरेट देवियां और उनकी प्रेरक कहानियां
कंपनी जगत में सफलता के सोपान चढते हुए आज अनेक महिलाएं विख्यात कंपनियों के सर्वोच्च पदों को संभाल रही है। इन दृढ निश्चयी महिलाओं ने आत्मविश्वास से घर और कंपनी की जिम्मेदारी में संतुलन बना कर चलने का अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है। लेखिका सोनिया गोलानी की नई किताब ‘कार्पोरेट डीवाज’ यानी ‘कंपनीजगत की देवियां’ में भारत की ऐसी 18 प्रमुख महिलाओं की कहानी हैं। इसमें उनकी प्रेरणा और उनके उत्साह के स्रोतों को तलाशने की कोशिश है। अंतरंग बातचीत के जरिए यह किताब उन अपारंपरिक शैली और गुप्त मंत्र का खुलासा करती है जिसका उपयोग वे अपने पेशे में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करने के लिए करती हैं। पुस्तक के अनुसा इन सारी महिलाओं का एक ही जुनून है - काम और जीवन के प्रति संतुलित रवैया। ब्रिटैनिया इंडस्ट्रीज की प्रबंध निदेशक विनीता बाली विनिर्माण क्षेत्र से संबंधित अपने उद्योग में अपनी बेजोड़ नेतृत्व क्षमता की धाक जमाए हुए हैं। वह आसपास की सकारात्मक चीजों से प्रेरणा ग्रहण करती हैं- फिर चाहे वह खूबसूरत सूर्यास्त हो या फिर शास्त्रीय संगीत। इसी तरह आज वित्तीय जगत में चर्चित चंदा कोचर ने अपने बैंक आईसीआईसीआई बैंक में प्रबंधन प्रशिक्षु के रूप में कदम रखा था। आज वह इसकी प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी हैं। उन्होंने बैंक के साथ अपने लंबे संबंध के बारे में कहा ‘‘ सौभाग्य से मुझे नए कारोबार तैयार करने, चलाने और उन्हें बढाने का मौका मिला। इस प्रक्रिया में तरह तरह के नए अनुभव हुए मैंने अलग-अलग चीजें सीखीं । इससे काम के प्रति कभी उब नहीं हुई। ’’ एक और कहानी राजश्री पथी की है जो राजश्री शुगर्स एंड केमिकल्स लिमिटेड की अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक हैं जिन्हें तमिलनाडु के एक दूर-दराज इलाके को गन्ने के लहलहाते क्षेत्र में बदलने और अपेक्षाकृत संकीर्ण मानसिकता वाले सामाजिक माहौल में चीनी का सफल विनिर्माण कारोबार चलाने का श्रेय जाता है। उन्होंने अपनी जीवन के सफर के बारे में कहा ‘‘मैंने हर उस चुनौती को झेला है जिसका सामना एक औरत, इंसान को करना पड़ता है। मेरे रास्ते में जो भी परिस्थितियां आईं उसमें मैंने अपना बेहतरीन प्रदर्शन किया और हर स्थिति में अच्छा इंसान बने रहने की कोशिश की। जब आप अपने साथ ईमानदार होते हैं और ज्यादा लोगों की बेहतरी के लिए काम करते हैं तो आप देखेंगे कि चमत्कार हो रहा है, मुश्किल परिस्थितियों में रास्ता मिलने लगता है और आप किसी ब्रह्मांडीय शक्ति, सर्वोच्च सत्ता, अपने से परे किसी सत्ता पर भरोसा करने लगते जिसकी ओर आप रुख कर सकते हैं।’’ मुंबई की गोलानी अपनी परामर्श कंपनी मैनेजमेंट कंसल्टैंट ग्रुप का दशक भर से प्रबंधन कर रही है। उनकी इस पुस्तक में एक्सिस बैंक की प्रबंध निदेशक और मुख्य कार्याधिकारी शिखा शर्मा, क्रेडिट सुईस इंडिया की प्रबंध निदेशक वेदिका भंडारकर, गोदरेज समूह की कार्यकारी निदेशक तान्या दुबाश, यूबीएस इंडिया के प्रमुख (कंट्री) मनीषा गिरोत्रा, वेलस्पन रिटेल लिमिटेड की कार्यकारी निदेशक दीपाली गोयंका, जिंदल सॉ लिमिटेड की प्रबंध निदेशक स्मिनु की कहानी भी शामिल हैं।
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09-11-2011, 04:43 PM | #27 |
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Re: कतरनें
बनारस के घाटों पर कल होगा अदभुत नजारा
वाराणसी ! उत्तर प्रदेश में देश की धार्मिक और सांस्कृतिक नगरी वाराणसी के ऐतिहासिक गंगा घाटों पर कल देव दीपावली पर देवलोक का नजारा देखने को मिलेगा । नीचे कल कल बहती सदा नीरा गंगा की लहरें, घाटों की सीढियों पर जगमगाते लाखों दीपक एवं गंगा के समानांतर बहती हुई दर्शकों को जनधारा देव दीपावली की नाम से आधी रात तक अनूठा दृश्य प्रस्तुत करती है । विश्वास, आशा एवं उत्सव के इस अनुपम दृश्य को देखने के उत्सुक देश विदेश के लोग खिंचे चले आते हैं । प्रमुख घाटों पर तिल रखने की जगह नहीं रहती । दुनिया के कोने कोने से पहुंचे देशी-विदेशी पर्यटकों से शहर के होटल एवं धर्मशालाएं पूरी तरह भर गयी हैं । इस अदभुत नजारों को दिखाने का फायदा नाविक भी उठाते हैं और किराये कई गुना बढा देते हैं । देव दीपावली का यह तिलस्मी आकर्षण अब अंतर्राष्ट्रीय रूप लेता जा रहा है । दीपावली के पद्रह दिन बाद कार्तिक पूर्णिमा को काशी में गंगा के अर्द्ध चन्द्राकार घाटों पर दीपों का अद्भुत जगमग प्रकाश देवलोक जैसा वातावरण प्रतुत करता है । पिछले दस-बारह साल में ही पूरे देश एवं विदेशों में आकर्षण का केन्द्र बन चुका देव दीपावली महोत्सव देश की सांस्कृतिक राजधानी काशी की संस्कृति की पहचान बन चुका है । गंगा के करीब ।0 किलोमीटर में फैले अर्द्धचन्द्राकार घाटों तथा लहरों में जगमगाते-इठलाते बहते दीप एक अलौकिक दृश्य उपस्थित करते हैं । कल शाम होते ही सभी घाट दीपों की रोशनी से नहा उठेंगे । शाम गंगा पूजन के बाद काशी के सभी 80 घाटों पर दीपों की लौ जगमगा उठेगी । गंगा घाट ही नहीं अब तो नगर के तालाबों, कुओं एवं सरोवरों पर भी देव दीपावली की परम्परा बन चुकी है । देव दीपावली महोत्सव काशी में सामूहिक प्रयास का अदभुत नमूना पेश करता है । बिना किसी सरकारी मदद के लोग अपने घाटों पर लोग न केवल दीप जलाते है बल्कि हफ्तों पूर्व से घाटों की साफ सफाई में जुट जाते हैं । कल के ही दिन दशाश्वमेध घाट पर बने राष्ट्र्रीय राजधानी दिल्ली स्थित इंडिया गेट की प्रतिकृति पर सेना के तीनों अंगों के जवानों द्वारा देश के लिए शहीद जवानों को श्रद्धासुमन अर्पित किया जाता है तथा सेना के जवान बैंड की धुन बिखेरते हैं । शरद ऋतु को भगवान श्रीकृष्ण की महा रासलीला का काल माना गया है । श्रीमदभागवत गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा की चांदनी में श्रीकृष्ण का महारास सम्पन्न हुआ था । एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार भगवान शंकर ने देवताओं की प्रार्थना पर राक्षस त्रिपुरा सुर का वध किया था । परम्परा और आधुनिकता का अदभुत संगम देव दीपावली धर्म परायण महारानी अहिल्याबाई से भी जुडा है । अहिल्याबाई होल्कर ने प्रसिद्ध पंचगंगा घाट पर पत्थरों से बना खूबसूरत हजारों दीप स्तंभ स्थापित किया था जो इस परम्परा का साक्षी है । आधुनिक देव दीपावली की शुरुआत दो दशक पूर्व यहीं से हुई थी ।
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09-11-2011, 05:20 PM | #28 |
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Re: कतरनें
वर्ल्ड हैडेक डे पर विशेष
सिरदर्द में दर्दनिवारक दवाओं के अधिक इस्तेमाल से बचना चाहिए नयी दिल्ली ! सिरदर्द से अक्सर पीड़ित रहने वाले लोगों को इसके लिए हमेशा दर्दनिवारक दवाओं का इस्तेमाल करने की बजाय चिकित्सक से सम्पर्क करके जांच करानी चाहिए ताकि मूल कारण का पता लग सके क्योंकि इन दवाओं का यकृत सहित पूरे शरीर पर विपरीत प्रभाव हो सकता है। राजधानी दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल की चिकित्सक डा. विद्या कुमारी का कहना है कि सिरदर्द के कई कारण हो सकते हैं जिनमें आंखों में विकार सबसे आम है। उन्होंने बताया कि रेटीना के आकार में परिवर्तन के चलते आंखों द्वारा देखे जाने वाली चीजें रेटीना पर ठीक तरह से प्रतिबिंबित नहीं हो पातीं जिसके कारण लोगों को पास या दूर की चीजें देखने में परेशानी होती है। उन्होंने बताया कि चीजों को देखने के लिए आंखों पर अधिक जोर पड़ने के कारण इसका प्रभाव माथे की तंत्रिकाओं पर पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप सिरदर्द की समस्या सामने आती है। उन्होंने बताया कि आंखों की जांच नेत्रचिकित्सक से कराकर और सही नम्बर के चश्मे लेकर इस समस्या से निजात मिल सकती है। डा. विद्या ने बताया कि साइनस की समस्या तथा सर्दी के चलते भी सिरदर्द हो सकता है। सिरदर्द में नाक की तंत्रिकाओं में सूजन आ जाती है जिसके चलते सिरदर्द हो सकता है। इसके साथ ही उच्च रक्तचाप के कारण भी सिरदर्द की समस्या हो सकती है। इसका भी पता चिकित्सक से जांच कराकर ही चल सकता है तथा इसकी दवा लेकर बीमारी का इलाज हो सकता है। उन्होंने बताया कि कुछ लोगों को धूप अथवा शोर से भी सिरदर्द की समस्या हो सकती है। यदि किसी मरीज को धूप अथवा शोर से सिरदर्द की समस्या हो रही है तो उसे इससे बचने की सलाह दी जाती है। उन्होंने बताया कि सिरदर्द की समस्या से ग्रसित मरीज के मामले में चिकित्सक सबसे पहले उनकी आंखों की जांच कराने के साथ ही रक्तजांच, रक्तचाप जांचते हैं। उन्होंने बताया कि कई बार यह देखने में आता है कि कुछ लोगों को तनाव या चिंता के कारण भी सिरदर्द की समस्या हो जाती है। मरीज जब चिकित्सक के पास जाते हैं तो उनसे बातचीत के आधार पर वह इसकी पहचान कर लेते हैं और उन्हें इससे बचने की सलाह देते हैं। वहीं डा. मनीषा का कहना है कि कई बार सिरदर्द का कारण शरीर में कोई और समस्या के चलते हो सकता है। शरीर में कहीं ट्यूमर बनने पर भी इसका प्रभाव सिरदर्द के रूप में सामने आ सकता है। उन्होंने कहा कि इसीलिए सलाह दी जाती है कि जिन लोगों को अक्सर सिरदर्द की समस्या होती है उन्हें इसके लिए हमेशा दर्दनिवारक दवा लेने की बजाय इसके कारणों का पता लगाने के लिए चिकित्सकीय जांच करानी चाहिए। दर्दनिवारक दवा के इस्तेमाल से सिरदर्द में तात्कालिक लाभ तो मिल जाता है लेकिन इसका शरीर पर विपरीत प्रभाव भी हो सकता है। इसके अलावा मूल कारण उसी तरह से बरकरार रहता है।
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13-11-2011, 04:32 PM | #29 |
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Re: कतरनें
जरा बेमानी सा है कुछ के लिये यह बाल दिवस........
-हिमांशु सिंह हर साल बाल दिवस बच्चों की दो तस्वीरों के साथ हाजिर होता है। पहली तस्वीर वह जिसमें बच्चे सुबह उठकर, अच्छे कपड़े पहनकर, टिफिन लेकर स्कूल के लिये रवाना होते हैं और दूसरी तस्वीर वह जिसमें बच्चों को दोपहर की अदद रोटी की जुगाड़ के लिये मेहनत करने काम पर निकलना होता है। महानगरों के खाते-पीते बच्चों के लिये आज का दिन बाल दिवस की मस्ती भरे कार्यक्रमों का है। लेकिन सीलमपुर का जहीन, जगतपुरी का अमन और कापसहेड़ा की चुनिया ऐसे बच्चे हैं जिनके लिये यह बाल दिवस जरा बेमानी सा है। आज भी उन्हें रोज की तरह जिंदगी की जंग लड़ने के लिये मशक्कत करने निकलना है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में बाल श्रमिकों की संख्या 24.6 करोड़ है जिनमें से भारत में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं। दिन भर काम करने के बाद सिर्फ मालिकोंं की प्रताड़ना, उनके अपशब्द और कई मामलों में उनकी यौन कुंठाओं की तृप्ति ही ऐसे बच्चों की तकदीर बनती है। गैर सरकारी संगठन ‘सेव द चिल्ड्रन’ की प्रिया सुब्रमण्यम बताती हैं कि जहां एक ओर सरकार अपनी योजना ‘शिक्षा का हक’ की बात कर रही है वहीं देश में छह करोड़ बच्चे विद्यालय से दूर हैं। प्रिया की नजर में यह विडंबना है कि जो सरकार बालश्रम उन्मूलन के कार्यक्रम को सही तरह अंजाम नहीं दे पाई उसने शिक्षा का अधिकार जैसी योजना चलाई। बालश्रम उन्मूलमन कानून में खामियां गिनाते हुये वह कहती हैं कृषि को भी सरकार ने बालश्रम के दायरे में क्यों नहीं रखा। आजादी की आधी सदी बीत जाने के बाद, सूचकांक के रोज जादुई आंकड़े छू लेने और विकास दर के नये नये दावों के बाद भी झुग्गियों में रह रहे करोड़ों बच्चों के लिये कुछ भी नहीं बदला हैै। अभी भी कॉलोनियों के बाहर पडे कूड़े में जूठन तलाशते और दो जून की रोटी के लिये तरसते बच्चों की संख्या से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि बच्चों के संरक्षण और विकास के नाम पर साल दर साल हो रही योजनाओं का ऐलान कितना बेमानी सा है। देश में 44 हजार बच्चे हर साल गायब हो जाते हैं। यह बच्चे कहां गये इसका किसी को कुछ पता नहीं चलता। ऐसे बच्चों के यौन शोषण के मामले जितने तंग बस्तियों में हैं उससे कहीं ज्यादा आलीशान इमारतों और बंगलों में सामने आते हैं। ‘स्माइल फांडडेशन’ के निदेशक एच एन सहाय का कहना है कि सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में कागजी आंकड़े और जमीनी हकीकत में बहुत फर्क है। उनका मानना है कि सरकार की बाल अधिकारों से जुड़ी योजनाओं में बुनियादी खामियां हैं। सहाय कहते हैं कि जो बच्चे कभी पाठशाला ही नहीं जा पाये हैं उनके लिये शिक्षा का अधिकार अभी भी बेमानी है। उन्हें पहले अनौपचारिक शिक्षा के जरिये काबिल बनाना चाहिये तब जाकर उन्हें मुख्य शिक्षा प्रणाली का हिस्सा बनाना चाहिये। देश में हर साल 17.6 लाख बच्चों की मौत ऐसी बीमारियों से हो जाती है जिनका इलाज संभव है। ऐसी चुनौतियां इस बात का संकेत हैं कि बाल दिवस के मायने तभी होंगे जब जहीन, अमन और चुनिया जैसे बच्चों को भी बेहतर जीवन मिलेगा।
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14-11-2011, 06:06 PM | #30 |
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Re: कतरनें
(15 नवंबर को पुण्यतिथि पर)
विनोबा भावे ने सैद्धांतिक और व्यावहारिक रुप से सत्याग्रह को अपनाया भूदान आंदोलन के जरिए समाज के भूस्वामियों और भूमिहीनों के बीच की गहरी खाई को पाटने में अतुल्य योगदान देने वाले आचार्य विनोबा भावे को महात्मा गांधी का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी कहा जाता है। गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव सुरेंद्र कुमार के अनुसार महात्मा गांधी की ओर से वर्ष 1940 में विनोबा को पहला व्यैक्तिक सत्याग्रही कहा जाना इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने सैद्धांतिक और व्यावहारिक रुप से सत्याग्रह को अपनाया। विनोबा भावे भूदान आंदोलन को यज्ञ की संज्ञा दिया करते थे और उनका कहना था कि आंदोलन में भागीदारी करनी पड़ती है, जबकि यज्ञ में आहूति देनी पड़ती है। लिहाजा भूदान आंदोलन के तहत भूस्वामियों को अपनी भूमि की आहुति देनी पड़ी। सुरेंद्र कुमार ने कहा, ‘‘विनोबा भावे ने भूदान के जरिए समाज में गहराई तक मौजूद असमानता को दूर करने में काफी हद तक सफलता हासिल की, हालांकि बाद में उस विचार को पूरी तरह कार्यान्वित नहीं किए जाने के कारण उनका सपना पूरी तरह साकार नहीं हो पाया।’’ उन्होंने कहा कि अगर विनोबा ने वह आंदोलन नहीं शुरू किया होता, तो समाज में फैली असमानता से उपजे असंतोष से देश में बड़े पैमाने पर हिंसा भी हो सकती थी। विनोबा मूल रूप से एक सामाजिक विचारक थे और उनका जन्म 11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के कोलाबा जिला के गागोदे गांव में हुआ था। शुरुआती शिक्षा के बाद वह संस्कृत में अध्ययन के लिए काशी गए। विनोबा के नेतृत्व में तेलांगाना आंदोलन के दौरान उस क्षेत्र की एक हरिजन बस्ती में भूदान आंदोलन की नींव पड़ी और जल्द ही यह पूरे देश में भूमिहीन मजदूरों की समस्या के हल के तौर पर लोकप्रिय हो गया। इस आंदोलन के तहत उत्तर प्रदेश, बिहार, केरल, उड़ीसा समेत कई राज्यों में बड़े-बड़े भूखंडों के मालिकों ने अपनी जमीन दान दी। देश की आजादी के आंदोलन के दौरान विनोबा को कई बार जेल जाना पड़ा। अपने आंदोलन के दौरान 13 वर्षों तक देश के विभिन्न भागों की पदयात्रा करने वाले विनोबा का निधन 15 नवंबर 1982 को हुआ। आचार्य विनोबा भावे को वर्ष 1958 में सामुदायिक सेवा के लिए पहले मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया और वर्ष 1983 में उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया।
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