14-12-2010, 09:38 AM | #21 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला ने खेला जुआं) … मुल्ला नसरुद्दीन ने अपना बटुआ निकाला। जरूरत के लिए पच्चीस तंके छोड़कर बाक़ी निकाल लिए। ताँबे के थाल में चाँदी के सिक्के खनखनाकर गिरे और चमकने लगे। ऊँचे दाँवों का खेल शुरू हो गया। .....उसके आगे ) मुल्ला नसरुद्दीन के ख्याली पुलाव अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाजार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। अब वह तीन-तीन कारख़ाने ख़रीद सकता था। उसने यही निश्चय कर लिया। मैं चार दुकानें ख़रीदूँगा। एक कुम्हारा की, एक जीनसाज़, की, एक दर्जी को और एक मोची की। हर दुकान में दो-दो कारीगर रखूँगा। मेरा काम केवल रुपया वसूल करना होगा। दो साल में मैं रईस बन जाऊँगा। ऐसा मकान ख़रीदूँगा, जिसके बाग़ में फव्वारे होंगे। हर जगह सोने के पिंजरे लटकाऊँगा। उनमें गाने वाली चिड़ियाँ रहा करेंगी और दो-शायद तीन बीवियाँ भी रखूँगा। मेरी हर बीवी के तीन-तीन बेटे होंगे। ऐसे ही सुनहरे विचारों की नदी में डूबता-उतराता वह गधे पर बैठा चला जा रहा था। अचानक गधे ने लगाम ढोली पाकर मालिक के विचारों में खोये रहने का लाभ उठाया। जैसे ही वह छोटे से पुल के पास पहुँचा, अन्य गधों की तरह सीधे पुल पर चलने की अपेक्षा उसने एक ओर को थोड़ा-सा दौड़कर खाई में पार छलाँग लगा दी। और जब मेरे बेटे बड़े हो जाएँगे तो मैं उन्हें एक साथ बुलाकर उनसे कहूँगा-मुल्ला नसरुद्दीन के विचार दौड़ रहे थे कि अचानक वह सोचने लगा- मैं हवा में क्यों उड़ रहा हूँ। क्या अल्लाह ने मुझ फ़रिश्ता बनाकर मेरे पंख लगा दिए हैं? दूसरे ही पल उसे इतने तारे दिखाई दिए कि वह समझ गया कि उसके एक भी पंख नहीं है। गुलेल के ढेले की तरह वह जी़न से लगभग दस हाथ उछला और सड़क पर जा गिरा। जब वह कराहते हुए उठा तो दोस्ताना ढंग से कान खड़े किए उसका गधा उसके पास आ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर भोलापन था। लगता था जैसे वह फिर से जी़न पर बैठने की दावत दे रहा हो। क्रोध से काँपती आवाज़ में मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया, ‘अरे तू, तुझे मेरे ही नहीं, मेरे बाप-दादा के भी गुनाहों की सजा के बदले भेजा गया है। इस्लामी इन्साफ़ के अनुसार किसी भी इन्सान को केवल अपने गुनाहों के लिए इतनी सख्त़ सज़ा नहीं मिल सकती। अबे झींगुर और लकड़बग्घे की औलाद।’ लेकिन एक अधटूटी दीवार के साये में कुछ दूर बैठे लोगों की भीड़ को देखकर वह एकदम चुप हो गया। गालियाँ उसके होंठों में ही रह गईं। उसे ख़याल आया कि जो आदमी ऐसे मजा़किया और बेइज्ज़ती की हालत में जमीन पर जा पड़ा हो और लोग उसे देख रहे हों, उसे खुद हँसना चाहिए। वह उन आदमियों की ओर आँख मारकर अपने सफ़ेद दाँत दिखाते हुए हँसने लगा- ‘वाह, मैंने कितनी बढ़िया उड़ान भरी!’ उसने हँसी की आवाज़ में जोर से कहा, ‘बताओ न, मैंने कितनी कलाबाज़ियाँ खाई?’ मुझे खुद तक को गिनने का वक्त़ मिला नहीं। अरे शैतान-! हँसते हुए उसने गधे को थपथपाया। हालांकि जी चाह रहा था कि उसकी डटकर मरम्मत करे। लेकिन हँसते हुए कहने लगा, ‘यह जानवर ही ऐसा है, इसे ऐसी ही शरारतें सूझती रहती हैं। मेरी नज़रें दूसरी और घूमी नहीं कि इसे कोई-न-कोई शरारत सूझी।’ |
14-12-2010, 09:41 AM | #22 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन 16
(पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला नसरुद्दीन के ख्याली पुलाव) … अक्लमंदी से भरे इस उसूल को याद करके कि उन लोगों से दूर रहना चाहिए, जो यह जानते हैं कि तुम्हारा रुपया कहाँ रखा है, मुल्ला नसरुद्दीन उस कहवाख़ाने पर नहीं रुका और फौरन बाजार की ओर बढ़ गया। बीच-बीच में वह मुड़कर यह देखता जाता था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा है, क्योंकि जुआरियों और कहवाख़ाने के मालिक के चेहरों पर उन्हें सज्जनता दिखाई नहीं दी थी। .....उसके आगे ) गरीबों का मसीहा बना मुल्ला मुल्ला नसरुद्दीन खुलकर हँसने लगा। लेकिन उसे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उसकी हँसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। वे लोग सिर झुकाए, ग़मगीन चेहरे लिए ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें गोद में बच्चे लिए चुपचाप रोती रहीं। ‘जरूर कुछ गड़बड़ है!’ उसने सोचा और उन लोगों की ओर चल दिया। उसने सफ़ेद बालों और सूखे चेहरे वाले एक बूढ़े से पूछा, ‘क्या हुआ है बुजुर्गवार! बताइए ना? मुझे न मुस्कान दिखाई दे रही है और न हँसी ही सुनाई दे रही है। ये औरतें क्यों रो रही हैं? इस गर्मी में आप धूल भरी सड़क पर क्यों बैठे हैं? क्या यह अच्छा न होता कि आप लोग अपने घरों की ठंडी छाँह में आराम करते?’ ‘घरों में बैठना उन्हीं के लिए अच्छा है जिनके पास घर हों। बूढे ने दुःख भरी आवाज़ में कहा, ‘ऐ मुसाफि़र, मुझसे मत पूछ। हमारी तकलीफ़े बहुत ज्*यादा हैं। तू किसी भी तरह हमारी मदद नहीं कर सकता। रही मेरी बात, सो मैं बूढ़ा हूँ। अल्लाह से दुआ माँग रहा हूँ कि मुझे जल्द उठा ले।’ ‘आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हैं?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने झि़ड़कते हुए कहा, ‘मर्दों को इस तरह नहीं सोचना चाहिए। अपनी परेशानी मुझे बताइए। मेरी ग़रीबों जैसी शक्ल पर मत जाइए। कौन जानता है कि मैं आपकी कोई मदद कर सकूँ।’ मेरी कहानी बहुत छोटी है। अभी सिर्फ़ एक घंटे पहले सूद़खोर जाफ़र अमीर दो सिपाहियों के साथ हमारी गली से गुजरा। मुझ पर उसका क़र्ज़ है। रक़म चुकाने की कल आखि़री तारीख़ है। उन्होंने मुझे घर से निकाल दिया, कल वह मेरी सारी जायदाद, घर, बग़ीचा, ढोर-डंगर, अंगूर की बेलें-सब कुछ बेच देगा। बूढ़े की आँखें आँसुओं से तर हो गईं। उसकी आवाज काँपने लगी। ‘क्या आप पर बहुत कर्ज़ है?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने पूछा। ‘मुझे उसे ढाई सौ तंके देने हैं।’ ‘ढाई सौ तंके?’ मुल्ला नसरुद्दीन के मुँह से निकला, ‘ढाई सौ तंके की मामूली सी रक़म के लिए भी भला कोई इन्सान मरना चाहेगा? आप ज्यादा अफ़सोस न करें।’ यह कहकर वह गधे की ओर पलटा और जी़न से थैले खोलने लगा। ‘मेरे बुजुर्ग दोस्त, ये रहे ढाई सौ तंके। उस सूदख़ोर को वापस कर दीजिए और लात मारकर घर से निकाल दीजिए। और फिर ज़िंदगी के बाक़ी दिन चैन से गुज़ारिए।’ चाँदी के सिक्कों को खनखनाहट सुनकर उस पूरे झुंड में जान सी पड़ गई।’ बूढ़ा आँखों में हैरानी, अहसान और आँसू लिए मुल्ला नसरुद्दीन की ओर देखता रह गया। ‘देखा आपने...इस पर भी आप अपनी परेशानी मुझे बता नहीं रहे थे।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने आख़िरी सिक्का गिनते हुए कहा। वह सोचता जा रहा था, ‘कोई हर्ज नहीं। न सही आठ करीगर, सात ही रख लूँगा। ये भी कुल काफ़ी हैं।’ अचानक बूढ़े की बग़ल में बैठी एक औरत मुल्ला नसरुद्दीन के पैरों पर जा गिरी और जो़र-जो़र से रोते हुए उसने अपना बच्चा उसकी ओर बढ़ा दिया। ‘देखिए, यह बीमार है? इसके होंठ सूख रहे हैं। चेहरा जल रहा है, बेचारा बच्चा, नन्हा-सा बच्चा सड़क पर ही दम तोड़ देगा। हाय, मुझे भी घर से निकाल दिया है।’ उसके सुबकियाँ भरते हुए बताया। मुल्ला नसरुद्दीन ने बच्चे के सूखे खुले-पतले चेहरे को देखा। उसने पतले हाथ देखे, जिनसे रोशनी गुज़र रही थी। फिर उसने आसपास बैठे लोगों के चेहरों को देखा। दुःख की लकीरों और झर्रियों से भरे चेहरों और लगातार रोने के कारण धुँधली पड़ी आँखों को देखकर उसे लगा जैसे किसी ने उसके सीने में छुरा भोंक दिया हो। उसका गला भर आया। क्रोध से उसका चेहरा तमतमा उठा। ‘मैं विधवा हूँ। छह महीने बीते मेरे शौहर चल बसे। उसे सूदखो़र के दो सौ तंके देने थे। का़नून के मुताबिक अब वह क़र्ज मुझे चुकाना है।’ औरत ने कहा। ‘लो, ये दो सौ तंके और घर जाओ। बच्चे के सिर पर ठंडे पानी की पट्टी रखो। और सुनो ये पचास तंके और लेती जाओ। किसी हकीम को बुलाकर इसे दवा दिलवाओ।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा और सोचने लगा, ‘छह कारीगरों से भी मैं अच्छी तरह काम चला लूँगा।’ तभी एक भारी-भरकम संगतराश उसके पैरों में आ गिरा। अगले ही दिन उसका पूरा परिवार गुलामों की तरह बेचा जाने वाला था। उसे जाफ़र को चार सौ तंके देने थे। ‘चलो पाँच कारीगर ही सही।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उन्हें काफ़ी रक़म दी। उसे कोई हिचक नहीं हुई। उसके थैले में अब कुल पाँच सौ तंके बचे थे। तभी उसकी नजर एक आदमी पर पड़ी, जो अकेला एक और बैठा था। उसने मदद नहीं माँगी थी। लेकिन उसके चेहरे पर परेशानी और दुःख स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। |
14-12-2010, 09:43 AM | #24 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन-17
पिछले बार आपने पढ़ाः गरीबों का मसीहा बना मुल्ला) … मुल्ला नसरुद्दीन खुलकर हँसने लगा। लेकिन उसे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उसकी हँसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। वे लोग सिर झुकाए, ग़मगीन चेहरे लिए ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें गोद में बच्चे लिए चुपचाप रोती रहीं। ‘जरूर कुछ गड़बड़ है!’ उसने सोचा और उन लोगों की ओर चल दिया।.....उसके आगे ) मुल्ला बना मसीहा मुल्ला नसरुद्दीन ने पुकारकर कहा, ‘सुनो भाई, अगर तुम्हें सूदख़ोर का कर्ज़ नहीं देना तो तुम वहाँ क्यों बैठे हो?’ ‘कर्ज़ मुझ पर भी है।’ उस आदमी ने भर्राए गले से कहा, ‘कल मुझे ज़ंजीरों में जकड़कर गुलामों के बाजा़र में बेचने के लिए ले जाया जाएगा।’ ‘लेकिन तुम चुपचाप क्यों बैठे रहे?’ ‘ऐ मेहरबान और दानी मुसाफिर, मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो? हो सकता है तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो और ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी क़ब्र से उठकर आ गए हो। या फिर ख़लीफा़ हारून रशीद हो। मैंने तुमसे इसलिए मदद नहीं माँगी कि तुम काफ़ी रुपया ख़र्च कर चुके हो। मेरा क़र्ज सबसे ज्यादा है। पाँच सौ तंके। मुझे डर था कि अगर तुमने इतनी बड़ी रक़म मुझे दे दी तो इन औरतों की मदद के लिए कहीं तुम्हारे पास रुपया न बचे।’ ‘तुम बहुत ही भले आदमी हो। लेकिन मैं भी मामूली भला आदमी नहीं हूँ। मेरी भी आत्मा है। मैं कसम खाता हूँ कि तुम कल गुलामों के बाजार में नहीं बिकोगे। फैलाओ अपना दामन।’ और उसने अपने थैले का अंतिम सिक्का तक उसके दामन में उलट दिया। उस आदमी ने मुल्ला नसरुद्दीन को गले से लगाया और आँसूओं से भरा चेहरा उसके सीने पर रख दिया। अचानक लंबी दाढ़ीवाला भारी भरकम संगतराश जो़र से हँस पड़ा- ‘सचमुच आप गधे से बड़े मजे से उछले थे।’ सभी लोग हँसने लगे। ‘हो, हो, हो, हो,’ मुल्ला नसरुद्दीन हँसी के मारे दोहरा हुआ जा रहा था, ‘आप लोग नहीं जानते कि यह गधा है किस किस्म का। यह बड़ा पाजी गधा है।’ ‘नहीं-नहीं, अपने गधे के बारे में ऐसा मत कहिए।’ बीमार बच्चे की माँ बोल उठी, ‘यह दुनिया का सबसे बेशक़ीमती, होशियार और नेक गधा है। इस जैसा न तो कोई गधा हुआ है और न होगा। खाई पार करते समय अगर यह उछला न होता और जी़न पर से आपको फेंक न दिया होता तो आप हमारी ओर देखे बिना ही चुपचाप चले जाते। हमें आपको रोकने की हिम्मत ही न होती।’ ‘ठीक कहती है यह।’ बूढ़े ने कहा, ‘हम सब इस गधे अहसानमंद हैं, जिसकी वजह से हमारे दुख दूर हो गए। सचमुच गधों का ज़ेवर है। यह गधों के बीच हीरे की तरह चमकता है।’ सब लोग गधे की प्रशंसा करने लगे। दिन डूबने वाला था। साये लंबे होते चले जा रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन ने उन लोगों से जाने की इजाजत ली। ‘आपका बहुत-बहुत शुक्रिया आपने हमारी मुसीबतों को समझा।’ सबने झुककर कहा। ‘कैसे न समझता। आज ही मेरे चार कारख़ाने छिन गए हैं, जिनमें आठ होशियार कारीगर काम करते थे। मकान छिन गया है, जिसके बीच में फव्वारे थे। पेड़ों से लटकते सोने की पिंजरों में चिड़िया गाती थीं। आपकी मुसीबत भला मैं कैसे न समझता? ऐ मुसाफ़िर, शुक्रिया के तौर पर भेंट देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। जब मैंने अपना घर छोड़ा था, एक चीज़ अपने साथ लेता आया था। यह है कुरान शरीफ़। इसे तुम ले लो। खुदा करो इस दुनिया में यह तुम्हें रास्ता दिखाने वाली रोशनी बने।’ बूढ़े ने भावुक स्वर में कहा। |
14-12-2010, 09:45 AM | #25 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन-17 का सेस
पिछले बार आपने पढ़ाः गरीबों का मसीहा बना मुल्ला) … मुल्ला नसरुद्दीन खुलकर हँसने लगा। लेकिन उसे यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि उसकी हँसी में कोई भी शामिल नहीं हुआ। वे लोग सिर झुकाए, ग़मगीन चेहरे लिए ख़ामोश बैठे रहे। उनकी औरतें गोद में बच्चे लिए चुपचाप रोती रहीं। ‘जरूर कुछ गड़बड़ है!’ उसने सोचा और उन लोगों की ओर चल दिया।.....उसके आगे ) मुल्ला बना मसीहा मुल्ला नसरुद्दीन ने पुकारकर कहा, ‘सुनो भाई, अगर तुम्हें सूदख़ोर का कर्ज़ नहीं देना तो तुम वहाँ क्यों बैठे हो?’ ‘कर्ज़ मुझ पर भी है।’ उस आदमी ने भर्राए गले से कहा, ‘कल मुझे ज़ंजीरों में जकड़कर गुलामों के बाजा़र में बेचने के लिए ले जाया जाएगा।’ ‘लेकिन तुम चुपचाप क्यों बैठे रहे?’ ‘ऐ मेहरबान और दानी मुसाफिर, मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो? हो सकता है तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो और ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी क़ब्र से उठकर आ गए हो। या फिर ख़लीफा़ हारून रशीद हो। मैंने तुमसे इसलिए मदद नहीं माँगी कि तुम काफ़ी रुपया ख़र्च कर चुके हो। मेरा क़र्ज सबसे ज्यादा है। पाँच सौ तंके। मुझे डर था कि अगर तुमने इतनी बड़ी रक़म मुझे दे दी तो इन औरतों की मदद के लिए कहीं तुम्हारे पास रुपया न बचे।’ ‘तुम बहुत ही भले आदमी हो। लेकिन मैं भी मामूली भला आदमी नहीं हूँ। मेरी भी आत्मा है। मैं कसम खाता हूँ कि तुम कल गुलामों के बाजार में नहीं बिकोगे। फैलाओ अपना दामन।’ और उसने अपने थैले का अंतिम सिक्का तक उसके दामन में उलट दिया। उस आदमी ने मुल्ला नसरुद्दीन को गले से लगाया और आँसूओं से भरा चेहरा उसके सीने पर रख दिया। अचानक लंबी दाढ़ीवाला भारी भरकम संगतराश जो़र से हँस पड़ा- ‘सचमुच आप गधे से बड़े मजे से उछले थे।’ सभी लोग हँसने लगे। ‘हो, हो, हो, हो,’ मुल्ला नसरुद्दीन हँसी के मारे दोहरा हुआ जा रहा था, ‘आप लोग नहीं जानते कि यह गधा है किस किस्म का। यह बड़ा पाजी गधा है।’ ‘नहीं-नहीं, अपने गधे के बारे में ऐसा मत कहिए।’ बीमार बच्चे की माँ बोल उठी, ‘यह दुनिया का सबसे बेशक़ीमती, होशियार और नेक गधा है। इस जैसा न तो कोई गधा हुआ है और न होगा। खाई पार करते समय अगर यह उछला न होता और जी़न पर से आपको फेंक न दिया होता तो आप हमारी ओर देखे बिना ही चुपचाप चले जाते। हमें आपको रोकने की हिम्मत ही न होती।’ ‘ठीक कहती है यह।’ बूढ़े ने कहा, ‘हम सब इस गधे अहसानमंद हैं, जिसकी वजह से हमारे दुख दूर हो गए। सचमुच गधों का ज़ेवर है। यह गधों के बीच हीरे की तरह चमकता है।’ सब लोग गधे की प्रशंसा करने लगे। दिन डूबने वाला था। साये लंबे होते चले जा रहे थे। मुल्ला नसरुद्दीन ने उन लोगों से जाने की इजाजत ली। ‘आपका बहुत-बहुत शुक्रिया आपने हमारी मुसीबतों को समझा।’ सबने झुककर कहा। ‘कैसे न समझता। आज ही मेरे चार कारख़ाने छिन गए हैं, जिनमें आठ होशियार कारीगर काम करते थे। मकान छिन गया है, जिसके बीच में फव्वारे थे। पेड़ों से लटकते सोने की पिंजरों में चिड़िया गाती थीं। आपकी मुसीबत भला मैं कैसे न समझता? ऐ मुसाफ़िर, शुक्रिया के तौर पर भेंट देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। जब मैंने अपना घर छोड़ा था, एक चीज़ अपने साथ लेता आया था। यह है कुरान शरीफ़। इसे तुम ले लो। खुदा करो इस दुनिया में यह तुम्हें रास्ता दिखाने वाली रोशनी बने।’ बूढ़े ने भावुक स्वर में कहा। |
14-12-2010, 09:48 AM | #26 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन-18
पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला बना मसीहा ) … ऐ मेहरबान और दानी मुसाफिर, मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो? हो सकता है तुम फ़क़ीर बहाउद्दीन हो और ग़रीबों की मदद करने के लिए अपनी क़ब्र से उठकर आ गए हो। या फिर ख़लीफा़ हारून रशीद हो। मैंने तुमसे इसलिए मदद नहीं माँगी कि तुम काफ़ी रुपया ख़र्च कर चुके हो। मेरा क़र्ज सबसे ज्यादा है।’ .....उसके आगे ) मुल्ला की दरियादिली मुल्ला नसरुद्दीन के लिए धार्मिक किताबें बेकार थीं। लेकिन बूढे के दिल को ठेस न पहुँचे, इसलिए उसने किताब ले ली। किताब को उसने जी़न से लगे थैले में रखा और गधे पर सवार हो गया। ‘तुम्हारा नाम? तुम्हारा नाम क्या है?’ कई लोग एक साथ पूछने लगे, ‘अपना नाम तो बताते जाओ। ताकि नमाज पढ़ते वक्त़ तुम्हारे लिए दुआ माँग सकें।’ आप लोगों को मेरा नाम जानने की कोई जरूरत नहीं। सच्ची नेकी के लिए शोहरत की जरूरत नहीं होती। रहा दुआ माँगने का सवाल, सो अल्लाह के बहुत से फ़रिश्ते हैं, जो लोगों के नेक कामों की ख़बर उसे देते रहते हैं। अगर फ़रिश्ते आलसी और लापरवाह हुए और नर्म बादलों में सोते रहे, उन्होंने इस दुनिया के पास और नापाक कामों का हिसाब न रखा तो आपकी इबादत का कोई असर नहीं होगा।’ बूढ़ा चौंककर मुल्ला नसरुद्दीन को घूरने लगा। ‘अलविदा!’ खुदा करे तुम अमन-चैन से रहो।’ इस दुआ के साथ मुल्ला नसरुद्दीन सड़क के मोड़ पर पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया। अंत में बूढ़े ने खा़मोशी भंग करते हुए गंभीर आवाज़ में कहा, ‘सारी दुनिया में केवल एक ही आदमी ऐसा है, जो यह काम कर सकता है। जिसकी रूह की रोशनी और गर्मी से ग़रीबों और मजलूमों को राहत मिलती है। और वह इन्सान है हमारा...।’ ‘ख़बरदार, जुबान बंद करो,’ दूसरे आदमी ने उसे जल्दी से डाँटा, ‘क्या तुम भूल गए हो कि दीवारों के भी कान होते हैं?’ पत्थरों के भी आँखें होती हैं? और सैकड़ों कुत्ते सूँघते-सूँघते उसे तलाश कर सकते हैं।’ ‘तुम सच कहते हो,’ तीसरे आदमी ने कहा, ‘हमें अपना मुँह बंद रखना चाहिए। ऐसा वक्त़ है जबकि वह तलवार की धार पर चल रहा है। जरा़-सा भी धक्का उसके लिए खतरनाक बन सकता है।’ बीमार बच्चे की माँ बोली, ‘भले ही लोग मेरी जुबान खींच लें लेकिन मैं उसका नाम नहीं लूँगी।’ ‘मैं भी चुप रहूँगी।’ दूसरी औरत ने कहा, ‘मैं भले ही मर जाऊँ लेकिन ऐसी गल़ती नहीं करूँगी, जो उसके गले का फंदा बन जाए।’ संगतराश चुप रहा। उसकी अक्ल कुछ मोटी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यदि वह मुसाफ़िर कसाई या गोश्त बेचने वाला नहीं है तो कुत्ते उसे सूँघकर कैसे तलाश कर लेंगे? अगर वह रस्से पर चलने वाला नट है तो उसका नाम लेने में क्या हर्ज है? उसने जो़र से नथुने फटकारे, गहरी साँस भरी और निश्चय किया कि इस मामले में वह और ज़्यादा नहीं सोचेगा। वरना वह पागल हो जाएगा। इस बीच मुल्ला नसरुद्दीन काफ़ी दूर जा चुका था। लेकिन उसकी आँखों के आगे अब भी उन ग़रीबों के मुरझाए चेहरे नाच रहे थे। बीमार बच्चे की ओर उसके सूखे होठों तथा तमतमाए गालों की उसे बराबर याद आ रही थी। उसकी आँखों के आगे उस सफेद बालों वाले बूढ़े की तस्वीर नाच रही थी, जिसे उसके घर से निकाल दिया गया था। वह क्रोध से भर उठा और गधे पर अधिक देर तक बैठा न रह सका। कूदकर नीचे आ गया और गधे के साथ-साथ चलते हुए ठोकरों से रास्ते के पत्थरों को हटाने लगा। ‘सूदख़ोरों के सरदार ठहर जा, मैं तुझे देख लूँगा।’ वह बड़बड़ा रहा था। उसकी आँखों में शैतानी चमक थी। ‘एक न एक दिन तेरी मेरी मुलाक़ात ज़रूर होगी, तब तेरी शामत आएगी। अमीर, तू काँप और थर्रा, क्योंकि मैं मुल्ला नसरुद्दीन बुखारा में आ पहुँचा हूँ।’ मक्कार और शैतान जोको, तुमने दुखी जनता का ख़ून चूसा है। लालची लकड़बग्घो, घिनौने गीदड़ो, तुम्हारी दाल हमेशा नहीं गलेगी। सूदख़ोर जाफ़र, तेरे नाम पर लानत बरसे। मैं तुझसे उन तमाम दुखों और मुसीबतों का हिसाब ज़रूर चुकाऊँगा, जो तू ग़रीबों पर लादता रहा है।’ |
14-12-2010, 09:50 AM | #27 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
दरियादिली का सफर-19
पिछले बार आपने पढ़ाः मुल्ला की दरियादिली मुल्ला नसरुद्दीन के लिए धार्मिक किताबें बेकार थीं। लेकिन बूढे के दिल को ठेस न पहुँचे, इसलिए उसने किताब ले ली। किताब को उसने जी़न से लगे थैले में रखा और गधे पर सवार हो गया। ‘तुम्हारा नाम? तुम्हारा नाम क्या है?’ कई लोग एक साथ पूछने लगे, ‘अपना नाम तो बताते जाओ। ताकि नमाज पढ़ते वक्त़ तुम्हारे लिए दुआ माँग सकें।’ .....उसके आगे ) दरियादिली का सफर अपने वतन में मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी का दिन बहुत सारी घटनाओं और बेचैनियों से भरा हुआ सिद्ध हुआ। वह बेहद थका हुआ था। वह किसी ऐसी जगह की तलाश में था, जहाँ एकांत हो और वह आराम कर सके। एक तालाब के किनारे उसने लोगों की भारी भीड़ देखी और लंबी साँस भरकर कहा, ‘लगता है, आज मुझे आराम मिलेगा। यहाँ ज़रूर कुछ गड़बड़ है।’ तालाब सड़क से थोड़ी दूर था। वह सीधा अपने रास्ते जा सकता था। लेकिन वह उन लोगों में से नहीं था, जो किसी भी लड़ाई-झगड़े में कूदने का मौक़ा हाथ से जाने देते हैं। इतने वर्षों से साथ रहने के कारण गधा भी अपने मालिक की आदतों से परिचित हो गया था। वह अपने आप तालाब की ओर मुड़ गया। ‘क्या बात है भाईयों? क्या यहाँ किसी का खून हो गया है? कोई लुट गया है?’ भीड़ में गधे को लेकर जाते हुए वह चिल्लाया, ‘जगह खाली करो, अलग हटो।’ तालाब के किनारे पहुँचकर मुल्ला नसरुद्दीन ने एक विचित्र दृश्य देखा। चिकनी मिट्टी और काई से भरे तालाब में एक आदमी डूब रहा था। वह आदमी बीच-बीच में सतह पर आता लेकिन फिर डूब जाता। कई लोग उसे बाहर खींचने के लिए बार-बार हाथ बढ़ा रहे थे। ‘हाथ बढ़ाओ-इधर-यहाँ-अपना हाथ दो।’ वे चिल्ला रहे थे। लेकिन ऐसा लगता था कि डूबता हुआ आदमी उन लोगों की बातें नहीं सुन रहा है। वह पानी से ऊपर आता और फिर डूब जाता। इस दृश्य को देखकर मुल्ला नसरुद्दीन सोचने लगा, ‘बड़ी अजीब बात है! इसका क्या कारण हो सकता है? यह आदमी अपना हाथ क्यों नहीं बढ़ा रहा है? हो सकता है यह कोई चतुर गो़ताख़ोर हो, और शर्त लगाकर गो़ते लगा रहा हो। यदि यह बात है तो वह अपनी खिलअत क्यों पहने हुए है?’ तभी डूबने वाला एक बार फिर से पाने की सतह पर आया और फिर डूब गया। पानी में रहने का समय हर बार पहले अधिक था। ‘तू यहीं ठहर,’ मुल्ला नसरुद्दीन ने गधे से उतरते हुए कहा, ‘पास जाकर देखूँ, क्या बात है।’ डूबने वाला फिर पानी के भीतर पहुँच चुका था। इस बार वह इतनी देर तक पानी में रहा कि किनारे पर खड़े लोग उसे मरा समझकर उसके लिए दुआ माँगने लगे। अचानक वह फिर दिखाई दिया। ‘यहाँ, इधर-अपना हाथ दो-हमें हाथ दो।’ लोग चिल्ला उठे। उन्होंने अपने हाथ बढ़ाए। लेकिन वह उनकी ओर सूनी आँखों से देखता रहा और फिर चुपचाप पानी में समा गया। ‘अरे बेवकूफ़ों, उसके रेशमी साफ़े और की़मती खिलअत को देखकर तुम्हें समझ लेना चाहिए कि यह कोई सूदख़ोर या अफसर है। तुम लोग सूदख़ोरों और अफसरों के तौर-तरीक़ों को नहीं जानते कि उन्हें पानी से किस तरह निकालना चाहिए।’ मुल्ला नसरुद्दीन चिल्लाया। ‘तुम जानते हो तो निकालो उसे बाहर। वह पानी के ऊपर आ गया है। उसे बाहर खींच लो।’ भीड़ से कई आवाज़ें उठीं। ‘क्या तुमने किसी सूदख़ोर या अफसर को कभी किसी को कुछ देते देखा है?’ अरे जाहिलो, याद रखो ये लोग किसी को कुछ देते नहीं हैं, सिर्फ़ लेते हैं।’ |
15-12-2010, 07:52 AM | #28 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
मुल्ला नसरुद्दीन की दास्तान – 20
पिछले बार आपने पढ़ाः दरियादिली का सफर एक तालाब के किनारे उसने लोगों की भारी भीड़ देखी और लंबी साँस भरकर कहा, ‘लगता है, आज मुझे आराम मिलेगा। यहाँ ज़रूर कुछ गड़बड़ है।’ तालाब सड़क से थोड़ी दूर था। वह सीधा अपने रास्ते जा सकता था। लेकिन वह उन लोगों में से नहीं था, जो किसी भी लड़ाई-झगड़े में कूदने का मौक़ा हाथ से जाने देते हैं। .....उसके आगे ) मुल्ला ने बचाई सूदखोर की जान ‘अरे, वह फिर पानी में चला गया।’ ‘पानी भी इतनी असानी से सूदखो़र या अफसर को कबूल नहीं करेगा। वह उससे बचने की पूरी-पूरी कोशिश करेगा।’ मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा और इंतजार करने लगा। कुछ देर बाद डूबता आदमी फिर पानी की सतह पर दिखाई दिया। उस आदमी ने अकड़ के साथ मुल्ला के हाथ को थाम लिया। उसकी पकड़ के दर्द से मुल्ला कराह उठा। वह कुछ देर बिना हिले-डुले किनारे पर पड़ा रहा। वहीं खड़े लुहार ने नसरुद्दीन से कहा-‘लेकिन तुमने इसे बचाकर ठीक नहीं किया।’ मुल्ला नसरुद्दीन आश्चर्य से उसे देखता रह गया, ‘मैं तुम्हारी बात समझ नहीं पाया लुहार भाई। क्या किसी इन्सान को यह बात शोभा देती है कि वह डूबते हुए इन्सान के पास से गुज़र जाए और उसकी मदद के लिए हाथ न बढ़ाए?’ ‘तो तुम्हारे ख़याल से सभी साँपों, लक़ड़बग्घों और ज़हरीलें जानवरों को बचा लेना चाहिए?’ लुहार चिल्लाया। फिर अचानक उसके दिमाग़ में कोई बात कौंध उठी। उसने पूछा, ‘क्या तुम यहीं के रहने वाले हो?’ ‘नहीं।’ इसलिए तुम नहीं जानते कि तुमने जिसे बचाया है वह इन्सानों के साथ बुरा करने वाला और उनका खू़न चूसने वाला आदमी है। बुखारा में रहनेवाला हर तीसरा आदमी उसकी वजह से कराहता और रोता है।’ एक भयानक विचार मुल्ला नसरुद्दीन के दिमाग़ में कौंध उठा, ‘लुहार भाई, मुझे उसका नाम तो बताओ।’ तुमने सूदख़ोर जाफ़र को बचाया है। खुदा करे उसकी यह जिंदगी बिगड़े, आकबत बिगड़े। उसकी चौदह पीढ़ियाँ घावों से सड़ें। उनके घावों में कीड़े पड़ें।’ ‘क्या कहा लुहार भाई? लानत है मुझ पर। मेरे इन हाथों ने उस साँप को डूबने से बचाया है। सचमुच इस गुनाह की तौबा नहीं। लानत है मुझ पर।’ लुहार पर उसके दुख का असर पड़ा। वह कुछ नर्म होकर बोला, ‘धीरज से काम लो मुसाफ़िर, अब कुछ नहीं हो सकता। गधे पर सवार होकर तुम उस वक्त़ उधर से गुज़रे ही क्यों? तुम्हारा गधा सड़क पर अड़ क्यों न गया! तब सूदख़ोर को डूबने का पूरा-पूरा मौका मिल जाता।’ यह गधा अगर सड़क पर अड़ता तो इसलिए कि जिससे लगे थैलों से रुपया निकल जाए। जब ये भरे होते हैं तो इस बहुत भार लगता है। लेकिन यदि सूदख़ोर को बचाकर अपने ऊपर लानत बुलाने की बात है तो विश्वास करो यह मुझे वक्त़ से पहले वहाँ पहुँचा देगा। ‘यह ठीक है। लेकिन जो हो चुका है, उसे अब बदला नहीं जा सकता। उस सूदखो़र को कोई फिर से पानी में धकेल नहीं सकता।’ मुल्ला नसरुद्दीन को जोश आ गया, ‘लुहार भाई, मैं कसम खाता हूँ, उस सूदखो़र जाफ़र को डुबाकर ही दम लूँगा। इसी तालाब में डुबाऊँगा। जब तुम बाजार में यह खबर सुनो तो समझ लेना कि यहाँ के निवासियों का जो अपराध मैंने किया था, उसका बदला चुका दिया।’ |
09-11-2012, 09:54 PM | #30 |
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Re: मुल्ला नसरुद्दीन की कहानी
सुन्दर बहुत सुन्दर प्रस्तुति ........
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