18-10-2011, 09:13 PM | #21 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
नींदों में तुमारा ही ख्याल आता है, दर्द कभी एस कदर बढ़ जाता है, आइना देखता हूँ तो चेहरा तुमारा ही नज़र आता है .
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बेहतर सोच ही सफलता की बुनियाद होती है। सही सोच ही इंसान के काम व व्यवहार को भी नियत करती है। |
18-10-2011, 09:13 PM | #22 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
कलि घटा छाने से बादल बरस जाते है,
तुमारी याद आने से हम तरस जाते ही क्या दूर रहकर भी दिल दूर हुआ करते हैं, वो रोते है प्यार में जो मजबूर हुआ करते हैं/
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18-10-2011, 09:14 PM | #23 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
अब आगे से साहित्यकारों से पंगा लेने की जुर्रत ना करें.
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18-10-2011, 09:19 PM | #24 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
जनाब ! झेलने लायक तो बिलकुल हैं ! धन्यवाद !
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दूसरों से ऐसा व्यवहार कतई मत करो, जैसा तुम स्वयं से किया जाना पसंद नहीं करोगे ! - प्रभु यीशु |
18-10-2011, 09:24 PM | #25 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
रेबीज के नये इंजेक्शन की कसम,
किसी कुत्ते में कहां है वह दम, जो भोंकता भी हो, चाटता भी हो, गरियाता भी हो, काटता भी हो, हम तो ऐसे ही थे, और ऐसे ही रहेंगे सनम
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18-10-2011, 09:37 PM | #26 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
अनरुध के पास एक झोपड़ी है
एक घरनी एक छोटा सा बच्चा बच्चे के लिए लाएगा अमरूद घरनी के लिए पाव भर शकरकंद झोपड़ी के सामने बंधे बाछे के लिए लाएगा एक टोकरी घास थोड़ी सी डूब की लत्तरें..... अनरुध सूर्य के साथ उठता है गाँव की नदी की ओर भागता है अनरुध नदी नहीं उलान्घता मानो तीनों लोक हैं उसके लिए उस की पर्णकुटी और उसकी पत्नी और उसका बच्चा और खूंटे से बंधा हुआ बाछा अनरुध सारी दुनिया का चक्कर नहीं लगाएगा उसका पूरा संसार है झोपड़ी से नदी तक पर्णकुटी की परिक्रमा करेगा वह नृत्य के छंद में अनरुध मानो तीनो लोक घूम लेगा।
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18-10-2011, 09:38 PM | #27 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
कविता कोई पत्थर नहीं है
कि आप मारें और सामने वाला हाथ ऊँचे कर दे साफ़ा उतारे और आप के पैरों में रख दे। कविता का असर तन पर नहीं मन पर होता है मन की जंग लगी तलवार को यह पानी दे-दे कर धार देती है उसे धो-पोंछ कर नए संस्कार देती है यह व़क्त के घोड़ों को लगाम और सवारों के लिए काठी का बंदोबस्त करती है यह हथेली पर सरसों नहीं उगाती बल्कि उसे उगाने के लिए ज़मीन का बंदोबस्त करती है।
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18-10-2011, 09:42 PM | #28 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
प्राइवेट बस का ड्राइवर है तो क्या हुआ,
सात साल की बच्ची का पिता तो है! सामने गियर से उपर हुक से लटका रक्खी हैं
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18-10-2011, 09:43 PM | #29 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
कहते कहते होंठ मे छाले निकल गए ,
हाय ! पर मुझको सुनने वाले निकल गए | सोचता था अब कि एक छत मेरे सर पे हो , ये क्या खुदा कि मुहँ के निवाले निकल गए | कोशिशें कि जीत लूँ दुश्मनों के भी दिल देखता हूँ कि चाहने वाले निकल गए | सोंचता हूँ मैं अब चुप ही रहूँ 'अति' , क्या करूँ पर - जुबां के ताले निकल गए | कह तो लूँगा मैं खामोशियों की शायरी , दर्द-ए- दिल मगर, समझने वाले निकल गए | ये कैसा वक्त आ गया है देखिए , खुदा के बन्दों के दिवाले निकल गए | चलो , चलें यहाँ से ऐ मेरे हमसफ़र ! यहाँ से सारे जाने वाले निकल गए | कब्र जब हमने अपनी खुद ही खोद ली , आस्तीन के सांप जो पाले निकल गए | आज कौन जिसको हम अपना कह सकें , अपने सभी गैरों के हवाले निकल गए | ख्वाइश थी आस्मां की मगर मुझको जब मिला , उसमें चमकने वाले सभी सितारे निकल गए |
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18-10-2011, 09:44 PM | #30 |
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Re: अब हमारी कवितायें भी झेलिये.
जो यार देखा नैन भर, दिल की गई चिंता उतर।
ऐसा नहीं कोई अजब, राखे उसे समझाय कर। जब आँख से ओझल भया, तड़पन लगा मेरा जिया। हक्का इलाही क्या किया आँसू चले भर लाय कर। मेरो जो मन तुमने लिया, तुम उठा गम को दिया। तुमने मुझे ऐसा किया जैसा पतंगा आग पर। खुसरो कहे बातें गजब दिल में न लावे कुछ अजब। कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।
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