21-01-2015, 06:49 PM | #21 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
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21-01-2015, 07:42 PM | #22 | |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
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सूत्र पसंद करने के लिये आपका आभारी हूँ, दीपू जी.
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21-01-2015, 10:42 PM | #23 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
शायद किसी को भली/बुरी लगे...लेकिन रजनीश जी शायद मुझसे शत प्रतिशत सहमत होंगे।...यह की विदेशी/पाश्चात्य सोच ईससे बिलकुल उल्टी या बहुत अलग है।
लेकिन ईसका यह मतलब नहीं की हम दूध के धुले हुएं है, हम में कई बदी बाकी है जो हमें मिल के दूर करनी है।
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22-01-2015, 08:12 AM | #24 | |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
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आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतः (ऋग्वेद) (Let noble thoughts come to us from every side) |
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22-01-2015, 08:18 AM | #25 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
व्यक्तित्व के शत्रु
लोभ आभार: हंसराज सुज्ञ मोह वश दृव्यादि पर मूर्च्छा, ममत्व एवं तृष्णा अर्थात् असंतोष रूप मन के परिणाम को ‘लोभ’ कहते है. लालच, प्रलोभन, तृष्णा, लालसा, असंयम के साथ ही अनियंत्रित एषणा (अदम्य इच्छायें), अभिलाषा, कामना, इच्छा आदि लोभ के ही स्वरूप है. परिग्रह, संग्रहवृत्ति, अदम्य आकांक्षा, कर्पणता, प्रतिस्पर्धा, प्रमाद आदि लोभ के ही भाव है. धन-दृव्य व भौतिक पदार्थों सहित, कामनाओं की प्रप्ति के लिए असंतुष्ट रहना लोभवृत्ति है। ‘लोभ’ की दुर्भावना से मनुष्य में हमेशा और अधिक पाने की चाहत बनी रहती है। लोभ वश उनके जीवन के समस्त कार्य, समय, प्रयास, चिंतन, शक्ति और संघर्ष केवल स्वयं के हित साधने में ही लगे रहते है. इस तरह लोभ, स्वार्थ को महाबली बना देता है.
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22-01-2015, 08:59 AM | #26 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
व्यक्तित्व के शत्रु / लोभ
आईए देखते है महापुरूषों के सद्वचनों में लोभ का स्वरूप………. “लोभो व्यसन-मंदिरम्.” (योग-सार) – लोभ अनिष्ट प्रवृतियों का मूल स्थान है. “लोभ मूलानि पापानि.” (उपदेश माला) – लोभ पाप का मूल है. “अध्यात्मविदो मूर्च्छाम् परिग्रह वर्णयन्ति निश्चयतः .” मूर्च्छा भाव (लोभ वृति) ही निश्चय में परिग्रह है ऐसा अध्यात्मविद् कहते है. “त्याग यह नहीं कि मोटे और खुरदरे वस्त्र पहन लिए जायें और सूखी रोटीखायी जाये, त्याग तो यह है कि अपनी इच्छा अभिलाषा और तृष्णा को जीता जाये।“ - सुफियान सौरी
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22-01-2015, 09:06 AM | #27 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
व्यक्तित्व के शत्रु / लोभ
अभिलाषा सब दुखों का मूल है। – बुद्ध विचित्र बात है कि सुख की अभिलाषा मेरे दुःख का एक अंश है। - खलील जिब्रान बुढ़ापा रूप को, आशा धैर्य को, मृत्यु प्राण को, क्रोध श्री को, काम लज्जा को हरता है परंतु अभिमान सब को हर लेता है। - विदुर नीति क्रोध को क्षमा से, विरोध को अनुरोध से, घृणा को दया से, द्वेष को प्रेम से और हिंसा को अहिंसा की भावना से जीतो। – दयानंद सरस्वती लोभ धैर्य को खा जाता है और व्यक्ति का आगत विपत्तियों पर ध्यान नहीं जाता. यह ईमान का शत्रु है और व्यक्ति को नैतिक बने रहने नहीं देता. लोभ सभी दुष्कर्मों का आश्रय है. यह मनुष्य को सारे बुरे कार्यों में प्रवृत रखता है.
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25-01-2015, 03:34 PM | #28 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
लोभ व्यक्तित्व का वो शत्रु है रजनीश जी जो जब भी इन्सान के जीवन में आता है तब सबसे पहले तो समाज में से इंसान का अच्छा नाम ओहदा जो होता है उसे खो देता है लोभ के नुक्सान कई हैं जबकि लाभ कोई नही होते. लोभ की वजह से इंसान अच्छे बुरे का ज्ञान खो देता है और वो कार्य कर डालते हैं जो खुद के लिए जरा भी ठीक नही होते ..
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25-01-2015, 07:15 PM | #29 |
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Re: व्यक्तित्व के शत्रु
आपका बहुत बहुत धन्यवाद, पुष्पा सोनी जी. आपने उपरोक्त उपरोक्त पोस्टों में व्यक्त किये गए विचारों के सार को समझते हुये बड़े सुंदर शब्दों में अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है. लोभ जैसे व्यक्तित्व के बड़े शत्रु से बचना अत्यंत आवश्यक है. एक व्यक्ति के लिए तथा पूरे राष्ट्र के चहुँ मुखी विकास के लिए इन शब्दों पर अमल करना जरुरी है.
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