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Old 05-01-2013, 07:17 PM   #21
bindujain
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Default Re: गहरे पानी पैठ

मरुस्थल के वासी

गरीबों की एक बस्ती में लोगों को संबोधित करते हुए मंत्रीजी ने कहा, “इस साल देश में भयानक सूखा पड़ा है। देशवासियों को भूख से बचाने के लिए जरूरी है कि हम सप्ताह में कम से कम एक बार उपवास रखें।”
मंत्री के सुझाव से लोगों ने तालियों से स्वागत किया।
“हम सब तो हफते में दो दिन भी भूखे रहने के लिए तैयार हैं। भीड़ में सबसे आगे खड़े व्यक्ति ने कहा।
मंत्रीजी उसकी बात सुनकर बहुत प्रभावित हुए और बोले, “जिस देश में आप जैसे भक्त लोग हों, वह देश कभी भी भूखा नहीं मर सकता।
मंत्रीजी चलने लगे जैसे बस्ती के लोगों के चेहरे प्रश्नचिह्न बन गए हों।
उन्होंने बड़ी उत्सुकता के साथ कहा, ‘अगर आपको कोई शंका हो तो दूर कर लो।’
थोड़ी झिझक के i'pkr एक बुजुर्ग बोला, ‘साब! हमें बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से मिलेगा ?’
__________________
मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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Old 05-01-2013, 07:19 PM   #22
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Default Re: गहरे पानी पैठ

संतू

प्रौढ़ उम्र का सीधा-सा संतू बेनाप बूट डाले पानी की बाल्टी उठा जब सीढ़ियाँ चढ़ने लगा तो मैंने उसे सचेत किया, "घ्यान से चढ़ना। सीढ़ियों में कई जगह से ईटें निकली हुई हैं। गिर न पड़ना।"
"चिंता न करो, जी! मैं तो पचास किलो आटे की बोरी उठाकर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए भी नहीं गिरता।"
और सचमुच बड़ी-बड़ी दस बाल्टियाँ पानी ढोते हुए संतू का पैर एक बार भी नहीं फिसला।
दो रूपए का नोट और चाय का कप संतू को थमाते हुए पत्नी ने कहा, "तू रोज आकर पानी भर दिया कर।"
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए संतू ने खुश होकर सोचा-"रोज बीस रुपए बन जाते हैं पानी के। कहते हैं अभी नहर में महीना और पानी नहीं आनेवाला। मौज हो गई अपनी तो !"
उसी दिन नहर में पानी आ गया और नल में भी।
अगले दिन सीढ़ियाँ चढ़कर जब संतू ने बाल्टी माँगी तो पत्नी ने कहा, "अब तो जरूरत नहीं। रात को ऊपर की टूँटी में भी पानी आ गया था।"
"नहर में पानी आ गया! " संतू ने आह भरी और लौटने के लिए सीढ़ियों पर कदम घसीटते लगा। कुछ क्षण बाद ही किसी के सीढ़ियों में गिरने की आवाज हुई। मैंने दौड़कर देखा, संतू आँगन में औधे मुँह पड़ा था। मैंने उसे उठाया। उसके माथे पर चोट लगी थी।
अपना माथा पकड़ते हुए संतू बोला, "कल बाल्टी उठाए तो गिरा नहीं, आज खाली हाथ गिर पड़ा।"
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Old 05-01-2013, 07:21 PM   #23
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Default Re: गहरे पानी पैठ

मकान

मकान को देखकर किराएदार बहुत खुश हो रहा था। उसने कभी सोचा भी न था कि इतना बढ़िया मकान किराए के लिए खाली मिल जाएगा। सब कुछ बढ़िया था-बेडरूम,ड्राइंगरूम,किचन। कहीं भी कोई कमी नहीं थी।
"हाँ जी, बिल्कुल पक्की। ऊपर पानी की टंकी भी है। आप जाकर देख आओ! "
किराएदार सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर गया और कुछ देर बाद वापस आ गया। अब वह निराश था।
"अच्छा जी, आपको तकलीफ दी। मकान तो बहुत बढ़िया है, पर मैं यहाँ रह नहीं सकता।"
मकान-मालिक ने कहा, "आपको कोई वहम हो गया है। मकान में भूत नहीं है और न ही पुलिस-चौकी इसके आसपास है।"
किराएदार ने जब पीछे पलटकर नहीं देखा तो मकान-मालिक ने आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़ लिया, "मकान तो चाहे आप किराए पर न लो, लेकिन यह तो बताओ कि इसमें कमी क्या है? लोग तो कहते हैं कि शहरों में मकानों का अकाल-सा पड़ गया है, पर यहाँ इतना बढ़िया मकान खाली पड़ा है।"
मकान-मालिक पूरे का पूरा प्रश्नचिह्न बनकर किराएदार के सामने खड़ा था।
किराएदार ने मकान-मालिक से अपना हाथ छुड़ाते हुए कहा, "आपको पता नहीं कि आपका मकान घर के योग्य नहीं है। इसके एक तरफ गुरूद्वारा है और दूसरी तरफ मंदिर !"
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Old 05-01-2013, 07:22 PM   #24
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Default Re: गहरे पानी पैठ

अपना-अपना दर्द

मिस्टर खन्ना अपनी पत्नी के साथ बैठे जनवरी की गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे। छत पर पति-पत्नी दोनों अकेले थे, इसलिए मिसेज खन्ना ने अपनी टाँगों को धूप लगाने के लिए साड़ी को घुटनों तक ऊपर उठा लिया।
मिस्टर खन्ना की निगाह पत्नी की गोरी-गोरी पिंडलियों पर पड़ी तो वह बोले, "तुम्हारी पिंडलियों का मांस काफी नर्म हो गया है। कितनी सुंदर हुआ करती थीं ये! "
"अब तो घुटनों में भी दर्द रहने लगा है, कुछ इलाज करवाओ न! " मिसेज खन्ना ने अपने घुटनों को हाथ से दबाते हुए कहा।
"धूप में बैठकर तेल की मालिश किया करो, इससे तुम्हारी टाँगें और सुंदर हो जाएँगी।" पति ने निगाह कुछ और ऊपर उठाते हुए कहा, "तुम्हारे पेट की चमड़ी कितनी ढलक गई है! "
"अब तो पेट में गैस बनने लगी है। कई बार तो सीने में बहुत जलन होती है।" पत्नी ने डकार लेते हुए कहा।
"खाने-पीने में कुछ परहेज रखा करो और थोड़ी-बहुत कसरत किया करो। देखो न, तुम्हारा सीना कितना लटक गया है! "
पति की निगाह ऊपर उठती हुई पत्नी के चेहरे पर पहुँची, "तुम्हारे चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, आँखों के नीचे काले धब्बे पड़ गए हैं।"
"हां जी, अब तो मेरी नज़र भी बहुत कमजोर हो गई है, पर तुम्हें मेरी कोई फिक्र नहीं है! " पत्नी ने शिकायत-भरे लहज़े में कहा।
"अजी फिक्र क्यों नहीं, मेरी जान ! मैं जल्दी ही किसी बड़े अस्पताल में ले जाऊँगा और तुम्हारी प्लास्टिक सर्जरी करवाऊँगा। फिर देखना तुम कितनी सुन्दर और जवान लगोगी।" कहकर मिस्टर खन्ना ने पत्नी को बाँहों में भर लिया।
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Old 06-01-2013, 07:57 AM   #25
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Default Re: गहरे पानी पैठ

स्वागत
-श्याम सुन्दर दीप्ति (डॉ.)
वह खाना खा, नाइट-सूट पहन, बैड पर जा बैठी। आदत के अनुसार, सोने से पहले पढ़ने के लिए किताब उठाई ही थी कि उसके मोबाइल-फोन पर एस.एम.एस की ट्यून बजी।
‘जिस तरह हम दिन भर इकट्ठे घूमे-फिरे, एक टेबल पर बैठ कर खाया। कितना मज़ा आया। इसी तरह एक ही बैड पर सोने में भी खुशी मिलती है। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
उसने कुछ दिन पहले ही एक नई कंपनी में नौकरी शुरू की थी। एक सीनियर अफसर के साथ कंपनी के काम से दूसरे शहर में आई थी। दिन का काम निपटाकर वे एक होटल में ठहरे हुए थे।
‘ऐसा बेहूदा मैसेज! सीनियर की तरफ से। उसने पल भर सोचा– नहीं, नहीं, इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। बात अभी ही सँभालनी चाहिए। मैं एम.डी. से बात करती हूँ।’ उसे गुस्सा आ रहा था। इसी दौरान फिर मैसेज आया।
‘तुम शिकायत करने के बारे में सोच रही हो। तुम जिससे भी शिकायत करोगी, उसे भी यही इच्छा ज़ाहिर करनी है। तुम्हारे संपर्क में जो भी आएगा, वह ऐसा कहे बिना नहीं रह सकेगा। तुम चीज ही ऐसी हो।’
‘मैं चीज हूँ, एक वस्तु। मुझे लगता है, इसका किसी लड़की के साथ पाला नहीं पड़ा।’ उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर एस.एम.एस. आया।
‘देखो! जिन हाथों को छूने से खुशी मिलती है, उन हाथों से थप्पड़ भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
इसकी हिम्मत देखो…‘इंतज़ार कर रहा हूँ’। फिर उसके मन में एक ख़्याल आया, अगर वह आ गया तो?…डरने की क्या बात है। उसने अपने आप को सहज करने की कोशिश की। यह एक अच्छा होटल है। ऐसे ही थोड़ा कुछ घट जाएगा।
वह ख़्यालों में डूबी थी कि बैल बजी। उसने सोचा, वेटर होगा। उसने चाय का आर्डर दे रखा था। दरवाजा खोला तो अफसर सामने था। वह अंदर आ गया। कल्पना ने भी कुछ न कहा।
वह बैड के आगे से घूमता हुआ, दूसरी तरफ बैड पर सिरहाने के सहारे बैठ गया।
“सर! आप कुर्सी पर बैठो, आराम से।” कल्पना ने सुझाया।
“यहाँ से टी.वी. ठीक दिखता है।” अफसर ने अपनी दलील दी।
“सर! अभी वेटर आएगा। अजीब सा लगता है।” कल्पना ने मन की बात रखी।
“नहीं, नहीं, कोई बात नहीं। ये सब मेरे जानकार हैं। बी कम्फर्टेबल।”
वेटर ने दरवाजा खटखटाया और ‘यैस’ कहने पर भीतर आ गया। वेटर ने चाय की ट्रे रखी और पूछा, “मैम! चाय बना दूँ?” और ‘हाँ’ सुनकर चाय बनाने लगा।
कल्पना ने फिर कहा, “सर ! आप इधर आ जाओ, चाय पीने के लिए। कुर्सी पर आराम से पी जाएगी।”
वह कुर्सी पर आने के लिए उठा। कल्पना भी उठी। वेटर ने चाय का कप ‘सर’ को पकड़ाने के लिए आगे किया ही था कि कल्पना ने खींच कर एक तमाचा अफसर के गाल पर मारते हुए कहा, “गैट आउट फ्राम माई रूम।”
और फिर एक पल रुककर बोली, “आपका ऐसा स्वागत मैं दरवाजे पर भी कर सकती थी। पर सोचा, इस होटल के सारे वेटर आपके जानकार हैं, उन्हें तो भी पता चलना चाहिए।”
इतना कहकर वह सहज होकर बैठ गई।
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Old 06-01-2013, 07:58 AM   #26
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माँ का कमरा
- श्याम सुन्दर अग्रवाल
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल-बैड वाला…!”
“हां माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।
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Old 06-01-2013, 08:04 AM   #27
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बीमार
सुभाष नीरव

“चलो, पढ़ो।”
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल... आ से आम...” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?”
“यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !”
“पापा, हम भी अनाल खायेंगे...” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।”

सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिए, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए।
“बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...”
“पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...”
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”
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Old 06-01-2013, 08:04 AM   #28
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आँगन की धूप
श्याम सुन्दर अग्रवाल

बारह बजे के लगभग घर के छोटे से आँगन में सूर्य की किरणों ने प्रवेश किया। धूप का दो फुट चौड़ा टुकड़ा जब चार फुट लंबा हो गया तो साठ वर्षीय मुन्नी देवी ने उसे अपनी खटिया पर बिछा लिया।
“अपनी खटिया थोड़ी परे सरका न, इन पौधों को भी थोड़ी धूप लगवा दूँ।” हाथों में गमला उठाए सम्पत लाल जी ने पत्नी से कहा।
धूप का टुकड़ा खटिया और गमलों में बँट गया।
दो-ढ़ाई घंटों तक खटिया और गमले धूप के टुकड़े के साथ-साथ सरकते रहे।
छुट्टियों में ननिहाल आए दस वर्षीय राहुल की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके नानू गमलों को बार-बार उठाकर इधर-उधर क्यों कर रहे हैं। आखिर उसने इस बारे नानू से पूछ ही लिया।
सम्पत लाल जी बोले, “ बेटा, पौधों के फलने-फूलने के लिए धूप बहुत जरूरी है। धूप के बिना तो ये धीरे-धीरे सूख जाएँगे।”
कुछ देर सोचने के बाद राहुल बोला, “नानू! जब हमारे आँगन में ठीक-से धूप आती ही नहीं ,तो आपने ये पौधे लगाए ही क्यों?”
“जब पौधे लगाए थे तब तो बहुत धूप आती थी। वैसे भी हर घर में पौधे तो होने ही चाहिए।”
“पहले बहुत धूप कैसे आती थी?” राहुल हैरान था।
“बेटा, पहले हमारे घर के सभी ओर हमारे घर जैसे एक मंजिला मकान ही थे। फिर शहर से लोग आने लगे। उन्होंने एक-एक कर गरीब लोगों के कई घर खरीद लिए तथा हमारे एक ओर चार मंजिला इमारत बना ली। फिर ऐसे ही हमारे दूसरी ओर भी ऊँची इमारत बन गई।”
“और फिर पीछे की तरफ भी ऊँची बिल्डिंग बन गई, है ना?” राहुल ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा।
“हाँ… हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया।” सम्पत लाल जी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
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जैसा अन्न वैसा मन
भोजन के परिवर्तन से भी स्वभाव बदल जाता है। एक कहानी है—एक साधु किसी एक घर में ठहरा हुआ था। वहां भोजन किया। कुछ ही समय पश्चात उसकी दृष्टि आलमारी में रखे हार पर पड़ी। उसके मन में हार को चुराने की भावना जाग उठी। उसने हार को चुराकर अपने पास रख लिया। और-इसके बाद ही विकृत विचार उसके मन में आने शुरू हो गए।
अचानक ही साधु को वमन हुआ।

जो भोजन उसने खाया था, वह सारा का सारा निकल गया। ज्यों ही साधु को भोजन का वमन हुआ, उसे भान हुआ कि उसने चोरी कर कितना बड़ा पाप कर डाला। तत्काल उसने हार को मूल स्थान पर रख दिया। अनुताप किया, पश्चाताप किया। भोजन उस चोरी का कारण बना। भोजन निकला और भाव बदल गया।


कहने का अर्थ यह कि भाव ही स्वभाव बनता है। मन में एक विचार उत्पन्न होता है। यही विचार जब रूढ़ होता जाता है, तब स्वभाव बन जाता है। इसीलिए प्रायश्चित की प्रक्रिया होती है कि जब कोई बुरा विचार आए तो तत्काल प्रायश्चित कर उसका शोधन कर डालो।

उसे मन से निकाल दो। यदि प्रायश्चित के द्वारा उसका शोधन नहीं किया, तो वह ग्रंथि बन जाएगी। जब तक वह ग्रंथि मन में बनी रहेगी, तब तक वह सताती रहेगी। बुरे भाव का शोधन करते रहें, ताकि वह स्वभाव न बन जाए। जब वह सघन हो जाता है, जम जाता है, तब प्रतिक्रिया शुरू कर देता है। इसलिए भाव को बदलने का बहुत अच्छा साधन है—प्रायश्चित्त। तत्काल उस भाव को मन से निकाल देना, जिससे कि वह ग्रंथि न बने।
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बुद्धि की क्षमता
अकबर का दूत ईरान गया। शाह को अभिवादन कर बोला, "शाहनवाज! आप पूनम के चांद हैं और मेरे बादशाह दूज के चांद हैं।" ईरान का शाह बहुत प्रसन्न हुआ। अकबर का दूत अकेला नहीं था, साथ में और भी व्यक्ति थे। उन्हें चुगली करने का सूत्र मिल गया। सब पुन: हिन्दुस्तान आए। चुगलखोरों ने अकबर से कहा, "शहंशाह! आपके दूत ने ईरान के शाह को पूनम का चांद कहा और आपको दूज का चांद बतलाया। कितनी बड़ी तौहीन है!"

अकबर गुस्से में आ गया। अकबर का आवेश बढ़ा और उसने दूत को मृत्युदंड की सजा दे दी। दूत सामने आया। उसने पूछा, जहांपनाह! मुझ बेकसूर को मौत की सजा क्यों दी गई? अकबर ने कहा, "तूने मुझे नीचा दिखाया है। ईरान के शाह के समक्ष तूने मेरी इज्जत को मिट्टी में मिला दिया।" दूत में बुद्धि की क्षमता थी। उसने शांतभाव से कहा, "जहांपनाह! मैं समझता हूं कि आपको ठीक बताया नहीं गया।

जहांपनाह! मेरे कहने में बहुत बड़ा रहस्य था। मैंने शाह को पूनम का चांद बताया। आप जानते हैं, पूनम का चांद वहीं रूक जाता है, वह आगे बढ़ नहीं सकता। दूज का चांद सदा बढ़ता रहता है। ईरान का शाह पूनम का चांद बन गया। अब उसके और बढ़ने की गुंजाइश नहीं है।"अकबर दूत की युक्ति पर प्रसन्न हो उठा। उसका मृत्युदंड माफ कर उसे प्रचुर पुरस्कार से सम्मानित किया।

अर्थ यह कि जिस व्यक्ति में समता रहती है, वह कभी विषमता में नहीं जाता। समताशून्य व्यक्ति विषमताओं को पालता है।
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मैं क़तरा होकर भी तूफां से जंग लेता हूं ! मेरा बचना समंदर की जिम्मेदारी है !!
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत ! यह एक चिराग कई आंधियों पर भारी है !!
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