12-07-2013, 05:39 PM | #21 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सतपुड़ा-मैकल और विंध्य पर्वत शृंखला के संधि स्थल पर सुरम्य नील वादियों में बसा अमरकंटक ग्रीष्मकाल के लिए अनुपम पर्यटन स्थल है। इसे प्रकृति और पौराणिकता ने विविध संपदा की धरोहर बख्शी है। चारों ओर हरियाली, दूधधारा और कपिलधारा के झरनों का मनोरम दृश्य, सोननदी की कलकल करती धारा, नर्मदा कुंड की पवित्रता, पहाड़ियों की हरी-भरी ऊँचाइयाँ है और खाई का प्रकृति प्रदत्त मनोरम दृश्य मन की गहराइयों को छू जाता है। अमरत्व बोध के इस अलौकिक धाम की यात्रा सचमुच उसके नाम के साथ जुड़े 'कंटक' शब्द को सार्थक करती है। हम जहाँ दुनिया के छोटी हो जाने का ज़िक्र करते थकते नहीं, वहीं अमरकंटक की यात्रा आज भी अनुभवों में तकलीफ़ों के शूल चुभो जाती है। पर एक बार सब कुछ सहकर वहाँ पहुँच जाने के बाद यहाँ की अलभ्य सुषमा और पौराणिक आभा सब कुछ बिसार देने को बाध्य करती है। अमरकंटक, मध्यप्रदेश के शहडोल जिले के अन्तर्गत दक्षिण-पश्चिम में लगभग ८० कि.मी. की दूरी पर, अनूपपुर रेलवे जंक्शन से ६० कि.मी., पेंड्रा रोड रेलवे स्टेशन से ४५ कि.मी. और बिलासपुर जिला मुख्यालय ये ११५ कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यहाँ रुकने के लिए अनेक छोटी मोटी धर्मशालाएँ, स्वामी श्रीरामकृष्ण परमहंस का आश्रम, बरफानी बाबा का आश्रम, बाबा कल्याणदास सेवा आश्रम, जैन धर्मावलंबियों का सर्वोदय तीर्थ एवं अग्निपीठ, लोक निर्माण विभाग का विश्रामगृह, साडा का गेस्ट हाउस और म.प्र. पर्यटन विभाग के टूरिस्ट कॉटेज आदि बने हुए हैं। यहाँ घूमने के लिए तांगा, जीप, ऑटो रिक्शा आदि मिलते है। खाने के लिए छोटे-बड़े होटल हैं लेकिन १५ कि.मी. पर केंवची का ढाबा में खाना खाने की अच्छी व्यवस्था रहती है। जंगल के बीच खाना खाने का अलग आनंद होता है। अमरकंटक, शोण और नर्मदा नदी का उद्गम स्थली है जो २०' ४०' उत्तरी अक्षांश और ८०' ४५' पूर्वी देशांश के बीच स्थित है। नर्मदा नदी १३१२ कि.मी. चलकर गुजरात में २१' ४३' उत्तरी अक्षांश और ७२' ५७' पूर्वी देशांश के बीच स्थित खंभात की खाड़ी के निकट गिरती है। यह नदी १०७७ कि.मी. मध्यप्रदेश के शहडोल, मंडला, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, खंडवा और खरगौन जिले में बहती है। इसके बाद ७४ कि.मी. महाराष्ट्र को स्पर्श करती हुई बहती है, जिसमें ३४ कि.मी. तक मध्यप्रदेश और ४० कि.मी. तक गुजरात के साथ महाराष्ट्र की सीमाएँ बनाती हैं। खंभात की खाड़ी में गिरने के पहले लगभग १६१ कि.मी. गुजरात में बहती है। इस प्रकार इसके प्रवाह पथ में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, और गुजरात राज्य पड़ता है। नर्मदा का कुल जल संग्रहण क्षेत्र ९८७९९ वर्ग कि.मी. है जिसमें ८०.०२ प्रतिशत मध्यप्रदेश में, ३.३१ प्रतिशत महाराष्ट्र में और ८.६७ प्रतिशत क्षेत्र गुजरात में है। नदी के कछार में १६० लाख एकड़ भूमि सिंचित होती है जिसमें १४४ लाख एकड़ अकेले मध्यप्रदेश में है, शेष महाराष्ट्र और गुजरात में है। विश्व की प्रमुख संस्कृतियाँ नदियों के किनारे विकसित हुई परन्तु भारत का प्राचीन सांस्कृतिक इतिहास तो मुख्यत: गंगा, यमुना, सरस्वती और नर्मदा के तट का ही इतिहास है। सरस्वती नदी के तट पर वेदों की ऋचाएँ रची गई, तो तमसा नदी के तट पर क्रौंच वध की घटना ने रामायण संस्कृति को जन्म दिया। न केवल आश्रम-संस्कृति की सार्थकता और रमणीयता नदियों के किनारे पनपी, वरन नगरीय सभ्यता का वैभव भी इन्हीं के बल पर बढ़ा। यही कारण है कि नदी की हर लहर के साथ लोक मानस का इतना गहरा तादात्म्य स्थापित हो गया कि जीवन के हर पग पर जल और नदी संस्कृति ने भारतीयता को परिभाषित कर दिया। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े धार्मिक अनुष्ठान व यज्ञ आदि के अवसर पर घर बैठे सभी नदियों का स्मरण इसी भावना का तो संकेत है? गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति, नर्मदे सिन्धु कावेरि, जले स्मिन सन्निधि कुरू।। इस प्रकार मेकलसुत सोन और मेकलसुता नर्मदा दोनों का सामीप्य सिद्ध है। वैसे मेकल से प्रसूत सभी सरिताओं का जल अत्यंत पवित्र माना गया है-मणि से निचोड़े गए नीर की तरह...। ऐसे निर्मल पावन जल प्रवाहों की उद्गम स्थली के वंश-गुल्म के जल से स्नान, आचमन, यहाँ तक कि स्पर्श मात्र से यदि अश्वमेध यज्ञ का फल मिलना बताया गया हो तो उसमें स्नान अवश्य करना चाहिए। लेकिन यह विडंबना ही है कि अब अमरकंटक की अरण्य स्थली में प्रमुख रूप से नर्मदा और सोन नदी के उद्गम के आसपास एक भी बाँस का पेड़ नहीं है। यही नहीं यहाँ नर्मदा कुंड का पानी पीने लायक भी नहीं है। बल्कि इतना प्रदूषित है कि आचमन तक करने की इच्छा नहीं होती। इसके विपरीत सोन नदी के उद्गम का पानी स्वच्छ और ग्रहण करने योग्य है। नर्मदा कुंड को मनुष्य की कृत्रिमता ने आधुनिक बनाकर सीमित कर दिया है। सोन-मुड़ा, सोन नदी की उद्गम स्थली अभी भी प्रकृति की रमणीयता और सहजता से अलंकृत है। वृक्षों पर बंदरों की उछलकूद और साधु संतों की एकाग्रता यहाँ की पवित्रता का बोध कराती है। यहाँ साडा द्वारा सीढ़ियों पर बैठने की व्यवस्था की गई है, जहाँ से प्रातः सूर्योदय का दृश्य दर्शनीय होता है। |
12-07-2013, 05:39 PM | #22 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
चम्बा की घाटी
विख्यात कलापारखी डॉ. बोगल ने चम्बा को यों ही "अचम्भा" नहीं कह डाला था और सैलानी भी यों ही इस नगरी में नहीं खिंचे चले आते। चम्बा की वादियों में कोई ऐसा सम्मोहन ज़रूर है जो सैलानियों को मंत्रमुग्ध कर देता है और वे बार–बार यहाँ दस्तक देने को लालायित रहते हैं। यहाँ मंदिरों से उठती धार्मिक गीतों की स्वरलहरियों जहाँ परिवेश को आध्यात्मिक बना देती हैं, वहीं रावी नदी की मस्त रवानगी और पहाड़ों की ओट से आते शीतल हवा के झोंके सैलानी को ताज़गी का अहसास कराते हैं। चम्बा में कदम रखते ही इतिहास के कई वर्क पंख फड़फड़ाने लगते हैं और यहाँ की प्राचीन प्रतिमाएँ संवाद को आतुर प्रतीत हो उठती हैं। चम्बा इतिहास, कला, धर्म और पर्यटन का मनोहारी मेल है और चम्बा के लोग अलमस्त, फक्कड़ तबीयत के। चम्बा की खूबसूरत वादियों को ज्यों–ज्यों हम पार करते जाते हैं, आश्चर्यों के कई नये वर्क हमारे सामने खुलते चले जाते हैं और प्रकृति अपने दिव्य सौंदर्य की झलक हमें दिखाती चलती है। चम्बा की किसी दुर्गम वादी में अगर कोई पंगवाली युवती मुस्करा कर हमारा अभिवादन करती है तो किसी वादी में कोई गद्दिन युवती अपनी भेड़–बकरियों के रेवड़ के साथ गुज़रती हुई अपनी मासूमियत से हमारा दिल जीत जाती है। चम्बा के सौंदर्य को बड़ी शिद्दत से आत्मसात करने के बाद ही डॉ. बोगल ने इसे "अचंभा" कहा होगा। चम्बा को यह सौभाग्य प्राप्त रहा है कि इसे एक से बढ़कर एक कलाप्रिय, धार्मिक व जनसेवक राजा मिले। इन राजाओं के काल में यहाँ की लोक कलाएँ न केवल फली–फूलीं अपितु इनकी ख्याति चम्बा की सीमाओं को पार कर पूरे भारत में फैली। इन कलाप्रिय नरेशों में राज श्री सिंह (१८४४), राजा राम सिंह (१८७३) व राजा भूरि सिंह (१९०४) के नाम विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। वास्तुकला हो या भित्तिचित्र कला, मूर्तिकला हो या काष्ठ कला, जितना प्रोत्साहन इन्हें चम्बा में मिला, शायद ही ये कलाएँ देश में कहीं अन्यत्र इतनी विकसित हुई हों। "चम्बा कलम" (विशेष कला शैली : चित्र दाहिनी ओर) ने तो देश भर में एक अलग पहचान बनाई है। किसी घाटी की ऊंचाई पर खड़े होकर देखें तो समूचा चम्बा शहर भी किसी अनूठी कलाकृति की तरह ही लगता है। ढलानदार छत्तों वाले मकान, शिखर शैली के मंदिर, हरा–भरा विशाल चौगान और इसकी पृष्ठभूमि में यूरोपीय प्रभाव लिए महलों का वास्तुशिल्प सहसा ही मन मोह लेता है। चम्बा में पहुंचते ही रजवाड़ाशाही के दिनों में लौटने की कल्पना भी की जा सकती है और यहाँ के प्राचीन रंगमहल व अखंडचंडी महल में घूमते हुए अतीत की पदचाप भी सुनी जा सकती है। चम्बा के संस्थापक राजा साहिल वर्मा ने ९२० ई .में इस शहर का नामकरण अपनी बेटी चंपा के नाम पर क्यों किया था, इस बारे में एक बहुत ही रोचक किंवदंती प्रचलित है। कहा जाता है कि राजकुमारी चंपावती बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी और नित्य स्वाध्याय के लिए एक साधू के पास जाया करती थी। एक दिन राजा को किसी कारणवश अपनी बेटी पर संदेह हो गया। शाम को जब साधू के आश्रम में बेटी जाने लगी तो राजा भी चुपके से उसके पीछे हो लिया। बेटी के आश्रम में प्रवेश करते ही जब राजा भी अंदर गया तो उसे वहाँ कोई दिखाई नहीं दिया। लेकिन तभी आश्रम से एक आवाज़ गूँजी कि उसका संदेह निराधार है और अपनी बेटी पर शक करने की सज़ा के रूप में उसकी निष्कलंक बेटी छीन ली जाती है। साथ ही राजा को इस स्थान पर एक मंदिर बनाने का आदेश भी प्राप्त हुआ। चम्बा नगर के ऐतिहासिक चौगान (चित्र में) के पास स्थित इस मंदिर को लोग चमेसनी देवी के नाम से पुकारते हैं। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर अद्वितीय है। इस घटना के बाद राजा साहिल वर्मा ने नगर का नामकरण राजकुमारी चंपा के नाम पर किया, जो बाद में चम्बा कहलाने लगा। चम्बा में मंदिरों की बहुतायत होने के कारण इसे "मंदिरों की नगरी" भी कहा जाता है। चम्बा में लगभग ७५ मंदिर हैं और इनके बारे में अलग–अलग किंवदंतियाँ हैं। इनमें से कई मंदिर शिखर शैली के हैं और कई पर्वतीय शैली के। शिल्प व वास्तुकला की दृष्टि से ये मंदिर अद्वितीय हैं। लक्ष्मीनारायण मंदिर समूह तो चम्बा को सर्वप्रसिद्ध देवस्थल है। इस मंदिर समूह में महाकाली, हनुमान, नंदीगण के मंदिरों के साथ–साथ विष्णु व शिव के तीन–तीन मंदिर हैं। सिद्ध चर्पटनाथ की समाधि भी यहीं है। मंदिर में अवस्थित लक्ष्मीनारायण की बैकुंठ मूर्ति कश्मीरी व गुप्तकालीन निर्माण कला का अनूठा संगम है। इस मूर्ति के चार मुख व चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर १० अवतारों की लीला चित्रित है। चम्बा कलानगरी भी कहलाती है। यहाँ भूरिसिंह नाम का संग्रहालय है जहाँ चम्बा घाटी की हर कला सुशोभित है। भारत के ५ प्राचीन प्रमुख संग्रहालयों में से एक माने जाने वाला यह संग्रहालय शहर के ऐतिहासिक चौगान में स्थित है और विश्व भर के पर्यटकों, शोधार्थियों व कलाप्रेमियों के आकर्षण का केंद्र है। इस संग्रहालय में ५ हज़ार से अधिक ऐसी दुर्लभ कलाकृतियाँ हैं जो इस तथ्य की साक्षी हैं कि उस समय चम्बा की कला अपने स्वर्णिम युग में थी। इन कलाकृतियों में भित्तिचित्र भी हैं और मूर्तियाँ भी, पांडुलिपियाँ भी हैं और विभिन्न धातुओं से निर्मित वस्तुएँ भी। यही नहीं, प्राचीन सिक्के और आभूषण भी बड़ी सँभाल के साथ यहाँ रखे गए है। विश्व प्रसिद्ध "चम्बा रूमाल" भी यहाँ शीशे के बक्सों में देखा जा सकता है। संग्रहालय में रखी गई मूर्तियाँ उन्नत शिल्प कला का बेजोड़ उदाहरण हैं। इनमें से एक मूर्ति भगवान वासुदेव की हैं (चित्र दायीं ओर)। यह मूर्ति इस संग्रहालय की सुरक्षित प्रस्तर प्रतिभाओं में से सब से छोटी है। चम्बा की कलात्मक धरोहर में यहाँ की पनघट शिलाओं को भी शामिल किया जा सकता है। ये शिलाएँ चम्बा जनपद के ग्रामीण आंचलों में बनी बावड़ियों और नौणा जैसे प्राकृतिक जल स्त्रोतों के किनारे आज भी प्रतिष्ठित देखी जा सकती हैं। घाटियों में घूमता कोई घुमक्कड़ जब अपनी प्यास बुझाने इन जल स्त्रोतों के पास पहुंचता है तो वहाँ रखी पनघट शिलाओं के कलात्मक शिल्प और इन पर खुदी आकृतियों को देखकर दंग रह जाता है। ये शिलाएँ चम्बा की गौरवपूर्ण संस्कृति व इतिहास का आइना भी हैं। खुले आकाश तले प्रतिष्ठित होने के बाबजूद ये अपना मौलिक स्वरूप बरकरार रखे हुए हैं। कुछ विशिष्ट शिलाएँ तो भूरिसिंह संग्रहालय में भी प्रदर्शित की गई हैं। चम्बा के अखंड चंडी महल और रंग महल भी देखने योग्य हैं। अखंड चंडी महल तो एक ऐतिहासिक स्मारक होने के साथ–साथ अनूठे वास्तु स्थापत्य और चित्रकला के लिए देशभर में मशहूर हैं। इस महल में घूमते हुए सैलानी रजबाड़ाशाही के युग में लौट जाता है और चम्बा के राजाओं की कलात्मक अभिरुचियाँ और राजसी ठाठ–बाठ उसके निगाहों के आगे तैरने लगते हैं। चम्बा के ऐतिहासिक चौगान से साफ़ दिखने वाला यह महल इतिहास के कई थपेड़ों का मूक साक्षी है। रजवाड़ाशाही के दौर में राजा आते–जाते रहे और इस महल के निर्माण व विस्तार का काम चलता रहा। नगर के उत्तरी भाग में किलानुमा दिखने वाला रंगमहल भी चम्बा की कलात्मक व ऐतिहासिक धरोहर है। अखंड चंडी महल का निर्माण तो बाद में हुआ, पहले रंग महल ही चम्बा के राजाओं का आवास हुआ करता था। इस रंगमहल की नींव १७५५ में तत्कालीन चम्बा नरेश उमेद सिंह ने रखी थी। उमेद सिंह ने १७४८ से १७६४ तक चम्बा राज्य पर शासन किया। उसकी इच्छा थी कि यह भवन इतना विशाल व आलीशान बने कि पड़ोसी रियासतों के राजा भी इसकी खूबसूरती से ईर्ष्या करें लेकिन उमेद सिंह के जीवन काल में यह भवन पूरा नहीं हो पाया। इसका बाकी निर्माण कार्य उसके पुत्र राजा राजसिंह ने पूरा करके अपने पिता का स्वप्न साकार किया। यह महल अनूठी कलात्मक धरोहर भी बने, इस उद्देश्य से इसके भीतर पहाड़ी शैली के अनूठे चित्र बनाए गए। चम्बा की सांस्कृतिक धरोहर में यहाँ के मेलों को भी शामिल किया जा सकता है। वैसे तो इस जनपद में बहुत से मेलों का आयोजन होता है लेकिन मिंजर मेला और मणीमहेश मेला, दो ऐसे आयोजन हैं जिन्होंने देशव्यापी ख्याति अर्जित की है। चम्बा मिंजर मेला जहाँ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है वहीं मणीमहेश मेला को राज्य स्तरीय दर्जा हासिल है। मिंजर मेला उन दिनों लगता है जब सावन की हल्की–हल्की फुहारों से लोग भीग रहे होते हैं। इसे सावन की फुहारों में लगने वाला मेला भी कहा जाता है। इस मेले में आयोजित लोकनृत्यों में तो समूची चम्बा घाटी की संस्कृति देखने को मिलती है। |
16-07-2013, 10:40 AM | #23 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
पौषपत्री
अमरनाथ यात्रा में महागुनस चोटी को पार करके एक स्थान आता है- पौषपत्री। जहां महागुनस (महागणेश) चोटी समुद्र तल से 4276 मीटर की ऊंचाई पर है वहीं पौषपत्री की ऊंचाई 4114 मीटर है। यहां से एक तरफ बरफ से ढकी महागुनस चोटी दिखाई देती है, वही दूसरी ओर दूर तक जाता ढलान दिखता है। पौषपत्री से अगले पडाव पंचतरणी तक कहीं भी चढाई वाला रास्ता नहीं है। टोटल उतराई है। पौषपत्री का मुख्य आकर्षण यहां लगने वाला भण्डारा है। देखा जाये तो पौषपत्री पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक तो पहलगाम से और दूसरा बालटाल से पंचतरणी होते हुए। यह शिव सेवक दिल्ली वालों द्वारा लगाया जाता है। मुझे नहीं लगता कि इतनी दुर्गम जगह पर खाने का सामान हेलीकॉप्टर से पहुंचाया जाता होगा। सारा सामान खच्चरों से ही जाता है। हमें यहां तक पहुंचने में डेढ दिन लगे थे। खच्चर दिन भर में ही पहुंच जाते होंगे, वो भी महागुनस की बर्फीली चोटी को लांघकर। वैसे तो यात्रा में अनगिनत भण्डारे लगते हैं। लेकिन सबसे शानदार भण्डारा मुझे यही लगा। खाने के आइटमों के मामले में। अभी फोटो और एक वीडियो दिखा रहा हूं। इसे देखकर किसी अमीर बाप को अपने इकलौते बेटे की शादी की पार्टी देने में भी शर्म आने लगेगी। यह है भण्डारा- फ्री में। पहले डोसा खाओ। नमकीन खाने की भरमार है तो… … मीठे की भी भरमार है। खाने से पहले यह भी सोचना पडेगा कि हम इस समय खडे कहां पर हैं। समुद्र तल से 4114 मीटर की ऊंचाई पर, वो भी डेढ दिन से पैदल यात्रा करके यहां पहुंचे हैं। बरफ और ठण्ड को झेलते हुए। धन्य हैं वे लोग जो यात्रा में भण्डारे लगाते हैं। एक सच्चाई यह भी है। “घोडे और पिट्ठू वालों का भण्डारा नीचे है।” स्थानीय लोगों के लिये अलग से भण्डारे लगाये जाते हैं। उन्हे ज्यादातर जगहों पर मुख्य भण्डारे में नहीं घुसने दिया जाता। उनके भण्डारे में सब्जी-रोटी और चावल होते हैं।
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16-07-2013, 11:11 AM | #24 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
पंचतरणी- सुन्दरतम जगह
पौषपत्री से चलकर यात्री पंचतरणी रुकते हैं। यह एक काफी बडी घाटी है। चारों ओर ग्लेशियर हैं तो चारों तरफ से नदियां आती हैं। कहते हैं कि यहां पांच नदियां आकर मिलती हैं इसीलिये इसे पंचतरणी कहते हैं। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। इस घाटी में छोटी-बडी अनगिनत नदियां आती हैं। चूंकि यह लगभग समतल और ढलान वाली घाटी है, इसलिये पानी रुकता नहीं है। अगर यहां पानी रुकता तो शेषनाग से भी बडी झील बन जाती। इन पांच नदियों को पांच गंगा कहा जाता है। यहां पित्तर कर्म भी होते हैं। यहां भी शेषनाग की तरह तम्बू नगर बसा हुआ है। अमरनाथ गुफा की दूरी छह किलोमीटर है। दो-ढाई बजे के बाद किसी भी यात्री को अमरनाथ की ओर नहीं जाने दिया जाता। सभी को यही पर रुकना पडता है। हम इसीलिये शेषनाग से जल्दी चल पडे थे, और बारह बजे के लगभग यहां पहुंचे थे। हमारा इरादा आज की रात गुफा के पास ही बिताने का था। बालटाल से हेलीकॉप्टर सुविधा भी मिलती है। पहले हेलीकॉप्टर गुफा के बिल्कुल सामने ही उतरते थे, जिससे ज्यादा प्रदूषण होने की वजह से शिवलिंग पर असर पडता था। इस बार हेलीपैड पंचतरणी में बना रखा था। पंचतरणी तक हेलीकॉप्टर से आओ, फिर या तो छह किलोमीटर पैदल जाओ, या खच्चर-पालकी में बैठो। अब जो लोग हेलीकॉप्टर से आते हैं, वे पैदल तो चल नहीं सकते; इसलिये सभी खच्चर-पालकी ही पकडते हैं। पौषपत्री से जब हम चले तो मेरा प्रेशर बनने लगा। वहीं नदी किनारे बैठकर प्रेशर रिलीज किया। धोने के लिये जैसे ही पानी में हाथ डाला तो जान निकल गयी। उम्मीद नहीं थी कि पानी इतना ठण्डा भी हो सकता है। ऊपर मौसम साफ था, इसलिये धूप जोर की निकल रही थी। धूप की वजह से गर्मी लग रही थी। अब तक शरीर के नंगे हिस्से जैसे हथेली के पीछे का हिस्सा, गर्दन और चेहरा पूरी तरह जल गये थे। जलने की वजह से अब धूप बर्दाश्त भी नहीं हो रही थी। चेहरे पर तौलिया लपेट लिया, जिससे चेहरे और गर्दन को कुछ आराम मिला। चलिये, बहुत हो गया। फोटू देखते हैं। अगर इस चित्र का विकर्ण (diagonal) खींचा जाये, तो केन्द्र में पौषपत्री वाला महान भण्डारा दिखाई देगा। उसके पीछे महागुनस चोटी और दर्रा भी दिख रहा है। इसी बर्फीले दर्रे को पार करके यात्री शेषनाग से यहां आते हैं। सामने वाले पहाडों की तलहटी में पहुंचना है। फिर बायें मुडकर पंचतरणी है। इसका मतलब है कि आगे का रास्ता उतराई वाला है। ओहो, महाराज जी। ओहो, दूसरा महाराज। ये लोग भी बडी संख्या में जाते हैं। घाटी में छोटी-छोटी नदियों का जाल-सा बिछा है। सभी को पैदल ही पार किया जाता है। पंचतरणी घाटी के कुछ और फोटू। असल में यहां से ज्यादा सुरक्षा की जरुरत पहलगाम और बालटाल में है। ये दोनों शहर छावनी बने रहते हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस ना तो पहलगाम में दिखी और ना ही उसके बाद रास्ते में कहीं। घोडे-खच्चर वालों को केवल पैसे से मतलब है। एक ये ही ऐसे लोग हैं, जो यात्रियों के हर सुख-दुख में काम आते हैं। मन खुश हुआ, किसी ने कहा कि फौजी भाई, एक फोटो; तो मजे में फोटो खिंचवाते हैं। कोई दुखी-परेशान है, तो उसके लिये भी हरदम तैयार।
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16-07-2013, 11:15 AM | #25 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
छह-साढे छह के करीब हमने पहलगाम से एक गाडी ली और चन्दनबाडी पहुंच गये। चन्दनबाडी (या चन्दनवाडी) के रास्ते में एक जगह पडती है – बेताब घाटी। इसी घाटी में बेताब फिल्म की शूटिंग हुई थी। लगभग पूरी फिल्म यही पर शूट की गयी थी। ऊपर सडक से देखने पर बेताब घाटी बडी मस्त लग रही थी।
चन्दनबाडी से एक-डेढ किलोमीटर पहले ही गाडियों की लाइनें लगी थी। असल में जाम लगा था। दूसरों की देखा-देखी हमारा दल भी गाडी से उतरकर पैदल ही चन्दनबाडी की ओर चल पडा। चन्दनबाडी में भी यात्रियों और सामान की तलाशी ली जाती है। हमने अपना भारी और गैरजरूरी सामान तो गाडी में ही छोड दिया था। अब केवल बेहद जरूरी सामान ही था। यहां से अमरनाथ की पैदल यात्रा शुरू होती है। चन्दनबाडी पहलगाम से सोलह किलोमीटर दूर है। यहां कई भण्डारे भी लगे थे। अमरनाथ यात्रा का एक आकर्षण भण्डारे भी होते हैं। करोडों का खर्चा करते हैं ये भण्डारे वाले। यहां पर एक कागज हाथ लगा जिस पर यात्रा मार्ग की सभी दूरियां लिखी थीं- पिस्सू घाटी 3 किलोमीटर, फिर जोजपाल, शेषनाग, महागुनस, पौष पत्री, पंचतरणी, संगम और गुफा। इसमें पहला स्टेप है चन्दनबाडी से पिस्सू घाटी का। यह मार्ग तीन किलोमीटर का है लेकिन सबसे मुश्किल भी। ऊपर देखने पर जब सिर गर्दन को छूने लगे तो एक चोटी दिखती है, उसे पिस्सू टॉप कहते हैं। ध्यान से देखने पर वहां भी रंग-बिरंगी चींटियां सी चलती दिखती हैं। कई यात्री जो घर से सोचकर आते हैं कि हम पूरी यात्रा पैदल ही करेंगे, इस चोटी को देखते ही ढेर हो जाते हैं। जरा सा चढते ही खच्चर वालों से मोलभाव करते दिखते हैं। कहते हैं कि कभी इस स्थान पर देवताओं का और राक्षसों का युद्ध हुआ था। देवता जीत गये। उन्होंने राक्षसों को पीस-पीसकर उनका ढेर लगा दिया। उस ढेर को ही पिस्सू टॉप कहते हैं। पिस-पिसकर लगे ढेर को पिस्सू नाम दे दिया। यह रास्ता बेहद चढाई भरा है। ऊपर से पानी भी आता रहता है। खच्चर वाले भी सबसे ज्यादा इसी पर मिलते हैं, क्योंकि आगे का रास्ता अपेक्षाकृत आसान है। पथरीला पहाड है तो जाडों में बरफ पडने से बना बनाया रास्ता अगले सीजन तक टूट जाता है। इसलिये इसे पक्का भी नहीं बनाया जा सका। पैदल यात्री शॉर्ट कट से चलना पसन्द करते हैं। उनकी वजह से कभी कभी पत्थर भी गिर जाते हैं। जो पत्थर एक बार गिर गया, वो नीचे तक लोगों को घायल करता चला जाता है। भगदड भी मच जाती है, जान भी चली जाती है। हमारे दल में सबसे तेज शहंशाह चल रहा था, फिर मैं। ऐसे पहाड पर चढने का मेरा अपना तरीका है। धीरे-धीरे केवल अपने पैरों को देखते हुए चलता हूं, थकान नहीं होती। जब मैं ऊपर पहुंचा तो शहंशाह वही बैठा मिला। धीरे-धीरे दल के सभी सदस्य आ गये। घण्टे भर तक यहां आराम किया। दो-तीन भण्डारे भी लगे थे। नीचे से यहां तक के रास्ते में क्या हुआ, उसे चित्रों के माध्यम से देखिये: |
16-07-2013, 11:17 AM | #26 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
सोनामार्ग (सोनमर्ग) के नजारे
सोनमर्ग बालटाल से आठ किलोमीटर दूर श्रीनगर वाले रास्ते पर है। इसे सोनामार्ग कहते हैं, जो आजकल सोनमर्ग बोला जाता है। यह इलाका घाटी के मुकाबले बिल्कुल शान्त है, इसलिये यहां रुकने में डर भी नहीं लग रहा था। जिस होटल में हम ठहरे थे, उसका मालिक एक हिन्दू था। उस होटल में काम करने वाला बाकी सारा स्टाफ मुसलमान। हिन्दू मालिक बताता है कि हफ्ते दस दिन में मेरे पास मिलिटरी का एक कर्नल आ जाता है। कर्नल ने उसे अपना फोन नम्बर दे रखा है कि अगर कभी तुम पर कोई दिक्कत आये तो तुरन्त फोन कर देना। दो मिनट में फौज होटल में पहुंच जायेगी। और हां, पूरे सोनमर्ग में वही अकेला हिन्दू है। साल में पांच-छह महीने यह इलाका बरफ से ढका रहता है। इस दौरान यहां कोई आदमजात नहीं दिखती। अप्रैल मई आने पर सबसे पहले होटल वाले ही यहां पहुंचते हैं। साफ-सफाई करते हैं, पिछले कई महीनों से जमी बरफ को हटाकर रास्ता बनाते हैं। फिर धीरे-धीरे पर्यटक और घुमक्कड पहुंचते हैं। सबसे व्यस्त सीजन अमरनाथ यात्रा के दौरान होता है। चलो खैर, बहुत पढाई कर ली। अब फोटू देखिये: सामने पहाड पर टंगा थाजीवास ग्लेशियर दिख रहा है। थाजीवास ग्लेशियर- सोनमर्ग की शान |
16-07-2013, 11:24 AM | #27 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
बिजली महादेव "श्री भगवान शिव के सर्वोत्तम तपस्थान (मथान) 7874 फुट की ऊंचाई पर है। श्री सदा शिव इस स्थान पर तप योग समाधि द्वारा युग-युगान्तरों से विराजमान हैं। सृष्टि में वृष्टि को अंकित करता हुआ यह स्थान बिजली महादेव जालन्धर असुर के वध से सम्बन्धित है। दूसरे नाम से इसे कुलान्त पीठ भी कहा गया है। सात परोली भेखल के अन्दर भोले नाथ दुष्टान्त भावी, मदन कथा से नांढे ग्वाले द्वारा सम्बन्धित है। यहां हर वर्ष आकाशीय बिजली गिरती है। कभी ध्वजा पर तो कभी शिवलिंग पर बिजली गिरती है। जब पृथ्वी पर भारी संकट आन पडता है तो भगवान शंकर जी जीवों का उद्धार करने के लिये पृथ्वी पर पडे भारी संकट को अपने ऊपर बिजली प्रारूप द्वारा सहन करते हैं। जिस से बिजली महादेव यहां विराजमान हैं।” ये तो थी वहां लिखी हुई बातें। अब मेरे विचार। ब्यास और पार्वती नदियों की घाटी में संगम पर एक स्थान है, कुल्लू से दस किलोमीटर मण्डी की ओर- भून्तर। यहां पर एक तरफ से ब्यास नदी आती दिखती है और दूसरी तरफ से पार्वती नदी। दोनों की बीच में एक पर्वत है। इसी पर्वत की चोटी पर स्थित है बिजली महादेव। पहले पहल तो मेरा इरादा भून्तर की तरफ से ही जाने का था। लेकिन बाद में कुल्लू की तरफ से चला गया। और हां, भून्तर की तरफ से यहां आने का कोई रास्ता भी नहीं है। केवल एकमात्र रास्ता कुल्लू से ही है। बिजली महादेव से कुल्लू भी दिखता है और भून्तर भी। दोनों नदियों का शानदार संगम भी दिखता है। दूर तक दोनों नदियां अपनी-अपनी गहरी घाटियों से आती दिखती हैं। दोनों के क्षितिज में बर्फीला हिमालय भी दिखाई देता है। मैं भून्तर की तरफ मुंह करके खडा हूं। दाहिने ब्यास है, बायें पार्वती। मेरी कल की योजना है मणिकर्ण जाने की। मणिकर्ण पार्वती घाटी में भून्तर से करीब 35 किलोमीटर दूर है। जहां तक भी मुझे पार्वती नदी दिखाई देती है, उसके साथ-साथ मणिकर्ण जाती हुई सडक भी दिखती है। अब मेरा हौसला देखिये। मैं आज तक अचम्भित हूं कि कैसे मैने इतना बडा निर्णय ले लिया, वो भी अकेले। इरादा किया सीधे भून्तर की ओर उतरने का। कोई रास्ता नहीं है। कुछ दूर तक तो मैं उतर गया। एक मैदान में कुछ गायें-भैंसें चर रही थीं। चरवाहे भी पास में ही बैठे थे। मैं उनके पास पहुंच गया। उनसे कुछ बातें हुईं। क्या बातें हुईं? आज नहीं अगली बार बताऊंगा। फोटू नहीं देखने हैं क्या? बिजली महादेव मन्दिर। हर साल सावन में शिवलिंग पर बिजली गिरती है। शिवलिंग टूटकर टुकडे-टुकडे होकर बिखर जाता है। और फिर उसको मक्खन से जोडा जाता है। ऊपर से ऐसा दिखता है भून्तर कस्बा। बायें से पार्वती आ रही है और दाहिने से ब्यास। दोनों मिलकर सीधी चली जाती हैं। |
16-07-2013, 11:25 AM | #28 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
मणिकर्ण के नजारे कहते हैं कि एक बार माता पार्वती के कान की बाली (मणि) यहां गिर गयी थी और पानी में खो गयी। खूब खोज-खबर की गयी लेकिन मणि नहीं मिली। आखिरकार पता चला कि वह मणि पाताल लोक में शेषनाग के पास पहुंच गयी है। जब शेषनाग को इसकी जानकारी हुई तो उसने पाताल लोक से ही जोरदार फुफकार मारी और धरती के अन्दर से गरम जल फूट पडा। गरम जल के साथ ही मणि भी निकल पडी। आज भी मणिकरण में जगह-जगह गरम जल के सोते हैं। एक कथा यह भी है कि गुरू नानक देव जी यहां आये थे। उन्होंने यहां काफी समय व्यतीत किया। अगर नानक यहां सच में आये थे तो उनकी हिम्मत की दाद देनी होगी। उस समय जाहिर सी बात है कि सडक तो थी नहीं। पहाड भी इतने खतरनाक हैं कि उन पर चढना मुश्किल है। नीचे पार्वती नदी बहती है, जो हिमालय की तेज बहती नदियों में गिनी जाती है। पहले आना-जाना नदियों के साथ-साथ होता था। इसलिये नानक देव जी पहले मण्डी आये होंगे, फिर ब्यास के साथ-साथ और दुर्गम होते चले गये। भून्तर पहुंचे होंगे। यहां से पार्वती नदी पकड ली और मणिकर्ण पहुंच गये। वाकई महान घुमक्कड थे नानक जी। उन्ही की स्मृति में एक गुरुद्वारा भी है। मणिकर्ण में हर जगह प्राकृतिक गर्म जल मिलता है। इसी से गुरुद्वारे के लंगर का भोजन भी बनता है। होटलों में भी इसी पानी की आपूर्ति होती है। उस दिन शाम को जब मैने एक धर्मशाला में कमरा लिया तो मैने पूछा कि सुबह को नहाने के लिये गर्म पानी मिल जायेगा क्या? मुझे नहीं पता था कि यहां हर जगह प्राकृतिक गर्म पानी उपलब्ध है। उसने कहा कि हां, मिल जायेगा। सुबह जब मैं उठा तो बाथरूम में देखा कि नल से हल्का गुनगुना पानी आ रहा है। तुरन्त बाल्टी भरी और नैकर-तौलिया ले आया। कपडे निकालकर फिट होकर नहाने बैठा तो बाल्टी में हाथ देते ही दिमाग ठिकाने लग गया। लगा कि सौ डिग्री के पानी में हाथ डाल लिया। शुरू में जब मैने पानी चेक किया था तब ठण्डे वातावरण की वजह से पाइप में तीन-चार फीट तक पानी गुनगुना हो गया था, लेकिन बाद में अति गर्म आने लगा। इतने तेज पानी में नहाना मेरे बसकी बात नहीं थी। और क्या बताऊं मणिकर्ण के बारे में? चलिये खैर, चित्र देखिये: श्री मणिकर्ण साहिब गुरुद्वारा ध राम मन्दिर के सामने रखा रथ। इसका प्रयोग त्यौहारों के मौके पर किया जाता है। |
16-07-2013, 11:28 AM | #29 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
अनछुआ प्राकृतिक सौन्दर्य- खीरगंगा हिमाचल प्रदेश में कुल्लू जिले में एक स्थान है- मणिकर्ण। मणिकर्ण से 15 किलोमीटर और आगे बरशैणी तक बस सेवा है। बरशैणी से भी एक-डेढ किलोमीटर आगे पुलगा गांव है जहां तक मोटरमार्ग है। इससे आगे भी गांव तो हैं लेकिन वहां जाने के लिये केवल पैरों का ही भरोसा है। पुलगा से दस किलोमीटर आगे खीरगंगा नामक स्थान है। खीरगंगा पार्वती नदी की घाटी में है। अगर पुलगा से ही पार्वती के साथ-साथ चलते जायें तो चार किलोमीटर पर इस घाटी का आखिरी गांव नकथान आता है। नकथान के बाद इस घाटी में कोई गांव नहीं है। हां, आबादी जरूर है। वो भी भेड-बकरी चराने वाले गद्दियों और कुछ साहसी घुमक्कडों की। तो हुआ ये कि अपन भी अपना साहस देखने खीरगंगा चले गये। यहां एक सीधा-सपाट सा ढलान है। इस ढलान पर घास ही उगी रहती है। यानी एक चरागाह भी कह सकते हैं। यहां खाने-पीने और ठहरने के लिये होटलों की कोई कमी नहीं है। सोचकर अजीब सा लग रहा होगा कि इतनी दुर्गम जगह और दिन-भर में गिने चुने घुमक्कड ही आते हैं, फिर भी होटलों की कोई कमी नहीं। असल में ये बडे-बडे टेण्ट हैं, जो गद्दियों के बनाये हुए हैं। इस इलाके में गद्दियों का आना-जाना लगा रहता है, इसलिये घुमक्कडों के खाने-पीने की चीजें भी वे ले आते हैं। यहां का मुख्य आकर्षण है- खीर गंगा। जमीन के अन्दर से एक जलधारा निकलती है। जलधारा नहीं खीरधारा कहना चाहिये। कभी बाबा परशुराम के जमाने में यहां से खीर निकलती थी। गर्मागरम मीठी खीर। खीर खाने के लालच में यहां लोगों का आनाजाना बढ गया। तब परशुराम जी ने श्राप दे दिया था कि अब यहां से खीर नहीं निकलेगी। बस, खीर निकलनी बन्द। लेकिन आज भी जमीन के अन्दर से निकलती जलधारा काफी दूर ऐसी लगती है जैसे कि खीर ही है। अजीब सी गन्ध भी आती है। गरम खौलता हुआ पानी निकलता है। इस पानी को इकट्ठा करके दो कुण्ड बनाये गये हैं, नहाने के लिये। एक चहारदीवारी वाला कुण्ड महिलाओं के लिये और दूसरा खुला कुण्ड केवल पुरुषों के लिये। बगल में एक नन्हा सा मन्दिर भी है। मन्दिर में शिवलिंग है तो जाहिर सी बात है कि शिव मन्दिर ही है। आज के कलयुगी विज्ञान की नजर से देखें तो यहां खीर-वीर कुछ नहीं है। एक तरह की सफेद काई है। हमारे यहां काली काई या हरी काई होती है ना? रपट जाते हैं उस पर चलकर। इसी तरह यहां सफेद काई है, चिकनी भी है। चलो, बहुत हो गया। फोटू देखिये: वही शिव मन्दिर मैं वापस चलने ही वाला था कि मणिकर्ण से ये सरदार आ गये। मैने तय किया कि वापस अकेला नहीं जाऊंगा, बल्कि इनके साथ ही जाऊंगा। पानी में सरदार जी कैसे लग रहे हैं?
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16-07-2013, 01:15 PM | #30 |
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Re: यात्रा-संस्मरण
कमाल का यात्रा वर्णन, और उसके साथ ही स्थान विशेष के दर्जनों नयनाभिराम चित्रों ने आपके सूत्र को गरिमापूर्ण बना दिया है. हमें भी बैठे-बैठे तीर्थ यात्रा का सुख व पुण्य प्राप्त होता रहा. आपका आभार.
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