My Hindi Forum

Go Back   My Hindi Forum > Art & Literature > Hindi Literature
Home Rules Facebook Register FAQ Community

Reply
 
Thread Tools Display Modes
Old 10-01-2011, 12:16 PM   #21
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

एकाएक अपने साहब को मरा हुआ देख और अपनी रक्षा के लिए किसी को आज्ञा देते न देखकर सरकारी सिपाही डटकर भी निश्चेष्ट हो गए। इस अवसर पर तेजस्वी डाकुओं ने अपने सिपाहियों को हताहत कर आगे बढ़, गाड़ी पर रखे हुए खजाने पर अधिकार जमा लिया। सरकारी फौजी टुकड़ी भयभीत होकर भागी।

अंत में वह व्यक्ति सामने आया जो दल का नेतृत्व करता था और पहाड़ी पर खड़ा था। उसने आकर भवानंद को गले लगा लिया। भवानंद ने कहा-भाई जीवानंद! तुम्हारा नाम सार्थक हो?

इसके बाद अपहृत धन को यथास्थान भेजने का भार जीवानंद पर रहा। वह अपने अनुचरों के साथ खजाना लेकर शीघ्र ही किसी अन्य स्थान में चले गए। भवानंद अकेले खड़े रह गए।

बैलगाड़ी पर से कूदकर एक सिपाही की तलवार छीनकर महेंद्र सिंह ने भी चाहा कि युद्ध में योग दें। लेकिन इसी समय उन्हें प्रत्यक्ष दिखाई दिया कि युद्ध में लगा हुआ दल और कुछ नहीं, डाकुओं का दल है-धन छीनने के लिए इन लोगों ने सिपाहियों पर आक्रमण किया है। यह विचार कर महेंद्र युद्ध से विरत हो दूर जा खड़े हुए। उन्होंने सोचा कि डाकुओं का साथ देने से उन्हें भी दुराचार का भागी बनना पड़ेगा। वे तलवार फेंककर धीरे-धीरे वह स्थान त्यागकर जा रहे थे, इसी समय भवानंद उसके पास आकर खड़े हो गए। महेंद्र ने पूछा-महाशय! आप कौन हैं?

भवानंद ने कहा-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन है?

महेंद्र-मेरा कुछ प्रयोजन है- आज आपके द्वारा मैं विशेष उपकृत हुआ हूं।

भवानन्द-मुझे ऐसा नहीं था कि तुम्हें इतना ज्ञान है। हाथों में हथियार रहते हुए भी तुम युद्ध से विरत रहे… जमींदारों के लड़के घी-दूध का श्राद्ध करना तो जानते है, लेकिन काम के समय बंदर बन जाते हैं!

भवानंद की बात समाप्त होते-न-होते महेंद्र घृणा के साथ कहा-यह तो अपराध है, डकैती है

भवानंद ने कहा- हां डकैती! हम लोगों के द्वारा तुम्हारा कुछ उपकार हुआ था, साथ ही और भी कुछ उपकार कर देने की इच्छा है!

महेंद्र-तुमने मेरा कुछ उपकार अवश्य किया है लेकिन और क्या उपकार करोगे? फिर डाकुओं द्वारा उपकृत होने के बदले अनुपकृत होना ही अच्छा है।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:17 PM   #22
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

भवानंद-उपकार ग्रहण न करो, यह तुम्हारी इच्छा है। यदि इच्छा हो तो मेरे साथ आओ, तुम्हारी स्त्री-कन्या से मुलाकात करा दूंगा!

महेंद्र पलटकर खड़े हो गए, बोले-क्या कहा?

भवानंद ने इसका कोई जवाब न देकर पैर बढ़ाया।

अंत में महेंद्र भी साथ-साथ आने लगे, साथ ही मन-ही-मन सोचते जाते थे-यह सब कैसे डाकू हैं?….

जिस जगह जंगल के समीप राज-पथ पर खड़े होकर ब्रह्मचारी ने चारों ओर देखा था उसी राह से इन लोगों को गुजरना था। उस पहाड़ी के निकट पहुंचने पर सिपाहियों ने देखा कि एक शिलाखंड पर जंगल के किनारे एक पुरुष खड़ा है। हलकी चांदनी में उस पुरुष का काला शरीर चमकता हुआ देखकर सिपाही बोला–देखो एक साला और यहां खड़ा है। इस पर उसे पकड़ने के लिए एक आदमी दौड़ा, लेकिन वह आदमी वहीं खड़ा रहा, भागा नहीं- पकड़कर हवलदार के पास ले आने पर भी वह व्यक्ति कुछ न बोला। हवलदार ने कहा-इस साले के सिर पर गठरी लादो! सिपाहियों के एक भारी गठरी देने पर उसने भी सिर पर ले ली। तब हवलदार पीछे पलटकर गाड़ी के साथ चला। इसी समय एकाएक पिस्तौल चलने की आवाज हुई- हवलदार माथे में गोली खाकर गिर पड़ा।

इसी साले ने हवलदार को मारा है! कहकर एक सिपाही ने उस मोटिया का हाथ पकड़ लिया। मोटिये के हाथ में तब तक पिस्तौल थी। मोटिये ने अपने सिर का बोझ फेंककर और तुरंत पलटकर उस सिपाही के माथे पर आघात किया, सिपाही का माथा फट गया और जमीन पर गिर पड़ा। इसी समय हरि! हरि! हरि! पुकारता दो सौ व्यक्तियों ने आकर सिपाहियों को घेर लिया। सिपाही गोरे साहब के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। साहब भी डाका पड़ा है- विचार कर तुरंत गाड़ी के पास पहुंचा और सिपाहियों को चौकोर खड़े होने की आज्ञा दी। अंग्रेजों का नशा विपद् के समय नहीं रहता। सिपाहियों के उस तरह खड़े होते ही दूसरी आज्ञा से उन्होंने अपनी-अपनी बंदूकें संभाली। इसी समय एकाएक साहब की कमर की तलवार किसी ने छीन ली और फौरन उसने एक बार में साहब का सिर भुट्टे की तरह उड़ा दिया- साहब का धड़ घोड़े से गिरा। फायर करने का हुक्म वह दे न सका। तब लोगों ने देखा कि एक व्यक्ति गाड़ी पर हाथ में नंगी तलवार लिए हुए ललकार रहा है-मारो, सिपाहियों को मारो…..मारो! साथ ही हरि हरि! का जय नाद भी करता जाता है। वह व्यक्ति और कोई नहीं भवानंद था।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:18 PM   #23
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

एकाएक अपने साहब को मरा हुआ देख और अपनी रक्षा के लिए किसी को आज्ञा देते न देखकर सरकारी सिपाही डटकर भी निश्चेष्ट हो गए। इस अवसर पर तेजस्वी डाकुओं ने अपने सिपाहियों को हताहत कर आगे बढ़, गाड़ी पर रखे हुए खजाने पर अधिकार जमा लिया। सरकारी फौजी टुकड़ी भयभीत होकर भागी।

अंत में वह व्यक्ति सामने आया जो दल का नेतृत्व करता था और पहाड़ी पर खड़ा था। उसने आकर भवानंद को गले लगा लिया। भवानंद ने कहा-भाई जीवानंद! तुम्हारा नाम सार्थक हो?

इसके बाद अपहृत धन को यथास्थान भेजने का भार जीवानंद पर रहा। वह अपने अनुचरों के साथ खजाना लेकर शीघ्र ही किसी अन्य स्थान में चले गए। भवानंद अकेले खड़े रह गए।

बैलगाड़ी पर से कूदकर एक सिपाही की तलवार छीनकर महेंद्र सिंह ने भी चाहा कि युद्ध में योग दें। लेकिन इसी समय उन्हें प्रत्यक्ष दिखाई दिया कि युद्ध में लगा हुआ दल और कुछ नहीं, डाकुओं का दल है-धन छीनने के लिए इन लोगों ने सिपाहियों पर आक्रमण किया है। यह विचार कर महेंद्र युद्ध से विरत हो दूर जा खड़े हुए। उन्होंने सोचा कि डाकुओं का साथ देने से उन्हें भी दुराचार का भागी बनना पड़ेगा। वे तलवार फेंककर धीरे-धीरे वह स्थान त्यागकर जा रहे थे, इसी समय भवानंद उसके पास आकर खड़े हो गए। महेंद्र ने पूछा-महाशय! आप कौन हैं?

भवानंद ने कहा-इससे तुम्हें क्या प्रयोजन है?

महेंद्र-मेरा कुछ प्रयोजन है- आज आपके द्वारा मैं विशेष उपकृत हुआ हूं।

भवानन्द-मुझे ऐसा नहीं था कि तुम्हें इतना ज्ञान है। हाथों में हथियार रहते हुए भी तुम युद्ध से विरत रहे… जमींदारों के लड़के घी-दूध का श्राद्ध करना तो जानते है, लेकिन काम के समय बंदर बन जाते हैं!

भवानंद की बात समाप्त होते-न-होते महेंद्र घृणा के साथ कहा-यह तो अपराध है, डकैती है

भवानंद ने कहा- हां डकैती! हम लोगों के द्वारा तुम्हारा कुछ उपकार हुआ था, साथ ही और भी कुछ उपकार कर देने की इच्छा है!

महेंद्र-तुमने मेरा कुछ उपकार अवश्य किया है लेकिन और क्या उपकार करोगे? फिर डाकुओं द्वारा उपकृत होने के बदले अनुपकृत होना ही अच्छा है।

भवानंद-उपकार ग्रहण न करो, यह तुम्हारी इच्छा है। यदि इच्छा हो तो मेरे साथ आओ, तुम्हारी स्त्री-कन्या से मुलाकात करा दूंगा!
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:19 PM   #24
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

महेंद्र पलटकर खड़े हो गए, बोले-क्या कहा?

भवानंद ने इसका कोई जवाब न देकर पैर बढ़ाया।

अंत में महेंद्र भी साथ-साथ आने लगे, साथ ही मन-ही-मन सोचते जाते थे-यह सब कैसे डाकू हैं?….

उस चांदनी रात में दोनों ही जंगल पार करते हुए चले जा रहे थे। महेंद्र चुप, शांत, गर्वित और कुछ कौतूहल में भी थे।

सहसा भवानंद ने भिन्न रूप रूप धारण कर लिया। वे अब स्थित-मूर्ति, धीर-प्रवृत्ति सन्यासी न रहे- वह रणनिपुण वीरमूर्ति, अंग्रेज सेनाध्यक्ष का सिर काटने वाला रुद्ररूप अब न रहा। अभी जिस गर्वित भाव से वे महेंद्र का तिरस्कार कर रहे थे, अब भवानंद वह न थे- मानो ज्योत्सनामयी, शांतिमयी पृथिवी की तरु-कानन-नद-नदीमय शोभा निरखकर उसके चित्त में विशेष परिवर्तन हो गया हो। चन्द्रोदय होने पर समुद्र मानों हंस उठा। भवानंद हंसमुख, मुखर, प्रियसंभाषी बन गए और बातचीत के लिए बहुत बेचैन हो उठे। भवानंद ने बातचीत करने के अनेक उपाय रचे, लेकिन महेन्द्र चुप ही रहे। तब निरुपाय होकर भवानंद ने गाना शुरू किया-

वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम्……।

महेंद्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आए। वे कुछ समझ न सके- सुजलां, सुफलां, मलयजशीतलां, शस्यश्यामला माता कौन है? उन्होंने पूछा-यह माता कौन है?

कोई उत्तर न देकर भवानंद गाते रहे-

शुभ्रज्योत्सना पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्। …

महेंद्र बोले-यह तो देश है, यह तो मां नहीं है।

भवानंद ने कहा -हमलोग दूसरी किसी मां को नहीं मानते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी- हमारी माता, जन्मभूमि ही हमारी जननी है- हमारे न मां है, न पिता है, न भाई है- कुछ नहीं है, स्त्री भी नहीं, घर भी नहीं, मकान भी नहीं, हमारी अगर कोई है तो वही सुजला, सुफला, मलयजसमीरण-शीतला, शस्यश्यामला…

अब महेंद्र ने समझकर कहा -तो फिर गाओ!

भवानंद फिर गाने लगे-
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:20 PM   #25
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्……।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्…..
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे….
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥ वन्दे मातरम्..
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:21 PM   #26
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

आनन्दमठ भाग-4
सबेरा हो गया है। वह जनहीन कानन अब तक अंधकारमय और शब्दहीन था। अब आलोकमय प्रात: काल में आनंदमय कानन के आनंद-मठ सत्यानंद स्वामी मृगचर्म पर बैठे हुए संध्या कर रहे है। पास में भी जीवानंद बैठे हैं। ऐसे ही समय महेंद्र को साथ में लिए हुए स्वामी भवानंद वहां उपस्थित हुए। ब्रह्मचारी चुपचाप संध्या में तल्लीन रहे, किसी को कुछ बोलने का साहस न हुआ। इसके बाद संध्या समाप्त हो जाने पर भवानंद और जीवानंद दोनों ने उठकर उनके चरणों में प्रणाम किया, पदधूलि ग्रहण करने के बाद दोनों बैठ गए। सत्यानंद इसी समय भवानंद को इशारे से बाहर बुला ले गए। हम नहीं जानते कि उन लोगों में क्या बातें हुई। कुछ देर बाद उन दोनों के मंदिर में लौट आने पर मंद-मंद मुसकाते हुए ब्रह्मचारी ने महेंद्र से कहा-बेटा! मैं तुम्हारे दु:ख से बहुत दु:खी हूं। केवल उन्हीं दीनबंधु प्रभु की ही कृपा से कल रात तुम्हारी स्त्री और कन्या को किसी तरह बचा सका। यह उन्हीं ब्रह्मचारी ने कल्याणी की रक्षा का सारा वृत्तांत सुना दिया। इसके बाद उन्होंने कहा-चलो वे लोग जहां हैं वहीं तुम्हें ले चलें!

यह कहकर ब्रह्मचारी आगे-आगे और महेंद्र पीछे देवालय के अंदर घुसे। प्रवेश कर महेंद्र ने देखा- बड़ा ही लंबा चौड़ा और ऊंचा कमरा है। इस अरुणोदय काल में जबकि बाहर का जंगल सूर्य के प्रकाश में हीरों के समान चमक रहा है, उस समय भी इस कमरे में प्राय: अंधकार है। घर के अंदर क्या है- पहले तो महेंद्र यह देख न सके, किंतु कुछ देर बाद देखते-देखते उन्हें दिखाई दिया कि एक विराट चतुर्भुज मूर्ति है, शंख-चक्र-गदा-पद्यधारी, कौस्तुभमणि हृदय पर धारण किए, सामने घूमता सुदर्शनचक्र लिए स्थापित है। मधुकैटभ जैसी दो विशाल छिन्नमस्तक मूर्तियां खून से लथपथ सी चित्रित सामने पड़ी है। बाएं लक्ष्मी आलुलायित-कुंतला शतदल-मालामण्डिता, भयत्रस्त की तरह खड़ी हैं। दाहिने सरस्वती पुस्तक, वीणा और मूर्तिमयी राग-रागिनी आदि से घिरी हुई स्तवन कर रही है। विष्णु की गोद में एक मोहिनी मूर्ति-लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक सुंदरी, उनसे भी अधिक ऐश्वर्यमयी- अंकित है। गंधर्व, किन्नर, यक्ष, राक्षसगण उनकी पूजा कर रहे हैं। ब्रह्मचारी ने अतीव गंभीर, अतीव मधुर स्वर में महेंद्र से पूछा-सब कुछ देख रहे हो?
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:22 PM   #27
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

महेंद्र ने उत्तर दिया-देख रहा हूं

ब्रह्मचारी-विष्णु की गोद में कौन हैं, देखते हो?

महेंद्र-देखा, कौन हैं वह?

ब्रह्मचारी -मां!

महेंद्र -यह मां कौन है?

ब्रह्मचारी ने उत्तर दिया -हम जिनकी संतान हैं।

महेंद्र -कौन है वह?

ब्रह्मचारी -समय पर पहचान जाओगे। बोलो, वंदे मातरम्! अब चलो, आगे चलो!

ब्रह्मचारी अब महेंद्र को एक दूसरे कमरे में ले गए। वहां जाकर महेंद्र ने देखा- एक अद्भुत शोभा-संपन्न, सर्वाभरणभूषित जगद्धात्री की मूर्ति विराजमान है। महेंद्र ने पूछा-यह कौन हैं?

ब्रह्मचारी-मां, जो वहां थी।

महेंद्र-यह कौन हैं?

ब्रह्मचारी -इन्होंने यह हाथी, सिंह आदि वन्य पशुओं को पैरों से रौंदकर उनके आवास-स्थान पर अपना पद्यासन स्थापित किया। ये सर्वालंकार-परिभूषिता हास्यमयी सुंदरी है- यही बालसूर्य के स्वर्णिम आलोक आदि ऐश्वर्यो की अधिष्ठात्री हैं- इन्हें प्रणाम करो!

महेंद्र ने भक्तिभाव से जगद्धात्री-रुपिणी मातृभूमि-भारतमाता को प्रणाम किया। तब ब्रह्मचारी ने उन्हें एक अंधेरी सुरंग दिखाकर कहा-इस राह से आओ! ब्रह्मचारी स्वयं आगे-आगे चले। महेंद्र भयभीत चित्त से पीछे-पीछे चल रहे थे। भूगर्भ की अंधेरी कोठरी में न जाने कहां से हलका उजाला आ रहा था। उस क्षीण आलोक में उन्हें एक काली मूर्ति दिखाई दी।

ब्रह्मचारी ने कहा-देखो अब मां का कैसा स्वरूप है!

महेंद्र ने कहा-काली?
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:22 PM   #28
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

ब्रह्मचारी-हां मां काली- अंधकार से घिरी हुई कालिमामयी समय हरनेवाली है इसीलिए नगन् हैं। आज देश चारों तरफ श्मशान हो रहा है, इसलिए मां कंकालमालिनी है- अपने शिव को अपने ही पैरों तले रौंद रही हैं। हाय मां! ब्रह्मचारी की आंखें से आंसू की धारा-बहने लगी।

आनंद-वन से बाहर निकल आने पर कुछ दूर तक राह चलने में तो जंगल उनके एक बाजू रहा। जंगल की बगल से ही शायद वह राह गई है। एक जगह जंगल में से ही एक छोटी नदी कलकल कर बहती है। जल बहुत ही साफ है, लेकिन देखने पर जंगल की छाया से जल भी काला दिखाई देता है। नदी के दोनों बाजू सघन बड़े-बड़े वृक्ष मनोरम छाया किए हुए हैं, विभिन्न पक्षी उन पेड़ों पर बैठे कलरव कर रहे हैं। उनका कलरव-कूजन, नदी की कलकल-ध्वनि से मिलकर अपूर्व श्रुतिमधुर जान पड़ता है। वैसे ही वृक्ष के रंग से नदी-जल का रंग भी वैसा ही झलक रहा है। कल्याणी का मन भी शायद उस रंग में मिल गया। कल्याणी नदी तट के एक वृक्ष से लगकर बैठ गई। उन्होंने अपने पति को भी बैठने को कहा। कल्याणी अपने पति के हाथों को अपने हाथों में लिए बैठी रही। फिर बोली-तुम्हें आज बहुत उदास देखती हूं। विपद जो आयी थी, उससे तो उद्धार मिल गया है, अब इतना दु:ख क्यों?

महेंद्र ने एक ठंढी सांस लेकर कहा-मैं अब अपने आपे में नहीं हूं। मैं क्या करूं- कुछ समझ में नहीं आता।…

कल्याणी-क्यों?

महेंद्र-तुम्हारे खो जाने पर मेरा क्या हाल हुआ, सुनो!…

यह कहकर महेंद्र ने अपनी सारी कहानी सविस्तार वर्णन कर दी।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:23 PM   #29
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

कल्याणी ने कहा-मुझे भी बड़ी विपदों का सामना करना पड़ा, बहुत तकलीफ उठाई। तुम उन्हें सुनकर क्या करोगे! इतने दु:खों पर भी मुझे कैसे नींद आई थी, कह नहीं सकती- कल आखिर रात भी मैं सोई थी। नींद में मैंने स्वपन् देखा। देखा- नहीं कह सकती, किस पुण्यबल से मैं एक अपूर्व स्थान में पहुंच गई हूं। वहां मिट्टी नहीं है, केवल प्रकाश- अति शीतल- बादल हट जाने पर जैसा प्रकाश रहता है, वैसा ही प्रकाश! वहां मनुष्य नहीं थे, केवल प्रकाशमय मूर्तियां थी, वहां शब्द नहीं होता था, केवल दूर अपूर्व संगीत जैसी ध्वनि सुनाई पड़ती थी। सदाबहार मल्लिका-मालती-गंधराज की अपूर्व सुगंध फैली थी। वहां सबसे ऊंचे दर्शनीय स्थान पर कोई बैठा था, मानो आग में तपा हुआ नील-कमल धधकता हुआ बैठा हो। उसके माथे पर सूर्य के प्रकाश जैसा मुकुट था; उसके चार हाथ थे। उसके दोनों बाजू कौन था, मैं पहचान न सकी, लेकिन कोई स्त्री-मूर्ति थी। लेकिन उनमें इतनी ज्योति, इतना रूप, इतना सौरभ था कि मैं उधर देखते ही विह्वल हो गई- उधर ताक न सकी, देख न सकी कि वे कौन है? उन्हीं चतुर्भुज के सामने एक स्त्री और खड़ी थी- वह भी ज्योतिर्मयी थी, लेकिन चारों तरफ मेघ जैसा छाया था, आभा पूरी तरह दिखाई नहीं देती थी। अस्पष्ट रूप में जान पड़ता था कि वह नारीमूर्ति अति दुर्बल, मर्मपीडि़त, अनन्य-सुंदरी, लेकिन रो रही है। वहां के मंद-सुगंध पवन ने मानों मुझे घुमाते-फिराते वहां चतुर्भुज मूर्ति के सामने ला खड़ा किया। उस मेधमंडिता दुर्बल स्त्री ने मुझे देखकर कहा- यही है, इसी के कारण महेंद्र मेरी गोद में आता नहीं है।….

इसके बाद ही एक अपूर्व वंशी जैसी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी। वह शब्द उन चतुर्भुज का था, उन्होंने मुझे कहा-तुम अपने पति को छोड़कर मेरे पास चली आओ! यह तुम लोगों की मां है महेंद्र इसकी सेवा करेगा। तुम यदि पति के पास रहोगी तो वह इनकी सेवा न कर सकेगा। तुम चली जाओ। मैंने रोकर कहा-पति को छोड़कर मैं कैसे चली आऊं? इसके बाद ही फिर उसी अपूर्व स्वर में उन्होंने कहा-मैं ही स्वामी, मैं ही पुत्र, मैं ही माता, मैं ही पिता और मैं ही कन्या हूं, मेरे पास आओ! मैंने क्या उत्तर दिया, मुझे याद नहीं, लेकिन इसके बाद ही नींद खुल गई। यह कहकर कल्याणी चुप हो रही।

ब्रह्मचारी -हमलोग संतान हैं। अपनी मां के हाथों में अभी केवल अस्त्र रख दिए हैं। बोलो- वन्देमातरम् !

वन्देमातरम्- कहकर महेंद्र ने मां काली को प्रणाम किया।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Old 10-01-2011, 12:23 PM   #30
ABHAY
Exclusive Member
 
ABHAY's Avatar
 
Join Date: Oct 2010
Location: Bihar
Posts: 6,261
Rep Power: 35
ABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud ofABHAY has much to be proud of
Post Re: ~!!आनन्दमठ!!~

अब ब्रह्मचारी ने कहा-इस राह से आओ! यह कहकर वे दूसरी सुरंग में चले। सहसा उन लोगों के सामने प्रात: सूर्य की किरणें चमक उठीं, चारों तरफ मधुर से पक्षी कूंज उठे। सामने देखा, एक संगमर्मर से निर्मित विशाल मंदिर के बीच सुवर्ण-निर्मित दशभुज-प्रतिमा नव-अरूण की किरणा से ज्योतिर्मयी होकर हंस रही हैं। ब्रह्मचारी ने प्रणाम कर कहा-ये हैं मां, जो भविष्यत में उनका रूप होगा। इनके दशभुज दशों दिशाओं में प्रसारित हैं, उनमें नाना आयुधरूप में नाना शक्तियां शोभित हैं। पैरों के नीचे शत्रु दबे हुए हैं, पैरों के निकट वीर-केशरी भी शत्रु-निपीड़न से मगन् है। दिक्भुजा-कहते-कहते सत्यानंद गद्गद् हो रोने लगे-दिक्भुजा- नानाप्रहरणधारिणी, शत्रुविमर्दिनी, वीरेन्द्रपृष्ठविहारिणी, दाहिने लक्ष्मी भाग्यरूपिणी, बाएं वाणी विद्याविज्ञानदायिनी- साथ में शक्ति के आधार कार्तिकेय, कार्यसिद्विरूपी गणेश- आओ, हम दोनों मां को प्रणाम करें! इस पर दोनों ही हाथ जोड़कर माता का रूप निहारते हुए प्रार्थना करने लगे-

सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये ˜यम्बके गौरी नारायणि नमोस्तुते॥

दोनों के भक्ति-भाव से प्रणाम कर चुकने के बाद, भरे हुए गले से महेंद्र ने पूछा- मां की ऐसी मूर्ति कब देखने को मिलेगी?

ब्रह्मचारी ने कहा -जिस दिन मां की सारी सन्तानें एक साथ मां को बुलाएंगी, उसी दिन मां प्रसन्न होंगी।

एकाएक महेंद्र ने पूछा -मेरी स्त्री-कन्या कहां हैं?

ब्रह्मचारी-चलो, देखोगे? चलो!

महेंद्र -उन लोगों से भी एक बार मैं मिलूंगा, इसके बाद उन्हें बिदा कर दूंगा।….

ब्रह्मचारी-क्यों बिदा करोगे?

महेंद्र -मैं भी यह महामंत्र ग्रहण करूंगा!

ब्रह्मचारी -उन्हें कहां विदा करोगे?

महेंद्र ने विचारकर कहा-मेरे धर पर कोई नहीं है, मेरा दूसरा कोई स्थान भी नहीं है। इस महामारी के समय और कहां स्थान मिलेगा।
__________________
Follow on Instagram , Twitter , Facebook, YouTube.
ABHAY is offline   Reply With Quote
Reply

Bookmarks


Posting Rules
You may not post new threads
You may not post replies
You may not post attachments
You may not edit your posts

BB code is On
Smilies are On
[IMG] code is On
HTML code is Off



All times are GMT +5. The time now is 08:06 AM.


Powered by: vBulletin
Copyright ©2000 - 2024, Jelsoft Enterprises Ltd.
MyHindiForum.com is not responsible for the views and opinion of the posters. The posters and only posters shall be liable for any copyright infringement.