28-12-2012, 09:24 PM | #21 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
संजय उवाच एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत । सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥ भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् । उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥२५॥ सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! प्रमादविजयी अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर श्रीकृष्णने (उस) उत्तम रथको दोनों सेनाओंके बीचमें ला खडा किया । भीष्म, द्रोणाचार्य तथा सभी राजाओंके सामने आकर उन्होंने कहा कि “हे पार्थ ! युद्धके लिये इकट्ठे हुए इन कौरवोंको देख” । |
28-12-2012, 09:25 PM | #22 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखीं स्तथा ॥२६॥ श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि। तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥२७॥ कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् । अर्जुन उवाच दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥२८॥ सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति । वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥२९॥ इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताउ-चाचोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुह्रदोंको भी देखा । उन उपस्थित सभी संबंधीयोंको देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले, “हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी उस स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अड्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सुखा जा रहा है, तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं रोमांच हो रहा है । |
28-12-2012, 09:25 PM | #23 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥३०॥ हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; मैं स्वयंको संभालनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ । |
28-12-2012, 09:25 PM | #24 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥३१॥ हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी अशुभ देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजनसमुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता । |
28-12-2012, 09:26 PM | #25 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥३२॥ हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य या सुखोंकी कामना रखता हूँ । हे गोविन्द ! हमें एसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ? |
28-12-2012, 09:27 PM | #26 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च । त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥३३॥ जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिकी कामना होती, वे सब तो धन और जीवनकी आशा छोडकर यहाँ युद्धमें खडे हैं । |
28-12-2012, 09:27 PM | #27 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः । मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥३४॥ गुरुजन, ताउ-चाचे, पुत्रादि और दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं । |
28-12-2012, 09:28 PM | #28 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन। अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥ हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके राज्यके लिये तो प्रश्न ही कहाँ है ? |
28-12-2012, 09:29 PM | #29 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन । पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥३६॥ हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा । |
28-12-2012, 09:30 PM | #30 |
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Re: श्रीमद् भगवद् गीता
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्। स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥ इस लिए हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही स्वजनोंको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ? |
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